आख़िरी चट्टान तक / भाग 2 / मोहन राकेश

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लाइटर, बीड़ी और दार्शनिकता

ज्यों-ज्यों शाम गहरी हो रही थी, वेटिंग हाल में भीड़ बढ़ती जा रही थी। भीड़ में ज़्यादातर गोआ जानेवाले ईसाई यात्री थे। गोआ में उन दिनों सेंट फ्रांसिस ज़ेवयर्स के मृत शरीर का 'एक्सपोज़ीशन' चल रहा था और देश के विभिन्न भागों से बहुत बड़ीसंख्या में यात्री वहाँ जा रहे थे। टिकटघर की खिडक़ी खुलने के घंटा-भर पहले से ही लोग वहाँ जमा होने लगे थे। जिस समय मैं वहाँ पहुँचा, वहाँ दो क्यू साथ-साथ बन रहे थे। मैंने एक क्यू में सबसे पीछे खड़े गोआनी सज्जन से पूछा कि मार्मुगाव का टिकट लेने के लिए मुझे किस क्यू में खड़े होना चाहिए। उन्होंने बहुत शिष्टता के साथ मुस्कराकर कहा कि मुझे उनके पीछे खड़े हो जाना चाहिए।

खिडक़ी खुलने में देर थी। ऐसे मौक़े पर जैसा कि स्वाभाविक होता है, गोआनी सज्जन पीछे की तरफ़ मुँह करके मुझसे बात करने लगे। उन्होंने मेरा नाम-पता और काम पूछा। मैंने भी बदले में उनका नाम पूछ लिया।

“मेरा नाम है फर्नांडिस,” उन्होंने कहा, “ए.एल. फर्नांडिस। एल्बर्ट ल्योनार्ड फर्नांडिस।” उन्होंने बताया कि वे वहीं पूना की किसी फ़र्म में एकाउंट्स सुपरवाइज़र हैं।

जल्दी ही मिस्टर फर्नांडिस काफ़ी घनिष्ठता से बात करने लगे। कई बार आदमी अपने परिचितों के साथ उस सहजता से बात नहीं कर पाता जिससे अपरिचितों के साथ करने लगता है। मिस्टर फर्नांडिस आवेश के साथ गोआ के भारत में सम्मिलित होने के सम्बन्ध में अपने विचार प्रकट करते रहे। उनका कहना था कि गोआ भारत का ही एक भाग है और उसे अवश्य भारत में सम्मिलित हो जाना चाहिए। पर उन्हें डर भी था कि ऐसा होने की स्थिति में महाराष्ट्र के निहित स्वार्थ गोआ को आर्थिक रूप से तबाह न कर दें।

“बट से यू?” मिस्टर फर्नांडिस ख़ासी अच्छी अँग्रेज़ी बोलते थे, पर 'वट डु यू से' की जगह हर बार 'वट से यू' ही कहते थे। उन्होंने एक एक्का मार्का बीड़ी मुँह में लगायी और जेब से एक बढिय़ा लाइटर निकालकर उसे सुलगाते हुए बोले, “आप देख रहे हैं हिन्दुस्तान और गोवा में क्या फ़र्क है? हिन्दुस्तान में मैं अपने जेब-ख़र्च से सिर्फ़ यह बीड़ी ख़रीद सकता हूँ। गोआ में उतने ही पैसों में मुझे अच्छे सिगरेट मिल सकते हैं। यह लाइटर मैंने गोआ में ख़रीदा था।”

“पर इतनी-सी बात के लिए आप यह तो नहीं चाहेंगे कि गोआ में पुर्तगाली शासन बना रहे?”

उन्होंने अपना सफ़ेद सोला हैट सिर पर ठीक किया और थोड़ा खाँसकर बोले, “नहीं, यह तो मैं कभी नहीं चाहूँगा। पर एक बात मैं आपको बता दूँ। एक आम गोआनी को भारत में सम्मिलित होने पर हासिल क्या होगा? महँगी क़ीमतें और सस्ते नारे! फिर भी मैं अपना वोट भारत को ही दूँगा।”

वे मुझे गोआ की ज़िन्दगी के बारे में भी कितना कुछ बताते रहे। मुख्य बात यही थी कि गोआ में ज़रूरत की चीज़ें इतनी सस्ती हैं कि किसी गोआनी का गोआ से बाहर रहने को मन नहीं करता। इस पर मैंने पूछ लिया कि वे ख़ुद गोआ छोडक़र पूना में क्यों रहते हैं, तो मिस्टर फर्नांडिस का चेहरा कुछ मुरझा गया और वे काफ़ी घुमा-फिराकर अपनी स्थिति स्पष्ट करने की चेष्टा करने लगे। मुझे लगा कि मैंने यह मामूली-सा सवाल पूछकर उन्हें अन्दर कहीं गहरे में कुरेद दिया है।

खिडक़ी अभी खुली नहीं थी। दोनों क्यू और लम्बे होते जा रहे थे। साथ के क्यू में खड़े कुछ युवतियाँ-युवक गीतों की पंक्तियाँ गुनगुना रहे थे और एक-दूसरे के कन्धे पकडक़र उछल रहे थे। उनमें से कुछ-एक एक-दूसरे की कमर में हाथ डालकर वहीं राभ्बा-साम्बा नाच रहे थे। उन्हें देखते हुए मिस्टर फर्नांडिस की आँखों में धुँआँ-सा भरता जा रहा था। वे कुछ देर चुपचाप उन लोगों की हरकतों को देखते रहने के बाद बोले, “एक तो आज की दुनिया में समस्याएँ बहुत हैं, और समस्याओं से भी ज़्यादा नारे इस दुनिया में हैं। सबसे बड़ी मुसीबत यह है कि हम हर रोज़ पहले से ज़्यादा अक़्लमन्द होते जा रहे हैं। जो बच्चा आज पैदा होता है,वह कल पैदा हुए बच्चे से ज़्यादा अक़्लमन्द होता है। आज की दुनिया को कोई चीज़ अगर ले डूबेगी, तो वह यही है।...बट से यू?”

मैंने कहा कुछ नहीं, सिर्फ़ मुस्कराकर रह गया। “मेरा ख़याल है,” वे एक बार इधर-उधर देखकर भेद को बात कहने की तरह मेरी तरफ़ झुककर बोले, “यह बढ़ती अक़्लमन्दी हम मरदों को तो धीरे-धीरे फ़िलासफ़र बनाये दे रही है, और इन औरतों को कुलटा...वट से यू?”

