आखिरी निर्णय / गोवर्धन यादव

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एकदम अकेली पड़ गई थी सुधा। वक्त की आँधी ने उसके नीड़ का एक-एक तिनका बिखेरकर रख दिया था। रिष्तेदार, पास-पड़ोस के लोग आते, दुःख दूर करने के बजाय दुःख बढ़ाकर चल देते। अभी उम्र ही क्या है? पति यू ही उठ जाएगा, किसे पता था। बेचारी....

वैसे ही दुःख क्या कम छोटा था। लोगों की बातें अंदर उतर कर कलेजा छलनी करती रहीं। अंदर सब क्षत-विक्षत था।

एक अजीब सी छटपटाहट ने घेर लिया। बावजूद इसके मंथन भी चल रहा था अंदर-अंदर। कैसे काट पाएगी वह पहाड़ जैसी जिन्दगी? कहने को नाते-रिष्तेदार बहुत है, पर वे सान्तवना के अलावा दे भी क्या सकते हैं। हर तरफ मोर्चा-बंदी है। लड़ाई तो उसे अकेले ही लड़नी है। हर हाल में। स्वयं को। हर मोर्चे पर। लड़ाई लम्बी चलेगी। उधम-साहस, धैर्य-बुद्धि-शक्ति और पराक्रम जैसे कारगर हथियार उसे स्वयं ही जुटाने होंगे, जानती है वह। मृत्यु पर किसी का वश नहीं। अमानत के तौर पर वे देवेन्द्र को गोद में सौंप गए हैं। कम से कम ... उसके लिए तो जीवित रहना पड़ेगा। घुट-घुटकर जीने में क्या फायदा? उसे उठ खड़ा होना होगा।

अपने चालीस-बयालिस साल के जीवन का लेखा-जोखा करने लगी थी वह। अपनी सखी-सहेलियों से एकदम हटकर थी वह, सूरत-सीरत में। कुदरत ने स्वयं अपने हाथों से श्रृंगार किया था उसका। फूल जब अपने शबाब पर होता है, भौरों को निमंत्रण देने नहीं जाना पड़ता, खुद ही उस ओर खिंचे चले आते हैं। इन सब बातों से वह बिल्कुल ही बेखबर थी। अपनी दुनिया में मस्त, अपने में ही गुम।

पिताजी चाहते थे कि उसकी अब शादी कर देनी चाहिए। धुन और जिद की पक्की थी वह। जब तक हिन्दी साहित्य में एम.ए. नहीं कर लेती, शादी नहीं करेगी। हूँ आँखें नचाते हुए उसने निर्भीकता से अपना निर्णय सुना दिया था।

एक दिन, चार बजे के लगभग ... उससे कहा गया कि वह छैः कप चाय तैयार करके ले आए और साथ में कुछ नाश्ता-वास्ता। सुनते उसका माथा ठनका। तीन प्याली चाय तो इस वक्त रोज ही बनाती है। मम्मी-पापा और स्वयं के लिए फिर तीन अतिरिक्त क्यों? होंगे कोई भी। अक्सर पापा के दोस्त भी आ धमकते हैं। शायद कोई दोस्त होंगे। लापरवाही से सोचते हुए वह चाय बनाने लगी।

चाय व नाश्ता का ट्रे लेकर जैसे ही वह बैठक-खाने में पहुची, अपरिचितों को सामने पा ठिठककर खड़ी रह गई।

रामप्रसाद जी ... ये है मेरी बेटी सुधा। सुधा ... ये हैं सुदर्शन और उसके माता-पिता, कम से कम शब्दों में पापा ने सबका परिचय करवा दिया। परिचय से पहले न तो वह उस व्यक्ति का नाम जानती थी और न ही पहले कहीं देखा था। देखते ही उसके दिल ने उससे कहा यही है उसके सपनों का राजकुमार। हूँ

बात पक्की हो, इससे पहले ही उसने अपना निर्णय कह सुनाया कि वह एम.ए. करना चाहती है। उन दिनों इतनी खुलकर बात करने का प्रचलन नहीं था। सचमुच वह किस्मत की धनी निकली और उसकी बात मान ली गई।

