आकुल-व्याकुल मन के रचनाकार / देवशंकर नवीन
बीसवीं शताब्दी के आठवें दशक में मैथिली में सशक्त सृजन-यात्रा आरम्भ करनेवाली साहसी एवं जुझारू पीढ़ी में विभूति आनन्द का नाम अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। वे सृजनरत तो पहले से ही थे, पर उनकी कविताओं का पहला संकलन ‘डेग’ (1977) शीर्षक से धीरेन्द्र सिंह के साथ प्रकाशित हुआ। उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं — कहानी-संग्रह — ’प्रवेश’ (1979), ‘खापड़ि महक धान’ (1989), ‘काठ’ (2002, वर्ष 2006 के साहित्य अकादेमी सम्मान से सम्मानित), ‘एकटा उड़ल फुर्र’ (2018), ‘खोपसँ बाहर’ (2019), ‘जिद्द जबर्दस्ती आ जिनगी’ (2022), ‘कथा 21’ (2022), ‘स्तब्ध’ (2022), ‘इस्स!’ (2017), ‘भक्’ (2018); ‘स्मरणक संग’ (2004, साहित्यिक संस्मरणों का संग्रह); कविता-संग्रह--‘उपक्रम’ (1984), ‘पुनर्नवा होइत ओ छौंड़ी’ (1992), ‘नेहाइ पर स्वप्न’ (1999); गीत-गजल-संग्रह — ‘उठा रहल घोघ तिमिर’ (1981, यह मैथिली में गजलों का पहला संग्रह), ‘झूमि रहल पाथर मन’ (1988); उपन्यास — ‘गाम सुनगैत’ (1982), ‘पराजित-अपराजित’; नाटक — ‘समय संकेत’; आलोचना — ‘ललित आ हुनक कथायात्रा’; सम्पादित — ‘गीतनाद’ (लोक-गीत संग्रह), ‘विद्यापति पदावली’, ‘एकटा छल गोनू झा’ (चरित कथा), ‘कथा-कहिनी’ (लोक-कथा संग्रह), ‘अड़हुल’ (महिला कहानीकारों का कहानी-संकलन); ‘फेर बघुआइ छौ तोरे पर’ उपन्यास अभी अप्रकाशित। बहुविधावादी रचनाकार विभूति आनन्द को पत्रिकाओं के सम्पादन और रंगकर्म में दक्षता हासिल है, वृत्ति से प्राध्यापक हैं...। मैथिली में एक साथ इतनी जगह, इतने रूपों में प्रभावशाली ढंग से क्रियाशील रचनाकारों की संख्या नगण्य है। रचना के स्वभाव और रचनात्मक स्वभाव में वे नवचेतना के पूर्णकालिक कार्यकर्ता जान पड़ते हैं। यद्यपि शताब्दी के अन्तिम दशक में उन्होंने अचानक से अपनी क्रियाशीलता समेटकर रचना और अध्यापन तक सीमित हो गए।
आठवें दशक के अन्तिम चरण से लेकर नवें दशक के प्रायः अन्त तक विभूति मन, वचन, कर्म से जिस तरह क्रियाशील रहे, उसमें ज्वालामुखी का ताप था, कोशी बागमती और गंगा का उद्दाम प्रवाह था, मृगराज की तरह उन्हें स्वशक्ति और जनशक्ति पर आस्था थी, परवर्ती काल के उनके मोहभंग का कारण तो अज्ञात है, पर लेखन उनका कमोबेश सदैव ही क्रियाशील रहा।
पाखण्ड के आवरण, अन्धकार के कोहरे, आतंक के बादल और रूढ़ि की सड़ान्ध का विरोध करते हुए नव-ज्योतिपुंज की स्थापना का संकेत उनके रचनाकर्म का मूल स्वभाव रहा है। रोजगारविहीन जीवन की मनोदशा और जीवन-यापन, सेवानिवृत्ति के बाद शेष-जीवन की दशा, दाम्पत्य और पारिवारिक अन्य सम्बन्धों का गहन पक्ष...