आखिरी पड़ाव / से.रा. यात्री
एक बड़े प्रोजेक्ट के सिलसिले में मुझे दिल्ली छोड़कर उड़ीसा जाना पड़ गया और मैं फिर तीन साल में एक बार भी दिल्ली नहीं लौटा। मुझे अपने मित्र अविनाश और सुमि के बारे में कुछ पता नहीं चल पाया। जाने से पहले एक रात मैं उन लोगों के यहां गया था, तो मुझे उन दोनों के बीच जिस तरह के खिंचाव का आभास मिला था, उससे यही लगता था कि यह टूटन शायद अब उन्हें और साथ नहीं रहने देगी।
एक सुबह अखबार पलटते हुए सहसा मेरी नजर एक फोटो पर गई तो मैं ठिठककर रह गया। फोटो सुमि का था। उसके नाम के पहले डॉक्टर लगा था और नाम के बाद रोहतगी। अविनाश कहीं से भी रोहतगी नहीं था। इसका सीधा-सा अर्थ यही था कि अब वह दोनों साथ नहीं थे। समाचार-पत्र में इतनी ही सूचना थी कि सुमि की 'न्यूजर्सी' में हिंदी पढ़ाने के लिए नियुक्ति हो गई थी।
मैंने अनुमान से समझ लिया कि सुमि ने अविनाश को छोड़ने के बाद दिल्ली विश्वविद्यालय से पी-एच.डी. कर ली होगी। उसके नाम के साथ रोहतगी देखकर मुझे यह निश्चय हो पाया कि वह रोहतगी पहले से ही थी या अविनाश से अलग होने के बाद किसी रोहतगी से शादी कर ली होगी। जो भी हो मुझे हार्दिक प्रसन्नता हुई कि सुमि ने अपनी सामर्थ्य से स्वयं को स्थापित कर लिया था और अब वह बेसहारा नहीं रह गई थी।
मेरी आंखों के सामने उस रात का कुत्सित दृश्य आ गया जब अविनाश के घर पर चांडाल चौकड़ी जमी हुई थी और सुमि की फजीहत हो रही थी। उससे नौकरानी का काम लिया जा रहा था। मैं उस सारी दारुण स्थिति का प्रत्यक्ष साक्षी था और मुझे लगा था कि अविनाश की क्रूरता ने सुमि को तोड़कर रख दिया था।
बाद में मैं दिल्ली आया तो मुझे अविनाश से मिलने की बड़ी उत्सुकता थी। मैं देखना चाहता था कि सुमि से अलग हो जाने पर बच्चू की क्या हालत थी। निश्चय ही उसने सुमि के साथ रहने की मामूली-सी शर्तों को भी पूरा नहीं किया था।
मैं जिस समय अविनाश के फ्लैट पर पहुंचा तो घंटी बजाने पर एक औरत ने दरवाजा खोला। मैंने उससे पूछा कि अविनाश घर में है। मेरे सवाल का जवाब देने के बजाय उसने मुझसे ही प्रति प्रश्न कर दिया - 'आप कहां से आए हैं?'
मैंने उसे बतलाया कि मैं उड़ीसा के एक आदिवासी इलाके कियोनझार से आया हूं, और अविनाश का मित्र हूं।
वह और कौतुक से मेरा चेहरा देखते हुए बोली, 'अनोखी मित्रता है आप लोगों की, जो एक-दूसरे के बारे में बरसों तक कुछ नहीं जान पाते!'