परीक्षाएं समाप्त होते ही वह ससुराल आ गई। रिजल्ट आया। उसने प्रथम श्रेणी में परीक्षा उत्तीर्ण की थी। वह शिक्षिका बनना चाहती थी, पर रूढ़िवादी परम्पराओं के आगे उसे नतमस्तक होना पड़ा। हूँ इस घर की बहू-बेटियाँ नौकरी नहीं करा करतींहूँ ससुर ने अपना फरमान जारी करते हुए निर्णय कह सुनाया था।

ससुर की अपनी आढ़तिया की दुकान थी। ढेरों सारी एजेन्सियाँ भी उन्होंने ले रखीं थीं। चारों भाई और वे स्वयं इसमें अति-व्यस्त रहते थे।

उसका जी घुटता था, इन चार-दीवारी में रहकर। वह कुछ करना चाहती थी। ऐसा कुछ ... जो हटकर हो, जिससे उसकी मानसिक क्षुधा शांत हो सके और परिवार का यश-वर्धन। उसने अपने मन की बात सभी को कह सुनाई थी, बदले में मिले थे ठोस-चट्टानों के से सूखे शब्द। हूँ इस खानदान की अपनी कुछ मर्यादाएं हैं... उसे लांघने की किसी को भी इजाजत नहीं है। हूँ

प्रत्युत्तर में वह कुछ नहीं कह पायी। कुछ भी नहीं। पर उसे सुनते हुए कोफ्त अवश्य हुई थी कि मर्यादा शब्द को इतना छोटा करके आंक रहे हैं, ये लोग। धन कमाने की लालसा होनी चाहिए ... लिप्सा नहीं, पर इतनी भी लालसा नहीं होनी चाहिए कि उसके आगे सब कुछ गौण हो जाए, सब कुछ बौना होकर रह जाए।

अपनी हद और जद् में रहते हुए उसने सारी परम्पराएं निभाई, लेकिन अंदर एक सुधा बैठी हुई थी, उसे कौन समझाए, वह चैन से नहीं बैठती, बिल्कुल भी नहीं। जब सारी दुनिया सन्नाटा ओढ़कर सो जाती है। वह कागज-कलम उठा लाती और अपनी व्यथा-कथा कागज पर उतार देती, जस की तस। हालॉंकि उसने इस बात की भनक किसी को भी नहीं लगने दी और न ही कभी किसी से चर्चा तक की कि वह छद्म नाम से लिखती और छपती है।

काफी कम उम्र में ही उसने हिन्दुस्तान की सीमाओं को छू लिया था। नदी-नाले, जंगल-पहाड़, वनैले जीव-जन्तु, सागर-सीपी-झीलें सब कुछ अपने आप कागज पर उतरते चले आते थे। पिता ख़ुश थे। ख़ुश इस बात पर कि... जो वे कुछनहीं कर पाए...उनकी बेटी वह सब कुछ कर पा रही है। वे किसी दूसरी यात्रा की तैयारी में जुट जाते।

बिदा होने से पहिले पिता ने सर पर हाथ फेरते हुए उससे कहा था। ष्बेटी... ब्याह को पैरों की बेड़ी मत समझना। तुझमें अपार संभावनाएं मैं देख रहा हूँ। सब कुछ करना, मगर विद्रोह करके नहीं, प्यार में बहुत बड़ी ताकत होती है। नदी अपने बहने का रास्ता खुद तलाश कर लेती है। अपनी नदी के स्त्रोतों को कभी सूखने मत देना। हूँ बिदाई के भावुक क्षणों में पिता इतना ही कह पाए थे। इतनी ही सीख दे पाए थे। पिता अपनी बेटियों को सीख ही तो देते आए हैं और इस बात को उसने अपने मन में गांठ बांध कर रख लिया था।

समय पंख लगाकर अपनी निर्बाध गति से उड़ता रहा। इस दृय-जगत के मंच से वे पात्र क्रमशः हटते चले गए, जिनका रोल समाप्त हो गया था। पहले सास, बाद में वे ससुर लेकिन सुदर्शन के इस तरह अचानक चले जाने से उसका जीवन एकदम से मरूस्थल में बदल गया। चारों तरफ तपती रेत। धूल भरी आँधी। एक दिन उन्होंने मजाक में या यू ही कह दिया था- हूँ सुधा मेरे आने की आहट तो तुम बखूबी पहिचान लेती हो लेकिन मेरे जाने की आहट तुम सुन नहीं पाओगी। हूँ एक-एक शब्द, उसे अब भी याद है। तपते हुए रेगिस्तान में वह एकाकी चलने लगी थी और पांवों के फफोले फटकर असह्य पीड़ा पहुचाने लगे थे।

