आखिरी पड़ाव का दु:ख / सुभाष नीरव
न जाने रात का क्या बजा होगा। आँखों से नींद उड़ी है और दिल से चैन गायब। कभी बिस्तर पर उठकर बैठ जाती हूँ, कभी लेट जाती हूँ। कभी 'वाहे गुरु-वाहे गुरु' का पाठ करने लगती हूँ। गुरमीत और हरजीत की कल वाली बातें मेरे कानों में अभी भी गूंज रही हैं। मुझ बूढ़ी का कलेजा चाक हुआ पड़ा है तब से। हाय ओ रबा! उम्र के आखिरी दिनों के लिए ये कैसा दु: ख बचा कर रखा था तूने!
छाती पर अचानक आ पड़े पहाड़ जैसे दु: ख को तो भरी जवानी में झेल गई थी, जब बच्चों का बापू, मेरे सर का साँईं एक सड़क हादसे में चल बसा था। पीछे रह गई थी मैं अकेली, अपने दो छोटे-छोटे बच्चों के संग, बेसहारा! शुक्र था कि वह एक कमरा और एक रसोई डालकर सिर छिपाने का इन्तज़ाम कर गया था। मैंने कैसे अपने आँचल में इन बच्चों को सँभालकर रखा, यह मैं ही जानती हूँ या मेरा रब! लोगों के घर जाकर बर्तन माँजने पड़े तो माँजे, कपड़े धोने पड़े तो धोए, खेतों में मजूरी करनी पड़ी तो की, गोबर-कूड़ा उठाना पड़ा, उठाया, पर किसी के आगे हाथ नहीं फैलाया। खुद कम खाकर, बच्चों को भरपेट खिलाती रही। मेरे दो बेटे मेरी दो आँखें थीं, दो हाथ थे, दो पैर थे। इनके लिए जो कुछ कर सकती थी, मैंने किया। इन्हें पढ़ाया-लिखाया। मेहर हुई परमात्मा तेरी कि गुरमीत पढ-लिखकर एक स्कूल में टीचर लग गया और छोटा बेटा हरजीत दसवीं पास करके एक एजेन्ट के जरिये यू.के. चला गया।
हरजीत से मैंने जो उम्मीदें लगाई थीं, सो लगाई थीं, पर गुरमीत को अपने छोटे भाई से कुछ अधिक ही उम्मीदें थीं। उसने इधर-उधर से कर्जा पकड़कर एजेंट की जेबें भरी थीं और हरजीत को हवाई-जहाज पर चढ़ाया था। गाँव के कई लड़के विदेश जा चुके थे। उनके घरों में अब टोर थी। कच्चे मकान कोठियों में बदल गए थे। घरवाले मारुतियों में घूमते-फिरते हैं। पर हरजीत... उसने तो वहाँ जाकर पीछे की सुध ही नहीं ली। उसने वहीं विवाह करवा लिया। कहता था-विलैत में पक्का होने के लिए वहाँ की लड़की से शादी करना जरूरी था। शुरू-शुरू में वह पैसे भेजता रहता था-बड़े भाई गुरमीत को। फिर उसने पैसे भेजने बन्द कर दिए। गुरमीत के खतों का भी जवाब नहीं दिया उसने।
गुरमीत निकलते-घुसते कुढ़ता, गालियाँ निकालता, "हरामखोर! वहाँ जाकर मेम की गोद में जा बैठा! कोई फिक्र है उसे मेरे सर से कर्जा उतारने की! ब्याज तो हनुमान की पूँछ-सा बढ़ता ही जाता है।"