उसकी बात अपनी जगह सही थी, लेकिन मुझे लगा वह बगैर वजह बात को तूल दे रही है। उसे सीधे-सीधे बतलाना चाहिए कि अविनाश घर में है या नहीं। मैंने झुंझलाहट पर काबू पाने का प्रयास करते हुए पूछा, 'क्या आप अविनाश बाबू के बारे में मुझे कुछ बतला सकती हैं? बहुत से कारण होते हैं जब हम अपने घनिष्ठतम मित्रों से भी बरसों तक नहीं मिल पाते हैं।'
'हां ऐसा तो हो जाता है, अगर आप या दोस्त कहीं विदेश में रहता हो।'
मुझे वह औरत घोर अहमक लगी। न इसने दरवाजा खोलकर अंदर आने को कहा न कोई ढंग की बात की - बस फिजूल बहस ही बहस किए चली जा रही है। मैंने आजिजी से कहा, 'मैं दिल्ली से जितनी दूर रहता हूं, वह किसी विदेश से कम नहीं है।'
वह आंखें फैलाकर बोली, 'अच्छा जी।'
मैंने सोचा यहां समय नष्ट करना व्यर्थ है। चलकर किसी दूसरे दोस्त से पूछना चाहिए क्योंकि इतनी देर में यह तो स्पष्ट हो गया था कि अब अविनाश यहां नहीं रहता था। मैंने अंतिम प्रयास किया, 'क्या अविनाश बाबू के बारे में आप मुझे कोई सूचना दे सकती हैं।'
उसने दीदे कपाल पर चढ़ाते हुए पूछा, 'कौन अविनाश बाबू? क्या करते हैं? दो साल से तो यहां इस नाम का कोई आदमी नहीं देखा - पहले का कुछ पता नहीं।'
यों अब झख मारने को बाकी रह ही क्या गया था, पर मेरे मुंह से हठात् निकल गया, 'जब आपने मकान में प्रवेश किया था तो आपसे पहले भी तो कोई किराएदार यहां रहता होगा।'
'जरूर रहता होगा पर हमने तो नहीं देखा जब हम आए तो यह फ्लैट खाली था। खाली न होता तो सोचो हम इसमें कैसे रहते?'
अब हद हो चुकी थी। इसलिए मैं धन्यवाद कहकर मुड़ गया और नजदीक के मार्किट से अविनाश के दफ्तर फोन किया। मैंने किसी के हैलो करने पर पूछा कि क्या अविनाश बाबू इसी दफ्तर में काम करते हैं? अब मुझे यह भी विश्वास नहीं हो रहा था कि अविनाश जहां तीन वर्ष पहले नौकरी करता था - वहीं होगा।
किसी गोरखे की आवाज सुनाई पड़ी, 'हां साब करते तो हैं, पर वो दो दिन से दफ्तर नहीं आ रहे हैं।'
'अच्छा। क्या उनके मकान का पता बता सकते हो?'
'हां साब वह बी-एक सौ बत्तीस में कोई धौला कुआं जग्गे में रैते हैं।'
मैंने फोन रख दिया। यद्यपि अब अविनाश का मिलना संदेहास्पद हो चला था पर मैंने धूल फांकने का जैसे बीड़ा ही उठा लिया था। सड़क से मैंने एक थ्री ह्वीलर पकड़ा और अविनाश का पता बतलाकर उसमें बैठ गया।
मैं जब बतलाए हुए पते पर पहुंचा तो शाम होने लगी थी और वहां कई स्कूटर और कारें खड़ी थीं। ड्राइवर को भाड़ा चुकाने के बाद मैंने अंदाज से जान लिया कि अविनाश ऊपर की अंतिम मंजिल पर रहता है।
बहुत-सी सीढ़ियां पार करके मैं तीसरी मंजिल पर पहुंचा तो मैंने देखा दरवाजे खुले हुए हैं और अंदर से हा-हा, हू-हू की मिली-जुली आवाजें आ रही हैं।
मुझे यह जानकर बड़ी राहत मिली कि अविनाश घर में मौजूद है। वह वहां भी न मिलता तो मेरा साहस इस सीमा तक टूट जाता कि बाद में मैं उसे खोजने का प्रयास ही छोड़ बैठता।