ससुर की आँख बंद होते ही लूट मच गई थी। जिसके जो हाथ, वह उसका था। तीन भाईयों के लिए कोठियाँ बनकर तैयार थी। चौथी उनके लिए बन रही थी। आधी-अधूरी ही बन पाई थी। नम्बर एक का जो धन था, वह चारों के बीच बराबरी में बांटा गया। सबकी अपनी दुकान-सबका अपना मकान था। आधे-अधूरे मकान को पूरा करना पहली प्राथमिकता भी। एक बड़ी रकम उस पर खर्च हो गई। शेश जो बचा था, देवेन्द्र की पढ़ाई के लिए एक हद तक काफी था। फिर भी उसे काफी नहीं कहा जा सकता था। एक पूरी नदी सूख जाती है, यदि उसका स्त्रोत सूख जाए तो फिर जमा-पूजी कितने दिन चलती। एक न एक दिन तो उसे खत्म होना ही था। एक छोटी सी कोशिश की उसने, जो जरूरी नहीं अपितु अनिवार्य भी थी। वह एक प्रायवेट स्कूल की अध्यापिका बन गई। जानती है वह। उम्र के इस पड़ाव पर सरकारी नौकरी मिलने से रही। देवेन्द्र अपनी पढ़ाई के सिलसिले में बाहर था। एक अकेली जान के लिए जो उसे मिल रहा था। पर्याप्त था। पहाड़ जैसा दिन अकेले काटे, कहाँ कटता है। नौकरी के बहाने ऐसा कर पाना संभव हो पाया था। वह खुश थी। बहुत खुश।

देवेन्द्र मेरिट-स्कॉलर होकर पास हुआ और अब वह उच्च शिक्षा के लिए दो साल के अनुबंध पर विदेश में था। उसका लेखक मन भी अब खुलकर बाहर आ गया था। पिता भले ही सशरीर साथ नहीं थे लेकिन उनका आशीर्वाद और दी गई सीख के सहारे वह परवान चढ़ने लगी थी।

देवेन्द्र का एक अभिन्न मित्र सुधीर जो इन दिनों भारत आया हुआ था और साथ ही उसका पत्र भी लाया था, उससे मिलने यहाँ आया था।

चाय की चुस्की लेता हुआ वह उसके चेहरे पर अपनी नजरें केंद्रित कि हुए था। शायद वह चेहरे पर लिखी इबारत पढ़ने की कोशिश कर रहा था। फिर एकदम बच्चे की सी हरकतें करते हुए कहने लगा- हूँ क्या मैं आपको अपनी मम्मी कहकर बुला सकता हूँ। मम्मी शब्द सुनते ही उसके सीने में ममत्व का अजस्त्र स्त्रोत फटकर बह निकला। शरीर में रोमांच हो आया। शब्दों के साथ आँखें भी आर्द्र हो आई थी। उसका मन प्रसन्नता से नाच उठा। मम्मी शब्द सुनते ही वह इतनी आनन्दित हुई थी कि बोल ही नहीं फूट पा रहे थे। अपनी उमड़ती-घुमड़ती भावनाओं को नियंत्रित करते इतना ही कह पायी। हूँ सुधीर ... तुम मेरे कलेजे के टुकड़े के अभिन्न मित्र हो। तुम मेरे बेटे जैसे ही हो। हाँ... तुम मेरे बेटे हो। तुम्हें अधिकार है कि तुम मुझे मम्मी कहकर बुला सकते होहूँ कहते हुए उसने उसे अपने सीने से लगा लिया था।

