आखिरी पत्ती / ओ हेनरी / दिलीप लोकरे
पात्र
- सू: ३० वर्ष
- जोंसी: २६ वर्ष
- डॉक्टर: ३५-४० वर्ष
- बेहरमेन: ६० -६५ वर्ष
टेढ़ी मेढ़ी गलियों के जाल से सजी गन्दी, तंग बस्ती के एक तीन मंजिले मकान की ऊपरी मंजिल का जर्जर घर। सामने से देखने पर दो कमरों में बटा दिखाई देता है। बाई ओंर के हिस्से में सू का पेंटिंग स्टूडियो व बाई और जोंसी का बेडरूम। पलंग के पीछे खिड़की। खिड़की से बाहर पुरानी मिल की दीवार और दीवार पर फैली एक बेल।
(सू अपने पेंटिंग सामान को जमाते-सम्हालते लगातार बडबडा रही है)
सू-"कब तक ? न जाने कब तक ऐसे ही मरना पड़ेगा ? सपनों का शहर..। भाड़ में जाये ऐसा सपना। क्या यही सब करने इस शहर में आई थी ? मजबूरी न होती तो टेढ़ी मेढ़ी गलियों वाले इस बदबूदार मोहल्ले के ऐसे घटिया मकान में कभी नहीं रहती मै। कहते है इस शहर में कला कि क़द्र है ...। कलाकार कि किस्मत खुलती है यहाँ .खाक खुलती है ? आसपास के कमरों में रहने वाले इन मरियल बूढों को देखकर तो नहीं लगता ...आधी उम्र हो गई ...आखें पथरा गई ...हाथ पांव तक कांपने लगे है, लेकिन अभी भी दम भर रहें है। केनवास पर ब्रश चलाते है तो लगता है पान पर कत्था लगा रहें हो । फिर भी दिल के अरमान खत्म नहीं हुए। बड़ा कलाकार बनेंगे। हूँ.बन गए ...। कहाँ कहाँ से आ जाते है सस्ते किराये वाले इन मकानों में ? मेरी मजबूरी नहीं होती न तो केरोसिन के स्टोव से उठने वाले धुंए से भरे इस मोहल्ले में झांकती भी नहीं कभी। कांसे का एक लोटा टीन कि कुछ तश्तरियां और एक स्टोव ... बस, बसा ली गृहस्थी न नहाने के लिए ठीक बाथरूम न लेट्रिन .चारो और फैली अजीब सी बदबू . और अब सारे शहर में फैली ये निमोनियां कि बीमारी (खीज कर) क्यों पड़ी हूँ मै यहाँ ?. भाड़ में जाये ये सपनों का शहर, यहाँ के लोग और सपने . (एक ठंडी साँस के साथ) बस, जोंसी कुछ ठीक हो जाये ... मै उससे कह दूँगी कि अब मै यहाँ एक पल भी नहीं रुक सकती । ओह ...जोंसी मेरी दोस्त ... बस यही एक सच्ची साथी मिली मुझे इस अजनबी शहर में।
(मंच के बीच में दोनों कमरों को बांटने वाली दीवार में बने दरवाजे से डॉक्टर का प्रवेश)
डॉक्टर- " सुनो सू ...! मैंने अपनी सारी कोशिश कर ली है ...लेकिन तुम्हारी इस सहेली के बचने कि संभावना बिलकुल भी नहीं है। मै समझ नहीं पा रहा हूँ कि निमोनियां जैसी बीमारी में इसका ये हाल कैसे हो गया ? देखो सू मुझे लगता है कि इसकी जीने कि इच्छा शक्ति खत्म हो गई है। इसके दिमाग पर पर तो भूत सवार हो गया है कि अब वह अच्छी नहीं होगी। मै अपनी सारी कोशिशे कर रहा हूँ लेकिन बीमार का ठीक होना भी उसकी अपनी इच्छा शक्ति पर ही निर्भर होता है। अब यदि कोई खुद बाहें फैलाए मौत का स्वागत करने को तैयार हो तो डॉक्टर भी क्या करेगा ? अच्छा सू मुझे एक बात बताओ ? क्या इसके दिल पर कोई बोझ है ? "