मैंने सहन पार किया और कमरे में पहुंच गया। वहां मैंने फर्श पर ही आठ-दस लोगों को ताश खेलते और सरेआम जमकर दारू पीते देखा। अविनाश की नजर मुझ पर पड़ी तो वह फुर्ती से उठा और मुझे बांहों में लपेटते हुए बोला, 'आओ यार आओ। इस बार तो तुमने हमें देश निकाला ही दे दिया जान पड़ता है।'
अविनाश का प्रेमावेश ढीला पड़ा तो मैंने वहां बैठे लोगों पर नजर डाली - लेकिन मैं उनमें से किसी को भी नहीं पहचानता था। जब भी मैं उसके घर जाता था हमेशा नए-नए चेहने देखने को मिलते थे। मुझे हैरत होती थी कि साहित्य कला में रुचि रखने वाला अविनाश अजीब-अजीब हुलियों की छिछली स्तरीय भीड़ को जुटाने के प्रति इतना उत्साहित कैसे रहता था। पता नहीं वह इस तरह के लोगों से क्या बातें करता था? मुझे कई बार यह भी लगता था कि सुमि इस तरह निठल्ले पियक्कड़ों को झेलने में असमर्थ होने की वजह से ही उसे छोड़कर चली गई होगी।
मैंने गौर से उसका चेहरा देखा। प्रकट रूप में वह खूब मस्त लग रहा था। सुमि से अलग हो जाने की कोई आत्मिक पीड़ा भी वहां नहीं थी। वह हमेशा की तरह जिंदा दिल और गुलजार नजर आता था।
अविनाश ने 'हरिया' कहकर किसी आवाज लगाई। दो-तीन मिनट बाद सत्रह-अठारह साल का एक लड़का वहां आया तो उसने कुर्सी लाने के लिए कहा।
जब तक हरिया कुर्सी लाया - मैं दीवार से पीठ लगाकर फर्श पर बैठ चुका था। उसने वहां उपस्थित हंगामाखेज भीड़ का परिचय देना शुरू किया तो उनमें एक-दो ने उड़ती-सी निगाहें मेरे चेहरे पर डालीं और फिर अपने गिलासों और पत्तों की दुनिया में गर्क हो गए। वे सब फैक्ट्रियों, ट्रांसपोर्टों या प्राइवेट धंधों में लगे बेफिकरे लोग थे और जाने-अनजाने संयोगों से अविनाश से जुड़ गए थे। अविनाश के दोस्तों के लिए सुमि बेमन से जो खाना-सलाद, गिलास, पानी वगैरह जुटाती थी उसे अब हरिया दौड़-दौड़कर मुहैया करा रहा था। सुमि की कोई अनाम सी भी उपस्थिति उस वातावरण में बाकी नहीं रह गई थी, अपढ़ और कुपढ़ अपने हिसाब से काफी जीवंत लतीफे और मजाक बीच-बीच में कर ही रहे थे, मगर अविनाश उन्हें किस तरह झेल रहा था यह मेरी समझ के बाहर था।
देर रात गए तक बोतलों पर बोतलें खाली होती चली गईं और बाद में हरिया ने कुछ स्वयं द्वारा घास-पात किस्म का बनाया खाना और बाकी बाजार से लाए गए मुर्ग-मुसल्लम, बिरियानी बगैरह मेज पर ला-लाकर ढेर की शक्ल में पाटने शुरू कर दिए।
शोर-शराबा करते हुए वहां बैठे लोगों ने अहमकपने से खाना शुरू किया और खाने की बनिस्बत बर्बाद ही ज्यादा किया। उन लोगों को नशे की गड़गच्च हालत में खाते देखकर मुझे लगा कि उनमें से अधिकांश रात को यहीं ढेर हो ही जाएंगे। लेकिन खाना खत्म होने के बाद हरिया और अविनाश ने उन्हें पकड़-पकड़कर तीसरी मंजिल के नीचे सड़क पर पहुंचाया और नींद में डूबे ड्राइबरों को जगा-जगाकर उन सबको गाड़ियों में ठूंस-ठूंसकर रवाना कर दिया।
