आक्थू / मनोज श्रीवास्तव

Gadya Kosh से
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जैसे ही सूरज की पहली किरणें खिड़कियों के रास्ते कमरे में दाख़िल होतीं, मधुर बाबू उठ बैठते। वह दरवाज़ा खोलकर बाहर आ जाते, अंगड़ाई लेते तथा बेहद मेहनत-मशक्कत और तदबीर से स्वयं द्वारा रची गई किसी कविता की तरह अपनी कोठी को अलग-अलग कोणों से कम-से-कम दस मिनट तक तो निहारते ही रहते जो भोर की सुनहरी किरणों की आभा में ताजमहल से कहीं सुंदर जान पड़ती। तब, उन्हें यह नहीं लगता कि अब वह उस कोठी का हिस्सा रहे ही नहीं। सुबह जागने के बाद अपनी कोठी को सांगोपांग देखने की उनकी यह दिनचर्या उतने साल ही पुरानी है, जितने साल उन्हें इस सर्वेंट क्वार्टर में रहते हुए हो गए हैं।

आज सुबह जब उन्होंने अपना वही उपक्रम दोहराया तो अनायास बह निकले आँसुओं से उनके गाल गीले हो गए और आँसुओं की एक तरल धारा भीतर गले से नीचे भी बहती हुई-सी लगी। वह कई बार की तरह इस बार भी कष्टकर ख़यालों में खो गए। पर, आज पुराने दिनों में विचरण करने का अंदाज़ कुछ अलग ही था। आज उन्हें अपने ताजमहल को बनाने में किए गए हर संघर्ष और आई हर बाधा एवं विपत्ति उनके मनोबल को कुरेद रही थी। उन्हें लगा की उनकी शक्ति अचानक क्षीण होती जा रही है। कोठी की पहली मंजिल बैंक लोन से बनवाने के बाद दूसरी मंजिल का निर्माण उन्होंने बैंक से पर्सनल लोन और भविष्य निधि से ऐडवांस लेकर किया था। हाँ, कुछ दोस्तों से भी कर्ज़ लिया था। इन सारे कर्ज़ों को वह अपनी सरकारी नौकरी से सेवा-निवृत्त होने तक चुकाते रहे।

वह फ़फ़क पड़े। एक अदद मकान को बनवाने में उन्होंने अपनी सारी खुशियों और चैन-सुकून को ही गिरवी रख दिया था। उम्र से पहले अपने बाल सफ़ेद कर डाले थे, दाँत गिरा डाले थे और सेहत की ऐसी की तैसी कर डाली थी। तनख़्वाह का चालीस फ़ीसदी हिस्सा तो बैंकों और दोस्तों से लिए गए कर्ज़ को चुकता करने में ही निपट जाता था; बाकी का कोई बीस फ़ीसदी हिस्सा इन्कम टैक्स अदा करने में चला जाता था। शेष बची हुई चालीस फ़ीसदी तनख्वाह से वह गृहस्थी का खर्चा-बर्चा, बच्चों की पढ़ाई-लिखाई और मेहमानवाज़ी जैसे सुरसा के मुँह बाए जैसे खर्चीले मदों से निपटते थे। उस पर से पत्नी और बच्चों की लताड़–आख़िर, सारे रुपए कहाँ उड़ा डालते हो? रोहिणी बात-बात में फटकार लगाने से बाज नहीं आती थी–”अजी, अब तो अपने माँ-बाप और भाई-बहनों पर फ़िज़ूलखर्ची बंद कर दो। उनका भुक्खड़ पेट कभी भी भरने वाला नहीं है। तुम जितना दोगे, उन भिखारियों की भीख मांगने वाली छिपली उतनी ही बड़ी होती जाएगी।” पर, मधुर बाबू को पता है, उन्होंने कोई चालीस वर्ष पहले शादी के बाद से ही अपने माँ-बाप और भाई-बहनों को कितना पराया कर दिया है! ग़ैरों से भी ग़ैर बना दिया है। बस, सारा ध्यान अपने बीवी-बच्चों पर ही केंद्रित कर दिया था। बेशक, परिवार को यहाँ तक लाने में उन्हें कैसे-कैसे पापड़ बेलने पड़े हैं? कितने यत्नपूर्वक बीवी-बच्चों का पालन-पोषण किया है? ख़ुद के ऊपर उनका खर्चा ही क्या था? बस, आफ़िस में दो टाइम की चाय और ट्रेन-बस का किराया। पैसे बचाने के लिए तो वह ज़्यादातर आफ़िस से रेलवे स्टेशन का तीन मील का रास्ता पैदल ही तय करके ट्रेन पकड़ने प्लेटफ़ार्म पर पहुंचते थे। थोड़ी दूरी के लिए उन्होंने बस या ऑटो रिक्शा विरले ही कभी किया होगा। अगर स्टेशन पहुंचने से पहले थक जाते थे तो पालिका बाजार के घास वाले पार्क पर दो घड़ी सुस्ता लेते थे।