सू- " पता नहीं डॉक्टर। ऐसी कोई बात उसने मुझसे कभी नहीं कही। ...वह इस शहर में बड़ा कलाकार बनने का सपना लेकर आई है और अकसर कहती है कि एक दिन नेपल्स की खाड़ी की पेंटिंग बनाने कि बड़ी तमन्ना है। "
डॉक्टर- "पेंटिंग ? हूँ लेकिन मेरे पूछने का मतलब था कि क्या इसके जीवन में कुछ ऐसा है जिससे जीने कि इच्छा तीव्र हो .मसलन जैसे कोई नौजवान ? कोई प्रेमी "
सू- " नौजवान प्रेमी ..? छोड़ों भी डॉक्टर .ऐसी तो कोई बात नहीं "
डॉक्टर- " ओःह . तो ये बात है। सारी गड़बड़ यही है। अब कोई मरीज खुद यदि अपनी अर्थी के साथ चलने वालो की संख्या गिनने लगे तो दवाई क्या खाक कम करेगी ? खैर, तुम यदि इसके मन में कोई आकर्षण पैदा कर सको तो बात बने .. ठीक है ? मै चलता हूँ। सारे शहर में निमोनिया के मरीज फैलें है मुझे उन्हें भी देखना है। "
(डॉक्टर जाता है। सू अपने आप में सुबकने लगती है। कुछ देर बाद अपने आप को स्थिर करने की कोशिश करती, पेंटिग का सामान समेट कर खुद को उत्साहित दिखाने के लिए सीटी बजाती हुई जोंसी के कमरे में जाती है। जोंसी अपने बिस्तर पर चादर ओढ़े, बिना हिले - डुले एक टक खिड़की की ओर देखते पड़ी है। सू को लगता है सोई है। वह सिटी बजाना बंद कर ईजल व केनवास लिए चित्र बनाना शुरू करती है। चित्र बनाते-बनाते उसे कोई धीमी आवाज सुनाई देती है, जैसे कोई कुछ दोहरा रहा हो। वह तेजी से जोंसी के बिस्तर के पास जाती है। जोंसी खिड़की की और एक - टक देखती गिनती बोल रही है, लेकिन उलटी)
जोंसी-" बारह (कुछ देर बाद).ग्यारह..(अचानक एक साथ) नौ...आठ ..सात.. (सू उत्सुकता से खिड़की की और देखती है)
सू- " क्या हुआ जोंसी ? क्या है वहां ? (खिड़की में जा कर देखती है)..कुछ भी तो नहीं ? ये पुरानी ईंटों की दीवार और उस पर फैली ये बेल . ये तो कब से है यहाँ ..."
जोंसी- (धीमे और थके स्वर में) " छः ..। अब यह जल्दी जल्दी गिर रही है .(ह्नाफ़ने का स्वर) तीन ..तीन दिन पहले तक.. यहाँ करीब सौ...सौ .. से ज्यादा थी। वह देखो ...एक ...एक और गिरी.. " (खांसी व हांफना) अब ...बची ..केवल..पाँच"
सू- " पाँच ..? पाँच क्या. ? (आश्चर्य से खिड़की को देखती है) क्या है वंहा ? मुझे नहीं बताओगी ?
