आखिर जीत हमारी / भाग 3 / रामजीदास पुरी
नरक को तोड़ने वाले
सरकंडे के ऐसे घने वन के भीतर से जिसमें चार हाथ दूर खड़ा व्यक्ति भी दिखाई न दे, कोई वस्तु सरसराती हुई इधर को आ रही थी । कोई बाघ, सूअर अथवा नीलगाय । कार्तिक का सूर्य अस्ताचल की ओर प्रयाण कर रहा था । ढ़ाक के वृक्ष पर से एक उल्लू तीन बार बोला, उसकी भयानक चीत्कार सारे वन प्रांगण में गूँज उठी । थोड़ी देर में बढ़ती हुई सरसराहट के साथ पांच घोड़ों के मुंह सरकंडों के वन में से निकले, फिर आगे बढ़ते हुए अपने सवारों के लिए बाहर निकल आए । जिस तरफ मासू और झाणियों के छोटे-छोटे पौधे उगे हुए थे उस ओर किसी पगडण्डी का भान होता था ।
घोड़ों पर चढ़े सवार हूण थे, जो न जाने साधारण सैनिक थे अथवा लुटेरे अथवा किसी सेना के नायक । दो सुअर, एक बाघ और दो चीते मारकर उन्होंने घोड़ों पर लाद रखे थे, जिन के घावों से रिस-रिसकर खून की बूंदें टपक रही थीं जो घोड़ों की पसलियों और हूणों की टांगों से फिसलती हुई नीचे गिर रही थीं ।
उनके चौड़े चकले तथा पीतवर्ण चेहरे अत्यधिक विद्रूप और परुष दिखाई दे रहे थे । उनकी घिनौनी सूरत, मोटे भद्दे नयन नक्श और छिद्री तातारी दाढ़ी-मूंछों से बड़प्पन अथवा महत्ता के स्थान पर क्रूरता टपक रही थी । किसी प्रकार की खाल अथवा ऊन का चोंगा और अन्तर्वस्त्र पहने, पटके बांधे और उन पर अपने भारी भरकम खूनी शस्त्र सजाये, अपनी अक्खड़ बोली में कुछ बुदबुदाते हुए वन की ओर चलने लगे ।
थोड़ी दूर चलकर उन्होंने एक पगडण्डी पकड़ी जो आगे खेतों से निकलती हुई एक नगर के मार्ग से जा मिलती थी, जिस पर थोड़ी देर पहले हूणों ने अपना आधिपत्य जमाया था । दो पग चलकर एक हूण नायक ने अपनी गर्दन मोड़कर पीछे की ओर देखा और उसने अपने घोड़े की रास खींची ।
"क्यों, क्या हुआ ?" उसके साथी ने पूछा । "कोई वन में छिपा है ।" "कोई गीदड़ अथवा खरगोश है ?" "मेरे विचार से कोई आदमी था और संभवतः उनकी संख्या दो से अधिक है ।" "तुम्हारी दृष्टि को धोखा हुआ होगा । हिंसक पशुओं से भरे वन में दिन छुपने के पश्चात् ....।"
परन्तु चौंकने वाले सवार ने बातचीत में समय नष्ट करना उचित न समझा । उसने घोड़े को एड़ लगाई और उस तरफ जहां उसे आदमियों के छुपे होने का सन्देह था, घुस गया । दूसरे ने भी उसका अनुसरण किया और चार-पांच सौ गज का चक्कर काट एक स्थान पर जाकर मिल गए ।
आश्रय लेने के लिए लोमड़ी झाड़ी से दौड़ती हुई निकल गई । दो पक्षी कीकर की डाली से उड़कर धुंधले आकाश में अदृश्य हो गए ।
उनमें से एक बोला 'तुम्हें धोखा हुआ होगा साकल ।' "मैं कहता हूँ मैंने उन्हें छुपते हुए देखा है, हो सकता है कि वह भारतीय राजा के गुप्तचर हों अथवा राष्ट्रवादी आन्दोलन के क्रान्तिकारी, जिनके प्रति सतर्क रहने के लिए हमें विशेष आदेश दिया गया है । हम पर बहुत बड़ा उत्तरदायित्व आ पड़ा है, जैसे तैसे हमें उन्हें ढूंढ निकालना चाहिए । अभी इतना अन्धेरा नहीं हुआ है । वह भागकर कहीं नहीं जा सकते ।"
उन्होंने पहले से अधिक बड़े घेरे में अपने निपुण घोड़े दौड़ाए परन्तु कोई भी आदमी दिखाई नहीं दिया । तब उनमें से एक सवार ने गूँजती हुई टूटी-फूटी हिन्दुस्तानी भाषा में आवाज लगाई - "किसान, शिकारी, यात्री अथवा कोई भी व्यक्ति जो इसमें छिपा हुआ हो, बाहर निकल आए । अन्यथा हम अपने चुम्बक पत्थरों से इस वन को आग लगा देंगे और सबको जीवित जला देंगे ।"
उत्तर में कोई भी आवाज या सरसराहट सुनाई न पड़ी । अंधेरा घना हो गया । किसी को न पाकर पांचों सवार बाहर निकल आए परन्तु साकल दूर से घूरता हुआ बोला, "यह देखो, वन के साथ गांव की पगडंडी छोड़े कुछ व्यक्ति दूसरी ओर जाते दिखाई देते हैं । इतनी शीघ्र वन में से निकलकर उनका पहुंचना बड़ा कठिन है, फिर भी हमें उनका पीछा अवश्य करना चाहिए ।"
"जैसा तुम कहो" कहकर सब ने अपने घोड़ों को उस दिशा में दौड़ा दिया जिस तरफ अंधकार में हिलती-डुलती आकृतियां बढ़ रहीं थीं । घोड़े के ऊपर यद्यपि भारी सवार और शिकार बांधे हुए थे फिर भी वे वेग से दौड़ रहे थे । थोड़ी-सी देर में ही उन्होंने उन लोगों को जा पकड़ा । सचमुच यही प्रतीत होता था जैसे वह बस्ती का मार्ग छोड़े किसी अन्य दिशा की ओर जा रहे हैं । दूर से ऐसा पता लगा कि शायद वे लोग हूणों का मुकाबला करने के लिए तैयार होने लगे हैं परन्तु पास ही करीब तीस या चालीस हूण सैनिकों की टोली वापिस जाते देख उन्होंने अपना विचार बदल दिया ।
"ठहरो !" हूण सरदार ने गर्जती हुई आवाज में कहा, जिसे सुनकर केवल पांच यात्री ही नहीं अपितु पैदल जाती हुई हूणों की टोली भी ठहरकर उसी ओर बढ़ने लगी । अंधेरा घना हो गया था, वृक्षों की ओट में खड़े यात्रियों को पहचानना कठिन हो गया, फिर भी वह भारतीय ही दिखाई देते थे ।
"तुम कौन हो ?" हूण सरदार ने हिन्दुस्तानी बोली में कहा । "यात्री हैं महाराज ! अगले गांव को जाना है ।" "राजनपुर जायेंगे महाराज !" "राजनपुर तो अगला नहीं है, वह तो उस से भी परे है, ग्यारह कोस की यात्रा पर इस सर्दी में कौन जाता है ? तुम झूठ बोलते हो ।" "झूठ नहीं महाबली । हम एक आवश्यक कार्य से जा रहे हैं । आधी रात तक पहुंच जायेंगे, आवश्यकता के समय आदमी सुख-दुःख का ध्यान नहीं करता है ।" "ऐसा कौन सा आवश्यक काम है तुम लोगों को ?" "एक रोगी का पता लेना है ।" "रोगी का पता लेने पांच आदमी जा रहे हैं !" "हमारा पिता है श्रीमान्, हम तीन भाई उज्जैन में व्यापार करते हैं, यह दो नौकर हमें बुलाने आये हैं ।" "क्या काम करते हो तुम ?" "दलाली करते हैं महाराज ।" "तो सवारी क्यों नहीं ली ?"