उसी समय हमारे वाला क्यू टूट गया। टिकटघर की खिडक़ी खुल गयी थी और टिकट-बाबू ने साथ के क्यू को ही सही क्यू मानकर टिकट देना शुरू कर दिया था। उसे खलबली में मैं क्यू के आख़िरी सिरे पर जा पहुँचा। मिस्टर फर्नांडिस का सफ़ेद सोला हैट उसके बाद दिखाई नहीं दिया।

चलता जीवन

अगले दिन लोण्डा स्टेशन पर गाड़ी बदलकर मैंने टाइम-टेबल देखा। मार्मुगाव तक कुल छयालीस मील का सफ़र था जिसमें गाड़ी को साढ़े आठ घंटे समय लेना था। कासलरॉक स्टेशन पर गाड़ी लंच के समय पहुँचती थी और वहाँ भी लगभग दो घंटे ठहरती थी। फिर कालेम स्टेशन पर चाय के समय पहुँचती थी और वहाँ भी लगभग उतना ही समय ठहरती थी। मैंने एक लम्बी साँस लेकर अपने को साढ़े आठ घंटे के सफ़र के लिए तैयार कर लिया। गाड़ी चली, तो एक तटस्थ दर्शक की तरह आसपास देखने लगा। दो नीले कोटों वाले व्यक्ति मेरे पास ही बैठे थे। एक का सिर पूरा घुटा हुआ था। वे जाने कोंकणी में बात कर रहे थे, या किसी और बोली में। मराठी वह नहीं थी। दक्षिण की भाषाओं की तरह उसमें मूर्धन्य ध्वनियों की प्रधानता थी। पूछने पर पता चला कि वे लोग बम्बई के आस-पास कहीं रहते हैं और जो भाषा वे बोल रहे हैं वह 'उनकी अपनी' भाषा है। ट्रिगर की तरह हिलते कंठ और स्टेनगन की तरह ध्वनित होते शब्द-वह भाषा उनके सिवा किसी और की हो भी नहीं सकती थी!

वे एक्सपोज़ीशन के सिलसिले में गोआ जा रहे थे। यह देखकर कि वे एक-एक कान में सोने की मोटी बाली पहने हैं, मैंने उनसे इसका कारण पूछा, तो उत्तर मिला कि वह उनका अपना रिवाज़ है।

“पर एक-एक कान में ही क्यों पहनते हो?” मैंने पूछा।

“यही रिवाज़ है।”

मैं इससे आगे नहीं बढ़ सका।

गाड़ी के कासलरॉक पहुँचने तक मुझे भूख लग आयी। गाड़ी के प्लेट$फॉर्म पर रुकते ही मैंने बाहर निकलने के लिए दरवाज़ा खोला, तो एक सन्तरी ने बाहर से मुझे रोककर दरवाज़ा बन्द कर दिया। पता चला कि वहाँ गाड़ी दो घंटे इसलिए रुकेगी कि भारतीय कस्टम्ज़ की तरफ़ से सामान की जाँच की जाएगी। यह भी कि कालेम स्टेशन पर फिर से जाँच होगी-पुर्तगाली कस्टम्ज़ की तरफ़ से।

नीले कोटों वाले व्यक्ति अपने लंच के पैकेट साथ लाये थे। उन्होंने कम-से-कम चार आदमियों का खाना-डोसे, सेंडविच, अंडे,टोस्ट और सॉसेज-निकालकर बीच में रख लिये और बहुत हिसाब के साथ बाँटकर खाने लगे। पानी की उनके पास एक ही बोतल थी। उसमें से वे 'एक घूँट तू, एक घूँट मैं', के आधार पर पानी पीते रहे। दोनों की आत्मा पर इसका बहुत बोझ था कि वह कहीं दूसरे से ज़्यादा हिस्सा न ले जाए। पूरा-का-पूरा खाना उन्होंने दस मिनट में समाप्त कर दिया।

वहाँ सामान की चेकिंग में ज़्यादा दि$क्क़त नहीं हुई। गाड़ी वहाँ से चली, तो दूध-सागर के झरनों की चर्चा होने लगी। गाड़ी झरनों के पास पहुँची, तो नीले कोटों वाले व्यक्ति एक साथ खिडक़ी से बाहर झुक गये। प्राकृतिक सौन्दर्य के उपभोग में भी शायद वे बिल्कुल बराबर का हिस्सा रखना चाहते थे। पहली बार गाड़ी झरनों के बहुत पास से होकर निकली। काफ़ी ऊँचाई से पानी की चार-पाँच धारें नीचे गिर रही थीं। वहाँ से देखने पर उनमें कुछ विशेषता नहीं लगी। पर ज्यों-ज्यों गाड़ी आगे निकलती आयी,त्यों-त्यों दूर के कोणों से देखने पर उनका सौन्दर्य बढ़ता गया। जब झरने नज़र से ओझल हो गये, तो लगने लगा कि सचमुच उनका अपना ही एक सौन्दर्य था।

कालेम पहुँचकर पता चला कि वहाँ सामान की चेकिंग ही नहीं, अपनी डॉक्टरी परीक्षा भी होगी। जैसी डॉक्टरी परीक्षा मैंने वहाँ देखी, वैसी पहले कभी नहीं देखी थी। एक आला होता है जिससे झूठ और सच की परीक्षा हो जाती है। एक और आला होता है जो शरीर के अन्दर छिपे सोने का पता दे देता है। कालेम के डॉक्टर का हाथ ऐसे किसी आले से कम नहीं था। वह हर आदमी की कलाई को अपनी दो उँगलियों से छूकर ही जान लेता था कि उसे कोई रोग है या नहीं।

जो लोग सामान की चेकिंग के लिए आये, उन्हें न तो ठीक से अँग्रेज़ी बोलनी आती थी, न हिन्दी। वे सिर्फ़ कोंकणी और पोत्र्तुगीज़ जानते थे। जिस आदमी ने मेरे सामान की चेकिंग की, उसे अँग्रेज़ी-हिन्दी के दो-एक वाक्य ही आते थे। उनमें एक था, 'नया है कि पुराना?' इसका सही उत्तर था, 'पुराना।' मेरे ट्रंक में दो-तीन सौ ख़ाली काग़ज़ थे। उसने उन्हें देखकर भी वही सवाल पूछा, तो मैं उसे समझाने लगा कि वे कोरे काग़ज़ हैं जो मैं अपने इस्तेमाल के लिए साथ लाया हूँ। पर उसने मेरी बात नहीं समझी और फिर वही सवाल पूछ लिया, 'नया है कि पुराना?'