अब मैं और अविनाश हरिया द्वारा साफ किए गए फर्श पर ही बिस्तर डालकर लेटे तो दो बजने को थे। बहुत देर तक मित्रों की और इधर-उधर की बातें होती रहीं। मैं मन ही मन सोचता रहा कि अविनाश किसी न किसी संदर्भ में सुमि की चर्चा जरूर चलाएगा यों मैं सीधे सुमि के बारे में बातें शुरू कर सकता था, क्योंकि मेरे लिए तो वह अब भी अविनाश के साथ ही थी। अविनाश को यह पता होने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता था कि मैं सुमि के विदेश जाने की पृष्टिभूमि जानता होऊंगा। पिछली भेंट में मेरी ही उपस्थिति में उन लोगों के बीच खूब खींचतान हुई थी, लेकिन उनके घर में जाते समय उन दोनों को मैं एक ही छत के नीचे फोड़कर गया था। और यह सीधा-सा तथ्य सभी जानते हैं कि ऐसी अनबनें पति-पत्नि या प्रेमी-प्रमिका के बीच बहुत देर तक ठहरती नहीं है।
पर सुमि का कैसा भी उल्लेख उसने अपनी चर्चा में नहीं किया तो मैंने मान लिया कि वह न केवल सुमि से मुक्त हो चुका है, बल्कि भावुकता और किसी भी तरह की दुखाने वाली भावनाओं से ऊपर उठ चुका है। वह अपने एकाकीपन में चिर और संपूर्ण है।
जहां उसकी परपीड़क प्रवृत्ति के बारे में सोचकर मुझे मानसिक कष्ट हुआ, वहीं यह मानकर कुछ राहत भी मिली कि चलो वह भला-चंगा अपने भीतर मजबूत है। उधर सुमि भी विदेश में जाकर जैसी भी होगी, खुश ही होगी। उसने श्रम और साहस करके स्वयं को एक त्रासद जिंदगी से मुक्त कर लिया था और किसी न किसी रूप में शायद कुछ तो बची रह गई थी।
पता नहीं मुझे कब नींद आई। सुबह मेरी आंखें खुली तो अविनाश बिस्तर पर नहीं था। वैसे वह हमेशा बार-बार हड़काने पर ही बिस्तर छोड़ने वाला जीव था, लेकिन हो सकता है सुमि के चले जाने के बाद उसके स्वभाव में परिवर्तन आ गया हो और उसने अपनी दिनचर्या थोड़ी बहुत बदल डाली हो।
मैं उठकर बाहर सहन में आ गया। अविनाश सहन और गुसलखाने में भी नहीं था। आंगन में घूमते हुए मैंने अनुमान लगाने की चेष्टा की कि कहीं वह रसोई में तो नहीं है। पर वहां से भी खटपट की आवाज नहीं आ रही थी। मैंने सोचा हो न हो, वह किसी काम से बाहर निकल गया है।
इसी समय मैंने ऊपर खुली छत पर किसी के पैरों की आहट सुनी तो मुझे हैरानी हुई। ऊपर छत पर यह घूमने का सिलसिला इस हजरत ने कब से शुरू कर दिया। मैंने जंगले से झांका। पिछवाड़े दूर-दूर तक खुला जंगल था।
मैं भी जीने की सीढ़ियां चढ़कर ऊपर जा पहुंचा। मैंने वहां जो अदभुत दृश्य देखा उसे देखकर अभिभूत हो उठा। मुंडेर पर एक बड़ा सुंदर मोर था, जिसके लंबे पंख और पूंछ मुंडेर के उस तरफ थे और वह अपनी चोंच छत की दिशा में किए हुए अविनाश की हथेली पर रखे हुए दाने चुग रहा था। वह बार-बार चोंच उठाकर दाएं-बाएं देख लेता था और फिर चोंच झुकाकर अविनाश की फैली हथेली से कुछ उठा लेता था।
मैं जीने की दहलीज पर दम साथे खड़ा कई क्षणों तक इस स्थिति को देखता रहा। अपूर्व दृश्य था - मोर से अविनाश का संवाद जारी था। उत्तर में मोर अपने लंबे-लंबे पंखों को किंचित खम देकर हिला देता था।