"अभी थोड़े ही दिनों से काम शुरू किया सरदार ! परदेश में इतनी जल्दी काम कहां चलता है ? हम कहीं से रुपया उधार लेकर ही सवारी का प्रबन्ध कर लेते परन्तु पिताजी के अधिक रोगग्रस्त होने का समाचार पाकर इतना घबरा उठे कि हमें यह भी ज्ञान न रहा कि पैदल की अपेक्षा सवारी पर शीघ्र पहुंचा जा सकता है । हम इसी अवस्था में पैदल चल पड़े ।" "झूठ मत बोलो, तुम्हें हमारे साथ कोतवाली चलना पड़ेगा ताकि हम सत्य असत्य का निर्णय कर सकें ।"
"जहां जी चाहे चलिए महाराज ! जो कुछ यहां बताया है वही सब जगह कहेंगे । दुःख इस बात का है कि यहां देर हो जाने के कारण पहुंचने से पहले ही कहीं पिता के प्राण न निकल जायें । उनके अन्तिम दर्शन के लिए ही हम इतनी दूर से पैदल चले आ रहे हैं । आप अपने चार सैनिक हमारे साथ भेज दें, यदि हमारा कथन असत्य सिद्ध हो तो वे हमें आपके पास वापिस बांधकर ले आएं और फिर जो दण्ड देना चाहेंगे उसे भुगतने के लिए तैयार हैं । हमारा बूढ़ा पिता प्रत्येक श्वास के साथ यह आशा कर रहा होगा कि उसके बच्चे आ रहे होंगे । मृत्यु शैया पर पड़े एक वृद्ध पुरुष की हालत पर दया कीजिए और हमें जाने की आज्ञा दीजिए ।"
हूण सरदार का संकेत पाकर सैनिकों की टोली में से चार सिपाहियों ने निकलकर पांचों को घेर लिया और उन्हें कोतवाली तक ले जाने के लिए धक्के दे-देकर चलने पर विवश कर दिया ।
यह सब लोग उस गांव में पहुंचे जो थोड़े ही दिनों से हूणों के आधिपत्य में आया था । शुरू-शुरू में अवश्य ही उन्होंने गांव वालों से भोज्य पदार्थ सामग्री छीनी थी परन्तु बाद में गांव की रक्षा का भार अपने ऊपर ले लिया था । न जाने क्यों अपने स्वभाव के विरुद्ध हूण लोगों को इन पांच गांव वालों पर दया आ गई थी । अथवा निरन्तर मार-काट और लूट-मार से उकताकर वे लोग शान्तिपूर्ण जीवन यापन करना चाहते थे अथवा यह भी संभव था कि यह गांव ऐसे स्थान पर स्थित था जहां से इन्हें आगे काम करने के लिए आज्ञा उपलब्ध होती रहती थी । इसलिए गांव के प्रति इन लोगों की भावनायें काफी उदार हो चली थीं, परन्तु फिर भी गांव वालों के अन्दर कुछ इस प्रकार का आतंक छाया हुआ था कि वे सब भीतर ही भीतर सहमे रहते थे । गांव की चौपाल की चहल-पहल, युवक युवतियों का अल्हड़पन समाप्त हो गया था । इतनी नीरवता देखकर लगता था जैसे यहां की स्त्रियां और बच्चे गांव छोड़कर कहीं अन्यत्र चले गये हैं । गांव का सारा काम वृद्ध और बच्चों पर आ पड़ा था और हूण सिपाही उन्हीं व्यक्तियों से बेगार लेते थे ।
गांव के बाहर फाटक पर चार किसानों ने आते हुए हूणों को देखकर अपने सिर से घास के गट्ठर उतारकर एक तरफ रख दिए और झुककर उन्हें सलाम करने लगे । एक बूढ़ा मोची उनके आगमन के डर से ऐसा घबराया कि बिचारा दीवार से टकरा गया और जमीन पर गिर पड़ा परन्तु गिरते हुए भी अभागा उनको सलाम करना न भूला । कुतिया के दो पिल्ले घोड़ों की टापों के नीचे आकर मर गए, उनकी चीख सुनकर पास खड़ी उनकी मां डर के मारे भौंक भी न सकी ।
हूणों की कोतावली एक बहुत बड़ी हवेली में थी । यह हवेली गांव के किसी धनवान व्यक्ति की ही थी जो अभागा इनकी तलवार की मार से मृत्यु को प्राप्त हो गया होगा या किसी अन्य मकान में रहने के लिए बाधित कर दिया गया था । एक बड़े खम्भे से बंधी मशालें जल रहीं थीं और उसमें पास ही भारी-भारी श्रंखलाओं का ढेर लगा हुआ था । उसके पास ही एक अजीब सी वस्तु पड़ी थी जो दूर से देखने में कपड़े के समान लगती थी परन्तु ध्यानपूर्वक देखने पर वह किसी जानवर की खाल थी । उसका निचला भाग रक्त और मिट्टी में लथपथ था । पास की बाहर गली में एक बड़े पत्थर पर पांच हूण सिपाही बैठे थे जो देखने में बड़े ही भयानक और खूंखार दिखाई देते थे । उनकी आंखें भी मशाल के समान जल रही थीं । वे अपने अधिकारियों को देखते ही सम्मानपूर्वक उठ खड़े हुए ।
अन्धकार के कारण जिन यात्रियों के चेहरे स्पष्ट दिखाई नहीं देते थे, वह मशालों के प्रकाश से स्पष्ट दिखाई देने लगे थे । वह यात्री वही पुराने हिन्दू और ईरानी युवक थे जो किसी महत्वपूर्ण काम के लिए इकट्ठे ही निकले थे, यद्यपि उन्हीं ने अपनी दाढ़ियां कटवा लीं थीं । पैदल सिपाहियों ने धक्के मार-मार यात्रियों को कोतवाली में धकेल दिया । कोतवाल को छोड़कर चारों हूण सरदार और उनकी पैदल टोली सैनिक चौकी की ओर लौट गए । कोतवाल भी घोड़ों पर से कूदकर नीचे उतरा और उसने घोड़े की लगाम पहरे वाले के हाथ में पकड़ाई तथा दो सिपाहियों को साथ लिए यात्रियों के पीछे-पीछे ड्योढ़ी में प्रविष्ट हो गया जहां जलती हुई मशालों का कड़वा धुआं दम घोट रहा था ।
"हप्ताली" !" आंगन में पहुंचकर उसने आवाज दी, "जरा इन धूर्तों को माफी तो देना ।"
आंगन में एक भाग में बने हुए रसोईघर में से, जिसके भीतर कई भट्टियां जल रही थीं और उन पर मांस की देगें पक रही थीं, पास ही कोयलों की अग्नि पर पूरी-पूरी लोमड़ियों को भूना जा रहा था । उनके पास लाल-लाल आंखों और घिनौने चेहरे वाला लम्बा चौड़ा एक बलिष्ठ हूण जो किसी जानवर की भूनी हुई टांग खा रहा था, उसे छोड़कर उठ खड़ा हुआ और वह बड़ी लापरवाही और घमण्ड से झूमता हुआ उनके पास आ खड़ा हुआ । उसने पहले वाले के हाथ से मशाल लेकर पांचों यात्रियों के चेहरों के इतना पास ले जाकर देखा कि यात्रियों को अपने चेहरे झुलसते हुए से प्रतीत हुए । पहले उसने हिन्दुओं के चेहरे और फिर ईरानियों के चेहरों को परखकर कहा - "हिन्दुस्तानी मूँछें और ईरानी चेहरे आपको कहां से मिले ?"