देर तक अपने सीने से चिपकाए रहने के बाद, अलग होते हुए, उसने उसके माथे पर अपने ममत्व का अमिट चुम्बन जड़ दिया था और अब वह अपने बेटे का पत्र पढ़ने लगी थी। पत्र में देवेन्द्र ने लिखा था कि वह कुछ ही दिनों के लिए सही, सुधीर के गांव अवश्य जाएं। बात को आगे बढ़ाते हुए उसने यह भी लिखा था कि उसके लेखक मन को वहाँ बहुत कुछ मिलेगा। जहाँ एक से बढ़कर एक अनमोल रत्न बिखरे पड़े हैं।

पत्र में क्या कुछ उसने लिख भेजा था इस बारे में सुधीर बिल्कुल भी अंजान था। लिफाफा अच्छी तरह बंद करते हुए उस पर टेप की पट्टी भी चढ़ाई हुई थी। वह कुछ भी निश्चित नहीं कर पायी थी कि सुधीर ने फिर चहकते हुए अपनी ओर से प्रश्न उछाला। मम्मीजी ... मुझे आज ही गांव जाना है। यदि आप मुनासिब समझें तो मेरे साथ मेरे गाँव चलिए। वहाँ की प्राकृतिक सुंदरता आपका मन मोह लेगी। आशा है आप मुझे निराश नहीं करेंगी। हूँ अब वह दोहरे मोड़ आ खड़ी हुई थी। न तो वह अपने बेटे के सुझाव को टाल सकने की स्थिति में थी और न ही सुधीर के आग्रह को। उसे हाँ कहना ही पड़ा।

ट्रेन चार बजे खुलती थी और अभी दिन का दो बजा था। उसे तैयारी भी करती थी। उसने अपने कपड़े समेटे। सूटकेस में पैक किया। रात के लिए टिफिन तैयार यिका, जाने के लिए वह लगभग तैयार हो चुकी थी। सुधीर भी इस बीच रिजर्वेशन करवा कर आ चुका था।

ट्रेन ठीक चार बजे खुल गई थी। महानगर का कोलाहल, भीड़ सिमेन्ट-कांक्रीट के जंगल सब पीछे छूटते जा रहे थे। आज बरसों बाद वह ट्रेन का सफर कर रही थी।

सुधीर बुक-स्टॉल से कुछ पत्रिकाएं खरीद लाया था, जिसमें एक पत्रिका पृथ्वी और पर्यावरण की थी। शायद वह पत्रिका उसने उसकी रूचियों को देखते हुए खरीदी थी। पत्रिका के मुख-पृष्ठ पर हूँअनथहूँ की कविता ष्वन! कहाँ हो तुमहूँ पढ़ते हुए विव्हल होने लगी थी। ट्रेन की खिड़की से देखते हुए उसने यह बात सिद्दत के साथ अनुभव की थी कि उसे न तो बड़े-विषाल पेड़ देखने को मिले, न वृक्षों का सघन समूह। पर्वत-श्रेणियाँ भी लगभग वृक्ष-विहीन ही थीं।

गीतकार नईम व विष्णु विराट की कविताओं। गीतों के पदों ने भी उसे गहरे तक प्रभावित किया।

ष्रहने दो जीवित। आशीषों और दुआओं को। बड़े बुजुर्गों ीकी। सनेह भींगी मंशाओं को। बंजर मत होने दो। हरियल वसुन्धरा को। युगों-युगों से। चलती आयी परम्परा को। कार्य और कारण के। घेरे से बाहर ही। रखना होगा गर्म हवाओं कोहूँ विराट ने लिखा- हंस उड़-उड़ थक गया है। मानसर तो बिक गया है। लुट गए मोती, सभी दुर्गन्धता है। न अब सरिता में रहा जल। सूखते जाते कमल दल। अब न कोसों तक बहारों का पता है। सर सरोवर सूख जाना। निर्झरों का रूठ जाना। पौरूषी अभियान का थकना। नहीं शुभ है-अमंगल है।

कोई भी कवि। गीतकार चाहे वह अनथ हों-नईम हों अथवा विराट ही अथ्वा कोई कहानीकार ही क्यों न हो, ये मात्र दर्शक नहीं होते और न ही शब्दों के जादूगर। बल्कि वे युगदृष्टा भी होते हैं, जो अपनी लेखनी के माध्यम से जन-सामान्य को चेताने का काम करते हैं।