वह अपनी कोठी को निहारते हुए भाव-विह्वल हो गए और टींसते घुटनों को सहलाते हुए अपने कमरे में आ गए; पहले बिस्तर पर पड़ी सिलवटों को समेटा, फिर उस पर बैठ गए। तदनन्तर, बैंकों को चुन-चुन कर गालियाँ देने लगे जो उन जैसे ज़रूरतमंदों का सारा खून ब्याज के रूप में चूस लेते हैं। जितना मूलधन होता है, उसका डेढ़गुना ब्याज के रूप में निचोड़ लेते हैं। वह अपने हाथों पर आई झुर्रियों को देखते हुए भुनभुना उठे, “सरकार भी कितनी निर्दयी है जो उन जैसे बाबुओं से भारी-भरकम इन्कम टैक्स वसूलती है जबकि वह सेठ-महाजनों, बनियों और कारोबारियों से बतौर टैक्स एक भी पैसा वसूलने का ज़ोखिम नहीं उठाती है। यह ज़ोखिम वह उठाए भी तो कैसे उठाए? ये सेठ-बनिए तो जैसे उनके लाडले दामाद हों। हाँ, चुनावों के समय सियासी पार्टियाँ इन्हीं महाजनों और कारोबारियों से पैसे लेकर चुनाव लड़ने का भारी-भरकम खर्चा उठाती हैं; बदले में, सत्ता में आते ही उनके लिए रियायतों का जखीरा खोल देती हैं–हाँ, भई! हमने अपनी आँखें तुम्हारी तरफ़ से मूंद ली हैं; अब हम जब तक सिंहासन पर विराजमान हैं, तुम जनता को जितना लूट-खसोट सकते हो, लूट-खसोट लो।

बहरहाल, घंटाघर के अग्रवाल समोसेवाले की कमाई तो देखिए–रोज़ कम-से-कम पचास हजार का मुनाफ़ा तो कमाता ही होगा वह। लेकिन, टैक्स के रूप में वह सरकार को क्या देता होगा–बस, खींस निपोरकर ठेंगा दिखा देता होगा! गुड़मंडी के कोनेवाले दुकानदार की आमदनी रोज़ाना एक लाख से क्या कम होगी? उसे हर हफ़्ते बोरे में आठ-दस लाख रुपए लेकर घंटाघर वाले बड़ौदा बैंक में जमा करते हुए देखा है। हाँ, मधुर बाबू ने अपनी आँखों से कई बार उसे वहाँ मोटी रकम जमा करते तब देखा है जबकि वह गृहस्थी के तेल-फ़ुलेल खरीदने के लिए उसी बैंक से हजार-दो हजार निकालने जाते थे। आज भी उस बनिए को ग्राहकों के सामने सरकारी बाबुओं की एक लाख बुराई करते हुए सुना जा सकता है। जबकि आलम यह है कि सरकारी दफ़्तरों में बेतहाशा छंटनी होने और नई भर्तियाँ न होने के चलते कर्मचारियों की इतनी ही किल्लत पड़ गई है, जितनी की हर साल सितंबर माह से प्याज और लहसुन की किल्लत शुरू हो जाती है। एक-एक कर्मचारी चार-चार बाबुओं के बराबर काम करने को अन्यथा आत्महत्या करने को मज़बूर है। रिटायर्मेंट के बाद तो वह फ़ंड में जमा-पूँजी को बाल-बच्चों के शादी-ब्याह में खर्च कर देता है। बुढ़ापे के लिए उसके पास क्या बचता है–बस, बाबाजी का ठुल्लू।