फिर एक दिन हरजीत चुपचाप बगैर बताये इंडिया आ गया। पूरे पाँच बरस बाद वह लौटा था, वह भी अकेला। हरजीत आया था, तो मेरे आँसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे। पाँच बरस बाद, जो उसकी सूरत देखने को मिली थी! उसे बार-बार छाती से लगाकर उसका माथा चूमती रही, "रे हरजीते, तूने तो वहाँ जाकर मुझे बिलकुल ही भुला दिया। तुझे मेरी कभी याद नहीं आई रे! और तू अकेला क्यों आया है? ... बहू को भी साथ ले आता। आँखें बन्द होने से पहले मैं भी तो देख लेती अपनी बहू को, कैसी दिखती है।"
गुरमीत और उसकी घरवाली ने हरजीत को खूब खरी-खोटी सुनाईं थीं। उलाहनें दिए थे। गुरमीत अपने सिर पर चढ़े कर्जे और बढ़ते ब्याज का रोना रोता रहा था। वे दोनों हरजीत पर सारे समय यही जोर डालते रहे कि अब आया है, तो ऊपर दो कमरे डलवाकर जाए। लेकिन, हरजीत सिर्फ कोठे पर अंगरेजी बाथरूम बनवाकर और नीचे मकान का फर्श पक्का करवाकर लौट गया था, यह कहकर कि जल्द ही गुरमीत को पैसे भेजेगा, ऊपर कमरे डलवाने के लिए।
उन दिनों जितने दिन हरजीत रहा, मेरी पूछताछ होती रही। उसके लौट जाने के बाद फिर पहले जैसा हाल हो गया था।
जब तक हाथ-पैर चलते थे, मैं टिककर नहीं बैठती थी। हर वक्त कुछ न कुछ काम मेरे हाथ में होता। घर की साफ-सफाई करती, झाडू-बुहारी करती, दो वक्त का खाना बनाती, बर्तन माँज देती, कपड़े धोकर कोठे पर डाल आती। बहू प्रीतो के सिर में बैठकर तेल झस देती। तब प्रीतो भी मुझसे खुश रहती थी। 'माँ जी-माँ जी' करती घूमती थी। लेकिन देह तो देह है। उम्र के साथ-साथ थकने लगती है। हारी-बीमारियाँ इस पर हमला करने लगती हैं। मेरी देह ने भी धीरे-धीरे मेरा साथ देना बन्द कर दिया। घुटनों में दर्द रहने लगा। देह बिस्तर माँगने लगी। मैं इस छोटे-से कमरे में सिमट कर रह गई।
वैसे कमरा क्या है, एक छोटा-सा स्टोर है जिसमें एक पुरानी चारपाई पर मेरा बिस्तर लगा है। बिस्तर के सिरहाने की ओर थोड़ी-सी जगह है, जहाँ लकड़ी के एक टूटे हुए मेज को ईंटों के सहारे खड़ा करके उस पर छोटा-मोटा सामान रखा हुआ है। मेरी दवाई की शीशियाँ हैं, काँच की चिमनी वाला एक पुराना लैम्प है, एक छोटी-सी संदूकची है, जिसमें मेरे कपड़े हैं और इसी पर एक तरफ बच्चों के बापू का फोटो रखा है। बाईं दीवार से सटी हुई है मेरी चारपाई और उसके ऊपर है पीली रोशनी फेंकता बल्ब। दाईं तरफ थोड़ी-सी जगह आने-जाने के लिए बची हुई है। इसी ओर, सिरहाने की तरफ एक स्टूल पर पानी का जग, एक गिलास, एक चम्मच और एक कटोरी रखी है। दीवारों में न कोई खिड़की है, न रोशनदान। बस एक दरवाजा है, जो कभी बन्द नहीं होता। कड़ाके की ठंड में भी मैं इसे बन्द नहीं करती। दरवाजा बन्द होने पर मेरी साँस घुटने लगती है। इस में पुरानी मोटी चादर का