"ये कह रहे थे कि हम राजनपुर जा रहे हैं । किन्तु मेरा विचार है कि ये वन में छुपना चाहते थे । कुछ भी हो, इन्हें एक तरफ ले जाकर पूछताछ करो और यदि कोई महत्वपूर्ण बात पता चले तो मुझे सूचित करना ।"
कोतवाल आंगन में से निकलकर अपने कमरे में चला गया ।
"तुम हिन्दू !" हप्ताली पहरे वाले के कुल्हाड़े की नोंक महाबाहु के कन्धे पर चुभाता हुआ बोला, " बड़े धूर्त होते हो, अपने देश की रक्षा का सामर्थ्य तो तुममे है नहीं । परन्तु जब कोई अनार्य जाति जिसे प्रभु ने राज्य और सत्ता स्थापित करने की शक्ति दी है, तुम्हारे देश पर अधिकार करने का पवित्र कार्य करती है तो तुम उसके विरुद्ध षड्यन्त्र रचते हो, उसके मार्ग में रुकावटें उत्पन्न कर देते हो, ठीक उस नपुंसक पति की तरह जो अपनी स्त्री को स्वयं तो वश में कर नहीं सकता परन्तु किसी अन्य के प्रति उसको आसक्त होते देखकर धर्म, अनाचार और चरित्रहीनता का आरोप लगाकर आसमान सिर पर उठा लेता है ।"
महाबाहु अपने राष्ट्र के प्रति अपमानसूचक शब्दों को सुनकर क्षण-भर के लिए क्रोध और घृणा से तिलमिला उठा परन्तु फिर एक विवशता का अनुभव कर बोला, "श्रीमान्, हम तीन भाई हैं जो उज्जैन में आढ़त का काम करते हैं । राजनपुर में हमारे पिता अत्यधिक रुग्णावस्था में पड़े हैं । यह दोनों नौकर हमें बुलाने के लिए गए थे, इससे अधिक हम और कुछ नहीं जानते । यही बात हमने कोतवाल साहब से कही है । हमारा बूढ़ा पिता मृत्यु-शय्या पर पड़ा अपने जीवन की अन्तिम घड़ियां गिन रहा है । कृपया आप हम पर दया करें और हमें घर जाने दें । हम आपका यह उपकार आजन्म नहीं भूलेंगे ।"
वह जोर से हंसा, "मूर्खो, तुम किसी अहिंसा की मूर्ति अर्थात् मन्दिर के पुजारी के सन्मुख नहीं खड़े हो, अपितु एक हूण सरदार के सामने खड़े हो जो दस हजार शत्रुओं की जानों को चींटी के समान सस्ता और तुच्छ समझता है । हूण गुप्तचर हप्ताली के सामने मनुष्य तो क्या, वृक्ष और पत्थर भी अपने मन का भेद खोल देते हैं । यह तुम्हारी चालाकियां और मक्कारियां उसी समय तक हैं जब तक तुम मेरे जासूस के घर में पैर नहीं रखते ।”
और भीतर पहुंचने के पश्चात् .... इनके हथियार ले लो" उसने अधिक समय नष्ट न करते हुए पास खड़े सिपाही से कहा । और पांचों यात्री अपने शस्त्र सिपाहियों के हवाले करने लगे । हप्ताली ने दूसरी बार कुल्हाड़े की नोक महाबाहु के कन्धे पर रखकर उसे पीछे की ओर धकेला ।
"सात फुट के डील-डौल वाले, हाथी के समान बलिष्ठ शरीर वाले दलाल हिन्दुस्तान की कौन सी मण्डी में होते हैं ? चलो, अन्दर चलो ।"
उसने अपना लहू से भिगोया हुआ कुल्हाड़ा खींचा । "तुम आगे-आगे चलो", उसने अपने सिपाही से कहा और आप पीछे-पीछे चलने लगा ।
"आपका भोजन ?" बकावल ने आवाज देकर पूछा । "इधर ही भेज दो, मुझे बहुत भूख लगी है ।"
जिस दालान की तरफ हूण सिपाही इन पांचों यात्रियों को ले जा रहा था, उसके द्वार के पास कुण्डे पर लगी एक छोटी सी मशाल टिमटिमा रही थी । जिसकी आंगन के द्वार के पास के दाईं ओर किसी ने रक्त से भरी मटकी उस पर पलट दी हो अथवा द्वार के प्रवेश करते समय किसी व्यक्ति का सिर धड़े से अलग कर दिया गया हो और वह निष्प्राण शरीर दीवार से लटकता हुआ बहते हुए रक्त से उसे रंग रहा हो ।
सिपाही ने अपने मजबूत फौलादी हाथों से धक्का देकर दोनों किवाड़ों को खोल दिया । उसके भीतर प्रवेश करते समय महाबाहु ने अपनी अंगुली लहू से भीगी दीवार से लगाई जिससे ताजा रक्त उसकी अंगुलियों में चिपक गया ।
पांचों यात्री पूर्णतः जान गए थे कि पिता की बीमारी की मनघड़न्त कहानी पर हूण गुप्तचर को विश्वास नहीं है, उनके हजार बार शपथ लेने पर भी वह इसको सत्य नहीं मानेगा । उन सब ने मन में इस बात का निश्चय कर लिया कि वे अपने शब्दों पर दृढ़ रहेंगे क्योंकि वे जानते थे कि बार-बार अपने सामने बयान बदलने से उनकी जान के लाल पड़ जायेंगे । इसके साथ ही उन्होंने इस बात का भी निश्चय कर लिया कि चाहे कितना कठोर और नृशंस व्यवहार उनके साथ किया जाए, वह अपने निश्चय से टस से मस नहीं होंगे । परन्तु उनके मन में यह भय अवश्य था कि कहीं ईरानी इतना अधिक कष्ट सहन न कर सकें और हमारा भेद इन पर प्रकट कर दें ।
सिपाही का अनुसरण करते हुए उन्होंने दूसरा द्वार पार किया और पहले से भी बड़े आंगन में जाकर खड़े हो गए, जिसके मध्य में दीवार बनाकर गुप्तचर सरदार के रहने का स्थान बना दिया गया था । इसमें आधीन गुप्तचर और जल्लाद रहते थे । इस कमरे के फर्श पर भेड़ की खालें बिछी हुईं थीं तथा दीवारों पर अजगरों के चित्रों वाले चीनी पर्दे लटक रहे थे । एक बढ़िया बगदादी कंडाल बिछी हुई थी और जिस पर एक तुर्की खंजर भी पड़ा हुआ था ।
"इन धूर्तों से कहो कि दीवार के साथ चिपककर खड़े हो जाएँ और तुम जाकर देखो कि मेरे लिए भोजन लाया जा रहा है अथवा नहीं ?"
पांचों यात्री दीवार के सहारे खड़े हो गए, सिपाही ने सरदार का रखा कुल्हाड़ा उठाकर एक दृष्टि यात्रियों पर डाली और फिर रसोईघर के नौकरों को देखने के लिए उसी रास्ते वापिस चला गया ।
हप्ताली को अकेला देखकर महाबाहु के मन में विचार आया कि "इसी के शस्त्रों से, जो कमरे में पड़े हैं, इस अभिमानी का काम समाप्त कर दिया जाए और सिपाही के पास जाने से पूर्व आंगन से निकल सीढ़ियों द्वारा मकान पर चढ़ जायें और वहां से छलांग लगाकर अंधेरे में लुप्त हो जायें तो......?"
उसने रुद्रदत्त की ओर देखा, जिसने आंखों से उसको इतना साहस न करने का संकेत दिया । हप्ताली बिफरे हुए सिंह की तरह इधर-उधर टहल रहा था । महाबाहु ने विवशता की आह भरी । बाहर चलती वायु के झोंके से एक पर्दा थोड़ा सा हिला और आठ हथियारबन्द युवकों ने कमरे में प्रवेश किया और वे चुपचाप एक चौकी पर आकर बैठ गए । गुप्तचर ने अपनी रक्षा का पूरा प्रबन्ध कर रखा था ।
यदि महाबाहु जल्दबाजी और दुस्साहस के आवेश में हप्ताली पर प्रहार कर देता....? उसे अपनी भूल का आभास हुआ । नौकर ने आकर चौकी के सामने लकड़ी की एक टिकटिकी रखी और उस पर एक चौरस फट्टा रख दिया जिसके तल पर किसी पशु की खाल मढ़ी हुई थी । रसोईघर के नौकर ने आकर भोजन परोसना आरम्भ कर दिया ।
फट्टे के दाईं ओर उन्होंने दो छुरियां और एक कुल्हाड़ी रख दी फिर अपने साथ खाद्य पदार्थ रखने आरम्भ कर दिये । बादाम और अखरोट के तेल से तली हुई एक बछड़े की सिरी, जंगली नीलगाय की भूनी हुई टांग जिसे अंगूरी सिरके की पुल लगी हुई थी तथा पहाड़ी मकई और गेहूँ की मोटी रोटी जिस में बादाम और सेब के टुकड़े डले हुए थे, परोसी गई । अरबी खजूरों का हलवा, खट्टे अनारों के रस में बनाया हुआ अचार । बादाम और शहद और किसी सुगन्धित पदार्थ के अर्क में तले चकोर के अण्डों के टुकड़े वहां रखे गए ।
वह चुपचाप खाना खाने लगा । कभी-कभी केवल हड्डियों को तोड़ने के लिए कुल्हाड़ी तथा छुरी की आवाज सुनाई दे जाती थी, किन्तु जब उसकी भूख कुछ शान्त हुई तो उसने मुंह उठाकर यात्रियों की ओर देखा ।
"हमने सुना है कि हिन्दू ...." मुंह का ग्रास चबाता हुआ बोला "झूठ बोलना पाप समझते हैं । इसलिये सच बताओ कि तुम किस राजा के गुप्तचर हो ? कहां से आ रहे हो ! और किधर जाना चाहते हो ?"
धूमकेतु बोला, "महाराज, आपको न जाने क्यों ऐसा भ्रम हो गया है । हम राजनपुर के रहने वाले हैं और उज्जैन में आढ़त का काम करते हैं । हमने शुरू में ही आप से सत्य बात कही थी और अब भी वही बात कह रहे हैं । क्या हम नहीं जानते कि यदि हमने झूठ बोला तो हम सूली पर लटका दिये जायेंगे ?"