मधुर बाबू जैसे ही बिस्तरे पर लेटकर बंद-आँख अतीत के झरोखों से कुछ और देखने का मन बना रहे थे कि उन्हें लगा कि सोकर उठने के बाद उनके ज़िस्म को कुछ चीज़ों की तलब-सी लगी हुई है। उन्होंने बिना समय खोए दाँत ब्रश किया; फिर सुराही से एक गिलास पानी निकालकर जैसे ही एक घूँट हलक के नीचे उतारी, उन्हें कुछ याद आया–नीने मुँह खराई मार जाएगी। तब एक ग्लूकोज़ बिस्कुट निकाला; फिर, बचत करने की अपनी पुरानी आदत के चलते, उसे वापस पैकेट में रख दिया; तदनंतर, डिब्बे में रखे गुड़ की एक डलिया निकाली जिसे मुँह में डालते हुए गिलास का सारा पानी गले से नीचे उतार दिया। फिर, यह बड़बड़ाते हुए कि बढ़ने दो शुगर का लेविल, जितनी ज़ल्दी रोहिणी के पास पहुंच जाऊँ–अच्छा होगा, रात को सोते वक़्त कुर्ते से टूटकर निकले बटन को टाँकने के लिए चश्मा टटोलने लगे जिसे उन्होंने अंदर आते समय कहीं रख दिया था। तभी उन्हें अहसास हुआ कि अरे, मैं तो चश्मे पर ही बैठा हुआ हूँ। वह सहम उठे कि कहीं चश्मा टूट तो नहीं गया। पर, चश्मा साबूत था; बस, सत्तर से पैंतालीस किलो हो गए बदन के बोझ से कमानी सिर्फ़ थोड़ी-सी टेढ़ी हो गई थी, जिसे उन्होंने यह भुनभुनाते हुए कि ग़फ़्फ़ार मार्केट से पैंतालीस रुपए में दो साल पहले खरीदा गया यह चायनीज़ चश्मा सचमुच कितना मज़बूत है, आहिस्ता से ऐंठकर सीधा किया फिर उसे दोनों कमानी से बंधी हुई डोरी के जरिए गले में माला की तरह पहन लिया। वह सोचने लगे, हमें तो चीनी वस्तुओं का शुक्र-गुज़ार होना चाहिए कि उनके सस्ते सामानों की स्पर्धा में हमारे देशी सामान सस्ते हो गए हैं; अन्यथा, मामूली इलेक्ट्रॉनिक के सामान भी यहाँ इतने महंगे मिलते थे कि आम आदमी उन्हें खरीदने की हिम्मत नहीं जुटा पाता था। अब तो गरीब से गरीब आदमी भी अपने शौक पूरे करने की ज़ुर्रत कर सकता है। ऐसे हैं इस देश के बेईमान उत्पादक जो फ़टॆहाल जनता से अपने उत्पादों के लिए बीसगुना कीमत वसूलते हैं! वर्ना, क्या मज़ाल कि सस्ते चीनी उत्पाद यहाँ के बाज़ार में हावी हो जाते।

मधुर बाबू कोई दस मिनट से सूई में धागा डालने की कोशिश में लगे हुए थे। पर, अभी तक वह इस अभियान में फ़तह नहीं कर पाए थे। आख़िरकार, उन्हें शिकस्त ही मिली और उन्होंने बटन के बजाय सेफ़्टी पिन से ही काम चलाया। तभी कामवाली मन्नी बाई द्वारा आकर स्टूल पर चाय रखे जाने से उनका ध्यान भंग हुआ। वह बड़बड़ा उठे–’चलो, गुड़ से नाश्ता तो कर ही लिया है; अब, चाय भी पी लेते हैं।’

चाय की पहली घूंट सिप करते ही, उन्होंने ऐसे मुंह बिचकाया जैसेकि वह फटे दूध का बसियाया छाछ पी रहे हों। फिर, उन्होंने कप के भीतर ग़ौर से देखा तो उन्हें कुछ अज़ीब-सा लगा। तब, उन्होंने उठकर दरवाजे से आसन्न गमले में कप की सारी चाय उड़ेल दी। फिर, गले में लटकते हुए ऐनक को आँखों पर चढ़ाया और जैसे ही कप के भीतर नज़र डाली तो वह बिलबिला उठे–अरे इसमें तो मरा हुआ कॉकरोच पड़ा हुआ है। कैसा जमाना आ गया है कि बहुओं ने मेरी औकात का मटियामेट ही कर डाला है और बेटों को इस बुड्ढे का कभी खयाल तक नहीं आता कि उनका बाप क्या खा रहा है, क्या पहन रहा है? अब बाहर से आई हुई बहुओं में वह भावनात्मक लगाव तो रहता नहीं, जो अपने सगे बच्चों में रहता है। वो तो बाप के ही खून-पसीने से सींचे गए बेटों को ग़ैर बना देती हैं। बेटे भी इतने मतलबी कि वे अपनी बीवियों के पालतू कुत्ते की तरह उसकी मन-मर्ज़ी के ख़िलाफ़ कुछ भी करने का दुस्साहस नहीं जुटा पाते।

वह गुस्से में कोठी की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए चिल्लाना चाह रहे थे कि ‘अरे, बड़ी बहू, मुझे चाय भेजने से पहले कप को साफ तो कर लिया होता। अपने कुत्ते का बर्तन और बिस्तरा तो रोज़ साफ़ करती हो; क्या मेरी हैसियत उस कुत्ते से भी ज़्यादा गिरी-पड़ी है?’ किंतु, दुःखते घुटनों से आधी सीढ़ियाँ चढ़ने के बाद वह मायूस होकर वापस कमरे में आ गए–’मेरी क्या औक़ात कि मैं बहू को डाँट लगाऊँ? उल्टे वह मुझसे गाली-गलौज़ करने पर उतारू हो जाएगी।’