कुछ बातें-कुछ किताबें पढ़ते-पढ़ते काफी रात हो आयी थी। अंधकार को चीरता हुआ बूढ़ा इंजिन हाँफता-खॉंसता-खंसारता-फुंफकारता-शोर मचाता, डिब्बों को खींचता, अपने निर्धारित पथ पर अग्रसर हो रहा था।

भूख लग आयी थी। दोनों ने मिलकर खाना खाया। सुधीर को उंगलियाँ चाट-चाटकर खाता देख उसे देवेन्द्र की याद ताजा हो आयी। एक खाकर तृप्त हो रहा था तो दूसरा खाता देख तृप्ति का अनुभव कर रहा था। खाने के स्वाद का चटखारा लेते हुए वह जो उसकी शान में कसीदे काढ़ रहा था। उसे सुदर्शन की भी याद हो आयी। सुदर्शन की अथवा देवेन्द्र की याद में आँखें नम हुईं थी, यह तो वह नहीं जानती। वह तो केवल इतना भर जान पायी कि सुधीर ने उसके अतीत के कुछ पल लौटा दिए थे।

नींद के बोझ से पलकें भारी होने लगी थी और अब वह सो जाना चाहती थी।

सुबह जब नींद खुली तो ट्रेन एक छोटे से पहाड़ी-स्टेशन पर रूकी हुई थी। भोर की उजास होने में अभी कुछ वक्त बाकी था। सामान समेटते हुए वे नीचे उतर आए थे। यहाँ से उन्हें लगभग सात किलोमीटर पैदल चलते हुए गांव पहुचना था। सुधीर इस बात को लेकर हैरान व परेषान था कि नौकर अब तक अपनी घोड़ा-गाड़ी लेकर क्यों नहीं आया। घोड़ा-गाड़ी भिजवाने की बात वह पहिले ही कह चुका था। सुधीर के चेहरे पर छाए निराषा के भावों को वह पढ़ चुकी थी। अपनी अटैची उठाकर यह कहते हुए वह चल पड़ी कि वह अब भी दस-पंद्रह किलोमीटर पैदल चल सकती है। सुधीर भी सहमत होते हुए उसके साथ हो लिया।

एक लाल-सिंदूरी गोला, पर्वत के पीछे से झांक ने लगा था। चिड़ियों व अन्य पखेरूओं के शोर से समूचा जंगल जाग उठा था। ललछौंही किरणें पेड़ों पर से उतरते हुए-लुका-छिपी का खेल खेलते हुए जमीन पर आकर पसरने लगी थीं। हवा भी अब मतवाली हो चली थी। शीतल बयारों के झोंके उसके बदन से आकर लिपटने लगे थे। पहाड़ों से उतर रही नदी-सूरज की किरणों का स्पर्श पाकर जवान होने लगी थी। उसकी समूची देह राशि कुंदन की सी दमक रही थी। कभी तो यह भी भ्रम होता कि उसमें पानी के बजाय सोना बहा जा रहा है। प्रकृति के इस अद्भुत नजारे को देखते हुए वह किसी अन्य लोक में जा पहुची थी।

इस बीच घोड़ा-गाड़ी भी आ पहुची। उसने सविनय यह कहकर बैठने से मना कर दिया कि उसे पैदल चलने में ही आनन्द आ रहा है।

रास्ता चलते वह ऊॅंचे-ऊॅंचे दरख्तों को देखती चलती। कभी तो ऐसा भी प्रतीत होता कि वे आसमान से जा मिले हैं। जंगल के बीच से गुजरती तेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियाँ-सघन हरियाली-हरियाली के बीच मुस्कुराते जंगली फूल-शाखाओं से लिपट कर वितान बनाती लतिकाएं अनुपम दृय उपस्थित कर रही थी। बरबस ही उसे जयशंकर प्रसाद की कविता याद हो आयी- ष्खगकुल-कुल सा बोल रहा-किसलय का अंचल डोल रहा-लो यह लतिका भी भर लाई-मधु-मुकुल नवल रस गागरीहूँ उसका जी हुआ कि बस यहीं बस जाऊॅं। यहीं की होकर रह जाऊॅं।