एक पर्दा हमेशा लटका रहता है, जिसके कारण बाहर आने-जाने वाले व्यक्ति को अन्दर बिस्तर पर पड़ी मैं दिखाई नहीं देती। इस कमरे के साथ ही ऊपर कोठे पर जाने के लिए जीना बना है। जीने के नीचे छोटा-सा शौच-गुसलखाना है और पानी की एक टोंटी लगी है। इसे अब मैं ही इस्तेमाल करती हूँ। घर के बाकी सदस्यों के लिए कोठे पर अंगरेजी स्टाइल में बड़ा-सा बाथरूम है। जीने से आगे एक बड़ा कमरा है और एक रसोई। गुरमीत, उसकी पत्नी और दोनों बच्चे इसी में रहते हैं। घर में घुसते-निकलते हर आदमी को मेरे कमरे के आगे से ही होकर जाना पड़ता है।
कुछ बरस पहले जब मेरी तबीयत ठीक हुआ करती थी, मैं कमरे से बाहर निकलकर छोटे-से आँगन में बैठ जाया करती थी, कभी घर से बाहर निकलकर गली में भी चली जाती थी। पर जबसे बिस्तर पर पड़ी हूँ और घुटनों में दर्द रहने लगा है, बिस्तर मुझे नहीं छोड़ता और मैं बिस्तर को नहीं छोड़ती। बस, तभी उठती हूँ, जब मुझे हल्का होना होता है। अपने बिस्तर पर पड़ी छत को निहारती रहती हूँ या फिर दीवारों को। या फिर 'वाहे गुरु-वाहे गुरु' का जाप करती रहती हूँ। पहले मैं अक्सर अपने आप से बातें करती रहती थी या कह लो, दीवारों के संग बातें किया करती थी। सुना है, दीवारों के भी कान होते हैं। वे सुन सकती हैं। पर दीवारों के मुँह नहीं होते। वे बातें नहीं करतीं।
अब कोई मेरे कमरे में नहीं घुसता, मेरा हालचाल नहीं पूछता, न बेटा और न बहू। बिंदर और जिंदर, गुरमीत के दोनों बेटे कभी-कभार पर्दा उठाकर मेरे कमरे में आ घुसते थे, मेरे बिस्तर पर बैठकर खेला करते थे, तो मुझे बड़ा अच्छा लगता था। मैं बच्चों के संग बातें करके खुश हुआ करती थी। मेरा वक्त अच्छा गुजर जाता था; लेकिन, जबसे मैं बीमार पड़ी हूँ, बच्चों ने भी मेरे पास आना बन्द कर दिया है। शायद, बहू ने ही रोक दिया हो। पहले गुरमीत दफ्तर जाते समय और दफ्तर से लौटते वक्त मेरे पास घड़ी भर के लिए ज़रूर बैठा करता था। मेरा हालचाल पूछता था। दवाई के बारे में पूछता था।
लेकिन, आहिस्ता-आहिस्ता उसने भी हालचाल पूछना, मेरे पास बैठना बन्द कर दिया। छुट्टी वाले दिन एक-दो बार अवश्य पर्दा उठाकर झाँक लेता है; पर अब कोई मेरी बात नहीं पूछता। एक गूँठ में पड़ी हूँ, आलतू-फालतू सामान-सी!
'वाहे गुरु... पालनहार! किरपा कर... बुढ़ापे में नरक न दिखा...'
कई दिनों से मेरी दवा खत्म हुई पड़ी है। कोई इधर झांके तो उससे कहूँ। इन्होंने तो मुझे बिलकुल ही 'छिनक' दिया है जैसे। 'अरे निर्मोहियो, कभी पर्दा उठाकर मुझ करमजली को भी एक नज़र देख लिया करो, जीती हूँ कि मरी...'