हप्ताली ने एक चबाई हुई हड्डी उठाई और धूमकेतु के मुंह पर दे मारी । "तुम्हारी और तुम्हारे राजनपुर की .... पाजी कहीं के ! मेरी भद्रता की तुम इस प्रकार अवहेलना कर रहे हो ? तुम्हारी यह हठधर्मी ! तुम अभी सब कुछ उगल दोगे जब तुम्हें खम्बों से बांध दिया जायेगा और गर्म चिमटों से तुम्हारे शरीर की बोटियां नुचवाई जायेंगी ।"
भोजन समाप्त करके उसने थोड़ा-सा गर्म पानी पिया और नौकर के हाथ से दांतों को कुरेदने के लिए तीलियां लेकर दांत में फंसे मांस के रेशे निकालने लगा ।
थोड़ी देर बाद कठोर स्वर में बोला "आओ, आज सत्य बोलना सिखाऊंगा ।"
उसकी आवाज सुनकर बाहर बैठे सिपाहियों ने वह फट्टा धकेलकर एक ओर कर दिया जो दालान के उस भाग को प्रांगण से अलग करता था । इसके हटते ही यात्रियों को ऐसा प्रतीत हुआ मानो नरक के द्वार खुल गए हों ।
खुले आंगन में घना अन्धकार छाया हुआ था और उन्हें कितनी ही प्रकार की कराहटें, आहें और दबी हुई चीत्कार की आवाजें सुनाई देती थीं जो हृदय को कचोटती हुई निकल जाती थीं । सारे आंगन में दीपक अथवा मशाल नहीं जलाया हुआ था । दो स्थानों पर बड़ी-बड़ी अंगीठियां जल रहीं थीं जिनके ऊपर रखी कड़ाही में कोई वस्तु खौल रही थी और अंगीठियों के पास चार हूण जल्लाद किसी आदमी को पकड़े उसके शरीर को जला रहे थे । उसी अंधेरे में किसी स्त्री की सिसकियां भर भरकर कराहने की आवाज सुनाई दे रही थी । न मालूम उस बेचारी के साथ कैसा अमानुषिक व्यवहार किया जा रहा था । लकड़ियों की बनी तीन टिकटिकियों पर तीन आदमी उल्टे लटक रहे थे । हूण जल्लाद जो नृशंसता के प्रतीक दिखाई देते थे, अपनी कला में निपुण थे । उन तीनों व्यक्तियों की खालें उन्होंने बड़ी सफाई से उतारी थीं जैसे किसी सांप के शरीर से केंचुली उतारी गई हो । खाल उतरे व्यक्तियों के शरीरों से अभी तक खून रिस-रिसकर टपक रहा था ।
"ये लोग" हप्ताली उनकी ओर संकेत करते बोला, "परसों पकड़े गए थे, तुम अपने आपको दलाल कहते हो, ये अपने आपको यात्री बताते थे जो एक के बाद दूसरे तीर्थ की यात्रा कर रहे थे । परन्तु मैं इनको जानता था । एक मालवा राजा का उप-सेनापति है दूसरा मगध के राजपंडित का बेटा तथा तीसरा एक जमींदार है जो वहां की राजनीति में प्रमुख स्थान रखता है । परन्तु हूण सम्राट मेहरगुल के विरुद्ध षड्यन्त्र रचना और उनके रहस्यों को जानने का प्रयत्न करना एक ऐसा अक्षम्य अपराध है जिसको सहन नहीं किया जा सकता । यह लोग कई दिनों से छुपे-छुपे फिर रहे थे, परन्तु मेरे गुप्तचरों ने इनका आखिर पता लगाकर इन्हें बन्दी बना लिया और यहां ले आए । उसी समय इनका सिर धड़ से अलग किया जा सकता था । परन्तु भुट्टे की तरह सिर काट देना कोई दण्ड नहीं । मेरे इन जल्लादों ने यन्त्रणा देने के ऐसे अद्भुत प्रयोगों का आविष्कार किया है जिनके सामने नरक के दुःख भी हेय हैं । लड़कों और स्त्रियों के मान भंग की लज्जास्पद क्रिया के अतिरिक्त वह ऐसे कुकृत्य भी जानते हैं जिन से आत्मा स्वर्ग या नरक किसी के योग्य नहीं रहती । इनके शरीर की खालें उतार दीं गईं हैं । प्रातः जब इनके शरीर ओस में भीग जायेंगे तो इनको खोलकर इनके शरीरों पर नौशादर और मिर्चों का चूर्ण छिड़का जायेगा, उस समय इनका नाच देखने योग्य होगा । फिर या तो मनुष्य के मांस को खाने वाले तिब्बती कुत्तों की चार जोड़ियां इनकी बोटियों को नुचवाने के लिए छोड़ी जायेंगीं या इनके शरीर के आधे भाग पर बर्फ तथा दूसरे आधे भाग पर गर्म-गर्म खौलता तेल डाला जायेगा । अथवा इनकी आंखों की पुतलियां निकालकर उनके स्थान पर नमक की डलियां लगा दी जायेंगीं और दोपहर के बाद उनको खुले मैदान में ले जाकर बांध दिया जायेगा ताकि कौवे और चील इनको नोंच-नोंच कर अपनी भूख मिटा सकें ।"
इस प्रकार के अत्याचार को देखकर यात्रियों के मन में प्रतिहिंसा की आग भड़क रही थी तथा कभी-कभी इस भयंकर स्थिति की कल्पना कर उनका सारा शरीर अवसन्न सा हो जाता था । हूण सरदार का मानवता को निपीड़ित करने वाले इन दृश्यों को दिखाने का मात्र अभिप्राय इनके अतिरिक्त क्या हो सकता था कि कोई भी ऐसी भयंकर स्थिति में से होकर मरना नहीं चाहेगा । इसलिए अपने मन का सारा भेद उसके सामने सच-सच प्रकट कर देगा । अपना वह रहस्य जिसे वे यमराज और नरक के देवता को बताने के लिए तैयार नहीं थे, उसे बता डालेंगे ।
उस रौरव नगरी के एक कोने में पहुंच कर वह रुका । महाबाहु की दृष्टि बाईं ओर की सीढ़ियों के मार्ग पर पड़ी और उसका मन उसे मारकर भाग जाने को हुआ, परन्तु साथ वाले दालान के अंधेरे में घूरकर देखने से उसे पता लगा कि वहां दस बारह सिपाही चुपचाप बैठे थे । जलती आग की लपटों में उनके भालों की नौंके चमक उठती थीं ।
हूण गुप्तचर दोनों हाथ पीठ पर ले जाकर और टांगों को थोड़ा चौड़ा करके शाही ढ़ंग से खड़ा होकर बोला, "दलालों और यात्रियों का छद्मवेश छोड़कर अब भी क्या तुमने सच बताने का निश्चय किया अथवा नहीं ? बोलो, दूसरों को विपत्ति में फंसे देखकर प्रत्येक मनुष्य को चाहिये कि जिस प्रकार भी हो सके, बुद्धि से काम ले और अपने आपको उस भयंकर स्थिति में पड़ने से बचाये ।"
धूमकेतु हाथ जोड़कर कहने लगा, "श्रीमान, अब हम किस प्रकार आप को विश्वास दिलायें ? साधारण से आदमी होते हुए हम किस प्रकार अपने आप को किसी राजा का सेनापति या पुरोहित बतायें ?"