पत्नी की असामयिक मौत के बाद वह मुश्किल से तीन साल ही अपने बहू-बेटों के साथ रह पाए थे। बहुओं ने तो उन्हें सारे हिक़मत लगाकर आख़िरकार इस सर्वेंट क्वार्टर में निपटा दिया था। शुरू-शुरू में बड़ी बहू नीता ने यह कहते हुए कि ‘बाबूजी! यहाँ आपको बच्चों के शोरगुल से निज़ात मिलेगी’, उन्हें कोठी के स्टोर रूम में रहने के लिए डाल दिया था। लेकिन, छोटी बहू–स्निग्धा को उनका वहाँ भी रहना रास नहीं आया। उसने अपनी जेठानी से शिकायत की, “दीदी, आपने बाबूजी को स्टोर रूम में क्यों डाल दिया है? उसका दरवाजा मेरे बेडरूम से लगता है और जब बुढ़ऊ खाँसते हैं तो मेरे चैन-सुकून पर ग्रहण लग जाता है।” तब नीता ने कहा, “अभी बुढ़ऊ को कुछ दिन वहाँ रहने दो; देखो, मैं कैसे उन्हें बाहर का रास्ता दिखाती हूँ?” जेठानी के आश्वासन पर स्निग्धा चुप तो हो गई; लेकिन, वह ज़ल्दी से ज़ल्दी बाबूजी को स्टोर रूम से दूर भेजने के हिक़मत में लग गई। फिर, एक दिन उसने अपने पति–पूरन से कहा, “देखो जी! जब मेरा बेडरूम खुला रहता है तो बाबूजी के स्टोररूम से सब कुछ साफ़-साफ़ दिखता है। यहाँ तक कि मेरा बेड पर सोना और उठकर कपड़े बदलना भी।” तब पूरन ने मुँह बिचका दिया, “तो क्या हुआ? बाबूजी, बूढ़े हैं और दिल के मरीज़ भी। और तुम तो उनकी बेटी-समान हो।” तब स्निग्धा तुनककर बोल उठी, “बहुत देखा है ऐसे बुड्ढों को जो लड़कियों और जवान औरतों को घूर-घूर कर देखते रहते हैं।” उसकी इस बात पर पहले तो पूरन ने उसे आँखें तरेरकर देखा, फिर स्टोर रूम में बाबूजी को, जो वास्तव में उन दोनों की बातें बड़े स्नेह-भाव से सुनते हुए, देखकर मुस्करा रहे थे। तब पूरन ने स्निग्धा से कहा, “अपने बेड रूम का परदा लगा रहने दिया करो।”

पूरन की प्रतिक्रिया से स्निग्धा को लगा कि उसके दिमाग में शक का कीड़ा डालकर बाबूजी को स्टोर रूम से खदेड़ा जा सकता है। तब मुश्किल से एक सप्ताह भी नहीं बीता होगा कि एक दिन स्निग्धा ने पूरन से कहा, “अजी सुनते हो! एक दिन मैं बेड रूम में कपड़े बदल रही थी तो अचानक बाबूजी अंदर आ गए। आख़िर, उनकी मंशा क्या है?” उस दिन भी जब दोनों यह बातचीत कर रहे थे तो बाबूजी सामने बेड पर बैठे उन दोनों को ही देखकर आत्मीयतापूर्वक मुस्करा रहे थे। तब पूरन सीधे बड़े भाई सुरेंद्र के पास चला गया। थोड़ी देर बाद सुरेंद्र के साथ वापस आया तो बाबूजी को आवाज़ लगाई, “बाबूजी! आपसे एक ज़रूरी बात करनी है। मैं और भाई साहब दोनों आपके कमरे के बाहर खड़े हैं।” जब बाबूजी स्टोर रूम से बाहर निकले तो सुरेंद्र बोल उठा, “बाबूजी! आपके रहने का सारा बंदोबस्त हमलोगों ने बाहर सर्वेट रूम में कर दिया है। यहाँ, हमें लगता है कि आपको तकलीफ़ होती है। बच्चे इतना शोर मचाते हैं कि आपको ठीक-ठीक नींद भी नहीं आ पाती है।” तब उन्होंने कहा, “अरे सोनू! इस बारे में मैंने तो कभी कुछ कहा ही नहीं। और मुझे तो बच्चे प्रिय हैं–हाँ, उनका शोरगुल भी। उनका मस्ती करना और मुझे चिढ़ाना और तंग करना भी। भला, उनके बग़ैर मैं कैसे रह पाऊँगा?” तभी, स्निग्धा भी आ गई और बीच में ही बोल पड़ी, “अब हम सब आपके भले के लिए सोच रहे हैं तो आपको कुछ अच्छा ही नहीं लग रहा है। आप सर्वेंट रूम में चले क्यों नहीं जाते?” बड़ी बहू नीता भी बाबूजी के ख़िलाफ़ ज़िहाद में शामिल होते हुए बोल पड़ी, “अब बाबूजी! आप उमरदराज़ हो गए हैं और आपको गृहस्थी के लफ़ड़े और परिवार के भीड़भाड़ से दूर रहना चाहिए। बाहर सर्वेंट रूम में शांति और सुकून मिलेगा। मजे से भजन-कीर्तन गा सकेंगे। हाँ, एकांत में बढ़िया दिन गुजरेंगे। आबो-हवा भी वहाँ की साफ़-सुथरी है। फिर, हम और हमारे बच्चे तो आपसे दूर जा नहीं रहे हैं। बेहतर होगा कि आप वहीं चले जाएं। इसमें हमारा, आपका और सबका भला है।”