कभी-कभी सोचती हूँ कि क्यों कलपती हूँ मैं... जो किस्मत में लिखा है, वह तो भोगना ही है... यह क्या कम है कि दो वक्त की रोटी मिल रही है... घर से बाहर तो नहीं फेंक रखा... परमात्मा का शुक्र मना कि बहू पर्दे के नीचे से खाने की थाली सरका जाती है, बर्तन उठाकर ले जाती है। क्या हुआ, जो कभी पास बैठकर या घड़ी भर खड़े होकर बात नहीं करती। इधर मैं भी न जाने क्या-क्या बातें दिल में लिये बैठी रहती हूँ उससे साझा करने के लिए, पर वह है कि मौका ही नहीं देती।
पहले मैं बिस्तर पर पड़े-पड़े बहू या बच्चों को हाँक लगाती रहती थी। कभी पानी के लिए, कभी रोटी के लिए, कभी दवा के लिए या फिर टट्टी-पेशाब जाने के लिए। आवाज लगाते-लगाते मेरा गला सूख जाता, पर कोई झाँकता नहीं था मेरी ओर। हार कर मैने ही हाँकें लगानी बन्द कर दीं। खुद सोटी उठाकर घुटने पर हाथ रखकर उठती हूँ, नलके पर से पानी लेती हूँ, या फिर हल्का हो आती हूँ। अब तो मुझे आदत-सी पड़ गई है।
'वाहे गुरु, तू ही बख्शणहार...'
दायीं तरफ की दीवार पर एक कैलेंडर टँगा है-गुरु नानक देव जी का। जब भी कैलेंडर की ओर देखती हूँ, मुझे लगता है, बाबा नानक मेरी तरफ ही देख रहे हैं और मुस्करा रहे हैं। मैं 'वाहेगुरु-वाहेगुरु' करते हुए अरदास करती हूँ-"हे सच्चे पातशाह! बुढ़ापे में और दुख न दिखा। अपने पास बुला ले। अब बरदाश्त नहीं होता।"
कभी मेज पर रखी गुरमीत-हरजीत के बापू की फोटो को निहारने लगती हूँ। उससे बातें करने लगती हूँ-"देख रहा है न तू! तेरे जाने के बाद मेरी क्या दुर्गत हो रही है?"
पिछले दो-तीन दिनों से घर में चहल-पहल-सी है। गुरमीत भी मेरा हालचाल पूछने आने लगा है। कभी-कभी बच्चे भी आकर झाँक जाते हैं। मेरी दवा भी आ गई है। मैं हैरान हूँ। फिर पता चलता है कि हरजीत इंग्लैंड से आ रहा है, बहू और बच्चों के संग, पन्द्रह दिन के लिए। यह खबर सुनकर मैं खुश हो जाती हूँ, 'चलो, रब ने आँखें बन्द होने से पहले हरजीत और उसके बच्चों को देखने का सुख तो बख्शा!'
हरजीत आया, तो घर में रौनक-सी हो गई। हरजीत की पत्नी पूरी मेम है। उसके बच्चे बहुत सुन्दर हैं-गोल-मटोल-से, गोरे-चिट्टे। वे भी गुरमीत के बच्चों के संग पर्दा उठा-उठाकर मेरे कमरे में जब-तब झाँकते रहते हैं। हरजीत की पत्नी ने दो-तीन बार मेरे कमरे में आकर मेरे संग बातें की हैं। अंगरेजी में न जाने क्या गिट-पिट करती रही, मेरी समझ में कुछ नहीं आया। बीच-बीच में पंजाबी-हिन्दी के एक-दो शब्द ज़रूर मेरे कान में पड़े। पर उसका मेरे संग बात करना मुझे अच्छा लगा। मेरा मन किया कि वह मेरे पास ही बैठी रहे।