जोंसी- " पत्तियां.। उस बेल की पत्तियां गिर.गिर रही है ..जिस वक्त आखिरी पत्ती गिरेगी... मै. भी। डॉक्टर ने नहीं बताया तुम्हे ? मुझे .मुझे तीन दिन से पता है .। "
सू- (तिरस्कार से लेकिन राहत के भाव से) " ओफो ...! मैंने तुझ जैसी बेवकूफ लड़की नहीं देखी..। अब...अब तेरे ठीक होने का इन पत्तियों से क्या सम्बन्ध ..? वह बेल तुझे अच्छी लगती है इसलिए ? गधी कही की अब अपनी ये बेवकूफी बंद कर .। अभी थोड़ी देर पहले डॉक्टर ने मुझे बताया ...तेरे ठीक होने के बारे में। हाँ क्या कहा था उन्होंने.? हाँ ...!!! संभावना रुपये में चौदह आना !!! अरे मेरी लाड़ों ... इससे ज्यादा जीवन की संभावना तो तब भी नहीं होती जब हम. बस - ट्रेन या टेक्सी में बैठते है.हा हा..." (हंसती है) " अब थोडा शोरबा पीने की कोशिश कर और मुझे ये तस्वीर बनाने दे, ताकि इसे उस खडूस संपादक को बेच कर मै तेरे लिए दवाईयाँ ला सकूँ। "
जोंसी- नहीं सू !... अब तुझे .मेरे लिए शोरबा - शराब या दवाईयाँ लाने की कोई जरुरत नहीं है . वह..वह देख एक और गिरी. अब सिर्फ चार रह गई ...हाँ ...अँधेरा होने से पहले आखिरी पत्ती को गिरता देख लूं ...बस फिर मै भी चली जाउंगी "
सू- ओह जोंसी ! दिल छोटा मत कर। देख तुझे कसम खाना होगी की जब तक मै यहाँ काम करूँ तब तक तुम खिड़की से बाहर नहीं देखोगी। ...मुझे कल सुबह तक यह तसवीर संपादक को देनी है ... यदि मुझे रोशनी की जरुरत नहीं होती तो मै ये खिड़की ही बंद कर देती "
जोंसी- " क्या तुम दुसरे कमरे में बैठ कर काम नहीं कर सकती? "
सू- " नहीं जोंसी। मुझे तुम्हारे पास ही रहना चाहिए। आलावा मै तुम्हे उस मनहूस बेल को देखने देना नहीं चाहती। मेरे यहाँ होने से तुम्हारा ध्यान उस तरफ नहीं जायेगा। "
जोंसी- " कितनी देर ? आं आखिर कब तक रोकोगी मुझे ?खैर काम खत्म होते ही बता देना। "
सू- " मेरा काम जल्दी खत्म होने वाला नहीं है। जोंसी.. तू उस खडूस को तो जानती ही है न ? संपादक कम हलवाई ज्यादा लगता है। बातों को जलेबी की तरह गोल - गोल घुमाता हुआ जब ताने कसता है न, तो लगता है की मेज पर पड़ा ग्लोब उठाकर उसके सर पर फोड़ दूं। "
जोंसी- " उसे गाली देने से क्या होगा सू...? जमीर बेच कर, अखबार मालिक के सामने कुत्ते की तरह दुम हिलाने की कुंठा उसे कहीं तो निकालना ही है, तो हम जैसे गरजमंद महत्वाकांक्षी आसान लक्ष्य है। और फिर बड़ा चित्रकार बनने का तो हमने ही सोचा है न ? "
सू- " हाँ ..सोचा तो था जोंसी, लेकिन बड़ा बनने के लिए इतने छोटे समझौते करना पड़ते है ये पता नहीं था। खैर... तू सोने की कोशिश कर। मै नीचे से बेहरमेन को बुला लाती हूँ। खदान मजदूर का माडल उससे अच्छा कौन हो सकता है ? " अभी एक मिनिट में आई। मैं नहीं लौटूं तब तक हिलना मत। "
जोंसी- " नहीं सू। उस बुड्ढ़े खडूस को यहाँ मत लाना। खुद को महान समझाने वाला वो असफल कलाकार दिमाग खा जायेगा हमारा। "