अत्यन्त तीक्ष्ण तेवर के साथ उनकी कहानियों और नाटक में प्रकट हुआ है। वस्तुतः निश्छल-निर्विकार, छल-छद्मविहीन जनता सदैव ही राजनीतिज्ञों और व्यवस्थापतियों की वक्र-दृष्टि से अपरिचित रहती है। केन्द्रीय राजनीति और स्थानीय तिकड़मों की जुगलबन्दी को समझ नहीं पाती है। इन खेल-तमाशों के नेपथ्य में हो रहे कुटिल-धन्धों की समझ नहीं हो पाती। किन्तु निस्सहाय हो जाने पर रथ का टूटा पहिया भी, जनता को बहुत सहयोग करती है...ये सारी स्थितियाँ विभूति के उपन्यास, कहानी और नाटक का विषय होती हैं और इन सबकी प्रस्तुति अत्यन्त प्रभावकारी होती है। इन विपरीत परिस्थितियों में भी विभूति के कृति-नायक विजयश्री प्राप्त करते हैं। गाम सुनगैत (उपन्यास), समय संकेत (नाटक) और प्रवेश, खापड़ि महक धान (कथा संग्रह) आदि इसी विजयश्री की गाथा है।
बीसवीं शताब्दी के आठवें दशक का उत्तरार्द्ध भारतीय बुद्धिजीवी के अनुसार किंकर्तव्यविमूढ़ करने की स्थिति थी। इन्दिरा सरकार की तानाशाही भारतीय जनता के सिर पर नंगा नाच कर रही थी। लोकनायक जयप्रकाश इन्दिरा सरकार के विरोध का शंखनाद कर चुके थे और उनके समर्थन में भारतीय छात्र अपने मौलिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए और स्वेच्छाचारिणी सरकार की नृशंसता से मुक्ति के लिए जयप्रकाश जी के नेतृत्व में छात्र आन्दोलन प्रारम्भ कर चुके थे। पूरे देश में कांग्रेस विरोधी वातावरण व्याप्त हो गया था। आम चुनाव हुआ। कांग्रेस की हार हुई और सर्वदलीय संगठन के आयोजन से जो टीम बनी वह भारत की गद्दी पर काबिज हो गई। किन्तु बन्दरबाँट तुरन्त शुरू हो गया। स्वयं लोकनायक की अवमानना हुई और उनके मोहभंग के साथ-साथ सम्पूर्ण भारत की युवाशक्ति मोहभंग का शिकार हो गई। नक्सलबाड़ी आन्दोलन, तेलंगाना के किसान आन्दोलन का प्रभाव मुखरित हो चुका था। इन सारी स्थितियों की अराजक परिणति और सुधारात्मक रवैए का प्रभाव मिथिला के जनमानस पर पड़ा। यद्यपि पूरे देश की स्थिति यही थी, किन्तु अधोमुखी प्रवृत्ति की नकल मिथिला में कुछ अधिक ही फैल जाती है, इसी कारण इन घटनाओं का दुष्प्रभाव तेजी से फैला। इसके सुधार के जो भी संकेत थे, वे रचनाकारों की नजर में उभरे। विभूति उन्हीं रचनाकारों में से एक हैं। इन विपरीत परिस्थितियों में और उससे कुछ पूर्व से भी उनकी गजलें और नवगीत उन स्थितियों को उजागर कर रहे थे। ‘उठा रहल घोघ तिमिर’ मैथिली का और विभूति का भी, पहला गजल संग्रह है, उसमें संकलित गजल की पंक्तियाँ इन परिस्थितियों का चित्र प्रस्तुत करती हैं, जहाँ आशा, प्रेम, घृणा, राग, द्वेष, प्रकाश, अन्धकार, भय, आतंक, साहस, डाँट, फटकार, पाखण्ड, प्रगति कामना — सभी चीजें अपने-अपने अस्तित्व के साथ उपस्थित हैं। और, इस उपस्थिति में हर क्षण कवि प्रगतिकामी, साहसी, आस्थावान, आशावान और जनशक्ति के पक्षधर दिखते हैं। इस सम्पूर्ण विकराल स्थिति को वे गीत-गजल जैसी कोमल रचना में प्रभावी ढंग से व्यक्त कर पाए, यह बात रेखांकित करने की है।
