आखिरी खत / राजा सिंह

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शशि!

तुम्हारी शादी का कार्ड मेरे सामने है और मैं कार्ड में उभरते तुम्हारे उषाकाल की तरह सुन्दर अक्श को निहार रहा हूॅ जो कि हर पल डूबता एवं उतरता-सा लग रहा है। या फिर ये भी मेरी गलतफहमी हो जैसे अभी तक थी कि तुम मुझसे रूठी होगी न कि कुपित और देर-सबेर में तुम्हें मना लॅूगा। परन्तु मेरी समस्त सम्भावनाओं को निरस्त करता हुआ ये कार्ड मेरे दिल को करोंच-करोंच कर बाहर निकाल रहा है।

शशि, काश! शादी के कार्ड में तुम्हारे साथ मेरा नाम होता...

लेकिन नहीं। ऐसा न होने में तुम्हारी अहम् भूमिका रही। क्यों? आखिर क्यों? तुमने जीवन और सुरक्षित भविष्य के लिये अपना प्यार परवान कर दिया और मेरे जीवन को निपट अंधेरी गुफा में छोड़ दिया तनहा भटकने के लिए. हालांकि मेरे दिन उसी वक्त से रूखे और स्वादहीन हो गये थे जिस दिन से तुम नाराज हुई हो, परन्तु अब तो दिनों से जलने और सड़ने की भी बदबु आने लगी है। तुम्हारी स्मृति पके घाव की तरह टीस रही है।

याद आता है वह दिन जब तुमसे मुलाकात हुई थी, जिसने मेरे शान्त निर्वन्ध जीवन में हलचल मचा दी थी। उस दिन तुम अपनी मम्मी के साथ अपने मामा के घर आई थीं और मैं तुम्हारे ममेरे भाई सुनील के साथ आफिस की राजनीति में उलझा हुआ था। कुछ समय बाद अचानक ही बातचीत में तुम शरीक हो गई थीं। हम लोगों को तुम्हारा बीच में टपकना नागबार नहीं गुजरा था, क्योंकि तुम्हारी बातचीत में समझदारी एवं मित्रता की झलक थी। उस दिन फिर कब बातचीत बैंक की राजनीति से देश की राजनीति की ओर खसक गई पता ही नहीं चला? फिर हम लोगों ने काफी विषयों में बातचीत की थी। उस दिन जब हम लोग अलग हुये थे हम लोगों का अजनबीपन दूर हो चुका था और हम लोगों ने एक दूसरे को अपने घर आने का आमन्त्रण भी दे डाला था।

कुछ दिनों बाद अचानक ही तुमसे पब्लिक लाइब्रेरी में मुलाकात हो गई थी। हम एक दूसरे को देखकर मुस्कराये थे। नमस्कार करने में तुम्हारी पहल देखकर मैं अभिभूत हो गया था। वहीं पर तुमने बताया था कि हिन्दी में तुम शोध कर रही हो और जब मैंने तुम्हें बताया कि मैं लेखन में संघर्षरत हॅू तो तुम हल्के से मुस्काराई थीं और कहा मुझे मालूम है, सुनील भइया ने बताया था। थोड़ी देर के औपचारिक वार्तालाप के बाद तुमने अपने शोध में सहायता करने को कहा था। मैं भला क्यों इन्कार कर सकता था जब कि मैं खुद तुमसे मिलने के बहाने की तलाश में था। हालांकि मैं पूरी तरह आश्वस्त नहीं था कि मैं तुम्हारी सहायता कर पाऊॅगा कि नहीं। तुमसे अक्सर मुलाकातें होने लगीं। कभी लाइब्रेरी में और कभी तुम्हारे घर में। हम लोग अक्सर लम्बी-लम्बी बहसें किया करते थे। बातचीत फ़िल्मों की हो या फैशन की या किसी किताब की हम लोग अक्सर सभी विषयों में एकमत होते थे। हमारी बातचीत अक्सर साहित्य पर आकर ठहर जाती थी। तुम मेरे लेखन की काफी प्रशंसा करती थीं और शायद प्रभावित भी थीं। लेखन के मामले में तुम सदैव मुझे प्रोत्साहित करती रहती थीं। एक दिन तुमने अपनी लिखी कुछ गजलें दिखाई थीं। मैं तुम्हारी संवेदनाशील अभिव्यक्ति से प्रभावित हुआ था।