सू- " नहीं जोंसी ऐसे मत बोल। बेचारा चालीस सालों से यहाँ पड़ा संघर्ष कर रहा है। परेशानी में ज्यादा शराब पीकर बकवास जरूर करता है लेकिन उसकी बातों में भी सच्चाई है। सफलता की कीमत जीवन के रूप में तो नहीं चुकाई जा सकती ? उम्र के इस दौर में और और कुछ नहीं कर सकता इस लिए हम जैसे कलाकारों के लिए माडल बनकर कुछ पैसे कमा लेता है। "
जोंसी- "क्या ख़ाक कमा लेता है ? जब कुछ कर सकता था तब किया नहीं। हर आढ़ी-टेढ़ी पेंटिंग बना कर यही मानता रहा की वही उसकी सर्वश्रेष्ठ कृति है
सू- " करेगा जोंसी जरुर करेगा। इस बेरहम दुनिया में इन्सान तय नहीं कर सकता की बाजार में उसकी कला की कीमत क्या है बल्कि बाजार यहाँ तय करता है की इन्सान किस भाव बिकेगा...खैर मै अभी आती हूँ " (जाती है)
जोंसी- " जाओ सू .. मै तो उस आखरी पत्ती को गिरते देखना चाहती हूँ। इंतजार की भी कोई हद होती है। पर मै अब अपनी हर पकड़ ढीली छोड़ कर इन पत्तियों की तरह नीचे-नीचे चली जाना चाहती हूँ। नीचे गिरने का भी एक आनंद होता है इसे मुझसे अच्छा कौन जान सकता है। "
(बाहर के कमरे से बेहरमेंन के जोर-जोर बोलने की आवाज। सू भी उसके साथ बड़-बड़ा रही है)
बेहरमेंन- " क्या सू ? अभी भी ऐसे बेवकूफ इस दुनिया में है ? एक सूखी बेल के गिरते पत्तों का जोंसी के जीने से क्या वास्ता ..अँ ? और मै तुम जैसे बेवकूफों के लिए माडल बनने के लिए तैयार हो गया, तो मुझसे बड़ा बेवकूफ शायद ही दूसरा हो .और तुम ? तुमने उसके दिमाग में ये घुसने कैसे दिया ? ओह बेचारी जोंसी ...उसे तो अभी बहुत कुछ करना है..।"
सू- " वह बीमारी से बहुत कमजोर हो गई है .. शायद बुखार से उसके दिमाग में ये अजीब कल्पना आ गई है की आखरी पत्ती..."
बेहरमेंन- '" तुम भी हो बेवकूफ लड़की अरे ये घटिया जगह जोंसी जैसी अच्छी लड़की के मरने के लिए नहीं है। बस कुछ ही दिनों में मै अपनी पेंटिंग पूरी कर लूँगा ... फिर देखना दुनिया उसे सर्वश्रेष्ठ काम न माने तो कहना। (हलकी हंसी) और तब इस बाजार से मै वह सब कुछ वसूल करूँगा जो मैंने यहाँ गवाया है। फिर हम यहाँ से चले जायेंगे, तुम और जोंसी भी समझी ? "
सू- "हाँ..हाँ समझ गई। लेकिन अब तुम जल्दी से मेरे माडल बन जाओ वरना वो खडूस संपादक ..."
बेहरमेंन- " हाँ तो चलो न ...मै कहाँ कुछ कह रहा हूँ "
(दोनो जोंसी के कमरे में आते है। जोंसी मुंह पर चादर ओढ़े सो रही है। दोनों उसे नजदीक से देख कर खिड़की तक जाते है। खिड़की पर पड़ा परदा हटा बाहर देखते हैं। फिर बिना एक शब्द बोले एक दुसरे की ओर देखते है। दोनों का चेहरा फक्क है। सू चुपचाप बेहरमेन को हाथ पकड़ कर बाहर के कमरे में लाती है ओर उसका चित्र बनाना शुरू करती है)
सू- " सपने सुहाने होते है यह सुनते आई थी लेकिन वह खतरनाक होते है यह यहाँ आ कर देखा। बड़े सपनों को देख छोटा लक्ष्य आसानी से पाया जा सकता है, मेरे पापा अकसर ऐसा कहा करते थे..."