'पुराना', इस बार मैंने एक शब्द में उसे उत्तर दे दिया। उसने हस्ताक्षर कर दिये।

दूसरा वाक्य जो उसे आता था, वह था 'उसमें क्या है?' मेरे बिस्तरबन्द को देखकर उसने पूछा, “उसमें क्या है?”

“बिस्तर”, मैंने कहा।

“उसमें क्या है?”

“गद्दा, तकिया और चादर।”

“उसमें क्या है?”

मैंने घूरकर उसे देखा। उसने उस पर भी हस्ताक्षर कर दिये।

काले से, जहाँ लोहे की खानें हैं, पन्द्रह-बीस लडक़े-लड़कियाँ हमारे डिब्बे में आ गये। वे बाहर से ही चहकते हुए आये थे और अन्दर आकर भी उसी तरह चीख़ते-चहकते रहे। क्रिसमस-सप्ताह चल रहा था और नया साल आने को था। उन्हें उस समय अपने पर किसी तरह का प्रतिबन्ध स्वीकार नहीं था। उन्होंने खिड़कियाँ बन्द कर दीं और बीस-तीस ग़ुब्बारे अन्दर छोडक़र उनसे खेलने लगे। उनमें से बहुतों ने-लड़कियों के अलावा लडक़ों ने भी-जिस्म पर काफ़ी सोना लाद रखा था। उन्हें देखकर लगता था जैसे वहाँ की लोहे की ख़ानों से लोहा नहीं सोना निकलता हो।

डिब्बे के अन्दर रंग-बिरंगे ग़ुब्बारे उड़ रहे थे और खिडक़ी के शीशे के उस तरफ़ से नारियलों के घने-घने झुरमुट निकलते जा रहे थे। जिधर मैं बैठा था, उधर नीचे घाटी थी। घाटी में उगे नारियलों के शिखर उस ऊँचाई तक उठे थे जिस पर गाड़ी चल रही थी। लगता था जैसे गाड़ी ज़मीन पर न चलकर उन शिखरों के ऊपर-ऊपर से गुज़र रही हो। जहाँ घाटी कम गहरी होती, वहाँ गाड़ी तनों के बराबर से गुज़रती। फिर सहसा ऊँची ज़मीन आ जाने से शिखर आकाश में उठ जाते और गाड़ी उनकी जड़ों से भी नीचे चलती नज़र आती। मैं शीशे के साथ आँखें सटाये हरियाली के विस्तार को समुद्र की तरह उफनते देख रहा था। तभी घने नारियलों से घिरी एक उदास नहर नीचे से निकल गयी जिसमें एक छोटी-सी नाव, उतनी ही उदास गति से चलकर धीरे-धीरे पुल की तरफ़ आ रही थी। दृश्यपट पर क्षण-भर के लिए वह दृश्य उभरा और विलीन हो गया। गाड़ी पुल से कितना ही आगे निकल आयी, पर नाव तब भी पुल से अभी उतनी ही दूर थी।

अन्दर ग़ुब्बारों का खेल ख़ूब ज़ोर पकड़ रहा था, जब साँवर्दे स्टेशन आ गया। उन लडक़े-लड़कियों को वहीं उतरना था। गाड़ी के स्टेशन पर रुकते ही दो-तीन युवा स्त्रियाँ डिब्बे के दरवाज़े के पास आ खड़ी हुईं। वे वहाँ की पोर्टर थीं। कुछ ही देर में युवतियों की दो पंक्तियाँ स्टेशन के बाहर जाती दिखाई दीं-एक रंग-बिरंगे गुब्बारे उड़ाती और दूसरी ट्रंकों और बिस्तरों से लदी, धूल उड़ाती।

वास्को से पंजिम तक

मार्मुगाव गोआ का टर्मिनस स्टेशन है। वहाँ से पंजिम जाने के लिए फ़ेरी लेनी पड़ती है। मैंने सोचा था कि रात मार्मुगाव में रहकर सवेरे फ़ेरी से पंजिम चला जाऊँगा। पर मार्मुगाव से दो स्टेशन पहले गाड़ी में एक महाराष्ट्र युवक कारवाडक़र से परिचय हो गया। उसने कहा कि मुझे रात को मार्मुगाव न जाकर वास्को में ठहर जाना चाहिए। वास्को या वास्कोडिगामा मार्मुगाव से पहला स्टेशन है। कारवाडक़र वहीं पर रहता था। उसने यह भी कहा कि मुझे कुछ दिन गोआ में रहना हो, तो उसके लिए भी सबसे अच्छी जगह वास्को ही है, पंजिम नहीं।

उसने अनुरोध किया कि मैं कम-से-कम एक रात वास्को में उसका मेहमान बनकर रहूँ। सुबह वह मुझे मार्मुगाव से पंजिम की फ़ेरी में बैठा देगा।

मैं उसके साथ वास्को में उतर गया। कारवाडक़र एक साधारण क्लर्क था। घर में उसके अलावा उसकी माँ और पत्नी ये दो ही व्यक्ति थे। उसका ब्याह हुए दो महीने हुए थे। उसके स्वभाव में एक विशेषता मैंने देखी कि जहाँ एक अपरिचित व्यक्ति के लिए वह हर तरह का कष्ट उठाने को तैयार था, वहाँ अपनी पत्नी से एक मध्यकालीन पति की तरह सब तरह का काम लेना अपना अधिकार समझता था। आरम्भ से गोआ में रहने के कारण उसे सिर्फ़ कोंकणी ही आती थी-अँग्रेज़ी के वह छोटे-छोटे वाक्य ही बना पाता था। मैंने उससे कहा कि मैं अपने लिए नहाने का पानी कुएँ से निकाल लूँगा, तो वह बोला, “नो। अवर वाइफ़ इज़ इट।” मैंने शेव करके अपना साामन धोना चाहा, तो वह भी उसने मेरे हाथ से ले लिया और कहा, “नो, अवर वाइफ़ डज़ इट।”घर की सीमाओं में किया जानेवाला कोई भी काम, चाहे वह मेहमान के सूटकेस को यहाँ से उठाकर वहाँ रखना ही क्यों न हो,उसकी दृष्टि में उसकी पत्नी के कार्यक्षेत्र में आता था।