पूरन भी बाबूजी को बोलने का मौका न देते हुए बोल पड़ा, “बाबूजी! मुझे लगता है कि आपको यहाँ रहने में कोई ख़ास दिलचस्पी है। आपको जितनी दिलचस्पी बच्चों में नहीं है, उतनी दिलचस्पी तो अपनी बहुओं में है। आप अगर सीधे तौर पर सर्वेंट रूम में नहीं जाना चाहते तो आपके साथ जोर-ज़बरदस्ती करनी पड़ेगी।”

उस वक़्त मधुर बाबू पर क्या बीती होगी, यह बताना इतना आसान नहीं है! उनका रोआँ-रोआँ कलप उठा था। घर में उन्हें लांछित करते हुए अपने ही घर से बेघर करने की जो साज़िश चल रही थी, जो सचमुच उनके लिए असह्य थी। बहरहाल, बहू-बेटों के सामने वह बेज़बान से कुछ पल सोचते रहे; फिर, ख़ुद चलते हुए सर्वेंट रूम में आ गए। पर, एक दिन उन्होंने सुरेंद्र को बुलाकर कहा, “सोनू! मेरे दोस्तों में से शर्माजी, सिन्हाजी और प्रताप जी या कोई भी आए तो उन्हें बाहर से ही लौटा देना और यह बता देना कि मैं तुम्हारे चाचा के यहाँ स्थायी रूप से रहने चला गया हूँ क्योंकि जब वे मुझे इस सर्वेंट रूम में रहते हुए देखेंगे तो इससे तुमलोगों की ही बदनामी होगी। उन्हें मैंने बता रखा है कि मेरे बहू-बेटे बड़े लायक हैं जो मुझे मेरे बुढ़ापे में अपने कलेज़े से लगाकर रखेंगे।” इस पर भावशून्य-सा सुरेंद्र बोल उठा, “आप चिंता न करें। शर्माजी तो पिछले सोमवार को और प्रताप अंकल कल ही आए थे जिन्हें हमने बहाने से बाहर से ही टरका दिया था।”

बीती बातें सोचते हुए वह सीढ़ियों से उतरकर कमरे में आ गए और स्टूल को तनिक झाड़-पोंछकर उस पर बैठ गए। उन्होंने यह भी परवाह नहीं की कि स्टूल पर निकली कील उन्हें चुभ भी सकती है जिससे टेटनस हो सकता है। चुनांचे, वह ज़रूरत से ज़्यादा ख़यालों में खोए रहना चाह रहे थे। हाँ, वो ऑफ़िस के भी क्या दिन थे? अपने काम में निपुणता के जरिए अपने अफ़सरों की निग़ाहों में उनकी बड़ी इज़्ज़त थी। दोस्त-यार भी उनके मुरीद थे क्योंकि उनका स्वभाव ही था–उनकी हर प्रकार से मदद करना और ख़ास तौर से ऑफ़िस के काम में। नंदिता के साथ भी उनकी खूब छनती थी। इसका एक कारण तो यह था कि वह हैडीकैप थी और उसका मनोबल बेहद गिरा हुआ था। अफ़सर भी उससे किनारा करना चाहते थे। दरअसल, ऑफ़िस में उसी महिला को अफ़सर ज़्यादा तवज़्ज़ो देते हैं जो बनी-ठनी और ख़ूबसूरत हो, भले ही उसके लाख नाज़-नखरे उठाने पड़े। मधुर बाबू ने उसे फ़ाइल-वर्क सिखाया, नोटिंग-ड्राफ़्टिंग करनी सिखाई और अपने कुलीग एवं अफ़सर से पेश आने का सलीका भी बताया। उनके ही बदौलत नंदिता ने ऑफ़िस में मान-सम्मान और बेहतर कार्य-शैली हासिल की। इसके अलावा जिस दूसरे व्यक्ति से उनकी अंतरंगता स्थापित हुई, वह एक चपरासी थी–सुजाता। जब मधुर बाबू प्रमोशन के बाद अफ़सर बने तो सुजाता उनकी हर बात का ख़्याल रखती थी। थी तो वह मामूली-सी औरत, पर उसके भीतर भावनात्मक बोध उफ़ान लेता था। जब उसे मधुर बाबू के विधुर होने के बारे में पता चला तो वह उनके प्रति और भी हमदर्द हो गई–शायद, उसका अंदाज़ा सही था कि उनके बहू-बेटे उनका ठीक-ठीक देखभाल नहीं करते हैं क्योंकि उनके कपड़े सलीके से प्रेस किए हुए नहीं होते थे, लंच के लिए कैंटीन से ही खाना मंगाकर खाते थे और अपने तौलिए तथा रुमाल सुजाता को ही साफ करने के लिए देते थे। शाम को ऑफ़िस से घर लौटते समय, वह उसी से कैंटीन से कुछ खाने-पीने का सामान भी मंगा लेते थे। एक दिन सुजाता ने पूछ भी लिया था, “सरजी! ये ब्रेड-पकौड़े, समोसे और बिरयानी घर क्यों ले जाते हैं? बहुएं तो आपकी हर इच्छा पूरी करती ही होंगी।” उस वक़्त उनकी आँखें नम हो गई थीं। तब सुजाता ने फिर कहा, “मैं समझ गई, सर जी! आजकल की बहुएं पत्थर की बुत होती हैं और बेटे उनके हुकुम के ग़ुलाम। अपने बेटों के ख़ून का रंग अब हम बूढ़ों के खून के रंग से कहाँ मिलता है?”