पल भर को वह यह भी भूल गई थी कि अभी उसे काफी दूर जाना भी है।

जंगल के बीच सोई हुई आदिवासी बस्तियाँ भी जाग चुकी थीं। नंग-धडं़ग आदिवासी बच्चे उसे टुकुर-टुकुर जाता हुआ देखते रहे। कुछ आदिवासी पुरूश-महिलाएं अपनी परम्पराओं को अब भी बचाए हुए विचित्र आवाज निकालते हुए-हाथ जोड़े उसका अभिवादन कर रहे थे।

एक अल्हड़ नदी अब ठीक सामने थी जो दूर से अपने विदेही होने का परिचय दे रही थी। नदी के ऊपर एक लकड़ी का पुल बना हुआ था और इस पुल पर से होते हुए उसे उस तिलिस्म में जा समाना था, जो दूर से ही अपनी कलात्मकता व भव्यता के साथ उपस्थित था। वह सुधीर का अपना घर-संसार था।

छोटे मगर खूबसूरत बागीचे के बीच से होती हुई वह एक मकान के आहते में प्रवेश कर रही थी। मुख्य द्वार पर एक व्यक्ति शालीनता से हाथ जोड़े खड़ा था। उसकी पीठ के ठीक पीछे हाथ बांधे नौकर-चाकर भी खड़े थे। जैसे-जैसे वह नजदीक आती गई। उसका चेहरा भी स्पष्ट हो चला था। गठीला-कसा हुआ बदन, यथेष्ट कद-काठी, ओठों पर कमान सी तनी-घनी मूछें। मुस्कुराते ओंठ और एक ही नजर में सम्मोहन के जाल में आविष्ट करा देने वाली नीली-नीली आँखें। एक बारगी उसे तो ऐसा भी लगा कि वह कहीं सुदर्शन तो नहीं। सुदर्शन तो वह है ही, पर वो सुदर्शन नहीं जिसमें उसके तन-मन पर बरसों राज किया था।

शिष्टतावश उसके भी हाथ जुड़ आए थे। संक्षिप्त परिचय के बाद वह अंदर चली आयी। परिचय क्या था, महज फार्मलिटिज़ थी, जो उसे निभानी थी। वह पहले से ही जानता था कि सुधीर के साथ देवेन्द्र की माँ आ रही है। इस आशय की सूचना वह पहले ही भेज भी चुका था। भवन की कलात्मकता व भव्यता से वह प्रभावित हुई थी। अंदर भी वह किसी राजमहल से कम प्रतीत नहीं हो रहा था। जगह-जगह कलात्मक झाड़-फानूस, मूर्तियाँ-नायाब पेंटिंग्स लटक रही थीं। प्रियरंजनजी के व्यक्तित्व-कृतित्व में वे चार चॉंद लगा रही थी।

खाना खाने के बाद तनिक विश्राम करते हुए वह घर का मुआयना करने लगी थी। सारी चीजें साफ-सुथरी व करीने से जमायी गईं थीं। बड़े-बड़े हवादार कमरें। कमरों में ढेरों सारी कलात्मक वस्तुएं, जैसा कि वह बैठक-कक्षा में देख ही चुकी थी। एक-दूसरे से बहुत हटकर भिन्नता लिए हुए, रखी गई।

अब वह उन अंचलों में जाना चाहती थी, जहाँ प्रकृति ने अनुपम-मनभावन सिंगार किया था। वह एक-एक कोना घूम डालना चाहती थी। कभी वह सुधीर को साथ ले जाती, तो कभी स्वयं अकेली निकल पडती। प्रियरंजन भी साथ होते। पर उसका साथ उसे कुछ असहज कर देता, पता नहीं क्यों उसके साथ रहते हुए उसकी सॉंसें फूलने लगती। दिल धडकने लगता, आँखें झुक जातीं, बातें करते वक्त ढेरों शब्द हलक से चिपक जाते, पर एक-दो बार के साहचर्य में सब नार्मल होता चला गया और अब वह मित्रवत व्यवहार करने लगी थी।

डसके मन के अंदर का लेखक सतत जाग रहा था। हर पल-हर क्षण नया लिखा जा रहा था। वह ख़ुश थी। बेहद ख़ुश। सच ही लिखा था देवेन्द्र ने अपने पत्र में। सचमुच यहाँ नायाब-चीजें बिखरी पडी हैं। वह जितना इकट्ठा कर पा सकती थीं, कर रही थी और अपनी लेखनी में भी उतारती जा रही थी।