कारवाडक़र स्टेशन से मुझे सीधे अपने घर ले आया था, इसलिए मैं रात को वास्को शहर ठीक से नहीं देख पाया था। सुबह कारवाडक़र के साथ मार्मुगाव हार्बर की तरफ़ जाते हुए पहली बार उस शहर की एक झलक देखी। वास्को मार्मुगाव से दो मील इधर है। बन्दरगाह पर आनेवाले बेड़ों और जहाज़ों के यात्री अगर अपने लिए कुछ ख़रीदना चाहें, तो उन्हें वास्को ही आना पड़ता है। मार्मुगाव अघनाशिनी नदी के मुहाने पर प्राकृतिक रूप से बना बन्दरगाह है। वास्को नदी और समुद्र के संगम के इस ओर पड़ता है। वहाँ के छोटे-से बीच से टकराती लहरें बहुत शालीन लगती हैं। बीच सडक़ से आठ-दस फ़ुट नीचे है। सडक़ के साथ-साथ बीच की ओर चौड़ी मुँडेर बनी है। रात के समय मुँडेर के पास खड़े होकर देखने पर मार्मुगाव हार्बर में खड़े जहाज़ एक झील में बने छोटे-छोटे घरों-जैसे लगते हैं। वास्को बहुत छोटा-सा शहर है, पर बहुत खुला बसा हुआ है। वहाँ की जनसंख्या आठ-दस हज़ार से ज़्यादा नहीं है, पर उसका फैलाव बहुत है और निर्माण एक अच्छे आधुनिक शहर की तरह हुआ है। जीवन भी वहाँ अपेक्षाकृत शान्त है। पर वहाँ का साधारण-से-साधारण होटल भी उन दिनों बम्बई के अच्छे-से-अच्छे होटल से अधिक महँगा था। यह शायद एक्सपोज़ीशन की वज़ह से था।

हार्बर से कारवाडक़र लौट गया और मैं पंजिम जानेवाली फ़ेरी में बैठ गया।

पंजिम मुझे बहुत साधारण शहर लगा। कुछ आधुनिक इमारतें, तडक़-भडक़दार होटल और भीड़-वही कुछ जो एक औसत दर्जे की राजधानी में हो सकता है। रात को मैं वहाँ गुजरात लॉज में ठहरा। एक ही बड़े-से कमरे में सात-आठ पलँग बिछे थे, जिनमें एक मुझे दे दिया। पलँग में कुछ इस तरह के स्प्रिंग लगे थे कि जब भी मैं करवट बदलता, तो वह बुरी तरह चरमरा जाता,जिससे मेरी नींद टूट जाती। नींद टूटने पर हर बार मुझे एक ही व्यक्ति की भारी-सी आवाज़ सुनाई देती जो दो श्रोताओं को गुजरात लॉज में घटित हुए पुराने क़िस्से सुना रहा था। एक बार मेरी नींद टूटी तो वह कह रहा था, “वह जापानी अपने साथ छिपाकर दस-बारह शराब की बोतलें ले आया था। उसे पता नहीं था कि गोआ में शराब सस्ती है। उसने सोचा कि जापानी शराब यहाँ अच्छे दाम में बेच लेगा। पर जब यहाँ आकर देखा कि शराब पानी के मोल मिलती है, तो बैठकर अपनी शराब ख़ुद ही पीने लगा। हमने उससे कहा कि भले आदमी, इतनी शराब अकेला कैसे पी जाएगा? कम क़ीमत मिलती है, तो कम पर बेच दे। कुछ नुक़सान ही सही। पर वह नहीं माना। दिन-भर न कहीं जाता-आता था, न किसी से मिलता-जुलता था; बस बैठकर अपनी शराब पीता रहता था...।”

यहाँ पर मुझे ऊँघ आ गयी। फिर आँख खुली, तो वह कोई और क़िस्सा सुना रहा था, “...कप्तान ने उसे जहाज़ पर ले जाने से इनकार कर दिया। अब हमारी समझ में न आये कि उसका क्या करें। गोआ की ऐश तो उसने ली थी और मुसीबत हम लोगों को हो रही थी। आख़िर उसे अस्पताल में ले गये। अस्पताल में वह उसी रात को मर गया।”

“उसके घर-बार का कुछ पता नहीं था?” एक सुनने वाले ने पूछा।

“बोरकर नाम था और बम्बई से आया था। अपना पूरा पता उसने नहीं दिया था। वहाँ पर तो नेक और शरीफ़ बनकर रहता होगा न! यहाँ आया था कि दो चीज़ों के लिए गोआ की मशहूरी है। एक शराब और दूसरे रंडी। अब एक क़िस्सा और सुनिए...।”

यहाँ पर मुझे फिर से ऊँघ आ गयी।

सौ साल का ग़ुलाम

सुबह पंजिम से मैं ओल्ड गोआ चला गया। ओल्ड गोआ में कई बड़े-बड़े गिरजाघर हैं जिनमें से एक में (उसका नाम चर्च ऑव बॉम जीज़स है) सेंट फ्रांसिस के शरीर का प्रदर्शन किया जा रहा था। वह शरीर चार सौ साल से वहाँ सुरक्षित है। गिरजाघर के बाहर दर्शनार्थियों की दो लम्बी पंक्तियाँ बनी थीं। जिनमें से प्रत्येक में उस समय कम-से-कम एक-एक हज़ार व्यक्ति खड़े थे। चिलचिलाती धूप में चार-चार छह-छह घंटे खड़े रहने के बाद ही एक व्यक्ति उस स्थान तक पहुँच सकता था जहाँ वह शरीर रखा था। मैंने सुना कि सेंट फ्रांसिस के पैर का एक अँगूठा शीशे के केस में चादर से बाहर नज़र आता है। हर दर्शनार्थी उस स्थान को झुककर चूमता है और आगे बढ़ जाता है। चार सौ साल पुराने शरीर को देखने की उत्सुकता मेरे मन में भी थी, पर पंक्ति में चार-छह घंटे खड़े होने का धीरज नहीं था। इसलिए मैं कुछ देर वहाँ बस आसपास ही घूमता रहा।