पिछले कुछ दिनों से मुआ पेशाब बहुत आ रहा है। रात को दो-तीन बार मुझे उठना पड़ता है। घुटनों के दर्द के कारण जान निकल जाती है मेरी! मन करता है, कमरे के बाहर वाली नाली पर ही बैठ जाऊँ, पर बहू की झिड़की के डर से नहीं बैठती। एक बार बैठी थी, तो अगली सुबह बहू ने नाक-मुँह को दुप्पटे से ढककर मेरी वह आरती उतारी थी कि मैं तौबा-तौबा कर उठी। परसों रात जब मैं पेशाब के लिए बाहर निकली, तो गुरमीत के कमरे से झगड़ने की आवाजें आ रही थीं। गुरमीत और उसकी घरवाली तेज आवाज में हरजीत से झगड़ रहे थे। मैं हल्का होकर गुरमीत के कमरे की ओर बढ़ी। मन में आया, दरवाजा खुलवाकर उनसे कहूँ-"पुत्तर! क्यूँ झगड़ते हो आपस में? जो बात करनी है, आराम से बैठकर करो। ... इतनी रात गए ऊँची आवाज में झगड़ रहे हो, पड़ोसी भी क्या सोचते होंगे..." फिर, न जाने क्या सोच कर कमरे के बाहर ही खड़ी रही, सोटी के सहारे। भीतर की आवाजें मुझे साफ सुनाई दे रही थीं-
"तू तो अच्छा गया, यहाँ से! जाते वक्त तो कहता था, पैसा भेजूँगा-ऊपर दो कमरे डलवाने के लिए।" प्रीतो, गुरमीत की घरवाली हरजीत को ताना मार रही थी।
"हाँ, नहीं भेज सका। मेरा भी अब परिवार है। बहुत महँगाई है वहाँ। गुजारा मुश्किल से होता है।" हरजीत की आवाज थी।
"और जो मैंने लाखों का कर्जा उठाकर तुझे बाहर भेजा, तो क्या इसीलिए भेजा था कि तू वहाँ जाकर मौजें करें और इधर मैं तेरा कर्जा उतारता फिरूँ। मेरा परिवार, मेरे बच्चे नहीं हैं क्या?" गुरमीत बहुत गुस्से में लग रहा था।
"उतार दूँगा सारा कर्जा, पर धीरे-धीरे।"
"इतने साल हो गए तुझे वहाँ गए, क्या किया तूने? गाँव के दूसरे घरों के लड़के भी तो बाहर गए हैं। दो-चार साल में गाँव में हवेली डाल ली उनके घरवालों ने। घरवाले भी बारी-बारी से हवाई जहाज पर चढ़कर विदेश घूम आए हैं। एक तू है, पहले तो पाँच साल तक शक्ल नहीं दिखाई। पाँच साल बाद आया भी, तो बस बाथरूम बनवाकर और फर्श डलवाकर चलता बना। फिर चार साल गचका मार गया। न पैसा भेजा, न किसी चिट्ठी का जवाब दिया।" गुरमीत लगातार बोले जा रहा था।
"तुम लोगों को तो मेरे पौंड ही नज़र आते हैं। अरे, एक-एक पौंड के लिए कैसे देहतोड़ मेहनत मुझे वहाँ दिन-रात करनी पड़ती है, यह मैं ही जानता हूँ। तुम यहाँ बैठे क्या जानो।"
"तो शादी करने की क्या जल्दी पड़ी थी तुझे! कुछ पैसा-वैसा कमा लेता, इधर का कर्जा उतार लेता, फिर कर लेता शादी, बसा लेता परिवार। ..."
