आखिरी मुलाकात के इंतजार में / नीला प्रसाद

Gadya Kosh से
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वह मंच से बोल रही है। सुनने से दिमाग पर लू के थपेड़ों जैसी चोट लग रही है। विचार-ग्रहण के उस तकलीफदेह रेले से बचने के लिए मैंने दिमाग के दरवाजे उढ़का लिए और कुर्सी पर लुढ़का-सा हो लिया। अब वह माइक के सामने खड़ी होकर बोल रही एक आकृति है और मैं उसे देख भर रहा स्पंदनों भरा एक खिलौना... वह बोल रही है और फूल झर रहे हैं, वह बोल रही है और झीनी बरसात हो रही है... फूलों की खुशबू से घिरा मैं झीनी-झीनी बरसात में भींग रहा हूं। फूलों भरी उस डाली से झरते फूल जितने सुन्दर नहीं, उतने खुशबूदार हैं - वह मुझे फूलों की घाटी में ले जाती और भटकाती है। हवा का सुगंधित झोंका बनकर वह मुझे छा ले रही है। मैं सुगंध में, हवा में, लहराती घास की फुनगी में बदल रहा हूं। मंच से गुजरकर अब वह झोंका गायब हो रहा है...

तालियों की गड़गड़ाहट ने सारा जादू तोड़ दिया।

भीड़ का हिस्सा बनकर मैं उस तक पहुंचा और हाथ मिलाते, डाली की फुनगी को छू आया। उसी हाल में, उसी मंच पर वह फिर चढ़ी और भाषण प्रतियोगिता में पुरस्कार की ट्राफी लिए उपस्थित श्रोताओं का आभार जताने झुकी तो फूलोंभरी उस डाली से एक फूल झरकर जैसे मेरे दामन में आ गिरा; वह इस वजह से कि विजेताओं में मैं भी हूं और श्रोताओं का अभिवादन करने मैं भी झुका हूं, किसी खास मुस्कान की बिजली समेटते, पीते हुए... उससे नजरें मिलीं तो मैं औरों से बहुत ऊंचा उठ गया या फिर आसमान नीचे आ गया और इस तरह आसमान से मेरा मिलाप हो गया!

मंच से साथ-साथ उतरे, क्षणांश को एक-दूसरे की ट्रॉफियों को देखा और आंखों ही आंखों में विदा ले ली।

पहली मुलाकात खत्म हो गई।

मुलाकात, खत्म हो गई?

पक्षी बन गया हूं मैं!

मैं घने पेड़ की सबसे ऊंची डाल की उस फुनगी पर रहता हूं जहां से उसके कमरे का एक हिस्सा दीखता है। एक पक्षी की तरह उसके सामने आता हूं और अबूझ बोली में कुछ कहकर चला जाता हूं। इतना मुश्किल है, किसी के घर के अंदर प्रवेश करके भी मन के अंदर प्रवेश कर पाना?

मैं बार-बार उसके मन का दरवाजा खटखटाता हूं, वह बार-बार उलझाती है। अंदर आने को उकसाती, फिर टरकाती है।

मेरे मन की शाखें रोज-रोज हरियाती और सूखती हैं। उनपर फूल खिलते, फिर झर जाते हैं।

यह प्यार है? मैं खुद को टटोलता हूं। दबा-दबा-सा ही सही, दिल में प्यार-सा कुछ है तो कहीं! पर सरहद के उस पार, उसकी आंखों में, प्यार की कोई बयार है कि नहीं?

नजरें मिलती हैं तो नजरों के उस पुल से भावनाएं भेज दी जाती हैं। पर वे पुल से गुजर, उन दो जोड़ी आंखों में प्रविष्ट हो, गायब कैसे हो जाती हैं? वापस सतह पर झलकतीं क्यों नहीं??

भाप बन रीतता, उड़ता रहता हूं मैं!