कई मिनट बाद जब अविनाश की हथेली खाली हो गई तो अविनाश मोर की पीठ पर दाईं हथेली का हल्सा-सा स्पर्श देकर कहा, 'बीच-बीच में कहां गुम हो जाता है। मुझे तेरी राह देखनी पड़ती है।'
उसकी शिकायत पर मोर ने गर्दन टेढ़ी करके अनिवाश की ओर अपनी आंखें इस अंदाज से उठाई गोया वह अविनाश का शिकवा समझ गया हो और एक क्षण बीतते न बीतते उसने क्री-क्री की ध्वनि के साथ अपने पंख झटके और घूमकर जंगल की दिशा में उड़ गया।
अविनाश ने मुड़कर मुझे दहलीज पर खड़े देखा तो झेंप भरी हंसी के बीच बोला, 'तो तुम भी जाग गए।'
फिर जैसे सफाई देते हुए बोला, 'कुछ दिनों से मैं भी जल्दी ही जाग जाता हूं। ऊपर छत पर टहलने में बड़ा मजा आता है। सुबह की ताजी हवा की बात ही कुछ और है।' मैंने मुस्कराते हुए कहा, 'वो तो मैं देख ही रहा हूं। जंगल की बजाय मोर तुम्हारे अंगना में नाचने के लिए जो आने लगा है।'
'अरे नहीं!' वह मेरी बात को उड़ाते हुए बोला, 'पता नहीं यह छत की मुंडेर पर कब से आकर बैठने लगा है। मैंने तो एक सुबह किसी के टहलने की आहट सुनकर कौतूहलवश यों ही ऊपर आकर देखा था। मैं सोचता था यह मुझे देखते ही उड़ जाएगा, पर वह अजब ढीठ निकला। डरने की तो बात ही क्या, जनाब मजे में मटरगश्ती करते रहे। इस पर मुझे लगा शायद भूखा है। मैंने नीचे किचेन में जाकर डिब्बे टटोले तो थोड़े से चावल निकल आए। उन्हें मुट्ठी में भरकर मैं ऊपर आ गया और अपनी हथेली उसके सामने कर दी। लो भई केका साहब बेतकल्लुफी से आगे आए और मेरी खुली हथेली पर चोंच मारने लगे। इसकी चोंच मेरी हथेली पर लगती थी तो अजीब अटपटे किस्म की गुदगुदी उठती थी। देखते-देखते हजरत सारे चावल टूंग गए और बाद में कई मिनट तक इधर से उधर छत नापते रहे।' मैंने लक्ष्य किया कि अविनाश मोर को एक अंतरंग मित्र की शैली में संबोधित कर रहा है।
मैंने उसके बोलने में कोई बाधा नहीं दी। वह बोलता चला गया, 'मैंने अगली शाम अनजाने में नीचे की दुकान से थोड़े-से चावल खरीद लिए - हालांकि इसके पीछे इस नए मेहमान की खातिरदारी का कोई स्पष्ट आग्रह नहीं था।'
मेरे मुंह से अनायास एक लंबी सांस निकल गई।
अविनाश लगभग बेख्याली में कह रहा था, 'अगली सुबह छत पर किसी के घूमने की भनक पात ही मुझे लगा वही हजरत होंगे।'
मैं मुट्टी भर चावल लेकर ऊपर गया तो मैंने उसे बेझिझकर इधर-उधर फुदकते हुए पाया। एक पुराने दोस्त की तरह यह उजबक मेरी ओर लपका तो मैंने अपनी हथेली आगे कर दी और लीजिए हो गई श्रीमान जी की नायाब जियाफत। फिर तो जैसे एक सिलसिला ही चल निकला।
लंबी सांस खींचकर जब अविनाश ने अपना बयान खत्म किया तो मुझे लगा अविनाश कहीं भीतर से बिंध गया है। मैंने उसकी ओर एक आंख छोटी करके मजाकिया लहजे में कहा - 'चलो अच्छा है इस बहाने एक जीव की सेवा तो कर रहे हो।'
मेरी व्यंग्यात्क टिप्पणी पर वह हंसा नहीं बल्कि गंभीर होकर कुछ सोचने लगा। उसे चुप देखकर मैंने टहोका दिया, 'किस दुनिया में चले गए भई।'
'कुछ नहीं' कहकर उसने मोर के उड़ने की दिशा में देखना शुरू कर दिया। मैं बोला, 'लगता है, इस पक्षी को लेकर तुम काफी सैंटीमेंटल हो गए हो।'