एक के बाद एक, पूरे पन्द्रह दिन कब पंख लगाकर उड गए, पता ही नहीं चल पाया। अब वह घर लौट जाना चाहती थी। संभवतः सुधीर को भी वापिस होना था। वह लौटने की तैयारी करने लगी थी।

सुबह का समय था। अभी-अभी सूरज उगा ही था। रंग-बिरंगे फूलों से बागीचा अटा पडा था। रंग-बिरंगी ढेरों सारी तितलियाँ यहाँ वहाँ मंडरा रही थीं। नदी अपनी अल्हड चाल से बही जा रही थी। वह एक बडी सी चट्टान पर बैठी इस अद्भुत नजारों को देख रही थी। तभी सुधीर भी वहाँ आ पहुचा। देखते ही लगा कि वह रातभर सोया नहीं है। शायद घर न छोड पाने का मोह, अथवा उससे बिछुड जाने का गम वह पाले हुए था। सीधे आकर वह पैरों के पास बैठ गया और अपनी गर्दन उसके पैरों पर झुका लिया था। असमंजस में थी वह। पता नहीं वह क्या कहना चाहता है, उसके मन में क्या है? जब तक कोई बोले-बताए नहीं, कैसे जाना जा सकता है।

उसने स्वयं ने ही पहले करते हुए पूछा-सुधीर.... क्या बात है। कुछ ज्यादा ही परेशान दिख रहे हो? प्रश्न बिलकुल सीधा-साधा थ। ममत्व की चाशनी में डूबे हुए थे शब्द। सुनते ही उसकी आँखों में आँसू झरने लगे थे जो उसकी साडी को भिगो रहे थे। उसकी इस स्थिति को देखकर वह डर सी गई थी कि इस लडके को आज हो क्या गया है।

काफी देर तक चुप्पी साधे रहने के बाद उसने मुँह खोला।

मम्मीजी... मैं नहीं जानता कि मैं गलत हूँ या सही। मैं यह भी नहीं जानता कि मैंने जो सोच रखा है, वह कोरी भावनाओं का संजाल है या महज बचकानापन, आपसे इतना ही निवेदन है कि मेरी अन्तस की पीड़ा को पूरी तरह सुनें, सुनते ही अपना निर्णय न सुना दें, उस पर गहनता से सोचें, फिर अपना निर्णय दें।

सुधा समझ नहीं पा रही थी कि यह छोकरा क्या कहना चाहता है? क्या है उसके मन में? निश्चित ही वह किसी उलझन में आ फॅंसा है, तभी तो कहते हुए डर भी रहा है और कहना भी चाहता है।

सुधीर... जब तक तुम अपने मन की उलझन नहीं बतलाओगे... मैं तुम्हारी मदद कैसे कर पाउॅंगी। बोलो तुम क्या चाहते हो। एक बेटा अपने मन की बात अपनी मम्मी से ही तो कहता है। संभव हुआ तो मैं तुम्हारी मदद भी करूंगी। हूँ सुधा ने कहा।

आश्वासन की कुनकुनी धूप का स्पर्श पाकर मन में जमी हिमशिलाएं पिघलने लगी थी। अब वह आश्वस्त हुआ जा रहा था।