धूमकेतु का उत्तर सुनकर हूण गुप्तचर की आंखें क्रोध से जल उठीं, अंधेरे में हाथ से टटोलकर उसने दीवार पर टंगा समुद्री घोड़े की खाल का कोड़ा उतारा और उन सब पर अन्धाधुंध बरसाने लगा - "कुत्ते के बच्चो ! शैतान के बेटो ! मैं अभी जल्लादों को बुलाकर तुम्हारी जुबान खिंचवाता हूं, फिर देखना किस तरह सच्ची बात आप से आप बाहर निकलकर आती है । मैं गर्म-गर्म सलाखें तुम्हारे शरीरों में ठुकवा दूंगा और बैलों के समान तुमसे कोल्हू चलवाऊंगा ।"
उसने तीन बार ताली बजाई जिसे सुनकर तीन जल्लाद हाथों में मसाल और कोड़े लेकर आ गए । अंधेरे में छुपी बैठी सिपाहियों की टोली भी तेज कदमों से चलती हुई आकर उन्हें घेरकर खड़ी हो गई । उन्होंने अपने तेज बरछे पांचों यात्रियों की छाती पर तान लिए ताकि जल्लादों के काम में बाधा डालने पर उनकी छातियों को बींध दें ।
"चीनी यात्री फाहियान और यवन राजदूत मैगस्थनीज ने", हप्ताली अपनी ही धुन में बोलता चला गया, "अपने लेखों में लिखा है कि हिन्दू ऐसे हैं वैसे हैं किन्तु वह यह लिखना न जाने क्यों भूल गया कि हठधर्मी होने में संसार की कोई भी जाति इनका मुकाबला नहीं कर सकती । सब यातनायें, सब कष्ट सह अन्त में मृत्यु तक का आलिंगन करने में किसी प्रकार भी हिचकिचाएंगे नहीं, परन्तु जिस बात के लिए एक बार ना निकल गई उसे हां में बदलना .... उतरवाओ इनके कपड़े ।"
तीनों जल्लादों ने अपने शस्त्र एक ओर रख दिये, हाथ की मशालें दीवार में लगे कुण्डों में लटका दीं और झटके मार-मार कर यात्रियों के कपड़े उतारने लगे । महाबाहु मन ही मन क्रोध में जलने लगा । एक बार उसने फिर रुद्रदत्त की तरफ देखा ।
"इनको बांध दो, जल्दी करो ।"
जल्लादों ने फुर्ती से उनके हाथ बैलों की चमड़ी की रस्सी से पीछे की ओर बांध दिये, फिर पैरों को जकड़कर बांध दिया । इसके पश्चात् अपनी छुरियां-नस्तर और दूसरे शस्त्र उठा लिए ।
हप्ताली के कमरे की ओर अंधेरे में कोई चेहरा उसकी ओर आता हुआ दिखाई दिया । वह राजदूत सा लगता था । वह उनके पास आकर रुक गया । अभिवादन करने के पश्चात् उसने अपने थैले में से नलकी निकाली जिसमें भेड़ की खाल के ऊपर लिखा एक पत्र था जिस पर मोहर लगी हुई थी ।
"क्या बहुत आवश्यक है ?" "हां महाराज ! प्रातःकाल इसका उत्तर लेकर मुझे वापस जाना है । मुझे कठोरता से इस आज्ञा पालन के लिए कहा गया है कि मैं दिन निकलने से पूर्व ही यहां से चल पड़ूँ ।" "बहुत अच्छा ! इसके बाद उसने अपने सिपाहियों को आज्ञा दी कि इनको इसी प्रकार बंधे-बंधाए कोठरियों में बन्द कर दो । कल प्रातः इनसे पूछताछ की जाएगी ।" "आइये ।"
वह राजदूत को अपने साथ लेकर कमरे की ओर चल पड़ा । वे जल्लाद सिपाही बंधे हुए कैदियों को उठाकर कोठरियों की ओर चल पड़े जिनके दरवाजे लोहे के बने हुए थे । मरे हुए कुत्तों की तरह घसीटते हुए उन पांचों यात्रियों को कमरे के ठण्डे फर्श पर पटक दिया ।
"लोहार बुलाकर इनके पैरों में बेड़ियां भी कसवा दी हैं क्या ?" "इस बारे में तो कुछ कहा नहीं गया, परन्तु कोई बात नहीं, प्रातः तो उनका फैसला कर ही दिया जाएगा । रात-रात में ही ये यहां से भागकर कहां जा सकते हैं ?" "चलो चलें"
उन्होंने मशालें उठाईं और बाहर से दरवाजे में ताला लगाकर चले गए । जाते-जाते मशाल के प्रकाश में रुद्रदत्त की तीव्र दृष्टि छत और दीवारों की देखभाल कर रही थी । उसने देखा कि जाते-जाते वे लोग लापरवाही के कारण कुछ अस्त्र कोठरी में ही भूल गए हैं ।
बड़ी देर तक सन्नाटा सा छाया रहा, आखिर शापूर बोला, "यह राजदूत तो हमारे लिए देवदूत के समान सिद्ध हुआ है ।"
बहराम ने कहा, "हां, परन्तु इस सहायता से हमें क्या लाभ पहुंच सकता है, सिवाय इसके कि अपमानपूर्वक मृत्यु की घड़ी और बढ़ गई जो अब तक हमारी इस लीला को समाप्त कर आनन्द की नींद में बदल चुकी होती । प्रातः तक अर्थात् साढ़े तीन पहर तक के लिए हमें और अधिक मानसिक दुःख भुगतना पड़ेगा ।"
"बहराम !" रुद्रदत्त की इच्छा शक्ति मानो गहन अन्धकार में गूंजती सी सुनाई दी, "साढ़े तीन पहर के समय में बहुत कुछ किया जा सकता है ।" "जैसे कोठरी के अन्धकार में कमरे के सौ-पचास चक्कर काटना अथवा इसकी दीवारों से सिर पटक कर मर जाना ।" "व्यर्थ की बातें मत करो बहराम !" उसका साथी उसे डाँटता हुआ बोला, "हिन्दुओं को अपनी जानें अपने ईरानी मित्रों से कम प्यारी नहीं ? और उनके सामने एक महान् उद्देश्य है जिसे यह लोग तभी प्राप्त कर सकते हैं जब यहां से सुरक्षित भाग सकें ।"
धूमकेतु बोला, "हमारे ईरानी मित्रो ! हमें दुःख है कि हमारे साथ मिलकर आप लोग भी इस विपत्ति में आ फंसे हो परन्तु हम इस संकट को टालने का भरसक प्रयत्न करेंगे और भाग्य से यदि ऐसा समय आया तो अपने से पूर्व आप लोगों को यहां से भगाने का प्रयत्न करेंगे ।" रुद्रदत्त बोला, "यदि आप थोड़ा समय चुप रहें और मुझे सोचने दें ।"
इसके पश्चात् मशान की सी निस्तब्धता छा गई । केवल सांस लेने की आवाज सुनाई दे रही थी । आधी घड़ी के बाद रुद्रदत्त बोला, "यहां से निकलने की योजना मैंने बना ली है । किसी प्रकार की घबराहट और जल्दबाजी के बिना आप लोगों ने उस पर आचरण किया, तो मेरा विचार है हम अवश्य ही सफलता प्राप्त करेंगे । आप लोग अपने दांतों से काटकर पहले मेरे तथा फिर महाबाहु के हाथों की रस्सियां खोल दो । हूण सरदार कोठरी से जाते समय अपनी दो छुरियां तथा एक मोगरी यहीं भूल गया है जिनको मैंने मशालों के प्रकाश में देख लिया है । इसी समय मैंने यह भी देख लिया था कि झरोखे के पास के दो-तीन पत्थर ढ़ीले से दिखाई देते हैं । रात के अन्तिम पहरों में प्रत्येक व्यक्ति को नींद का खुमार अधिक प्रभाव डालता है । इस समय सिवाय पहरे के एक दो सिपाहियों के बाकी सब नींद में बेसुध पड़े होंगे । सम्भव है पहरे के सिपाहियों पर भी नींद का जादू असर कर जाए । अगर कोई जागता भी रहे तो किसी प्रकार का शोर उत्पन्न होने से पूर्व ही उसे समाप्त करने का ढ़ंग मुझे आता है । जितने समय में रात की यह मौन और गहरी नींद की खुमारी की घड़ी आए, मैं महाबाहु के कन्धे पर चढ़कर झरोखे के पत्थरों को खिसकाने में सफल हो जाऊंगा ।"
बहराम उसके हाथों के रस्से खोलने के लिए अंधेरे में धरती पर घिसड़ता हुआ पास आकर बोला, "एक बार यहाँ से जीवित बाहर निकल जायें फिर भले ही पीछा करने वालों के हाथों मारे जायें परन्तु इस अपमानपूर्वक मृत्यु से वह मरना हजार गुना अधिक अच्छा है ।"
"आप मौत की बात क्यों करते हैं ? ईश्वर ने चाहा तो हम दिन निकलने से पहले सुरक्षित निकल जायेंगे । यदि हमारा मौका लगा तो अपने अपमान का उत्तर इन हूणों को ऐसे रूप में देकर जायेंगे जिससे यह जानवर सिर पीटने लगें ।"
बहराम के दांत चूहे की भांति तेज थे । थोड़ी देर में उसने रुद्रदत्त के बन्धनों को काट डाला और उसे स्वतन्त्र कर दिया ।