बेहरमेन- " हँ सपनों की कोमलता हकीकत की पथरीली कठोर जमीन पर चूर-चूर हो जाती है ऐसा मेरा बाप कहता था ... पर छोड़ों न सू अपना काम जल्दी खत्म करो, मुझे मेरी महान रचना भी पूरी करनी हैमै जल्दी जाना चाहता हूँ यहाँ से ...। "
(चलती बातचीत के बीच ही मंच पर फेड-आउट। संगीत का स्वर। पुनः प्रकाश होने पर सू जोंसी के पलंग के पास बैठी है। खिड़की पर अभी भी पर्दा पड़ा है।)
जोंसी- (जड़ स्वर में) " पर्दा हटा दे सू .. मै देखना चाहती हूँ "
सू- (विवश होकर अनमने भाव से खिड़की तक जा कर पर्दा हटाती है, फिर अचानक तेजी से पलटती है उसका चेहरा ख़ुशी से दमक रहा है) " तुमने देखा जोंसी ? ...देखा तुमने ?
जोंसी- " यह आखिरी है... मैंने कल शाम सोचा था यह रात में जरूर गिर जाएगी। रात भर मैंने तूफ़ान की आवाज भी सुनी। खैर ... यह आज गिर जाएगी तभी मै भी मर जाउंगी। "
सू- (दुखी मन से जोंसी के तकिए पर झुक कर) " ऐसा क्यों कहती हो जोंसी ? ..मेरे बारे में सोचा है ...? क्या करुँगी तेरे बिना ? "
जोंसी- " तुम्हे अकेले होने का डर है ?... पर कभी सोचा है अकेला कौन होता है ? लम्बी और रहस्यमई यात्रा पर जाने वाली आत्मा से ज्यादा अकेला देखा है कभी किसी को ? " (मंच पर अँधेरा)
(मंच के पीछे बनी खिड़की पर प्रकाश होता है। खिड़की पर पड़ा पर्दा सरका हुआ है। तेज प्रकाश में बाहर दीवार पर फैली बेल का आखरी पत्ता अभी भी मौजूद है। जोंसी बिस्तर पर न होकर कमरे में चहलकदमी कर रही है। घर के बाहर वाले हिस्से में मद्धिम प्रकाश जहाँ सू स्टोव पर कुछ पका रही है। अचानक जोंसी सू को आवाज देती है, स्वर की कमजोरी दूर हो चुकी है।)
जोसी- " सूसू "
(अपना काम छोड़ कर सू जोंसी के कमरे में आती है)
सू- " जोंसी ..! ! ! ये मै क्या देख रही हूँ ? तुम बिस्तर से बाहर . ? ओह भगवान तेरा लाख-लाख शुक्र है..। जोंसी मै बता नहीं सकती की मै कितनी खुश हूँ ... तुम जीत गई ...हाँ ...जीत गई तुम "
जोंसी- (सू की बात काट कर) " सूडी मै बहुत ख़राब लड़की हूँ ...। लेकिन इस खिड़की से देखो जरा। देखा उस पत्ती को ? कुदरत की शक्ति ने उस आखरी पत्ती को वहीँ रोक कर मुझे बता दिया की मेरा समय खत्म नहीं हुआ अभी। और सू इस तरह मरना तो पाप है। मुझे अभी एक महान पेंटिंग को बनाना है। ला ...मुझे थोडा शोरबा दे ... और हाँ ..शीशा भी दे दे, और मेरे सिरहाने दो तकिये और लगा दे। (स्वर उत्साह से भरा हुआ)... मै बैठे-बैठे बाल ठीक कर लूं "
(मंच पर अँधेरा। संगीत प्रभाव के बाद पुनः प्रकाश होने पर घर के दोनों भाग प्रकाश मान। भीतर के कमरे में जोंसी पलंग पर बैठी है। डॉक्टर उसकी नब्ज देख रहे है। पास ही सू भी खड़ी है)