तुम्हारे घर में भी मैं काफी घुल-मिल गया था। अगर तुम्हारे घर जाने में काफी दिनों का गैप हो जाता तो तुम्हारे मम्मी-पापा भी उलाहना दिया करते। तुम से मिलना अपनी दिनचर्या का आवश्यक अंग हो गया था। जिस दिन तुमसे न मिल पाता ऐसा लगता कुछ ऐसा है। जो भूल गया हॅू या फिर...फिर कुछ खो गया है। मैं तुम्हारे चुम्बकीय शालीन सुंस्कृत बुद्धिजीवी व्यक्तित्व पर मर मिटा था।

एक बार हम दोंनों चिड़ियाघर देखने गये थे। वहीं पर मैंने देखा था कि तुम्हारी शालीन गम्भीरता किस तरह धुल गई थी। चेहरे और हाव-भाव में बच्चों वाली उत्सुकता एवं खिलन्दड़पना उभर आया था। मैं भ्रमित-सा निश्चय नहीं कर पा रहा था कि किसी व्यक्ति में कब बचपन सवार हो जाएगा कहा नहीं जा सकता है। वह रूप कितना प्यारा-सा था? और मैं मुग्ध होकर तुम्हारे बचपन को निहार रहा था। तुम करीब-करीब हर जानवर को देखकर उसकी प्रशंसा में कुछ न कुछ कह उठतीं थी। ...'राज देखो ये रंग-बिरंगी चिड़िया कितनी अच्छी लग रही है। हैं न? ये देखो काले मुॅंह के बन्दर। तुम आगे-आगे बढ़कर इस प्रकार बात कर रही थी जैसे कोई अपने अभिभावक से सवाल जबाब करता हैं। फिर एक चिम्पां जी के जोड़े को देखकर जो कहा,' राज, देखो ये आपस में कितना प्यार करते हैं। ' उस पर अन्य देखने वाले हम लोगों की तरफ आकर्षित हो उठे थें और मैं झेंप गया था। तब मैंने तुम्हें झिड़का था क्या बच्चों जैसी बकवास लगा रखी है? मेरी झुंॅझलाहट में तुम अपने में वापस लौट आयीं थी। शेष समय तुमने चुप लगा ली थीं। चिड़िया घर का शेष भाग देखने में बोझिलता उतर आयी थी। रेस्ट्रा में भी तुम्हारी गुमसुम सूरत और चुप्पी ने मुझे अपराध बोेध से भर दिया था। मैं फिर से तुम्हारी मीठी आवाज सुनना चाहता था। मगर तुमने शायद मौन व्रत कर लिया था। लौटते समय जब मैंने कहा बुरा मान गई. तुमने कुछ जबाब न देकर सिर्फ़ तिरछी नजर से देखा भर था और वह नजर इतनी संवेदनशील थी कि मैं भीतर ही भीतर पिघल गया था। कई दिनांे तक मैं अपने व्यवहार पर पछताता रहा था। सोचता रहा कि तुमने अपमानित महसूस किया होगा मेरी झिड़की से। मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था।