रुद्रदत्त ने उठकर महाबाहु के बन्धन भी शीघ्रता से काट दिए । महाबाहु शीघ्र ही अपने बंधन खुलने पर झरोखे के नीचे जाकर खड़ा हो गया । रुद्रदत्त ने फर्श से छुरियां और मोगरी उठायीं और सावधानीपूर्वक चलकर महाबाहु के पास जा पहुंचा और अंधेरे में उसकी पीठ को टटोलकर उसके कन्धों पर उचककर चढ़ गया ।
झरोखे के बाहर चलने-फिरने की आवाजें धीमी होती चली जा रहीं थीं । अंगीठियों और भट्ठियों की आग धीमी पड़ती जा रही थी । अत्याचार से पीड़ितों की कराहटें भी धीमी पड़ गई थीं । उस अंधेरे में एक-आध परछाई हिलती हुई दिखाई दे जाती थी । बड़ी सावधानी और साहस से रुद्रदत्त ने महाबाहु के कन्धों पर खड़े होकर पत्थरों को उखाड़ने का प्रयत्न करना आरम्भ कर दिया ।
धीरे-धीरे परन्तु बंधे हुए नम्बर से पत्थर एक दूसरे के पश्चात् उखड़ने लगे । एक बार थोड़ी सी खड़खड़ाहट हुई परन्तु सावधान हाथों ने उसे बड़ी चतुराई से सम्भाल लिया । इसके पश्चात् रुद्रदत्त बिना शब्द के नीचे उतर आया ।
"क्यों, बाहर कोई है ?" "नहीं" "थकना क्या था । सारे पत्थर उखड़ चुके हैं परन्तु इन्हें अपने स्थान से इसलिए नहीं हटाया कि अभी रात अधिक नहीं बीती है । हमें अभी थोड़े समय तक और प्रतीक्षा करनी पड़ेगी ।" "अच्छा"
महाबाहु और उनके साथी अपने-अपने स्थान पर आकर बैठ गए । समय की लम्बी और भारी घड़ियां बीतने लगीं । कोई आधा पहर बीत जाने के पश्चात् रुद्रदत्त उठा और धीरे से बोला, "मेरे विचार से अब हमें अधिक विलम्ब नहीं करना चाहिए । पहले मैं और महाबाहु बाहर निकलेंगे और परिस्थिति तथा मार्ग का पता लगाकर सबको यहां से बाहर ले जायेंगे । इसमें यदि अनुमान से अधिक समय लग गया तो आप लोग चिन्ता न करें क्योंकि ऐसी परिस्थिति में जल्दबाजी और घबराहट से बना बनाया काम बिगड़ जाता है, जिससे मैं घृणा करता हूँ । हमारे बाहर निकलने के पश्चात् आप इन पत्थरों को फिर अपने स्थान पर ही लगा दें ताकि यदि पहरेदार मशाल लेकर इधर आ निकले तो उन्हें किसी प्रकार का सन्देह न हो । आओ बहराम, तुम और महाबाहु मेरे हाथों से पत्थर ले-लेकर जमीन पर रखते जाओ ।"
महाबाहु का साथी रुद्रदत्त झरोखे के पत्थरों को हटाकर चुपचाप बाहर निकल आया । इसके पश्चात् महाबाहु ने भी उसी का अनुसरण किया । आंगन में पूरा सन्नाटा और अंधकार छाया हुआ था । आग ठंडी हो चुकी थी, मशालें बुझ चुकी थीं । हवा का तेज झोंका दीवारों से टकराकर सरसराहट उत्पन्न कर देता था जिसके साथ मिलकर पहरेदारों के खुर्राटे तथा घायलों की कराहटें अधिक भयानकता उत्पन्न कर रहीं थीं ।
दोनों फर्श पर औंधे लेट गए और क्षण भर तक अंधेरे में चारों तरफ अपनी दृष्टि दौड़ाई और आस-पास की आवाजों को सुनने का प्रयत्न किया । रुद्रदत्त ने अपना मुंह महाबाहु के कान के पास ले जाकर धीमी आवाज में फुसफुसा कर कहा, "इस हवेली का नक्शा उज्जैन के तुम्हारे मित्र हरिवल्लभ के घर से मिलता-जुलता है । जब हूण गुप्तचर हप्ताली हमें अपने अत्याचार के शिकार घायल और खाल उतारे आदमियों को दिखा रहा था तो मेरी दृष्टि इस मकान की बनावट की ओर थी । बीस हाथ दूर दाईं तरफ सीढ़ियां हैं जो ऊपर छत तक जाती हैं । हवेली के कंगारे बाहर खड़े पीपल या किसी बड़े पेड़ को छूते हों तो कोई आश्चर्य नहीं, यदि कोई मोटी टहनी हो जिसे पकड़कर चढ़ा जा सके तो बाहर निकलना बड़ा ही सुगम हो जाएगा । अब तुम बिना शब्द किये रेंगते-रेंगते सीढ़ियों द्वारा ऊपर चढ़ जाओ और हूणों की छावनी में पहुंचो जो पूर्व की ओर थोड़ी ही दूर पर स्थित है । वहां से पांच घोड़े चुराकर पश्चिमी द्वार के बाहर जिधर से हम लाए गए थे, खड़े रहो । यह काम डेढ़ घण्टे के भीतर हो जाना चाहिए । मैं इतने समय में कार्य से निपट कर सब साथियों को लेकर पहुंच जाऊंगा ।"
"बहुत अच्छा, परन्तु यहां आप जो कुछ भी करने लगे हैं उसे करते हुए कोई संकट न खड़ा कर लेना ।"
"देश की सेवा का" रुद्रदत्त कर्त्तव्य की भावना में खोया हुआ आवेश में बोला, "जबसे यह बीड़ा उठाया है विपत्तियों की चिन्ता न आज तक कभी की है, न भविष्य में करूंगा । मेरी सावधानी और दूरदर्शिता ने हमेशा संकटों से मेरी रक्षा की है । उसी तरह मैं अब भी काम करूंगा । तुम किसी प्रकार का विलम्ब न करो । परन्तु ठहरो, हम तो अभी नंगे हैं, आओ पहले कपड़े पहन लें । काश, हमारे शस्त्र भी वहीं पड़े मिलें, खैर ....।"
पेट के बल रेंगता हुआ महाबाहु अपने और अपने साथियों के कपड़े उठा लाया । उसने बड़ी फुर्ती से अपने कपड़े पहने । फिर बड़ी सावधानी से घिसड़ता हुआ सीढ़ियों के ऊपर चढ़कर अन्धेरे में खो गया ।
रुद्रदत्त ने अपने कपड़े पहने और शेष एक कोने में छिपाकर रख दिये । अपने स्थान पर लेटे ही लेटे उसने तीन गहरे सांस लिए । उसकी आंखों में प्रतिकार की अग्नि जलने लगी और वह किसी भयानक अजगर की भांति दीवार के साथ-साथ तेजी से घिसड़ता हुआ हूण गुप्तचर के कमरे की ओर बढ़ने लगा ।
परदे के पीछे लकड़ी के फट्टे में थोड़ा-सा स्थान शायद अन्दर हवा आने के लिए रखा गया होगा । भीतर गहन अंधकार था और सोने वाले के खुर्राटों की आवाज ही सुनाई देती थी । रुद्रदत्त ने लेटे ही लेटे आस-पास नजर दौड़ाई । फिर वह परदा उठाकर अन्दर झांकने लगा । छत से लटका कन्दील हल्का-हल्का जल रहा था और तख्तों पर इधर पीठ किए तोतों के पंखों से भरे गद्दे पर सिंह की खाल ओढ़े हप्ताली सो रहा था । पूर्व की दीवार के झरोखों में, जिन पर पड़े हुए परदे इस समय एक ओर हट गए थे, ताजी हवा भीतर आ रही थी । एक कोने में इनके अस्त्र-शस्त्र, जिस अवस्था में हूण सिपाही ने रखे थे, पड़े थे ।
भीतर प्रवेश करते समय रुद्रदत्त ने चारों ओर एक बार फिर देखा और अन्दर प्रविष्ट हो गया । भेड़ की खाल पर चुपचाप चलता हुआ वह अपने हथियारों की ओर बढ़ा और उसने अपनी खड़ग उठा ली और उसे म्यान से निकाल कर चौकी की ओर बड़ी सावधानी से बढ़ा जिस पर हूण सरदार निश्चल पड़ा सो रहा था । पहले उसने खड़ग के एक ही वार में उसका काम तमाम करने की सोची, परन्तु न मालूम क्या सोचकर उसने खड़ग रोक ली और सोते सरदार की कनपटी पर पूरे जोर से एक घूंसा मारा । वेदना से वह तड़पकर उछला और दूसरे क्षण बेसुध हो जमीन पर लुढ़क गया । केवल एक हल्की सी घरघराहट उसके मुंह से निकली । रुद्रदत्त ने झट उसके सिर की तरफ बैठकर अपने दोनों अंगूठों से उसके गले को इतने जोर से दबाया कि उसकी मूर्छा लम्बी हो जाए । इससे निपटकर उसने उसके हाथ पांव बांधे और उसके मुंह में कपड़ा ठूंस दिया । आप औंधा लेटकर गुप्तचर को अपनी पीठ पर लादकर तथा हथियारों के गट्ठे को अपने मुंह में दबाकर कैदियों की ओर बढ़ने लगा ।