अतीत की यादों में खोए-खोए दिन के कोई ग्यारह बज गए। वह ख़ुद से भुनभुना उठे, “मधुर बाबू! अब छोड़ो भी दिवास्वप्न देखना। देखो, कितनी जोर से भूख लग रही है। अब बिस्कुट खाने से पेट तो भरने से रहा।।” उन्होंने तपती धूप में बाहर निकलकर कोठी की ओर देखा कि शायद बहुएं उनके लिए कुछ खाने को भेज दें। पर, उन्हें ताज़्ज़ुब हुआ कि पूरन, सुरेंद्र, दोनों बहुएं और बच्चे कहीं जाने की तैयारी में हैं। तभी कामवाली मन्नी बाई ने झाड़ू-पोछा से निपट चुकने के बाद घर जाते हुए उनके पास आकर बोली, “बाबूजी, आज आपके नसीब में खाना नहीं है। सभी पिच्चर देखने जा रहे हैं और शाम को देर से लौटेंगे। उधर से ही वे होटल में खाते हुए आएंगे। आप कहें तो मैं आपके लिए अपने घर से दो रोटी बनाकर भिजवाँ दूं। आपके लाडलों को आपका तनिक भी ख़्याल कहाँ रहता है?”

उन्होंने एक कृत्रिम मुस्कराहट के साथ कहा, “नहीं, नहीं, मन्नी! मेरे पास खाने को काफ़ी सामान है। मैं गाढ़े वक़्त के लिए बंदोबस्त रखता हूँ।”

मन्नी बाई को बाबूजी की हालत पर तरस आ जाती थी। वह तो बाबूजी की अतिरिक्त ख़िदमत करना चाहती थी; पर, उसे सख़्त हिदायत दी गई थी कि वह उनके मुँह लगने, उनसे ज़रूरत से ज़्यादा बातचीत करने और उनकी हर मांग को पूरा करने की गुस्ताखी न किया करे; अन्यथा, उसे काम से निकाल दिया जाएगा।

जाते-जाते मन्नी बाई ने उन्हें बड़ी आत्मीयता और बेचारगी से देखा; वह भी उसे कातर निग़ाहों से देखते हुए झेंप-से गए–एक नौकरानी, जो ज़रूरत से ज़्यादा समझदार थी, के सामने भी उनकी औक़ात न के बराबर हो गई है। अच्छा ही है जो उसे उनकी किसी बात को पूरा न करने की हिदायत दी गई है; अन्यथा वह अपनी ही नज़र में गिर जाते। बहरहाल, ग्लूकोज़ बिस्कुट उनके काम आ गया। उन्होंने चंद बिस्कुट खाकर सुराही से गिलास में पानी उड़ेला और सारा पानी एक ही बार में गटक लिया। बहू-बेटों ने उन्हें जाते समय नज़र फ़ेर करके भी नहीं देखा जबकि उनके बच्चे उन्हें बॉय करने जा रहे थे कि तभी बहुओं ने उन्हें आँख तरेरते हुए देर न करने का आदेश पारित कर दिया।