एक दिन तुम अचानक ही मेरे कमरे में आ धमकी थीं। तुम्हारे अत्याशित आगमन पर भौच्चका-सा मैं अपने कमरे की अस्त-व्यस्त दशा पर जब तक शर्म करता, तुमने तुरन्त आर्डर कर डाला 'राज, जल्दी तैयार हो जाओं एक जगह चलना।' रास्ते में तुमने बताया था कि मालविका के घर चल रहें है। आजकल उसका पति आया हुआ है और वे लोग तुमसे मिलना चाहते हैं। मैंने इन्कार कर दिया था। वजह सिर्फ़ यही थी कि मैं शो-पीस नहीं बनना चाहता था। तुम बिफर उठीं थी, क्यों? क्यों? आखिर क्यों? जब मैंने कहा, लोग क्या सोचेगें? सोचेगें जब, जब मैं कुछ छिपाऊॅंगी। राज, तुम्हें लेकर मैं किसी प्रकार की शर्म नहीं महसूसती बल्कि तुम्हारा साथ मेरे लिये सम्मान की ही बात है। फिर तुम क्यों झिझकते हो? आखिर क्यों? मैंने सफाई देने की कोशिश की थी मगर तुम्हारी जिद के आगे मेरी एक न चली और मुझे जाना पड़ा था।

तुम्हारी सहेली की नई-नई शादी हुयी थी और उसका पति आया हुआ था। हम लोग आपस में जल्दी ही खुल गये थे। वहीं पर तुम्हारा एक और रूप निखरा, किसी को परेशान करने वाला शैतान लड़की का रूप। कुछ-कुछ चंचल-सा। काफी प्यारी लग रहीं थी तुम और कुछ-कुछ अविश्वासनीय भी जब तुम अपनी सहेली के पति से पिक्चर दिखाने और होटल आदि चलने के लिए आग्रह कर रही थीं। वह बहाने पर बहाने कर रहा था और तुम तरह-तरह से तर्क-वितर्क द्वारा उसे राजी करने का प्रयत्न कर रहीं थीं। तुम्हारे मनुहार करने का ढ़ंग काफी आकर्षित कर रहा था मुझें। आखिर तुम्हारी सहेली को हस्तक्षेप करना पड़ा था, तब कहीं जाकर वे महाशय राजी हुये थे नास्ता कराने के लिए और हम सब लोग गये थे, घूमने फिरने। तथा होटल में नास्ता भी किया था।

वहॉं से लौटने पर तुम मुझसे जमकर लड़ी थीं। तुम्हारा कहना था होटल में बिल का भुगतान मुझे करना चाहिए था। जब कि मेरा कहना था जब तुमने उसे खर्च करने को राजी किया था तो मेरा पेमेन्ट करना मुनासिब न था और अगर मैं ऐसा करता तो एक तरह से तुम्हारे और उसके बीच समझौते में मेरा अनावश्यक हस्तक्षेप होता। मगर तुम्हें मेरे तर्क सन्तुष्ट नहीं कर पाये थे। तुमने उस दिन जो कहा था आज भी मेरे दिल में सुरक्षित हैं। तुमने कहा ' राज, मैं तुम्हें इसलिए सहेली के घर ले गई थी कि मैं सिद्ध कर सकूॅं कि अपने द्वारा पसन्द किये गये जीवन साथी हर मामले में घर वालों द्वारा तय किये गये से बेहतर होता हैं। तुम सूरत, शक्ल पर्सनलटी हरेक में उससे बेहतर हो और अगर तुमने आगें बढ़ कर पेमेन्ट कर दिया होता तो मुझे नीचा न देखना पड़ता। मैं कहता पर मेरी तो सुनों। परन्तु तुमने कुछ भी सुनने से इन्कार कर दिया था। मैं मनाते-मनाते थक गया था परन्तु तुम तनी ही रही थीं। उस दिन मुझे अहसास हुआ कि तुम छोटी-छोटी बातों को कितने गहरे स्तर तक ले जाती हो। यकीन मानों शशि तुम्हारी उस झिड़की का ही परिणाम है कि मैं तब से सदैव आगे बढ़कर पेमेन्ट करता हॅू और इसी कारण ही मैं अपने फ्रेन्ड सरकिल में काफी लोकप्रिय भी हॅू परन्तु शशि तुम्हें क्या हुआ? तुम अपनी ही बात भूल गई. प्रेमी को हर मामले में श्रेष्ठ सिद्ध करने वाली आज क्यों घर वालों द्वारा पसन्द किये गये लड़के के साथ शादी करने जा रही हैं तुम अपनी मान्यताओं से इस तरह से मुॅंह मोड़ लोगी यकीन नहीं आ रहा हैं।