ठीक उस समय पहरेदारों के बैठने के स्थान पर से किसी सैनिक के अंगड़ाई लेकर जागने का शब्द सुनाई दिया । दालान का परदा हिला और एक पहरेदार की धुन्धली सी छाया किसी प्रकार का प्रकाश लिए बिना आंगन से निकली । दीवार के साथ बढ़ता हुआ रुद्रदत्त जहां का तहां धरती से चिपक गया । पहरेदार अपने भारी खुरदरे जूतों से फर्श पर आवाज करता हुआ आंगन के एक ओर गया । फिर उसने टिकटिकियों पर लटकते खाल उतारे आदमियों को देखा और इसके पश्चात् बड़बड़ाता हुआ कैदखाने की कोठरी की तरफ आया । रुद्रदत्त को उसका ताला खींचकर देखने का शब्द सुनाई दिया । इसके बाद वह उल्टे पांव वापस जाकर दालान में परदे की ओट में चला गया ।
रुद्रदत्त ने चैन की सांस ली, दैव की कृपा थी कि उसके हाथ में मसाल नहीं थी, नहीं तो उसे अवश्य देख लेता । और यह अच्छा ही रहा कि धूमकेतु और वह दोनों ईरानी उसके ताला खटखटाने पर चुप बैठे रहे । नहीं तो यदि वह यह समझकर कि यह अपना ही आदमी है, कुछ बोल पड़ते तो सारे किए-कराए पर पानी फिर जाता । कुछ समय तक और वह इसी स्थान पर पड़ा रहना चाहता था । उसे डर था कि कहीं हप्ताली को होश न आ जाए । लाचार वह फिर बढ़ने लगा परन्तु वह कैदियों की कोठरी के स्थान पर सीढ़ियों की तरफ मुड़ गया । गुप्तचर के शरीर को उसी प्रकार पीठ पर लादे और एक हाथ में हथियारों को सम्भाल उसने एक के बाद एक करके तीस सीढ़ियां पार कीं । छत पर पहुंचकर उसने एक नजर चारों तरफ डाली और कानों से आहट सुनने का प्रयत्न किया परन्तु चहुं ओर घोर सन्नाटा था । मुंडेरे के साथ घिसड़ता हुआ वह बड़ के टहने के नीचे जा पहुंचा जो मुंडेरे से कोई डेढ़ गज की ऊंचाई पर से होता हुआ बाहर छत पर फैला हुआ था । पता नहीं इतना चतुर होते हुए भी हूण गुप्तचर ने टहने को क्यों नहीं कटवा दिया था ।
टहने की छाया के नीचे जहां अधिक अन्धेरा था, उसने गुप्तचर को लिटाकर उसकी गर्दन की नाड़ियों को और दबाया और फिर नीचे आकर इसी प्रकार के तीन मूर्छित शरीरों को ऊपर उठा लाया । वे तीनों खाल उतरे बेसुध बन्दी थे जो न जाने कितने समय से टिकटिकियों पर लटक रहे थे । रक्त मिश्रित झाग उनके मुंह से निकल रही थी तथा उनके शरीर का रक्त मस्तिष्क में भर गया था ।
पांचवीं बार जब वह अपने साथियों को लेने के लिए नीचे उतरने लगा तो एक अंधेरी फुर्तीली छाया पहाड़ी रींछ की भांति पास के चौबारे की खिड़की से छत पर कूदी और दबे पांव रुद्रदत्त की ओर बढ़ी जो इतनी देर से न जाने क्या कुछ नीचे से लाकर रखता जाता था ।
शाही दूत के कार्य को पूरा करते हुए यद्यपि कोतवाल आधी रात से पहले सोने के कमरे में न जा सका था । फिर भी न जाने रात की इन पिछली घड़ियों में उसकी नींद क्यों खुल गई थी । पहले उसने दो-चार बार करवट बदलकर सो जाने का प्रयत्न किया परन्तु जब आंख न लगी तो उसने खिड़की पर पड़े पर्दे को एक ओर हटा दिया और कभी आकाश में टिमटिमाते तारों और कभी छत को देखने लगा । उसकी तेज आंखों ने देखा कि गहन अंधकार में जो बड़ के फैले होने से और भी घना हो गया था, एक छोटा-सा टुकड़ा टूटा और शीघ्र गति से हिलता-डुलता सीढ़ियों के रास्ते अदृश्य हो गया । थोड़ी देर बाद फिर सीढ़ियों से होती वह छाया सरकती हुई अंधेरे में लुप्त हो गई ।
"या मेरे खुदा ! यह क्या जादू है" वह बड़बड़ाया । उसने एक दो बार अपनी आंखें मलीं जैसे उसे अपनी दृष्टि पर विश्वास नहीं हो रहा था । परन्तु यही बात उसने फिर एक बार देखी तो उसके मन में इस को जानने की इच्छा तीव्र हो उठी । संसार के सभी बच्चों की तरह छोटी आयु में भूत-प्रेतों की कहानियां उसने सुनी थीं परन्तु वे कैसे होते हैं और कहां रहते हैं, यह उसे मालूम न था । एक बार एक भय की सिहरन उसके शरीर में उठी । उसके हृदय की धड़कन तीव्र हो गई परन्तु शीघ्र ही उसका उल्लास जाग उठा । वह चीनी तुर्किस्तान की सीमा के एक खूंखार परिवार का पैंतीस वर्ष का निडर युवक था जिसकी सारी आयु युद्धों और विपत्तियों में ही बीती थी । उसे अपने बाहुबल पर पूर्ण विश्वास था । उसने अपने ऊपर का कपड़ा फेंका, सिंह की खाल का लंगोटा पहने वह झट से छत पर उतर आया, जिधर भूतों की छाया रहस्यमय अंधेरे में फिर रही थी ।
हूण सरदार के छत पर कूदने की आवाज से रुद्रदत्त एकदम चौंका । वह समझा शायद हमारे भाग निकलने की तैयारियों का भेद खुल गया है । परन्तु नहीं, ऐसा होता तो पहरेदार अवश्य नीचे शोर मचाते । यह तो ऊपर चौबारे पर सोने वाला कोई है जिसकी आंख यूं ही इस समय खुल गई होगी और अचानक बाहर देखने पर मैं उसे नजर आ गया हूँ । किन्तु यदि वह साधारण नौकर होता तो भी अपने सरदार को सूचित करता और उसे पकड़ने के लिए एक से अधिक व्यक्ति आते परन्तु इसका अकेले सोने के कपड़े पहने, बिना किसी हथियार के आगे बढ़ते आना साहस, निडरता तथा बेबाकी का द्योतक है । यह इस प्रकार का गुण है जो किसी बड़े सरदार या उसके उत्तराधिकारी में ही होना चाहिए । हो सकता है वह कोतवाल ही हो ...
यह विचार बिजली की सी तेजी से रुद्रदत्त के मस्तिष्क में घूम गया । बिना किसी घबराहट और भय के इस राष्ट्रीय उत्थान के कार्य में तत्पर वीर हृदय ने सोच लिया कि इस विपत्ति से किस प्रकार जूझना है ।
फुर्ती से वह सीढ़ियों के अंधेरे में घुस गया और पहली सीढ़ी पर दीवार से पीठ लगाकर खड़ा हो गया । यदि उसके तीन साथी नीचे न होते और उन बेसुध व्यक्तियों का प्रबन्ध जैसा कि उसने सोचा था, वह कर चुका होता तो वह प्रहार करने का विचार त्याग हवेली से नीचे उतर जाता । परन्तु अब टक्कर लिए बिना काम बनना कठिन था । परन्तु इसके लिए उसकी खड़ग शेष हथियारों के साथ वृक्ष के टहने के नीचे पड़ी थी । किन्तु उसकी तरफ आने वाला वह व्यक्ति भी निःशस्त्र था । जो भी हो, वह इसका मुकाबला करने के लिए तैयार हो गया ।
हाथी की भांति पका हुआ गठीला शरीर जिसकी गर्दन के ऊपर युद्धप्रिय चेहरा चमक रहा था, इधर को बढ़ता हुआ आ रहा था । आन की आन में उसकी टक्कर रुद्रदत्त से हो गई थी । आने वाले ने टहने की ओर ध्यान न दिया क्योंकि इसका कोई भी ख्याल नहीं था । वह तो अंधेरे में उस छाया की वास्तविकता का पता लगाना चाहता था जो एक रहस्यमय रूप में इधर-उधर अदृश्य हो जाती, न जाने किस विचार से वह सीढ़ियों के पास कुछ दूरी पर रुका और फिर सीढ़ियों की ओर बढ़ने लगा और इसके साथ ही ....।
जिस प्रकार किसी भारी मंजनीक से पत्थर निकलता है, रुद्रदत्त ने भूखे तेन्दुए के समान अपने स्थान से छलांग लगाई और असावधान हूण की छाती में इतनी जोर की टक्कर लगाई कि वह उल्टे पांव छत पर धड़ाम से गिर पड़ा । उसके गिरते ही रुद्रदत्त उसकी छाती पर चढ़ बैठा और वे दोनों आपस में गुत्थम-गुत्था हो गये । उसके शरीर में दानव के समान बल था । वह अपने पूरे जोर से रुद्रदत्त को मार डालने के लिए संघर्ष करने लगा परन्तु रुद्रदत्त भी कम शक्ति नहीं रखता था, उसके अंग लौह सदृश कठोर और दृढ़ थे । वह द्वन्द्व युद्ध में बहुत सिद्धहस्त था । अपनी स्फूर्ति तथा दांव पेचों की विविधता के कारण उसने अपने प्रतिद्वन्द्वी के प्रयत्न को निष्फल कर दिया ।