मधुर बाबू की दिली इच्छा थी कि वह उनकी अनुपस्थिति में अपनी कोठी के भीतर जाएं और हर कमरे और हर हिस्से का जायज़ा लें। पर, कोठी का दरवाजा तो भुनासी ताले से बंद था। हाँ, महीने नहीं कई साल हो गए हैं–उन्हें कोठी में कदम रखे हुए। एकाध बार वह अपनी इच्छा को लगाम नहीं दे पाए थे और अंदर घुसते चले आए तो बड़ी या छोटी बहू सामने आ गई, यह पूछते हुए, “हाँ, हाँ, क्या चाहिए आपको?” फिर वे उनका रास्ता घेरकर कुछ इस तरह खड़ी हो गईं जैसेकि जमादार के आगे वे बड़े परहेजी ढंग से खड़ी हो जाती हैं। तब, उन्हें अपने कृत्य पर बड़ा अफ़सोस होता–अरे, क्या अब मेरी गिनती अछूत के रूप में होने लगी है? वह यह भी नहीं कह पाते कि न तो मुझे टी.बी. हुई है, न ही कोई ऐसा संक्रामक रोग जिसका छूत तुम्हें और तुम्हारे बच्चों को लग जाएगा। आख़िर, मैं ही इस घर का मालिक हूँ।

सभी के जाने के बाद जब वह कोठी के सामने मुखातिब हुए तो उन्हें लगा कि वह उन पर ठठाकर हँस रहा है। तब वह पागलों की भाँति चींख उठे, “अब तुझे भी मेरा मज़ाक उड़ाने में मजा आ रहा है? मुझे इस तरह घूर-घूरकर क्यों देख रहा है? देख, जब मैं नहीं रहूंगा तो तेरी हालत पर कोई ध्यान देने वाला न होगा। तब तूं मेरी ही तरह बेसहारा, बदहाल और अनाथ हो जाएगा। तुझे मैंने ही इतना सजाया-संवारा है और बाप जैसा प्यार दिया है–बहू-बेटों को तो तेरी कोई चिंता ही नहीं है।”

फिर, वह अपना माथा पीटते हुए बड़बड़ाने लगे, “क्या मैं सचमुच पागल हो गया हूँ जो एक बेज़बान से बतिया रहा हूँ?”

उन्होंने जो चंद बिस्कुट खाए थे, उनसे उनकी भूख कहाँ मिटने वाली थी? वह कमरे में गए और इधर-उधर कुछ टटोला। तभी, उनके हाथ पुरानी नमकीन की एक पैकेट लग गई। उन्होंने झट पैकेट फाड़ा और मुट्ठीभर नमकीन मुंह में डाला; पर, उनका जी मतला उठा–अरे, मैं क्या खा रहा हूँ? सारी नमकीन घुनियाई हुई है। उन्होंने झट कुल्ला करके मुंह साफ़ किया। तब वह कोने में स्थापित मंदिर और उसमें प्रतिष्ठापित देव प्रतिमाओं के आगे आकर बैठ गए–कुछ शिकायत करने की गरज़ से। कुछ पल बैठे रहे; फिर, बड़बड़ा उठे, “तूं तो एक मुद्दत से यहाँ ख़ामोश बैठा हुआ है। मेरी हालत देखकर भी तूं कुछ नहीं कर पा रहा है।” तदनंतर, वह वहाँ से उठकर क्यारियों में लगे फूल-पौधों के इर्द-गिर्द घूमने लगे। ख़ामोश तो रह नहीं सके; बुढ़ापे का यही सबसे बड़ रोग है कि इस उम्र में आदमी या तो ख़ुद से बातें करता है, या पॆड़-पौधों से। वह फ़ुसफ़ुसा उठे, “बताया जाता है कि प्रकृति के सान्निध्य में रहकर प्रकृत्ति की चीज़ों की देखभाल करने वाले को बुरा समय कभी नहीं देखना पड़ता। मैंने तो अपने बल-बूते पर पानी बचाया, हवा प्रदूषित नहीं होने दी, पेड़-पौधे उगाए और लोगों को भी इसके लिए प्रोत्साहित किया; पर, अब मुझे सींचने और पालने-पोसने की ज़िम्मेदारी कोई नहीं लेना चाहता।

वह वापस कमरे में आए तो शाम ढल चुकी थी और सूरज बदली की घूंघट में से कभी अपना सिर निकाल लेता था तो कभी छुपा लेता था। मधुर बाबू सूरज के इस खेल को देखकर जी बहला रहे थे कि तभी मेन गेट पर किसी ने बेल बजाकर उन्हें बेचैन कर दिया, “शायद, मन्नी बाई को मेरा ख्याल आया हो और वह मेरे लिए कुछ खाने को लेकर आई हो।” वह धनुष के आकार में अकड़े हुए घुटनों पर अपने ज़िस्म को घसीटते हुए गेट तक आए और बड़ी जिज्ञासा से गेट खोला। पर, सामने एक हट्टे-कट्टे नौजवान को देख सकपका-से गए।