उस समय भी मन इतना खिन्न और स्थापित नहीं रहता था, जब अपने बॉस से लड़ाई चल रहीं थी, जितना आजकल है। क्योंकि उस समय तुम मेरे साथ थी। तुम्हारी हौसला अफजाई ज़िन्दगी में एक नया उत्साह पैदा किया करती थी। हालांकि तुमने कभी भी मेरा फेवर नहीं किया परन्तु तुम्हारा यह कहना 'राज सब कुछ ठीक हो जायेगा। आखिर तुम्हारे जैसे व्यक्ति से भी किसी की लड़ाई हो सकती हैं यकीन नहीं आता और फिर तुम किसी से लड़ भी सकते हो, ताज्जुब होता।' मन को भीतर तक भिगो जाता था। परन्तु मेरे विषय में ऐसे ख्यालात रखने वाली, क्यों अपने ही ख्यालातों से लड़ाई कर बैठी है? ये तुम जान ही गई हो कि मैं लड़ाई कर सकता हॅू। क्योंकि शशि वह लेखक ही क्या, जिसने किसी स्तर पर लड़ाई न लड़ी हो और आज मैं तुम्हारी यादों से लड़ाई कर रहा हॅू। तुम मुझे कितना जानती थी याद करता हॅू तो एक हूक सारे दिलोंदिमाग में यातनाओं का जाल डाल जाती है। मेरे बास को अपनी गलती महसूस हुई और उसे कहना पड़ा 'मिस्टर तुम्हें समझने में गलती हुई मैं मिस गाइड किया गया था।' और सब कुछ सामान्य हो गया था। उस दिन से ही ऐसा लगा था कि जीवन के हर क्षेत्र में तुम्हारा साथ अनिवार्य-सा हैं।

शशि! वह दिन भी आया जब कि न केवल तुम मुझसे लड़ी बल्कि मेरा साथ भी छोड़ दिया और उस समय जबकि तुम्हारे साथ की नितान्त आवश्यकता थी। काफी दिनों से मैं महसूस कर रहा था कि बैंक की नौकरी में, इतना खलास हो जाता हॅू कि लेखन के लिए पर्याप्त समय नहीं मिल पाता है इस कारण अपना लेखक प्राप्त करने के लिए मैं नौकरी छोड़ आया था। घर में मेरे इस कदम से भूचाल आ गया था। घर वालों ने मूक विद्रोह किया था सबने मुझसे बोलना छोड़ दिया था। मैं घर में एक निबर्ल टापू-सा अस्तित्वहीन हो गया था और इस टापू के प्रति बड़ी निमर्म भूमिका निभाही तुमने, निरन्तर कोसने वाले तीखे शब्दों की गोलाबारी करके. तुम बरस रहीं थी...' आखिर! तुम मुझे अपमानित करने पर तुले क्यों हो? तुम्हारे घर वाले इसका कारण मुझे समझ रहें होगें। आखिर, तुम्हारे ऊपर घर की भी कुछ जिम्मेदारी है कि नहीं ं? आखिर तुम अब क्या करोगें? सारा समय निठ्ठले होकर प्यार फरमाओगें? आखिर मैं ही सब कुछ नहीं। फिर मेरे साथ ही क्या अच्छा हुआ? राज, तुमको लेकर मैंने कितने सपने बुने थे, सोचा था आज तुम क्लर्क हो, कल आफिसर बनोगे। मैं तुम्हें ऊॅंचाई पर जाते देखना चाहती हॅंू और तुम मुझे नीचा दिखाने पर आमादा हो और तुम सुबक पड़ी थीं...बड़ी देर सुबकती रही थी। मैं असहाय-सा तुम्हें देखता रह गया था और तुम उठकर अपने घर चलीं गईं। मैं चाहकर भी तुम्हें रोक नहीं पाया। क्या करता? तुम खुद दुखी होकर मुझे दुख देकर जा रहीं थीं।