छत के पक्के फर्श पर लड़ने से उसके घुटने और कोहनियां छिल गईं तथा उनमें से खून निकलने लगा था । इस संघर्ष में वे दोनों बार-बार उठते और गिरते थे । इस प्रकार वे दोनों छत की मुंडर की ओर बढ़ते गए ।
छत के मुंडेर से दो हाथ के फासले पर सहसा कोतवाल को महसूस हुआ कि उसका शत्रु उसे बलपूर्वक धकेल मुंडेर से नीचे गिरा देना चाहता है । कोतवाल ने अपने को बचाने का भरसक प्रयत्न किया परन्तु रुद्रदत्त ने उसे ऐसा अवसर ही नहीं दिया कि अपनी दिशा बदल सके । इसलिए अब वह प्रहार करने की अपेक्षा प्रहार बचाने में लगा हुआ था परन्तु यह देखकर उसके आश्चर्य का ठिकाना न था कि उसका शत्रु इतना दुबला-पतला होने पर भी इतना बल कहाँ से ले आया । किसी मनुष्य में इतनी शक्ति की कल्पना भी नहीं कर पा रहा था । थोड़ा-थोड़ा खिसकता हुआ वह कोतवाल को मुंडर के पास धकेल लाया । दोनों के सांस फूल रहे थे, जीवन और मृत्यु के बीच संघर्ष करते हुए वे एक दूसरे को परास्त करने में अपनी एड़ी चोटी का जोर लगा रहे थे । ऐसे समय में कोतवाल ने मौका पाकर रुद्रदत्त का गला पकड़ लिया और इतने जोर से दबाया कि रुद्रदत्त का सांस रुकने लगा, उसकी आंखें बाहर को निकल आईं । परन्तु रुद्रदत्त में यह विशेषता थी कि कितनी भी कठिन परिस्थिति आने पर भी वह अपना विवेक नहीं खोता था । उसने कोतवाल की कलाई पकड़कर इतने जोर से मरोड़ी कि उसकी हड्डी कड़कड़ा उठी जिससे कोतवाल का दबाव नर्म पड़ गया । वह दर्द से कराह उठा । अवसर पाकर रुद्रदत्त ने उसको नीचे दबा लिया और जोर का धक्का देकर उसे मुंढ़ेर पर ले आया । कोतवाल की आंखों के आगे अंधेरा छा गया । उसने चीख मारने का प्रयत्न किया परन्तु रुद्रदत्त ने उसका मुंह हाथों में दबा दिया । कोतवाल ने भूखे भेड़िये की तरह उसके हाथ को अपने मुंह में दबाकर चबा डाला परन्तु रुद्रदत्त ने इसकी परवाह न कर अपनी मुट्ठी से उसकी कनपटी पर इतने जोर से मुक्का मारा कि वह लड़खड़ा कर मुंडेर के नीचे गिरने लगा । गिरते-गिरते उसने रुद्रदत्त की टांग पकड़ ली और दोनों बीस हाथ नीचे भूमि पर गिर पड़े । भाग्य से रुद्रदत्त कोतवाल के ऊपर जा गिरा, इससे उसे तनिक चोट कम आई परन्तु अचानक उतने ऊंचे से गिरने के कारण एक तरह की मूर्छा उस पर भी छा गई । परन्तु शीघ्र ही मूर्छा टूटने पर उसे अपनी स्थिति का बोध हुआ । यह समय उसके लिए सुसताने और दम लेने का नहीं था क्योंकि जरा सी भी देरी उसके सारे प्रयत्नों पर पानी फेर सकती थी । अपनी चोटों की चिन्ता न करते हुए वह एकदम वृक्ष के ऊपर चढ़ गया और वहां से छत पर जा उतरा । पूर्ववत् मूर्छित शरीरों को एक नजर देख वह रेंगता हुआ शीघ्रता से जेल में बैठे अपने साथियों के पास जा पहुंचा ।
प्रत्येक वस्तु अंधकार में सोई पड़ी थी । इतना बड़ा युद्ध छत के ऊपर लड़ा गया था उसके बारे में स्वप्नरत पहरेदारों को पता भी न लग सका ।
संकेत पाकर भीतर के लोग बाहर आ गए । उन्होंने झरोखे के पत्थरों को पूर्ववत् यथास्थान टिका दिया । वे सब अपने साथी के पीछे-पीछे बड़ी सावधानी और फुर्ती से सीढ़ियां चढ़कर छत पर जा पहुंचे । बड़ के टहने के नीचे जहां अंधकार में चार मूर्छित शरीर पड़े हुए थे, उसके पास पहुंच कर रुद्रदत्त ने ईरानियों से दबे स्वर में कहा, "इनको मेरी और धूमकेतु की पीठ पर एक-एक करके बांध दो । जब तक हम वापिस नहीं आते, तुम यहां हमारी यहां प्रतीक्षा करो ।"
दोनों ईरानी उन रक्त से लथपथ शरीरों और हिन्दुओं की ओर आश्चर्य से देखने लगे । उनकी आंखों में असीम उत्साह और साहस दिखाई दे रहा था । बिना कुछ पूछे उन्होंने एक-एक शरीर दोनों पीठों पर बांध दिया ।
"थोड़ा सावधानी से आना धूमकेतु !" रुद्रदत्त को अपनी ओर आने का संकेत करते हुए मुंडेर पर चढ़ गया और वृक्ष के टहने के ऊपर से फिसलता हुआ किसी बाजीगर के समान मूर्छित शरीर को पीठ पर बांधे हुए उतरने लगा । उनका अनुसरण करता हुआ धूमकेतु भी उसी प्रकार नीचे उतरने लगा । दोनों ईरानी विस्फारित नेत्रों से एक दूसरे का मुंह ताकने लगे ।
अहर-सुजद की कसम ! इन हिन्दुओं में आश्चर्यजनक ....।"
दोनों शरीरों को नीचे रखकर दोनों वापिस लौट आए और शेष दोनों को पहले की तरह बांधकर उतरते हुए उन्होंने ईरानियों को भी नीचे आने का संकेत करते हुए कहा कि आते समय शस्त्रों का बंडल भी उठाते लायें ।
नीचे पहुंच कर धूमकेतु ने पूछा, "तीनों भला वही हैं जिनको उल्टा लटका रखा था परन्तु यह चौथा व्यक्ति कौन है ?" "हप्ताली !" "बहुत अच्छा ।" "परन्तु एक और भी है ।" "वह कौन ....?" "कोतवाल ।" "कोतवाल कहां ऊपर ....? "नहीं, यह रहा" रुद्रदत्त ने दीवार के साथ निर्जीव पड़े कोतवाल के शरीर की ओर संकेत करते हुए कहा । धूमकेतु ने आगे बढ़कर उसकी छाती पर हाथ रखा । "परन्तु यह तो मर चुका है ।" "मृत अथवा जीवित, इसे यहां नहीं छोड़ा जा सकता है ।" "हां, ठीक है ।"
उन्होंने चारों बेसुध शरीर अपने-अपने कन्धों पर उठा लिये । कोतवाल के पैर धूमकेतु ने पकड़े और बाहें रुद्रदत्त ने । और इस प्रकार वह बस्ती से बाहर निकलने के लिए पश्चिमी द्वार की ओर चल दिए । रुद्रदत्त ने अपनी धोती को जरा ढ़ीली कर जमीन पर छोड़ दिया ताकि वह जमीन पर झाड़ू की तरह उसके पद-चिन्हों को पोंछती जाए ।
भौं ! भौं ! भौं !!" द्वार के एक टूटे खण्डहर में से एक कुत्ता इस जोर से भौंका कि उस सुनसान रात में ईरानियों के हृदय की धड़कन तेज हो गई ।
"कमबख्त !" शापुर के मुंह से निकला । बहराम एकदम ठिठका और दूसरी दिशा में चलने लगा । "इस तरफ चलो ।" पीछे से रुद्रदत्त की आवाज सुनाई दी । "इधर कुत्ता है जो भौंक-भौंककर सारी गली को जगा देगा ।" "नहीं भाई, तुम इधर से ही चलो । यह कुत्ते की आवाज नहीं है । यह तो महाबाहु है जिसे अनेक जानवरों की बोलियां आती हैं । वह हमें इधर ही आने का संकेत कर रहा है ।"
प्रसन्नता की एक लहर ईरानियों के शरीर में दौड़ गई । नव उत्साह और निश्चिन्तता की सांस लेते हुए वे लोग घोड़ों की पीठ पर एक-एक बेसुध शरीर को लेकर चढ़ बैठे । मृत्यु के दानवी चंगुल से बच निकलने के लिए उन्होंने भगवान् का कोटिशः धन्यवाद किया और अपने घोड़ों को एड़ लगाई ।
“रातों रात हमने राजनपुर की अपेक्षा ऊधोनगर पहुंचना है, कल सारा दिन मंदिर में बिताना है और वहीं कोतवाल की लाश को ठिकाने लगाना है । इसके पश्चात् .... ।” उसने अपना वाक्य अधूरा ही छोड़कर अपने घायल हाथ से घोड़ों की रास को मजबूती से पकड़ा ।
अंधकारपूर्ण वातावरण में दुबला-पतला सा लाल चांद पूर्व के आकाश में इस प्रकार निकल आया जैसे किसी दुखिया की पलकों में कोई रक्त-रंजित आंसू निकलकर अटक गया हो, मन की दुःख भरी कहानियां लिए और अन्धकार की भयंकर आग छुपाए ।