आखिर जीत हमारी / भाग 5 / रामजीदास पुरी

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जादू और जादू

संन्यासियों की कुटिया के चारों तरफ आठ शस्‍त्रधारी ग्रामीण युवक पहरा दे रहे थे । आचार्य जिज्ञासानन्द अपनी पुस्तकें, औषधियाँ तथा मूल वस्तुओं को किसी अज्ञात स्थान में भेजने के लिए गाड़ी पर लदवा रहे थे ताकि निकट भविष्य में अत्याचारी हूणों के आक्रमण से वह अग्नि की भेंट न हो जाएं । भिक्षुणियाँ विस्मृत सी अपने ही ध्यान में खोई हुई बैठी थीं, उन्होंने भगवान् बुद्ध की स्वर्ण प्रतिमा अपने मध्य में एक पत्थर पर रखी हुई थी । दूर तालाब की सीढ़ियों पर महाबाहु, धूमकेतु तथा रुद्रदत्त एक दूसरे की ओर चिन्तातुर भाव से देखते हुए बैठे थे । एक सूखे पेड़ की शाखा पर लटकती सेम की बेल वातावरण में सुरभि भर रही थी । लाल नीले परों वाला पक्षी तालाब के ऊपर थोड़ा ऊंचे उड़कर फड़फड़ाया और पानी में गोता लगाकर एक मछली को चोंच में दबाकर आकाश में उड़ गया ।

महाबाहु चौंककर बोला, "अब आगे के लिए क्या सोचा है ?"

"मुझे अभी थोड़ी देर सोचने दो ।" रुद्रदत्त ने उत्तर दिया । इसके बाद वातावरण में शान्ति छा गई । धूमकेतु की दृष्टि अनायास ही गांव के एक ऊंचे मकान की मुंडेर से जा टकराई जिस पर गमलों में चार गेंदे के पौधे लगे हुए थे जो इस प्रकार दिखाई देते थे मानो चार मुर्गे बैठे हों । ढकी टहनियां उनके ऊपर तथा रक्तिम फूल उनके सिर की कलगियों से दिखाई देते थे । उनसे परे एक चील उड़ती हुई निकल गई ।

महाबाहु ने अनुभव किया जैसे रुद्रदत्त कुछ फैसला नहीं कर पा रहा है । चिन्ता के भाव उसके चेहरे पर स्पष्टतः उभर रहे थे । वह बोला, "मैंने कुछ निश्चय तो किया है परन्तु मुझे उस पर पूरा विश्वास नहीं है कि कहां तक सफल हो सकेगा । अगर तुम भी अपने विचार प्रकट करो कि भविष्य में इस समस्या को किस प्रकार हल करना है तो सम्भव है हम किसी और अच्छे परिणाम पर पहुंचें ।"

धूमकेतु कहने लगा, "आप से अधिक हम क्या सोचेंगे परन्तु जिन समस्याओं को हमें सुलझाना है वे कठिन तो अवश्य हैं इसमें कोई सन्देह नहीं । परन्तु ऐसी बात नहीं कि हम उनको सुलझा ही न सकें । हमने इस बात का प्रण किया है कि देश और जाति को इन अत्याचारी हूणों के पंजे से पूर्णतः मुक्त करना है । इस विषय में हम इस परिणाम पर पहुंचे थे कि आक्रमणकारियों की सैनिक शक्ति और युद्ध कला का अध्ययन किया जाए । इसके पश्चात् हमें यह पता लगाना है कि सीमा प्रान्त के कौन-कौन से राजा अपने वैर-विरोध को छोड़कर शत्रुओं से लोहा लेने के लिए तैयार हैं । देश में एक ऐसा कौन सा प्रान्त है जहाँ अहिंसा और धर्म का प्रचार कम है ताकि वहाँ की जनता को अपने कर्त्तव्य का भान कराकर युद्ध के लिए उकसाया जाए ? जहां तक हमारे काम का प्रथम भाग है, वह हम समाप्‍त कर चुके हैं । सीमा प्रान्त के राज्यों की तरफ ध्यान देते-देते हमारी दृष्टि मालवा के राजा यशोवर्मन तथा मगध के सम्राट् नरसिंह बालादित्य पर जाती है । बल्लभी राज्यों के सरदारों और चालुक्यराज की भलाई भी इसी में है कि हूणों के विरुद्ध होने वाले युद्ध में हमारा पूरा सहयोग दें क्योंकि वह सब लोग भी हूणों के शत्रु हैं और उस समय की प्रतीक्षा कर रहे हैं जबकि मातृभूमि के कंधों से पराधीनता का जुआ उतारकर फेंक दिया जाए । परन्तु इन लोगों के द्वेष और खानदानी झगड़े आपस में इन्हें एकत्र होकर युद्ध करने में बाधा उत्पन्न कर रहे हैं । वास्तव में यही एक कारण है कि जिससे यह न तो अपने उद्देश्य को ही पा सकेंगे अपितु एक-एक करके सब समाप्‍त हो जायेंगे । सिकन्दर का उदाहरण हमारे सामने है । यदि आम्भी आदि सीमा प्रान्त के सब राजे पोरस का साथ देते तो कोई आश्चर्य नहीं था कि सिकन्दर इस पुण्यभूमि पर पैर रखने का दुःसाहस ही न करता ।"