डॉक्टर- " गुड ... वेरी गुड...! कीप इट अप अब तुम जीत गई। तुम्हे बस अब ठीक देखभाल की जरुरत है। दवा अपना काम कर रही है। जल्दी ही तुम फिर पेंटिंग करोगी जोंसी ...ठीक है मै चलता हूँ । मुझे नीचे की मंज़िल पर एक दूसरे मरीज को भी देखना है...क्या नाम है उसका ..हाँ ..बेहरमेन। तुम तो उसे जानती हो न सू ? इस निमोनिया ने भी शहर में सभी को परेशान कर रखा है फिर भी पता नहीं ... उस बूढ़े को भीगने की क्या सूझी ? अब पड़ा है तेज बुखार में। इस उम्र में दवा भी कम ही असर करती है। खैर ... मुझे तो अपनी कोशिश करनी ही है ...चलता हूँ। "
(जाता है। मंच पर अँधेरा। पुनः प्रकाश होने पर जोंसी अपने पलंग पर बैठी कोई स्केच बनाते दिखाई देती है। सू का प्रवेश। खिड़की तक जा कर पत्ती को देखती है फिर जोंसी के पास आती है।)
सू- " जोंसी माई लव ...। तुम्हे फिर से स्केच करते देख, मुझे कितनी ख़ुशी हो रही है मै बता नहीं सकती ...! लेकिन लेकिन तुम्हे एक बात कहना है बहरमेंन .."
जोंसी- (बात काट कर) ...ओहो . क्यूं नाम लेती हो उस खूसट का ? इतने दिनों बाद ठीक हुई हूँ। क्यों उसकी याद दिला रही हो ? आते-जाते सीढ़ियों पर ज्ञान बांटता है। खुद तो कुछ कर नहीं पाया मुझे सिखाता है पेंटिंग कैसे करना है।
अपनी महत्वाकांक्षा दूसरे पर थोपने की आदत ही इन बूढों के तिरस्कार का कारण बनती है। महान पेंटिंग बनाना है ? कब ? उम्र ही क्या बची है ? "
सू- (गंभीरता से) " नहीं जोंसी ऐसा नहीं कहते। दरअसल मुझे तुमसे एक बात कहनी है ...। आज सुबह अस्पताल में मिस्टर बेहरमेन की मृत्यु हो गई। ..सिर्फ दो दिन ...बीमार रहे वह ..। परसों चौकीदार ने उन्हें अपने कमरे में दर्द से तड़पता पाया था। वह कह रहा था की पूरी तरह से भीगे हुए थे बेहरमेन, यहाँ तक की जूते-मोज़े भी। शरीर बर्फ सा ठंडा हो रहा था। उसे नहीं पता ऐसी तूफानी और बर्फीली रात में कहाँ भीग कर आये। कमरे में एक सीढ़ी (निसेनी) दो चार रंगों में डूबे ब्रश और फलक पर हरा पीला रंग बिखरा पड़ा था। मिस्टर बेहरमेन अपने जीवन की श्रेष्ठ कलाकृति बनाना चाहते थे। सू ...जरा खिड़की के बाहर देख उस आखरी पत्ती को। क्या पिछले दो दिनों में तुझे कभी आश्चर्य नहीं हुआ की ये पत्ती इतने आंधी तूफान में भी हिलती क्यों नहीं ?...मेरी प्यारी सखी ...। जिस रात वह आखरी पत्ती गिरी, बेहरमेन ने पूरी रात भीगते हुए इसका निर्माण किया, सारी रात भीगने से उन्हें निमोनिया हो गया लेकिन देख यही है उनकी सर्वश्रेष्ठ कृति.!
(सन्नाटा .सू अवाक सी बैठी है। धीरे-धीरे मंच पर अँधेरा लेकिन खिड़की के प्रकाश में बेल की पत्ती चमक रही है। फिर प्रकाश कम होते-होते मंच पर अँधेरा।)