वह नौजवान किसी लाग-लपेट और दुआ-सलाम के बिना गेट से अंदर घुसते हुए जबरन सर्वेंट-क्वार्टर में दाख़िल हो गया और निग़ाहें घुमाते हुए कमरे का ज़ायज़ा लेने लगा। साथ ही, वह बड़बड़ा भी उठा, “बुड्ढे, तूं कब से सा’ब की नौकरी-चाकरी कर रहा है?”

उसके तूं-तपड़ से मधुर बाबू के कान गुस्से में लाल हो गए; पर, वह गुस्से को थूक के साथ घोंटते हुए बोले, “यही कोई चार-एक साल से।”

“तुझे कित्ता पगार मिलता है रे बुड्ढे?”

अक्खड़ी हरियाणवी लहज़े में उसने फिर सवाल किया तो मधुर बाबू मन ही मन सोचने लगे–गंदे संस्कारों में पले-बढ़े इस बदतमीज़ की बातें अब मुझसे बरदाश्त होने वाली नहीं हैं। लेकिन, गुस्से को ज़बरन लगाम दी। तब, उन्होंने फिर थूक निगला और ख़ुद उससे सवाल कर बैठे, “तुम तो मुझसे सवाल पर सवाल किए जा रहे हो; लेकिन, तुमने अभी तक यह नहीं बताया है कि तेरा यहाँ आने का मक़सद क्या है?”

नौजवान सीना अकड़ाते हुए तैश में आ गया, “कोठी के सा’ब जी ने मेरे को अपना डिराइबर तैनात किया है और आज शाम से ही मुझे बुला रखा है।”

उसने कंधे से लटकते हुए भारी बैग को कमरे में एक किनारे रखा। मधुर बाबू को उसकी सारी बातें समझ में आने लगी–यह नौजवान मुझे सर्वेंट क्वार्टर में देखकर मुझे नौकर ही समझ रहा है। यूं भी मेरी हालत किस नौकर से अच्छी है? लिहाज़ा, अब मुझे इसके साथ इसी सर्वेंट क्वार्टर में रहना होगा।

उनकी आँखों के आगे पल भर को अंधेरा-सा छा गया। वह कुछ देर तक विचारों में खोए रहे। फिर, अचानक एक निश्चयात्मक भाव से स्वयं को संयमित किया। तदनंतर, वह मुस्कराते हुए बोल उठे, “हाँ, आज तुम्हारे सा’ब ने मुझे नौकरी से ज़वाब दे दिया है। मुझे भी एक दूसरी कोठी में गार्ड की नौकरी मिल गई है। यहाँ से ज़्यादा पगार भी तय हो गया है। बस, थोड़ी देर तुम बाहर और ठहरो, मैं झटपट यह सर्वेंट क्वार्टर खाली करने जा रहा हूँ।”

जब तक नौजवान बाहर लॉन में इंतज़ार करता रहा, मधुर बाबू ने कुछ ज़रूरी सामान-असबाब इकट्ठे किए और कोई आधे घंटे से पहले ही एक अटैची और बेड होल्डर घसीटते हुए बाहर आ गए। उन्होंने लॉन में चहलकदमी कर रहे नौजवान के हाथ में मेन गेट की चाबी थमाई और बोल उठे, “जब तुम्हारे सा’ब जी आएं तो उनसे मेरा आख़िरी दुआ-सलाम कहना और यह भी कहना कि अगर इस नाचीज़ नौकर से उनके या उनके बीवी-बच्चों के साथ कोई बदसलूकी हुई हो तो उसे माफ़ी दे देना।”

बोलते-बोलते उनका गला भर आया और आँखों के कोरे नम हो गए। फिर वह अटैची और होल्डर घसीटते हुए गेट से बाहर आ गए। उन्होंने पलटकर अपनी कोठी को देखा; नौजवान तो गेट बंद करके सर्वेंट क्वार्टर में काबिज़ हो चुका था। शायद उसने शराब की बोतल खोली होगी और छ्ककर पी होगी क्योंकि उन्होंने उसके बैग में रम की बोतल देख ली थी जिसे पीने की बेताबी साफ़ उसके चेहरे पर झलक रही थी।

उन्होंने दोबारा पीछे मुड़कर अपनी कोठी को बड़ी ग़ैरियत से देखा। आँसुओं को निर्ममतापूर्वक आँखों से छलकने नहीं दिया। फिर, जोर से आक्थू करते हुए गेट पर थूक का एक कतरा उगल दिया।