उसने उधर से आंखें हटाकर मुझे देखा और कहने लगा, 'नहीं-नहीं वैसी तो कोई बात नहीं है। बस इससे मुश्किल यह तो गई है कि अब मैं रात को घर से बाहर कहीं ठहर नहीं पाता।
चाहे जितनी भी देर से लौटूं लेकिन घर जरूर आ जाता हूं। मुझे अचेतन में भी इस मोर का ख्याल छोड़ नहीं पाता। कहीं यह सुबह को आए और मुझे न पाकर निराश होकर लौट जाए। मैं भीतर से कोई कोशिश कभी नहीं करता पर अनायास मेरी आंखें अलस्सुबह खुल जाती हैं और पांव ऊपर छत की ओर चल पड़ते हैं। इस चकल्लस में मैं कई अच्छे सेमिनार भी छोड़ चुका हूं।'
सहसा मेरे मुंह से निकला, 'अब तुम्हें घर मिल गया अविनाश और घर बेखुदी में भी हमसे दूर नहीं हो पाता।'
'बकवास' कहकर अविनाश ने कंधे उचकाते हुए एक खोखला ठहाका लगाया और बोला, 'चलो-चलो नीचे चलते हैं। चाय की तलब लगी है। हरिया डिपो से दूध लेकर आ गया होगा।'
हरिया का नाम सुनते ही मुझे याद आ गया कि इस घर में एक और आदमी रहता है, मगर अविनाश मोर को उसके ऊपर छोड़कर कहीं नहीं जा सकता।
अविनाश जीने की सीढ़ियां उतरने लगा। मैं भी उसे पीछे हो लिया। मेरे मन में एक अनजाना द्वंद्व चल रहा था। मुझे वह रात याद आ रही थी, जब सुमि से उसकी चख-चख हुई थी और अविनाश ने मुंह बिगाड़ कर क्रूरता से कहा था, 'तो क्यों बरदाश्त करती हो किसी की ज्यादती? मैं तुम्हारे पैरों में बेड़ियां डालकर तो नहीं बैठा हूं। हर कोई अपने-अपने ढंग से जीने के लिए स्वतंत्र है।'
सुमि वाकई उसे नहीं बांध पाई थी। मैं सोचने लगा क्या उसे सुमि की याद नहीं आती होगी? वह बरसों बरस एक ही छत के नीचे - देह से जुड़कर तो रही ही थी कम से कम?
और इधर एक पक्षी जो किसी भी मामूली बाधा में उसकी छत पर किसी भी दिन आना छोड़ देगा। कितना विचित्र था यह प्रसंग कि जिसके जीवन में बंधने की कैसी भी शर्त लागू नहीं होती, वह अविनाश को प्रतीक्षातुर बनाए रहता है।
नीचे सहन में मुझे गुम-सुम देखकर अविनाश ने मेरा कंधा झकझोरते हुए कहा, 'क्या सोचने लगे? इट इज आल रबिश।'
इसी समय दरवाजे को खोलते हुए हरिया दूध का पैकेट हाथ में पकड़े सहन में आ गया।
उसके हाथ में दूध का पैकेट देखकर अविनाश ने पूछा, 'क्यों केका के चावल नहीं लाए।'
हरिया किचेन की ओर जाते हुए लापरवाही से बोला, 'कई दिन के लिए पड़े हैं अभी तो, मैं जब चाहे लाकर रख दूंगा।'
'नहीं-नहीं, फिर तुम भूल जाओगे। अभी जाकर ले आओ।'
हरिया दूध की थैली रसोई में रखकर लौटा और चावल लेने चल पड़ा।
इसी क्षण अविनाश के चेहरे पर मेरी दृष्टि पड़ी तो मैंने पाया, उस पर एक सावधानी और जिम्मेदारी का भाव था।
मैं स्वयं को रोक नहीं पाया और बेसाख्ता मेरे मुंह से निकला, 'घर की तलाश कब किस रूप में की जाएगी, कौन कह सकता है? किसकी उपस्थिति के आभास भर से बेजान दीवारें घर में बदल जाएंगी कौन कह सकता है?'
अविनाश ने नजरें बचाते हुए कहा, 'चलो यार चाय बनाते हैं।' ओर वह रसोई की तरफ बढ़ गया।