आखिरी पन्ना / शोभना 'श्याम'
"सुनो ...!"
"कौन? ...कौन हैं जो इतनी रात में मुझे बुला रहा है?"
"मैं! तुम्हारा घर!"
"मेरा घर?"
"हाँ! मुझे तुमसे बात करनी हैं"
"बोलो!"
"तुम्हारे तीनों बेटे मुझे बेचना चाहते हैं, तुम्हे इंकार क्यों है? वे बेचारे तुम्हारी मिन्नतें-चिरौरी करते थक गए।"
"ये तुम कह रहे हो? खुद? मेरा तुम्हारा पूरी ज़िन्दगी का साथ रहा है, मेरे बाबूजी ने कितने अरमानों से तुम्हें बनाया था। ये तीनो नालायक इसी आंगन में पल कर बड़े हुए हैं।"
"इसीलिए तो उनकी चिंता है मुझे और तुम्हारी भी, अब तुम यहाँ अकेले पड़े हो, अपने बेटों को गाँव के इसी आंगन में रखना था तो उन्हें पढ़ा लिखा कर शहर की नौकरी के योग्य क्यों बनाया? अपना पुश्तैनी काम क्यों नहीं सिखाया?"
"तुम जानते हो, उस काम में अब बरकत नहीं, मैंने भी तो कितनी गरीबी झेली है, उस समय तो फिर भी काम चल गया पर आजकल की ज़रूरतें तो सुरसा का मुँह हैं। अब तो शहर की नौकरी बिना गुज़ारा ही नहीं।"
"तो तुम्हारे बेटे शहर में अपना आशियाना बनाएँ चाहते है तो क्या बुरा है? कब तक किराये पर रहे? जहाँ नौकरी हैं वहीँ तो रहेंगे।"
"तो रहें मैं क्या करूँ? मैंने अपनी जिम्मेदारी निभा दी है।"
"लेकिन उन्हें वहाँ मकान खरीदने के लिए रुपये कम पड़ रहे हैं। मुझे बेच कर तुम उनकी मुश्किलें दूर कर सकते हो। तुम्हारी ज़िन्दगी तो इस गाँव की किताब का आखिरी पन्ना है। आज नहीं तो कल तुम्हें इस दुनिया से जाना है फिर भी तो बिकूँगा मैं, पर तब तक शहर में घर के दाम इतने बढ़ चुके होंगे कि मेरा बलिदान भी पूरा नहीं पड़ेगा।" "लेकिन ..." "लेकिन क्या? पुश्तैनी जगह के मोह में खुद भी उजाड़ बियाबान-सी अकेली ज़िन्दगी गुजार रहे हो और मैं भी जर्जर हो चुका हूँ। खुद भी अपने भरे पूरे परिवार के साथ रहो और मुझे भी नयी ज़िन्दगी पाने दो यार, व्यवहारिकता से काम लो न!"
"हाँ बात तो ठीक कह रहे हो लेकिन अपना सब कुछ देने के बाद वहाँ मेरा अनादर हुआ तो?"
"क्यों देना सब कुछ? व्यवहारिकता में होशियारी भी शामिल होती है, थोड़ा अपने लिए भी रखो और जतला दो कि ज़्यादा सेवा करने वाले को मिलगा तुम्हारे बाद।"
"हम्म्म!"
"कहाँ चले?"
"बच्चों को चिट्ठी लिखने!"