विभूति का रचनाकाल मात्र राजनीतिक कुटिलता, धार्मिक पाखण्ड, असामाजिक तत्त्वों का विकास और सामन्ती अपराध का फल ही नहीं है। उस काल में सबसे अधिक विकृत स्थिति उत्पन्न करने में अहम भूमिका बुद्धिजीवी वर्ग की है, जो इन समस्त समाजविरोधी और जनविरोधी शक्ति के दलाल बन गए और आत्मप्रचार तथा लाभ-लोभ के वशीभूत होकर दानवीय हरकतों का समर्थन देते रहे। विभूति अपने कृति-कर्म में इस वर्ग को भी नंगा करने में अच्छी तरह सफल हुए हैं। ‘झूमि रहल पाथर मोन’ संकलन के नवगीत इस स्थिति के उदाहरण हैं। कविता हो, गीत हो, गजल हो--विभूति का आग्रह किरण, प्रातः सूर्य, उन्माद, पसीना, फूल, खेत, फसल, चूल्हा, अन्न, ढेकी, बसन्त, सुबह, ताप, उष्मा, रश्मि इत्यादि की ओर रहता है, यह आग्रह विभूति की आस्था है। दूसरी ओर अन्धेरा, भूख, उदासी, चिन्ता, श्मशान आदि की चर्चा वे क्रोधावेश में करते हैं, यह चर्चा उसके तिरस्कार के लिए करते हैं।
परम्पराओं से जो कुछ हमलोगों के जीवन में शुद्ध, सौम्य और शान्ति का प्रतीक बना रहा है, सुरक्षा का आधार बनता आ रहा है, वह सब जब अपवित्र हो गया है, तालाब का पानी जब गन्दला हो चुका है, घाट का सारा खरंजा जब टूट चुका है, तब भी विभूति की मान्यता रही कि —
‘थोथा नहीं हुआ है गेहूँ का दाना
भोथरी नहीं हुई है हँसिया की धार
हथौड़े की निहाई-चोट अभी भी बदस्तूर है...’
विभूति का यही विश्वास, यही साहस, समाज के अधिसंख्य को वेदना और पीड़ा से निकाल पाने में सफल होगा, उसे अपने पराक्रम के प्रति सचेत कर पाएगा। समाज में आधुनिकता के आगमन के बाद भी कुछ लोगों की पाखण्डी प्रवृत्ति, आधुनिकता से उत्पन्न विकृति, नवीन शिक्षा पद्धति में आतंकित हुआ बाल मनोविज्ञान, सुशिक्षित पति द्वारा पत्नी का शोषण, स्त्री शोषण का सहजात नैरन्तर्य — सारा कुछ उनकी कृतियों ‘पुनर्नवा होइत ओ छौड़ी’ और ‘नेहाइ पर स्वप्न’ में उतर आया है। बहुविधावादी होने के कारण ही प्रायः उनकी कविता में कथात्मकता और नाटकीयता तथा कहानी में काव्यमयता का समावेश रहता है, किन्तु यह रचना में दोष की तरह नहीं, गुण और वैशिष्ट्य की तरह उपस्थित होता है। यद्यपि संयुक्त क्रियापद और कारक विभक्ति बहुल विशेषण की अधिकता से कहीं-कहीं अर्थ-बाधा उपस्थित होती है, किन्तु उसका परिमाण बहुत कम है। अधिकांश जगहों पर ठेंठ शब्दावली के मुहावरेदार प्रयोग, किताबी और शास्त्रीय शब्दावली से परहेज ने उनकी कविताओं को अत्यधिक उत्कर्ष दिया है —
यह देश आज़ाद हुआ झूठ का प्रचार हुआ
ठौर ठौर सेट किया जाता है आदमी
कहीं खेती के लिए
कहीं निवास के लिए
बेवजह रेत दिया जाता है आदमी —
इस तरह के कवितांश को देखकर कई बार चकित होना पड़ता है। स्वातन्त्र्योत्तरकालीन देश में पुनर्वास योजना पर प्रसंगवश दी गई यह टिप्पणी गम्भीर चोट करती है।