"ओह !" महाबाहु बोला, "मेरा विचार था कि तुम सिकन्दर का उदाहरण अवश्य दोगे ।"

"तुमने ठीक सोचा महाबाहु । मैं अपनी बात पूरी करते हुए कहता हूं कि दो काम हमारे सामने मुख्य हैं जिन्हें हमें पूरा करना है । प्रथम, भारत के सब राजाओं को एक सूत्र में बांध देना है और दूसरा, साधारण जनता में जागृति उत्पन्न कर उन्हें शस्‍त्रास्‍त्र सिखाकर युद्ध के उपयुक्त सैनिक बनाना है । अपनी इस योजना को पूर्ण करने के लिए हमें कौन से मार्ग अपनाने पड़ेंगे, यही विचारणीय प्रश्न है ।"

"हाँ, यही बात है ।" "यदि मालवा और मगध आपस में मिल जायें तो हमारी चिन्ता समाप्‍त हो जाती है परन्तु आपस के व्यक्तिगत झगड़े हमें कुछ करने नहीं देते ।"

"मालवा के महाराज को तो महाबाहु, आप समझा सकते हैं क्योंकि वह आपके अभिन्न मित्रों में से हैं । इस समय देश की अवस्था का प्रश्न है, अगर मित्रता नहीं तो भी देश की राजनीति और समय की पुकार के नाम पर उन पर दबाव डाला जा सकता है ।"

"वह तो करना ही पड़ेगा, इस बात की चिन्ता छोड़कर कि इसको वह मानते हैं अथवा नहीं ।" "वह अवश्य इसको स्वीकारेंगे महाबाहु ! इन पाँच वर्षों में परिस्थिति में बड़ा परिवर्तन हो गया है । जब जहाज डूबने लगता है, उस पर सवार शत्रु मित्र सब मिलकर उसे डूबने से बचाने का प्रयत्‍न करते हैं ।"

"आपने अपना कोई विचार प्रकट नहीं किया", धूमकेतु ने रुद्रदत्त की तरफ संकेत करते हुए कहा "क्या हमसे इस विचार-विनिमय में आप कोई ऐसा मार्ग नहीं पा सकते जो निकट भविष्य में लाभदायक सिद्ध हो सके ...."

रुद्रदत्त मुस्कुराया, "आपकी बातों में मेरा ध्यान कहीं और जा पहुंचा था । मैं सोच रहा था मालवा के महाराज पर तो महाबाहु दबाव डालेगा परन्तु मगधपति को कौन आसन्न संकट से जूझने के लिए प्रेरणा देगा ? परन्तु इससे पूर्व मैं यह जानना चाहता हूँ कि क्या आप में से कोई मगधपति को जानता है या उसे पहचान सकता है ?

"नहीं !!?" "जब वह युवराज थे", धूमकेतु ने कहा, "तो केवल एक बार मैंने उन्हें देखा था और वह भी दूर से । परन्तु यह बात वर्षों पुरानी हो गई है और अब तो वह महाराजा बन गए हैं । इसलिए उनके रूप में काफी अन्तर आ गया होगा ।"

"क्या सचमुच तुमने उन्हें देखा था ?" "क्या हम जान सकते हैं कि यह प्रश्न आपने किसलिए किया था ?" "नहीं, कोई विशेष बात नहीं ।" "परन्तु प्रश्न यह है कि मगधपति तक कैसे पहुंचा जा सकता है ?"

रुद्रदत्त बोला, "यदि महाराजा यशोवर्मन के पास भेजने का प्रश्न उठता तो महाबाहु दूत कार्य के लिए उपयुक्त थे परन्तु इस समय जब कि हममें से कोई भी उन्हें नहीं जानता, मैं स्वयमेव उनसे मिलने का प्रयत्‍न करूंगा ।"

महाबाहु और धूमकेतु ने आश्चर्य से अपने साथी के चेहरे की ओर देखा और उनकी आँखें आशा से चमक उठीं ।

"क्या आपको पूर्ण विश्वास है कि सफल हो सकेंगे ?"