"भाजी, शादी नहीं करता, तो वहाँ ठहर नहीं सकता था। शादी की है तो पक्का हुआ हूँ। पक्का होने के लिए यहाँ से ब्याहे गए आदमी भी वहाँ शादियाँ करवाते हैं। नहीं तो।" हरजीत सफाई दे रहा था।
"पर मैं तो कर्जे के ब्याज से मरा पड़ा हूँ, मूल तो ज्यों का त्यों छाती पर पहाड़-सा पड़ा है। मेरी जान आफत में आई पड़ी है। कर्जा देने वाले ताने मारते हैं। कहते हैं-अब तो तेरा भाई विदेश में कमा रहा है, अब कैसी कमी तुझे पैसों की! देख भाई, तू मेरे सर से ये कर्जा उतार, ताकि मैं भी दो साँसें सुख की ले सकूँ।" गुरमीत की आवाज रोनी-सी हो उठी थी।
"हिसाब से देखो तो इस मकान में मेरा भी हिस्सा है। समझ लो, मैंने वह छोड़ दिया।" हरजीत का स्वर भी तेज हो उठा।
"ओए, हिस्सा तू कल लेता हो, आज ले ले।" गुरमीत की आवाज तेज हो उठी, "चला है, हिस्सा माँगने! अरे मैं कर्जा उठाकर तुझे न भेजता तो देखता कैसे जाता तू बाहर। ... मैं यहाँ जो इतने सालों से माँ को रखे हूँ, उस पर तेरा भी कोई फर्ज बनता है। ले जा उसे अपने संग और मेरा कर्जा उतार दे, बस और कुछ नहीं चाहिए मुझे।"
"माँ को मैं कैसे ले जा सकता हूँ।" हरजीत का स्वर धीमा हो आया था, "माँ, वहाँ नहीं रह पाएगी। वह यहीं ठीक है। मैं उसकी देखभाल के पैसे भेज दिया करुँगा।"
"उँह! पैसे भेज दूँगा... यह तूने अच्छी कही। अरे कर्जे के पैसे तो उतारे नहीं जा रहे तेरे से, माँ की देखभाल के लिए तू पैसे भेजेगा?" गुरमीत जैसे अन्दर से भरा बैठा था।
मेरे से और अधिक वहाँ खड़ा होना कठिन हो गया, तो मैं चुपचाप आकर अपने बिस्तर पर लेट गई थी। रात देर गए तक दोनों भाइयों के लड़ने की आवाजें आती रही थीं।
कल दोपहर हरजीत मेरे पास काफी देर तक बैठकर बातें करता रहा। हरजीत ने जो कुछ मुझसे कहा, वह सुनकर मेरी तो ऊपर की साँस ऊपर और नीचे की नीचे रह गई। 'हाय रब्बा! यह मैं क्या सुन रही हूँ? यह सुनने से पहले मैं मर क्यों न गई? वाहे गुरु! तू ये कैसा बदला ले रहा है मुझसे। जिन बच्चों के लिए मैंने अपनी जिन्दगी गला दी, उफ्फ तक नहीं की, वही यह सब सोचे बैठे हैं।'
शाम को गुरमीत भी आकर हरजीत वाली बात मुझे समझाने की कोशिश करता रहा।
मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। मेरा तो कलेजा चाक हुआ पड़ा था। आँखों से आँसू झर-झर बह रहे थे, "दुख देणे, अपनी माँ को ही बोझ समझने लगे है।" मेरे मुँह से आवाज नहीं निकल रही थी। मैं अन्दर ही अन्दर गिड़गिड़ा रही थी, "पुत्तर, मैं तुम्हें कुछ नहीं कहती। जब तक दो साँसें बची हुई हैं, मुझे इसी कमरे में अपने पास रहने दो... मुझ बूढ़ी को इस आखिरी वक्त में क्यों अपनी आँखों से ओझल करते हो? ... मुझे कुछ नहीं चाहिए, मुझे बस यहीं रहने दो, परमात्मा के वास्ते। वाहे गुरु तुम्हारी और तुम्हारे बच्चों को लम्बी उम्र दे। ..."