अगले दिन मैं अपनी बात कहने के उद्देश्य से तुम्हारे घर पहुॅचा। तुम्हारा चेहरा ऑंसुओं से धुला-सा लगा था। शायद तुम रात भर रोती रहीं थी। तुम्हारी ऑंखें शान्त एवं तटस्थ-सी लगीं। तुमने अनचाहे ढ़ंग से मेरा आगमन स्वीकारा। मैं समझ नहीं पा रहा था इस माहौल में मैं कैसे अपनी बात रख पाऊॅंगा। मगर बात तो करनी ही थी। मैंने कहा, शशि मेरी बात धीरज से सुनो तो सही। आखिर मैंने नौकरी छोड़ी क्यों है? मैं नहीं चाहता हॅू कि मैं एक आम आदमी की तरह मरूॅं। अपना लेखन प्राप्त करने के लिए ही मैंने ही ये किया है। 'इतना सुनकर तुम्हारे चेहरे और ऑंखों में व्यंग तथा उपहास के मिले भाव उभर आयें थे। यह देखकर मैं एक पल को हकबकाया, मगर मैंने अपना कहना जारी रखा, यह सोचकर कि मैं तुम्हें तुम्हारी कमजोरी को उभार कर तुम्हें अपने से सहमत करा लूॅंगा। ये मेरा लेखन ही है, जिसने तुम्हें मेरे इतना करीब ला दिया? तुम्हीं सोचों तुम मेरे लेखन को कितना पसन्द करती हो और हरदम बेहतर लिखने को उत्साहित करती रही हो। आखिर अपनी और तुम्हारी चाह के कारण ही तो मैंने ऐसा किया हैं। ...मगर तुम्हारा जबाब तीखा एवं कठोर था जिससे मैं मर्मान्तक रूप से घायल हो गया था। तुमने कहा, पसन्द तो मैं नौटंकी भी करती हॅू। इसका मतलब ये है कि नौटंकी वाले से शादी कर लूॅं? मैं समझ गया था कि तुम मुझे प्रताणित करना चाहती हो। परन्तु फिर भी मैंने अपना धीरज नहीं खोया था। क्या कहती हो शशि? कुछ तो सोच समझ के बोला करो।' तुमने हताश स्वर में जबाब दिया था, अब समझने के लिए बचा ही क्या है? राज, नौकरी छोड़ना तुम्हारी अस्थिर मनोवृत्ति का परिचायक है और जो व्यक्ति अपने भविष्य को इस तरह ठोकर मार सकता है, वह मुझे नाउम्मीदियों के सिवा दे भी क्या सकता है? ' तुम्हारी दलील सुन कर मैं सन्न रह गया था और अपना-सा मुॅंह लेकर वापस लौट आया था। उस दिन मुझे पता चला था कि जिसे मैं बुद्धिजीवी समझता था वह निहायत एक घरेलू लड़़की है जिसके लिये सम्पन्नता ही सब कुछ है।

तुम्हारे इस तरह से मॅुह मोड़ लेने के बाद मेरी एक हसरत थी कि मैं एक ऐसी नौकरी खोज सकॅू जिसे तुम फक्र समझती हो और जो मेरे लेखन में भी सहायक हो। मुझे एक कालेज में लेक्चर शिप मिली। मैं बड़े उत्साह से तुम्हें बताने गया था। मगर तब तक देर हो चुकी थी। अफसोस तुम्हारी मंगनी हो गई थी। शशि! तुमने इतना बड़ा फैसला करने से पूर्व मुझे बताया तक नहीं। निःसन्देह ये बहुत बड़ी ज्यादती थी मेरे साथ मेरा मन बहुत भारी हो गया था। शशि मैंने कोई ऐसा अपराध नहीं किया था, जिसकी इतनी बड़ी सजा तुमने मुझे दी। उस दिन मैं तुम से कोई बात नहीं कर पाया। वापस लौट आया था, अपने लेखन की कीमत चुका कर। आते समय भी तुमने एक बार भी अपनी शादी में आने को नहीं कहा था। हालांकि तुम्हारे मम्मी-डैडी ने काफी कहा था। आज भी कार्ड भेजते समय तुमने मेरे नाम एवं पता के सिवा कुछ भी नहीं लिखा। कैसे तुमने अपने मन को इतना बॉंध कर रखा है।