ष्मैं बहुत खुशनसीब हूँ कि आपने मुझे अपना बेटा माना और मम्मी कहने का अधिकार दिया। मैं चाहता हूँ कि अब आपको मम्मी न कहकर सीधे-सीधे माँ कहकर पुकारू। देखिये... आप मेरी बातों को अन्यथा न लें। बात के मर्म को समझें, मैं जानता हूँ ये उम्र सेहरा बॉंधने की नहीं है। इस अवस्था में आपको सहारा चाहिये जो अंतिम सांसों तक आपका साथ निभाता चले मेरा आशय आप पूरी तरह समझ ही गई होंगी। हूँ इतना कहकर वह चुप हो गया था। सुनते ही सुधा को जैसे काठ मार गया। अंदर एक तूफान उठ खड़ा हुआ था जो उसके संयम-विवेक-बुद्धि के परकच्छे उड़ा देने के लिए काफी था। वह समझ नहीं पा रही थी कि क्या कहे, इस नादान बच्चे से। वह ऐसी-वैसी बात कैसे सोच सकता है। वह यह नहीं जानता कि क्या करने जा रहा है। यह बात सच है कि उसने ही उसे मम्मी कहने का अधिकार दिया था और वह अपनी माँ की सूरत में उसकी सूरत देखने लगा था, तो उसमें उसका दोश कहाँ है। पर वह जो कुछ सोच रहा है... क्या वह संभव है? नहीं... यह कदापि संभव नहीं। प्रश्न सुधीर की ओर से था, उसे अब उत्तर देना था। उत्तर ही नहीं बल्कि अपना अंतिम निर्णय भी कह सुनाना था, अब उसकी बारी थी। वह प्रश्नों के कटघरे में घिरी खड़ी थी। उत्तर तो उसे उसी लहजे में देना होगा कि उसकी झोली को खुशियों की रातरानी के सुगंधित फूलों से भर दे-महका दे।

बहुत कुछ सोचते हुए उसे अपने पिता की याद हो आयी, बिदाई के भावुक क्षणों में उन्होंने कहा था-बेटी... ब्याह को पैरों की बेडी मत समझना। तुम में मैं अपार संभावनाएं देख रहा हॅंू..... सब कुछ करना, मगर विद्रोह करके नहीं, प्यार में बहुत बडी ताकत होती है, नदी अपने बहने का रास्ता खुद-ब-खुद तलाश कर लेती है, अपनी नदी के स्त्रोत सूखने मत देना।

और वह बहती नदी की ओर देखती रही जो अपनी उद्याम-गति से कलकल-छलछल के सुहाने गीत गाती हुई आगे बढ रही थी। उसे प्रश्नों का उत्तर मिल गया था। हाँ उसने उत्तर पा लिया था।

सुधीर... सच है मैंने तुम्हें मम्मी कहने का अधिकार दिया। यह अधिकार अब भी तुम्हारे पास बरकरार है। तुम मुझे मम्मी कहो-माँ कहो-आई कहो या अलग-अलग भाषा में माँ के लिए जो भी शब्द हों। इससे क्या फर्क पडता है। इससे माँ की गरिमा कहीं भी कम नहीं होती, उसका माधुर्य खत्म नहीं होता और न ही ममत्व, लेकिन यह कहते हुए मुझ दुःख हो रहा है कि तुमने माँ शब्द को लेकर मुझे एक चौखट में घेरने का जो उपक्रम किया, उससे माँ की गरिमा बढी नहीं है अपितु गिरी ही है। तुमने यह कैसे अनुमान लगा लिया कि मैं तुम्हारे पिता की अंकशायनी बनूगी। तभी मैं माँ का दर्जा पा सकूगी। तुमने माँ शब्द को बहुत छोटा कर के आँका है जबकि माँ वह विराट-सत्ता की स्वामिनी होती है, जिसमें ये तो क्या कई संसार समा सकते हैं। तुमने कभी सोचा कि जिस माँ ने शिशु को अपने गर्भ में नौ माह तक रखा और वे उसे किसी कारणवश अपना दूध नहीं पिला पायीं तो क्या वे माँ कहलाने से वंचित रह गईं या वे माँए, जिन्होंने माँ न होते हुए भी अपना दूध पिलाया क्या वे माँ का दर्जा नहीं पा सकीं या उहें माँवत नहीं माना गया।

मैं तुम्हारे इस प्रस्ताव से न तो दुःखी हुयी, न ही अति प्रसन्न। न ही मेरे मन में कोई विषाद जागा है, न ही तुम्हारे प्रति नफरत के भाव। उठो.......उठो। तुम अब भी मेरे पुत्र हो...... बेटे.....हाँ मैं तुम्हारी माँ हूँ। माँ का स्वरूप कभी नहीं बिगड़ता। उसे कम से कम विकृत तो न करो।

चलो उठो..... ट्रेन का टाईम हो चला है। यदि हम समय से नहीं पहुचें तो रात स्टेशन पर ही काटनी पड़ सकती है।