वहाँ का वातावरण उत्तर भारत के हिन्दू-मेलों जैसा था। उसी तरह वहाँ मूर्तियाँ, मालाएँ और धार्मिक पुस्तकें बिक रही थीं। उन दिनों के लिए गिरजे के पास अस्थायी बाज़ार लग गया था जिसमें प्राय: सभी स्टाल चटाइयों के बने थे। बाज़ार के एक तरफ़ बड़े-बड़े मटकों में चींटों से भरी ताड़ी बिक रही थी। मैंने वहीं एक ढाबे में खाना खाया और घूमता हुआ दूर के गिरजाघरों की तरफ़ निकल गया। वे गिरजाघर एकदम सुनसान थे। कोई एक भी व्यक्ति उस तरफ़ आता दिखाई नहीं दे रहा था। एक गिरजाघर के बाहर बहुत-सी हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियाँ बिखरी थीं। शायद उन्हें बेघर करके ही वह गिरजाघर वहाँ खड़ा किया गया था। मूर्तियाँ ख़ानाबदोशों की तरह यहाँ-वहाँ पड़ी आसमान को ताक रही थीं। मैंने दो-एक उलटी मूर्तियों को सीधा कर दिया और वहाँ से आगे निकल गया।

धूप बहुत थी। मैं नारियलों के एक घने झुरमुट की तरफ़ बढ़ गया। झुरमुट में पहुँचकर दूर तक फैले धान के एक खेत के पास से समुद्र की तट-रेखा को देखता रहा। आसपास और भी वैसे ही खेत थे जो चारों ओर से नारियल के पेड़ों से घिरे हरियाली की छोटी-छोटी झीलों जैसे लग रहे थे। धान लहलहाता, तो झीलों में लहरें उठ आतीं। मुझे प्यास लग आयी थी। खेतों के बीच से आते एक किसान को मैंने आवाज़ देकर रोक लिया। उसने पहले कोंकणी में और फिर टूटी-फूटी अँग्रेज़ी में पूछा कि मैं क्या चाहता हूँ।

“यहाँ कहीं पीने का पानी मिल सकता है?” मैंने उससे पूछा।

“क्यों नहीं मिल सकता?” वह बोला। “मेरे पीछे-पीछे चले आओ।”

मैं उसके साथ चल दिया। जिस कोठरी की तरफ़ वह ले जा रहा था, वह दूर नहीं थी। पर रास्ते में दो-तीन छोटे-छोटे नाले पड़ते थे जिन पर नारियल के तने रखकर पुल बना लिये गये थे। वह तो उन्हें बहुत आसानी से पार कर जाता था, पर मेरे लिए उन पर से गुज़रना बहुत मुश्किल काम था। मैं बाँहें हिलाकर अपना सन्तुलन ठीक रखता हुआ दो-एक पुल तो पार कर गया, पर आख़िरी पुल के बीच में पहुँचकर, जो उस कोठरी के सामने था, मेरा सन्तुलन बिगड़ गया। सामने से एक कुत्ता ज़ोर से भौंकता हुआ मेरी तरफ़ लपका। कुत्ते के लपकने से मेरा बिगड़ा हुआ सन्तुलन अचानक ठीक हो गया और मैं झपटकर दूसरी तरफ़ पहुँच गया।

कोठरी के बाहर एक बाड़ा था जिसमें आठ-दस मुर्ग़ियाँ बाद दोपहर का विश्राम कर रही थीं। बाड़े के पास पहुँचकर किसान ने मुझसे रुकने को कहा और ख़ुद दौड़ता हुआ कोठरी के पीछे की तरफ़ चला गया। तीन-चार मिनट बाद वह हाथ में ताली लिये हुए लौटकर आया और मुझसे साथ अन्दर आने को कहकर दरवाज़ा खोलने लगा।

कोठरी के बाहर का आँगन अच्छी तरह पुता हुआ था। कोठरी अन्दर से भी साफ़-सुथरी थी। बीच में पार्टीशन डालकर तीन छोटे-छोटे कमरे बना लिये गये थे। एक कमरे में पलँग बिछा था जिसका बिछावन काफ़ी उजला था। दूसरे कमरे में खाना बनाने का सामान बहुत क़रीने से रखा था। तीसरे में एक नीची गोल मेज़ और दो-तीन आराम-कुर्सियाँ पड़ी थीं। उसी कमरे में एक सुराही में पानी भरा रखा था। किसान मुझे पानी देने से पहले शीशे के गिलास को मल-मलकर धोने लगा। मैंने उससे उसका नाम पूछ लिया।

“मेरा नाम है फ्रेड”, उसने नम्रता और संकोच के साथ कहा।

“यहाँ के सब किसान इसी ढंग से रहते हैं जैसे तुम रहते हो?” मैंने पूछा।

उसके चेहरे के भाव से लगा कि मेरा सवाल उसकी समझ में नहीं आया।

मैंने समझाते हुए कहा, “मेरा मतलब है तुम्हारा घर जितना साफ़-सुथरा है, रहन-सहन जितना अच्छा है, तुमने जैसे अपनी मुर्ग़ियाँ पाल रखी हैं और कुत्ता रख रखा है, क्या और किसान भी इसी तरह रहते हैं या कुछ थोड़े से ही किसान ऐसे हैं जो इस स्तर का जीवन बिता पाते हैं? तुम्हारी पैदावार ज़्यादा है, इसलिए तुम इतनी अच्छी तरह रहने का ख़र्च उठा सकते हो या यहाँ के सब किसान इतने ही ख़ुशहाल हैं?”

मेरी लम्बी-चौड़ी बात का उसने बहुत संक्षिप्त-सा उत्तर दिया, “जी, यह कोठरी मेरी नहीं है।”

ख़ाली गिलास वापस रखकर मैं उसके साथ कोठरी से बाहर निकल आया। एक नज़र आसपास के खेतों पर डालकर मैंने पूछा, “यह खेत भी तुम्हारे नहीं हैं?”