लान में पड़ी कुर्सियां, कुर्सियों पर बैठे हम... वह कुछ नहीं कहती और आशा, चाय की प्याली से उठती भाप की तरह उड़-उड़कर शून्य में विलीन होती रहती है।

अब जिस घर का पता ही नहीं मालूम, उस घर उसे कैसे बुलाऊं? प्यार का आभास तक पाए बिना, अपने मन को घर बसाने का सपना कैसे दिखाऊं??

हरियाले दिन सूख-सूखकर पीले पड़ते, झरते हैं पर प्यार के नए जन्मे अहसास कहीं ऐसे मरते हैं?!

मैं नियुक्ति-पत्र की बात उसे बता आया हूं। दो हजार मील दूर जा रहा हूं , जता आया हूं। उसकी उदास आंखों वाली मुस्कुराते होंठों की बधाई ने कुछ संप्रेषित करने की कोशिश की थी क्या! मैं ट्रेन में बैठा अतीत खंगालता पछता रहा हूं। वापस आते-आते तो कह आता दिल की बात... कि क्या पता अब हो, न हो कभी अगली मुलाकात!

नौकरी करते, महानगर के जनसमुद्र में तिरते, दुविधा की उद्दाम लहरें बार-बार मन में उमग कर बनती और टूटकर बिखर जाती हैं... फिर बन जाती हैं और मैं चाहकर भी उसे पत्र लिखने को खुद को राजी नहीं कर पाता।

जलकुंभियों के बीच जमा काई की तरह जीता हूं मैं!!

मैं जलकुंभियों के बीच, पानी की सतह पर दुविधा की काई की तरह तैरता रहता हूं। मेरे मरे मन की दुर्गंध मुझमें ही समा गई है। सांसें लेता हुआ भी लाश की तरह बदबू से भर गया हूं मैं!

प्रेतग्रस्त व्यक्ति को लिटाकर, धुआं करके, खड़ताल बजाकर, भूत भगाने के जंगली टोटकों की तरह सुनाई पड़ी मुझे अपने ब्याह की षहनाई; और दो सुगंधित, मजबूत, गदबदी गोरी बांहों ने मुझे खींचकर काई भरे गंधाते पानी से बाहर खींच लिया।

मैं हूं अब भारहीन हवा!

अतीत की जलकुंभियों को तोड़कर बाहर निकाला, साफ-सुथरा किया गया मैं, कुछ पल खुद को भारहीन महसूस करता हूं... और झोंके-सा हवा में मिल जाता हूं। दो बाहें हवा में अदृश्य हो गए मुझको, अंधड़ों-चक्रवातों में खोजती, ढूंढती, भटकती जाने कहां-कहां से ढूंढ निकालती हैं और ठोस बना धरती पर खड़ा कर देती हैं। मैं खुद को साबुत, सही-सलामत पाकर उस पल खुश हो लेता हूं पर अगले ही पल पत्नी को छकाता हुआ फिर से तूफानों, चक्रवातों में बदल जाता हूं। मैं गायब हवा बना रहूं तभी तो उड़कर 'उस तक’ पहुंच सकता हूं और बिना कोई शक पैदा किए, 'उसे छूकर’ वापस भी आ सकता हूं।

...वह अब भी उदास-उदास जीती है, इस खबर ने मेरे मन के मौसम को बिल्कुल ही ठहरा दिया। उस उदासी की जिम्मेदारी मुझपर ही तो थी आखिर!

एक ठहरा हुआ मौसम हूं मैं!

अब बाहर के मौसम से अछूता, मैं एक ठहरे मौसम में जीता हूं। न वसंत को महसूस हंसता हूं, न सर्दी-गर्मी से परेशान होता हूं, न भींग पाता हूं बाहर की बरसात में, न पतझर में झरता हूं। इस ठहरे मौसम का नाम क्या है? जो मुझे बार-बार हिलाती, झकझोरती, फूलों की सुगंध भरी घाटी में जब-तब भटका आती, मेरे साथ रहती-जीती है, मेरी जिंदगी में उसका काम क्या है?