परिवार, समाज और कुटुम्बों की सम्बन्धजन्य भावना, अतीत की स्मृति, भविष्य की चिन्ता, वर्तमान की समझ उनकी कविता का प्राणतत्त्व है और इसी क्रम में अपने उत्कृष्ट दृष्टिबोध का परिचय देते हुए वे बढ़ते चले जाते हैं। अपनी तमाम लम्बी कविताओं में उन्होंने परिवेश का दिलचस्प कोलाज बनाया है। ठौर-ठौर कुछ ही पंक्तियों में, कई-कई कविताएँ उपस्थित हो जाती हैं और अन्त में समग्रता के साथ पूरी कविता का अलग काव्य रस संचरित होती है।
इधर आकर उनका शब्द संस्कार थोड़ा प्रदूषित हुआ है। ठेंठ शब्दों की सुरक्षा के लिए विभूति के रचना संसार को अभिलेखागार माना जाता था, पर इधर के दिनों में इस प्रदूषण का शिकार किस कारण हुए कहना कठिन है।
‘नेहाइ पर स्वप्न’ संग्रह की तमाम कविताएँ कवि के आकुल-व्याकुल मनःस्थिति का मूल चित्र है, दीर्घकाल से धैर्य धारण करते रहने की सूचना है, दीर्घ अवधि के संघर्ष की सूचना है और अब तक अपेक्षित उपलब्धि से दूर रहने की सूचना है कि, जो भी स्वप्न था, वह नेहाइ पर आ गया है, अब सँभलने-सँभालने की स्थिति नहीं है। या तो नेहाइ पर चोट खाते स्वप्न को देखकर व्यथित होते रहिए, या फिर उसी नेहाइ से उछलकर कुछ कीजिए। ...इतना तो तय है कि विभूति की रचना का विश्वास शोर-शराबा, नारेबाजी से अधिक ‘एक्शन’ में है। कहीं भी जोश-खरोश, मारपीट, युद्ध-संघर्ष की बात करते भी हैं, तो उसमें कोई चीख-चिल्लाहट नहीं है। लगता है जैसे कोई पंच, आराम से समझा रहा है। यह बहुत रोचक बात है कि परिवर्तन और प्रगतिकामना से भरे हुए रचनाकार विभूति की कविता एक तरफ बहुत आराम से, बहुत गम्भीरता और शान्ति के साथ समस्त परिवर्तन की बात करती है, तो दूसरी तरफ मैथिलों की उत्कृष्ट परम्परा, पारिवारिक सामाजिक-कौटुम्बिक सम्बन्धों का सौष्ठव, ग्राम्य संस्कृति, पारिवारिक ममत्वपूर्ण स्नेहसूत्र, प्रेमबन्धन के ओर छोर, ग्राम्य कला और लोक-संस्कृति...सबको बचाकर रखना चाहती है। जल्दबाजी में तो कोई भी व्यक्ति इसे रचनाकार का द्वैध कहकर निकल जा सकते हैं, पर यह उतनी जल्दबाजी में दिया जानेवाला निर्णय नहीं है। विभूति का सृजन-संसार सम्भावित मिथिला का संरचनात्मक चित्र है, जहाँ मैथिल और मैथिली अपनी समस्त श्रेष्ठ परम्परा और आवश्यक प्रगति के साथ उपस्थित रहेगी। अपनी सभी रचनाओं में प्रारम्भ से ही वे इस प्रयोग के इच्छुक रहे हैं। उनके सारे गीत, गजल, नाटक, उपन्यास, कथा, कविता इत्यादि इसी प्रयोग का उदाहरण है। अतीत-मोह उन पर हमेशा सवार रहता है, किन्तु इसी कारण उन्हें प्रतिगामी या प्रतिमुखी अथवा प्रत्यावर्तन का कवि नहीं कहा जा सकता। अलग से कहने की आवश्यकता नहीं कि विभूति की कविता घटना, कारण, विन्यास, विचार, परिणति, निर्णय की कविता है। अर्थात् कवि अपनी रचनाओं में इसी तरह विचार करते हुए अन्त में निर्णय सुनाते हैं। ‘नेहाइ पर स्वप्न’ संग्रह एक अर्थ में निर्णय की कविता है। विभूति आनन्द की राय में —
अभी तक माँगकर आग लाते रहने
और
काम चलाते रहने की परिपाटी के विरुद्ध
एक श्वेतपत्र जारी करना होगा —
कि राख के ढेर में सुलगती है चिनगारी
राख बन जाती है आग
और वह, बहुत देर तक टिकी रहती है...