वह कोठरी का दरवाज़ा बन्द कर रहा था। ताला ठीक से लग गया, तो वह मूर्तियों वाले गिरजाघर की तरफ़ इशारा करके बोला, “वह गिरजा देख रहे हैं न...ये खेत उसी गिरजे के बड़े पादरी के हैं। यह घर भी उन्हीं का है। मैं उनके खेतों में काम करता हूँ। मेरा अपना घर उस तरफ़ है।” और उसने उधर इशारा किया जिधर से वह ताली लाने गया था।

“और मुर्ग़ियाँ?”

“ये भी उन्हीं की हैं। कुत्ता भी उन्हीं का है। उधर उनकी एक छोटी-सी डेरी भी है।”

“पादरी रात को गिरजे से यहाँ आ जाते हैं?”

“जी नहीं,” वह बोला। यहाँ तो वे कभी-कभार आराम करने के लिए आते हैं। उनका बड़ा बँगला गिरजे के साथ है।” फिर कुछ रुककर बोला, “पर पादरी आजकल यहाँ नहीं हैं।”

“कहीं बाहर गये हैं?”

“जी हाँ, अपने देश गये हैं-पुर्तगाल।”

“तुम उनके पास कब से हो?”

“हमारा ख़ानदान सौ साल से उनके ख़ानदान की सेवा में है,” उसकी आँखों में गर्व की चमक आ गयी। सौ साल से इन खेतों की जुताई-कटाई हमीं लोग करते आ रहे हैं।”

और वह मेरे चेहरे पर अपनी बात का प्रभाव देखता हुआ और भी गर्व के साथ मुस्करा दिया। कोई दूर से उसे आवाज़ दे रहा था।”आप जिस रास्ते से आये हैं, उसी रास्ते से चले जाएँ, कुत्ता आपको कुछ नहीं कहेगा,” कहकर वह भागता हुआ उस तरफ़ चला गया। उसके गर्वयुक्त चेहरे की छाप आँखों में लिए मैं फिर से पेड़ों के तने पार करने लगा।

मूर्तियों का व्यापारी

हर आबाद शहर में कोई एकाध सडक़ ज़रूर ऐसी होती है जो न जाने किस मनहूस वज़ह से अपने में अलग और सुनसान पड़ी रहती है। इधर-उधर की सडक़ों पर ख़ूब चहल-पहल होगी, पर बीच की वह सडक़, अभिशप्त उदास और वीरान ऐसे नज़र आती है जैसे बाक़ी सडक़ों ने कोई षड्यन्त्र करके उसका बहिष्कार कर रखा हो। मडग़ाँव में एक ऐसी ही सडक़ के बीच में रुककर मैं कुछ देर चार-पाँच अधनंगे बच्चों को सिगरेट की ख़ाली डिबियों से अपना ही एक खेल खेलते देखता रहा।

मडग़ाँव से मुझे वास्को की गाड़ी पकडऩी थी। गाड़ी शाम को साढ़े पाँच बजे आती थी और उस समय अभी तीन बजे थे। मैंने तब तक तय कर लिया था कि अगले दिन मैं गोआ से चल दूँगा। एक स्थानीय प्रोफ़ेसर ने बतलाया था कि वहाँ पुलिस को यदि पता चला कि मैं एक भारतीय नागरिक हूँ और वहाँ रहकर हिन्दी में कुछ लिखा करता हूँ, तो यह असम्भव नहीं कि मुझे और मेरे काग़ज़ों को तब तक के लिए हिरासत में ले लिया जाए जब तक उन्हें विश्वास न हो जाए कि मैं गोआ की पुर्तगाली सरकार के विरुद्ध किसी षड्यन्त्र में सम्मिलित नहीं हूँ। परन्तु मेरे चल देने के निश्चय का कारण यह नहीं था। कारण अपनी अस्थिरता ही थी-अस्थिरता और उदासी। मुझे न जाने क्यों वह सारा प्रदेश बहुत ही बेगाना लग रहा था। अगले दिन स्टीमर 'साबरमती'बम्बई से मार्मुगाव पहुँच रहा था। मैं उसमें मंगलूर जा सकता था। स्टीमर में यात्रा का मोह इतनी जल्दी कार्यक्रम बना लेने का एक और कारण था।

दोपहर को गाड़ी का समय पूछने मडग़ाँव स्टेशन पर गया था। उस समय वहाँ एक व्यक्ति ने मेरे पास आकर पूछा था कि क्या मैं सवा रुपये में सेंट फ्रासिस की एक मूर्ति ख़रीदना चाहूँगा। उसके पास सौ-डेढ़ सौ छोटी-छोटी प्लास्टिक की मूर्तियाँ थीं जो प्लास्टिक के ही पारदर्शी हंडों में बंद थीं। मेरे मना कर देने पर उसके चेहरे पर जो निराशा का भाव आया, उससे मेरा मन हुआ कि एक मूर्ति ख़रीद लूँ, पर यह सोचकर कि हज़ारों ईसाई यात्री वहाँ आये हुए हैं, उनमें से कितने ही उससे मूर्तियाँ ख़रीद लेंगे, मैं उस तरफ़ से ध्यान हटाकर स्टेशन से बाहर चला आया।

काफ़ी देर इधर-उधर घूमकर और सिगरेट की डिबियों का खेल देखने के बाद पहले से कहीं ज़्यादा उदास होकर शाम को वापस स्टेशन पर पहुँचा, तो सबसे पहले नज़र उसी व्यक्ति पर पड़ी। मुझे अपनी तरफ़ देखते पाकर वह फिर मेरे पास चला आया और पहले बारह आने में, फिर आठ आने में मुझसे एक मूर्ति ख़रीद लेने का अनुरोध करने लगा। मुझे इससे अपनी पहले की सहानुभूति के लिए भी खेद हुआ। लगा कि वह उन्हीं फेरीवालों में से एक है जो इसी तरह चीज़ों की क़ीमतें घटा-बढ़ाकर लोगों को ठगा करते हैं। मैंने हलकी त्योरी के साथ सिर हिलाकर फिर मना कर दिया। इस पर उसने ख़ुशामद के साथ कहा, “देखिए प्लीज़, एक मूर्ति की क़ीमत सवा रुपये से कम नहीं है। मैं दूसरी कोई मूर्ति सवा रुपये से कम में नहीं बेचूँगा।”

मेरा मन उदास था और मुझे मूर्ति में कोई दिलचस्पी नहीं थी। मैं जाकर एक बेंच पर बैठ गया। वह वहाँ भी मेरे पीछे-पीछे चला आया।

“पर तुम क्यों वह मूर्ति मेरे मत्थे मढऩे के पीछे पड़े हो?” मैंने काफ़ी झुँझलाहट के साथ कहा। “तुम्हें और कोई नहीं मिल रहा ख़रीदने वाला?”