इस ठहरे-ठहरे मौसम को और उसको जो मेरी तमाम कोशिशों के बाद भी जिंदगी से जाती नहीं थी, मैं समझ पाता कि उसके पहले ही मेरी गोद में सेमल के लाल फूल-सा कोई आ गिरा। इसका नाम क्या हो सकता है? मुझे उत्सुकता हुई। घर में घुस आई भीड़ ने कहा, 'तुम्हारी बेटी। शादी की शहनाई के साथ चली आई उस रसीली बांहों वाली को मैंने शिकायत से देखा जो जब-तब मुझे अंधड़ों, तूफानों से ढूंढ, बाहर निकाल, धरती पर साबुत खड़ा कर देती रही थी और जो आजकल मेरे मन में प्रश्चिन्ह बनी हुई थी। मेरी शिकायती निगाहों के उत्तर में वह मुस्कुराई तो पहली बार उसे मुस्कुराते देख मेरे मन मैं ग्लानि की रेखा तनी हुई थी।

भूलभुलैया गलियारों में जीता हूं मैं!

सेमल के फूलों-सी लाल, गदबदी, रुई-सी मुलायम यह चिकनी गुडि़या मुझे नए आसमानों के दर्शन कराती है। पहले से शुरू करके सातवें तक ले जाती है। उसकी खिलखिलाहट से कांपती हवा को पीता मैं रोज पहले से सातवें आसमान की यात्रा पर निकलता और वापस लौटता हूं। पर 'किन्हीं उदास आंखों’ की याद से अपने अंदर दस-दस बार मरता हूं।

हवा पिघली और मैं पानी बन गया?

मैं पानी हूं और मैं ही उसमें तैरता रहता हूं। पानी बहुत ठंढा हो जाता है तो कांपता हूं, अतिरिक्त ऊष्णता से जलता हूं पर समशीतोष्ण जल में तैरते होने का आनंद जान लेने के बाद, उसी आनंद की चाहना में जल से बाहर नहीं निकलता। एक प्यारी-सी बच्ची और उसकी समझदार-सी मां से बचता हुआ, जिन्होंने मुझे 'उससे’ दूर कर दिया है, मैं पानी में गहरे उतरता गया हूं। तिरता हुआ समुद्र की अतल गहराइयों में पहुंच गया हूं... यहां सबकुछ स्वच्छ, पारदर्शी, सुंदर दृश्यों से भरपूर है - तैरती मछलियां, रंगबिरंगे फूल... पर रह-रहकर सांसें नहीं आतीं, ऊपर जाने को, बाहर के दुखों से टकराने को मन तड़पता रहता है।

एक झटके से सतह पर आया और इस अहसास से साक्षात दुख बन गया मैं कि 'वह’ उदास थी और सातवें आसमान में उड़ रहा था मैं! 'वह’ उदास थी और समुद्र की अतल गहराइयों में भटक रहा था मैं?

सबको चकमा देता हुआ फिर से हवा हो गया मैं!

एक द्वंद्व का अंत करने की ठान मैं उड़ गया। मैं बता दूंगा उसे दिल की बात! कि क्यों हो नहीं सकता अब भी मेरा-उसका साथ! आखिर कोई एक मेरे मन में जबर्दस्ती घुसी आई थी। अंदर की गंदगी साफ कर अपने लिए जगह बना मुझसे पूछे बिन रहती आई थी। घर में आए को भगाता कैसे, पर बिन बुलाए को बसाता कैसे?

पर उसे देख, एक झटका खाकर वायवी हवा से ठोस हकीकत-सा कुछ बन गया मैं!

उसे चूडि़यों, सिंदूर से लदी, सुख के नरम नाजुक पंखों से उड़ती पा उसे छुए बिना ही वापस लौट आना पड़ा। अब एक उड़ते हुए से, खुरदुरी जमीन पर खड़ा कोई बात करता तो कैसे? मैं नजरें उठा उसे उड़ते देखता, वह मुझे जमीन पर खड़ा देख मीठे से मुस्कुराती। मुलाकात खत्म हो जाती। 'बात खत्म हो जाती?’ मैं खुद से पूछता लौट आया वहां - जहां घर बनाने और घर बसाने को उत्सुक दो रसीली बाहें, दो आंखें, दो होंठ प्रतीक्षारत थे। मैंने सेमल के फूलों के भार को उठा लिया और खिलखिलाहट से झरती सुगंध से घिर आया।