'हे सच्चे पातशाह, इस आखिरी वक्त में ये नरक न दिखा।' मैं मन ही मन अरदास करती हूँ।
बिस्तर पर पड़ी-पड़ी मैं करवटें बदल रही हूँ। निगोड़ी नींद को क्या हो गया है? जाने क्यों रूठी बैठी है। वह भी क्या करे? जब दिल में हाहाकार मचा हो, तो वह कैसे पास फटक सकती है। मेरे पेट जाये ये गुरमीत और हरजीत इतने निर्मोही कैसे हो गए? ... उम्र के इस आखिरी पड़ाव में यह दु: ख भी देखने को मिलेगा, मैंने ख्वाब में भी नहीं सोचा था। मेरी आँखों के आगे गुरमीत और हरजीत के बचपन के दिन आ खड़े होते हैं।
उनके बचपन की एक घटना स्मरण हो आती है। गुरमीत और हरजीत दोनों ने नंबरदारों के लड़के को पीट दिया था। नंबरदारनी उलाहना लेकर आई थी मेरे पास। वह उछल-उछलकर पड़ रही थी। कहती थी, "तेरे बेटों की हिम्मत कैसे हुई, हमारे लड़के को हाथ लगाने की! अगर फिर कभी हाथ लगाया, तो इनके हाथ-पैर तोड़ देंगे।" नंबरदारनी जब खूब अबा-तबा बोलकर चली गई, तो मैंने दोनों बेटों की खबर ली थी। आँखों में आँसू भरकर उन दोनों को खूब डाँटा था, "रे तुमने क्यों इन नंबरदारों के लड़के से पंगा लिया। मुझे गाँव में रहने देना है कि नहीं।" इस पर गुरमीत ने कहा था, "माँ, कोई मुझे कुछ कह ले, बापू को कुछ कह ले, पर तुझे कोई कुछ कहे, यह मैं बरदाश्त नहीं कर सकता। चाहे वह नंबरदारों का बेटा ही क्यों न हो।" हरजीत भी आगे बोला था, "माँ, वह हमें माँ की गाली देता था, हम कैसे चुप रहते? ... तुझे कोई गाली निकाले, हम उसका मुँह तोड़ देंगे।"
अपने बेटों की बात सुनकर मेरी छाती चौड़ी हो गई थी। यही गुरमीत कहा करता था, "माँ, तू फिकर न कर। मुझे बड़ा हो लेने दे। फिर तुझे कभी काम नहीं करने दूँगा। बस, तू बिस्तर पर बैठी हुक्म किया करना, मैं तेरा हुक्म बजाया करूँगा।"
आज बिस्तर पर पड़ी मैं वही माँ हूँ, पर बेटे वे नहीं रहे। आज मैं इनके लिए बोझ बन गई हँ। सारी उम्र मैं यही कोशिश करती रही कि मेरे बच्चे सुखी रहें। सारे दु: ख अपनी छाती पर झेलती रही कि इन्हें कोई दु: ख-तकलीफ न हो। माँओं की छातियाँ होती ही इसलिए हैं। पहले बच्चों को दूध पिलाती हैं, फिर उनके दु: ख-दर्द अपने ऊपर झेल लेती हैं!
मेरी नज़रें बाबा नानक के कैलेंडर की ओर उठ जाती हैं। फिर मेज पर रखी गुरमीत-हरजीत के बापू की फोटो पर। मुझे लगता है मानो वे दोनों मुझसे कुछ कह रहे हों, "अपने बच्चों के सुख चाहने वाली सुखदेई! अब भी तू बच्चों के सुख के बारे में ही सोच! अगर इन्हें इसी बात में सुख मिलता है, तो तू इनके सुख में विघ्न न बन। वे तुझे वृद्ध-आश्रम ही तो छोड़ने जा रहे हैं, रूड़ी (कूडे) पर फेंकने तो नहीं..."
बाहर चिड़ियाँ चहचहाने लगी हैं। शायद, भोर का समय हो गया है। 'वाहे गुरु-वाहे गुरु' करती मैं घुटनों पर हाथ रखकर उठ खड़ी होती हूँ, संदूकची में से अपने दो जोड़ी कपड़े निकालती हूँ, उन्हें एक थैले में रखती हूँ। अपनी दवा, गिलास, कटोरी और चम्मच समेटती हूँ। दीवार पर से बाबा नानक का कैलेंडर उतारकर रख लेती हूँ। मेज पर रखे फोटो में गुरमीत-हरजीत का बापू हँस रहा है-"मुझे यहीं छोड़े जा रही हो, सुखदेई!" मेरी आँखें गंगा-जमना हो उठती हैं। मैं मेज पर से फोटो उठाकर उसे दुप्पटे के पल्लू से पोंछते हुए बुदबुदाती हूँ, "नहीं, तेरा यहाँ क्या काम? तू भी चल मेरे संग!" -0-