वह पल-भर ख़ामोश रहा। फिर जैसे संकोच का पर्दा हटाता हुआ बोला, “देखिए प्लीज़, बात यह है कि मैं सुबह से अब तक एक भी मूर्ति नहीं बेच पाया। मेरे पास एक भी पैसा नहीं है, और मैं सुबह से भूखा हूँ। आज नये साल का दिन है। मैं ईसाई हूँ। चाहिए तो यह था कि आज मैं नये कपड़े पहनकर घर से निकलता और दिन-भर मौज़ उड़ाता, पर मेरा ट्रंक फ़ादर डिसूज़ा के कमरे में है और फ़ादर कमरे की ताली अपने साथ ले गये हैं। मैं सुबह से न कपड़े बदल सका हूँ और न खाना खा पाया हूँ। सोचा था कि दो-एक मूर्तियाँ बिक जाएँगी, तो कम-से-कम खाने का सिलसिला तो हो ही जाएगा। मगर नये साल का दिन है, मुँह से कुछ कहा भी नहीं जाता। मेरे लिए यह दिन ऐसा मनहूस चढ़ा है कि सुबह से अब तक एक प्याली चाय भी गले से नीचे नहीं उतार सका। रोज़ मैं सौ-पचास मूर्तियाँ बेच लेता हूँ, पर आज पूरे दिन में एक भी नहीं बिक पायी। इस वक़्त भूख के मारे मेरा क्या बुरा हाल है, मैं बता नहीं सकता।”

वह चौबीस-पचीस साल का युवक था। पर बात करते हुए उसकी आँखें लड़कियों की तरह झुकी जा रही थीं। मैं तब भी तय नहीं कर पाया कि वह सच कह रहा है या यह भी उसकी दुकानदारी का ही एक लटका है। “ये फ़ादर डिसूज़ा कौन है?” मैंने उससे पूछा।

“हमारे पार्सन हैं,” वह बोला। “मैं उन्हीं के साथ बम्बई से यहाँ आया हूँ।”

“ये मूर्तियाँ भी तुम बम्बई से ही लाये हो?”

“नहीं, ये फ़ादर डिसूज़ा रोम से लाये थे।”

“और तुम उन्हीं की तरफ़ से इन्हें बेच रहे हो?”

“जी हाँ। फ़ादर डिसूज़ा मुझे इन पर पाँच प्रतिशत कमीशन देते हैं। हमने इन थोड़े-से ही दिनों में बारह-तेरह सौ मूर्तियाँ बेच ली हैं। मगर आज का दिन जाने क्यों इतना ख़राब चढ़ा है। आज पहली जनवरी है। मैं डर रहा हूँ कि मेरा पूरा साल ही कहीं इस तरह न बीते।”

“पर फ़ादर डिसूज़ा कमरा बन्द करके कहाँ चले गये?” मैंने पूछा।

“आधी रात को उनका...के बड़े गिरजे में सर्मन था। रात के बारह बजे नया साल शुरू होने के समय वहाँ प्रार्थनाएँ होनी थीं-उनके बाद उन्हें सर्मन देना था। उन्हें इसीलिए विशेष रूप से यहाँ बुलाया गया था। एक साल पहले से ही इन लोगों ने उनसे वचन ले रखा था।”

“फ़ादर डिसूज़ा रोम कब गये थे?”

“चार महीने पहले। अभी महीना-भर पहले लौटकर आये हैं।” फिर पल-भर रुका रहने के बाद वह बोला, “जाते हुए वे ताली इसलिए साथ लेते गये होंगे कि तीन-चार हज़ार की मूर्तियाँ अब भी कमरे में रखी हैं। मुझे उस समय उन्होंने यहाँ के एक और गिरजे में मूर्तियाँ बेचने के लिए भेज रखा था। मेरे लौटकर आने से पहले ही उन्हें चले जाना पड़ा। अब कल सुबह से पहले वे लौटकर नहीं आएँगे।” फिर उसी आग्रह के साथ उसने कहा, “आप एक मूर्ति ले लीजिए। प्लीज़ मैं आपको चार आने में दे रहा हूँ।”

“आओ तुम मेरे साथ चाय पी लो,” मैंने कहा। “मूर्ति मुझे नहीं चाहिए।”

हम चाय-स्टाल पर पहुँचे, तो पुर्तगाली सिपाहियों का एक दस्ता मार्च करता हुआ हमारे सामने से निकल गया। वह कुछ देर उन्हें देखता रहा। फिर जबड़े स$ख्त किये बोला, “किस तरह अकडक़र चलते हैं ये। दिन-भर मैं इन्हें यहाँ इधर से उधर गश्त लगाते देखता हूँ। करते-धरते ये कुछ नहीं, बस अकडक़र चलना जानते हैं। कोई इनकी आँखों के सामने मर भी जाए, तो ये उसे उठाएँगे नहीं, सडक़ पर पड़ा रहने देंगे। मैंने यह अपनी आँखों से देखा है। यहाँ मडग़ाँव की ही एक सडक़ पर एक मरा हुआ कुत्ता तीन दिन उसी तरह पड़ा रहा। इनका शायद ख़याल था कि कुत्ते के भाई-बन्द ही उसे उठाकर दफ़नाने के लिए ले जाएँगे।”

ज्यों-ज्यों चाय के घूँट और केक के टुकड़े गले से नीचे उतर रहे थे, उसके चेहरे पर सचमुच कुछ जान आती जा रही थी। अपनी प्याली ख़ाली करके वह आँखें बन्द किये पल-भर न जाने क्या सोचता रहा। फिर बोला, “मैं जानता हूँ मुझे आज किस पाप की यह सज़ा मिली है। मैं आज नये साल के दिन सुबह गिरजे में प्रार्थना करने नहीं गया। उसी का यह फल है। मैं अपने मैले कपड़ों की वजह से झिझकता रहा। पर ईश्वर के घर मैले कपड़ों में जाने में आदमी को संकोच क्यों हो? मुझे वहाँ कोई रोकता थोड़े ही?इतना ही था न कि लोग देखकर समझते कि...” और उस वाक्य को अधूरा छोड़ उसने फिर कहा, “ख़ैर मुझे पता तो चल ही गया है, कि यह मुझे किस चीज़ की सज़ा मिली है। यही वजह है जो मेरी मूर्तियाँ आज नहीं बिकीं।”