मैं फिर से उदास हो गया। सुख के नाजुक पंख उगाए, उड़ती हुई 'वह’, कितनी स्वप्निल लग रही थी। अगर 'वह’ मेरा सपना थी तो उस उड़ान पर मेरा स्वाभाविक हक था।

'उसने’ मुझे मंत्र से बांध दिया है।

न मैं खुलकर अपना जीवन जी सकता हूं, न अब 'उस तक’ पहुंच सकता हूं। ‘वह’ अपने सुख में उड़ती हुई भी मेरे मन की डोर पकड़कर रखती है। न मुझे खुद से दूर जाने देती है, न अपने पास बुलाती है।

मैं बर्फीले पहाड़ की चोटी पर जा चढ़ा और अपने लिए धूप के कतरे तलाशने लगा। नीचे पहाड़ की तलहटियों में भरपूर जीवन की आहट से ललकता, ऊपर आक्सीजन की कमी से छटपटाने लगा।

जिंदगी खत्म हो जाये, इससे पहले ही हो जानी चाहिए हमारी आखिरी मुलाकात। वह भले सुखी है पर उसे पता चल जानी चाहिए मेरे मन की बात! आखिर आधे दशक से उसके लिए जलता रहा हूं मैं! उससे क्यों कह नहीं पाया, सोच-सोच गलता रहा हूं मैं!!

बर्फीले पहाड़ के शिखर पर चढ़ा, बर्फ बनकर खड़ा, लगातार गलता, बहता पानी हूं मैं; हर उस रंग को सोखता, जज्ब करता, बदलता हुआ, जहां से मैं गुजरता हूं। पर अंतत: हूं मैं 'उसके’ रंग में रंगा हुआ पानी ही! आशा के गुलाबी रंग से निराशा के नीले रंग में बदलता मैं श्रीहीन, रंगहीन हो गया था कि अचानक जोश और खुशी के लाल रंग का हो गया। अबकी का निश्चय पक्का था। मैं जाऊंगा और उसे बता आऊंगा उसे छोड़कर आने के दिन से आजतक की कथा। उसे पता होना चाहिए कि वह कितना चाही गई है। अनकहे षब्दों की प्रतिज्ञा सी निबाही गई है।

मैं घर से निकल रहा हूं।

शब्दवेधी वाण की तरह निकले हैं उन रसीली बांहों वाली के मुंह से शब्द। 'तुम इस घर से जा सकते हो, कभी न आने के लिए; न कि बार-बार जाने और मुझे तड़पाने को, फिर- फिर लौट आने के लिए! एक तनी हुर्इ रस्सी पर किसी भी क्षण गिर जाने के तनाव से घिरी चलती रही हूं मैं! तुम्हारी उपेक्षा का रस पी-पीकर भी तुम्हारे लिए बार-बार रुकती रही हूं मैं! जाने कौन है वह जो तुम्हें इतना तरसाती है। कभी नहीं मिली फिर भी इतना तड़पाती है।‘

कदम बढ़ाता मैं रुक गया हूं। उसके अहसान याद कर उसके सिजदे में झुक गया हूं।

अब एक गुफा में रहता हूं मैं!

यहां अंधेरा है पर सुकून है। पत्नी की आशंकाएं यहां की दीवारों से टकराकर लौट जाती हैं। मैं खुली आंखों से स्वप्न देख सकता हूं 'उससे’ एक आखिरी मुलाकात का, क्योंकि यहां के अंधेरे में मेरा सपने देखना पत्नी को नजर नहीं आता! बार-बार उसे छकाने की योजना बनाता हूं पर जाने क्यों हिम्मत हार जाता हूं!

अनचाहे भी खो जाता रहा हूं किसी खिलखिलाहट के बयार में... पर जीता हूं अब भी 'उससे’ आखिरी मुलाकात के इंतजार में...