याद है शशि, अपनी इतने दिनों की जान-पहचान में हम लोगों ने कभी एक दूसरे को खत नहीं लिखे, क्योंकि कभी इसकी ज़रूरत नहीं पड़ी। ये मेरा प्रथम एवं अन्तिम प्रेमपत्र होगा। हालांकि ये प्रेमपत्र न होकर शिकायत पत्र हो गया है। मगर यकीन मानों शशि, तुमसे शिकायत करने का कोई इरादा नहीं था। बहुत दिनों से भीतर ही भीतर कुछ उमड़़-घुमड़ रहा था। सोचा, तुम्हीं को सुनाऊॅं, क्योंकि अब भी अपने करीब जिसे सबसे ज़्यादा समझ सकता हॅू वह तुम्हीं हो। तुमसे जुड़े रहने का लालच इतना है कि कई दिनांे से सोच रहा हॅू कि ऐसा क्या उपहार दूॅं जिससे कि अगर तुम मुझे भूलने की ओर अग्रसर हो तो वह उपहार पुनः मेरी यादों में घसीट लाये। उपहार के नाम पर याद आया एक बार तुम्हारे जन्म दिवस पर मैंने भेंट स्वरूप एक कैसेट मुकेश के गानों का दिया था और उस समय तुम्हारी प्रतिक्रिया इतनी ठण्डी थी कि मैं भीतर ही भीतर सहम गया था और निश्चय किया था कि आइन्दा से कभी भेंट के रूप में तुम्हें कोई वस्तु नहीं दूॅंगा। याद है तुमने क्या कहा था ' राज, तुम इतने प्यार से यह लाए हो इसलिए रखे लेती हॅू, परन्तु पता नहीं क्यों मुझे उपहारों से रिझाने की गन्ध आती है। निश्चय ही मैं नहीं चाहती कि कोई मुझे रिझाने की कोशिश करें । उपहारों के प्रति तुम्हारी इतनी अनाशक्ति जानते हुये भी अपने आप को इस मोह से मुक्त नहीं कर पा रहा हूूॅं। इसलिए कई दिन से परेशान भी हॅू कि ऐसा क्या दिया जाए जिससे तुम्हें भेंट से रिझााने की गन्ध न आये बल्कि वह भेंट हमारी यादो को महकाए. साड़ी ...जिसके रेशे-रेशे में मेरा प्यार सिमट आये ...नहीं बड़ी चलताऊ चीज होती है। कोई किताब परन्तु किताब के काले अच्छर क्या मेरे प्यार की गहराई तक उतर पायेगें? या फिर कोई एल0 पी0...मगर लाख के बने रिकार्ड क्या मेरी भावनाओं की अभिव्यक्ति कर पायेगें? नहीं। या फिर खूबसूरत गजलों को कोई कैसेट...नहीं ये सब कुछ भी ठीक नहीं है। डरता हॅू तुम्हारी काले सागर-सी काली ऑंखें किसी भी उपहार को वापस मेरे पास नहीं कर देगी? अस्वीकृत उपहार की व्यथा । इसलिए मैं अपने इसी पत्र को उपहार के रूप में तुम्हें प्रेषित कर रहा हॅूू। तुम्हारी शादी के उपलक्ष्य में मेरी तेरी प्यार कहानी का दस्तावेज। उम्मीद है कि इस उपहार से तुम्हें मेरी याद आती रहेगी और इसे अस्वीकृत नहीं करोंगी। अब भी अपनी नजर में तुम्हारा