मैं बिना उससे उस सम्बन्ध में कुछ कहे चाय के घूँट भरता रहा। मन में मूर्तियों के उस व्यापारी के विषय में सोच रहा था जो रात को सर्मन देने गया था और ताली अपने साथ लेता गया था क्योंकि...।

आगे की पंक्तियाँ

जिस समय मैं वास्को पहुँचा, रात हो चुकी थी। कारवाडक़र प्रतीक्षा कर रहा था। उसने अगले रोज़ वहाँ से सोलह मील दूर एक मन्दिर देखने चलने का कार्यक्रम बना रखा था। जब मैंने उसे बताया कि मैंने सुबह 'साबरमती' से मंगलूर चले जाने का निश्चय किया है, तो उसे बहुत निराशा हुई। उसने पिकनिक का सामान तैयार कर लिया था और अपनी साली को भी, जो वहाँ पर लेडी डॉक्टर थी, साथ चलने का निमन्त्रण दे दिया था। पर मुझे उसने यह सब नहीं बताया। सुबह नाश्ते के समय मुझे मालूम हुआ कि जो कुछ मैं खा रहा हूँ, वह सारा सामान उस दिन की पिकनिक के लिए तैयार किया गया था। मुझे अफ़सोस हुआ। पर तब तक कारवाडक़र ख़ुद ही जाकर मार्मुगाव से मेरे लिए 'साबरमती' का टिकट ले आया था।

रात को मैं कारवाडक़र के साथ फिर घूमने निकल गया था। चाँदनी रात में वास्को की मुख्य सडक़, जिसके बीचोंबीच थोड़े-थोड़े फ़ासले पर छोटे-छोटे पेड़ लगे हैं, एक रूमाली नींद में सोयी लग रही थी। हमारे दायीं ओर नये साल के लिए सजायी गयी कोठियों में नृत्य-संगीत चल रहा था। बायीं ओर से समुद्र की लहरों की हल्की-हल्की आवाज़ सुनाई दे रही थी। मुझे लगा कि मैंने जितने शहर अब तक देखे हैं, उनमें वास्को सबसे सुन्दर है-दो-चार पंक्तियों की एक छोटी-सी भावपूर्ण कविता की तरह। मैंने कारवाडक़र से यह बात कही, तो वह थोड़ा मुस्कराया और बोला, “इस सुन्दर कविता की कुछ पंक्तियाँ इससे आगे मिलेंगी। इसी सडक़ पर थोड़ा-सा और आगे।”

मैं दिन-भर घूमकर काफ़ी थक चुका था और तब उससे लौटने को कहने की सोच रहा था। पर शहर के उस भाग को भी देख लेने के लोभ से चुपचाप उसके साथ चलता रहा।

सडक़ का वह हिस्सा जहाँ बीच में पेड़ लगे थे, पीछे रह गया। आगे खुली सडक़ थी। दायीं ओर कुछ बड़ी-बड़ी कोठियाँ थीं जो एक-दूसरे से काफ़ी हटकर बनी थीं। कुछ रास्ता और चलकर कारवाडक़र बायीं ओर को मुड़ गया और कच्चे रास्ते पर चलने लगा। उस ऊँचे-नीचे रास्ते पर चलते हुए अँधेरे में एक जगह मैं ठोकर खा गया।

“यह तुम मुझे कहाँ लिये चल रहे हो?” मैंने ठोकर खाये पैर को दूसरे पैर से दबाते हुए कहा।

“जो जगह तुम्हें दिखाना चाहता हूँ वह इसी तरफ़ है”, कारवाडक़र बोला। “अब हमें बस सौ-पचास ग़ज़ ही और जाना है।”

रास्ता कभी दायें और कभी बायें को मुड़ता हुआ कुछ झोपडिय़ों के सामने आ निकला। प्राय: सभी झोंपडिय़ाँ चटाई की बनी थीं। बीस साल पुरानी चटाई की दीवरों का जो मैला-फटा और गला-सड़ा रूप हो सकता है, वह उन झोपडिय़ों में नज़र आ रहा था। एक झोपड़ी के आगे दो मोमबत्तियाँ जल रही थीं। उस ओर संकेत करके कारवाडक़र ने कहा, “वह एक ईसाई का घर है जो इस तरह आज अपना नया साल मना रहा है।”

“यहाँ यही एक ईसाई का घर है?” मैंने पूछा।

“नहीं,” वह बोला। “यह मिली-जुली बस्ती है। ज़्यादातर घर यहाँ धोबियों के हैं जिनमें आधे से ज़्यादा ईसाई हैं। पर यह आदमी शायद औरों से ज़्यादा मालदार है। देखना, ज़रा बचकर आना...,” उसने सहसा बाँह से पकडक़र मुझे होशियार कर दिया। मैंने वक़्त से सँभलकर झोपडिय़ों के आगे से बहते गन्दे पानी के नाले को पार कर लिया।

एक झोपड़ी के बाहर पहुँचकर कारवाडक़र ने किसी को आवाज़ दी। एक आदमी हाथ में दीया लिये अन्दर से निकल आया। कारवाडक़र ने उससे कोंकणी में कुछ बात की। फिर हम लोग वहाँ से वापस चल पड़े। चलते हुए कारवाडक़र बतलाने लगा कि उस आदमी से उसने पूछा था कि वह ईसाई होकर भी आज नया साल क्यों नहीं मना रहा। उस आदमी ने उत्तर दिया कि उसने आज दिन-भर सोकर नया साल मना लिया है। “यह है यहाँ की वास्तविक कविता। कैसी लगी तुम्हें?” उसने कहा और मुझे चुप देखकर मुस्करा दिया।

वहाँ से निकलकर हम फिर पक्की सडक़ पर आ गये। कविता की पहली पंक्तियाँ फिर सामने उभरने लगीं।