"सफलता के विषय में तो अभी कुछ कहा नहीं जा सकता परन्तु मैं इतना अवश्य जानता हूँ कि मगध के सम्राट् से राजनीति का खेल खेलने के लिए एक ऐसा मोहरा मेरे पास अवश्य है ।"

"मोहरा" महाबाहु और धूमकेतु ने आश्चर्य से अपने साथी की ओर देखा ।

अचानक ही थोड़ी दूर पर तीस-चालीस घुड़सवारों की एक टोली बढ़ती हुई आती दिखाई दी । उनकी बातचीत वहीं समाप्‍त हो गई । राष्ट्रोत्थान का काम जिसे इन्होंने अपने हाथों में लिया था, उसमें पग-पग पर संकट विद्यमान थे, परायों की ओर से भी और अपनों से भी । यद्यपि आने वाले सैनिक हिन्दू थे परन्तु फिर भी ....।"

महाबाहु और उसके साथी एकदम खड़े हो गए, उनके हाथ अपने शस्‍त्रों पर थे । आस-पास पटरी पर खड़े युवक भी एकदम वहां आकर एकत्रित हो गए । वेदान्ती बाबा भी अपने स्थान पर खड़ा उन आने वालों की तरफ घूर-घूरकर देख रहा था ।

सबसे आगे का घुड़सवार पास आने पर घोड़े से कूदकर नीचे उतरा । अपने घोड़े की लगाम अपने साथी के हाथ में पकड़ा दी और पास पहुँचकर चिन्ता घबराहट के स्वर में बोला, "हम मगध सेना के अंगरक्षक सैनिक हैं । अपने सम्राट् नरसिंह बालादित्य के साथ शिकार खेलने आये थे । सम्राट् सिंह का पीछा करते हुए हमसे बिछुड़ गए जिन्हें ढूंढते हुए हम आप तक आ पहुंचे हैं । वन में हमने एक मरे हुए सिंह को देखा है जिसके शरीर पर महाराजा का बाण लगा हुआ है, परन्तु सम्राट् का कुछ पता नहीं । वहां रक्त से भीगी झाड़ियों में कुछ मनुष्यों के शव पड़े हैं जो विदेशी दिखाई देते हैं जिससे वहाँ किसी मारकाट का होना सिद्ध होता है । सम्राट् का घोड़ा भी हमें वन में भटकता हुआ मिल गया है । हमारे मन रह-रहकर किसी अज्ञात आशंका से कांप उठते हैं । कृपया उनको ढूँढने में आप हमारी सहायता कीजिए ।"

रुद्रदत्त ने सवार की बातें सुनकर सन्तोष की साँस ली । वह रहस्य और गम्भीरता की मूर्ति बनकर अपने स्थान से चलकर सवार के सम्मुख आकर खड़ा हो गया । उसका मन सवार की व्यथित वाणी से प्रभावित होने की अपेक्षा, सन्तोष भाव से धड़कने लगा ।

उसने पूछा, "सिंह का पीछा करने वाले क्या मगध सम्राट थे ?" "हाँ ! श्रीमान, कोई अनिष्ट की बात तो नहीं ....?" "नहीं! भाई, किसी प्रकार की चिन्ता मत करो ।" महाबाहु तथा धूमकेतु के चेहरे भी गम्भीर हो गए ।

सवार ने अपनी भीगी आंखों के कोने को पोंछा, "हे प्रभु ! तेरा शत शत धन्यवाद ।" उसने सन्तोष की गहरी साँस ली ।

"तुम्हारे सम्राट" रुद्रदत्त ने गम्भीर वाणी में कहना शुरू किया, "घायल सिंह का पीछा करते-करते इधर आ निकले थे, यहाँ पांच हूणों ने उन पर आक्रमण कर दिया । उनके साथ युद्ध करते हुए वे अत्यन्त घायल हो गए । इससे पूर्व कि हूण उनकी हत्या कर देते, हमने समय पर पहुंचकर उन्हें यमलोक पहुंचा दिया और सम्राट को बचा लिया ।"

"हम आप के अत्यन्त आभारी हैं श्रीमान !" "इसमें आभार प्रदर्शन की कोई बात नहीं । सैनिक, यदि हमें कुछ समय पूर्व इस बात का पता चल जाता तो सम्राट घायल भी नहीं होते । परन्तु अब चिन्ता की कोई बात नहीं । उनके घाव सी दिये गए हैं और चिकित्सा में प्रवीण सन्यासी महात्मा ने उन पर औषधि लगा दी है । अत्यधिक रक्त बहने के कारण उनमें काफी दुर्बलता आ गई है । परन्तु एक-दो दिन में वह इस योग्य हो जायेंगे कि रथ में बैठ कर राजधानी को वापस जा सकें ।"

"क्या हम उनके दर्शन कर सकते हैं ? हमें आज्ञा दीजिए ताकि हम उनको अधिक सुखी बनाने का कोई प्रयत्‍न करें ?"

रुद्रदत्त कुछ देर तक मौन खड़ा रहा, फिर गम्भीर वाणी में बोला, "आप सब लोग आराम करें । भोजनादि की व्यवस्था हम कर देते हैं । थोड़े समय के पश्चात् मैं आपको सम्राट के सन्मुख ले चलूँगा और यदि वह इस योग्य हुए कि बात कर सकें, तो सन्यासी बाबा से अनुमति लेकर मैं आपकी बातचीत भी करवा दूंगा । अधिक लोगों के उनके पास जाने और उनकी नींद में बाधा डालने से उन्हें कष्ट होगा जिसके लिए आपको भी कोई आपत्ति नहीं होगी ।"

"नहीं ! नहीं ! महाराज, हम आपकी आज्ञा के बिना उनके पास नहीं जायेंगे, परन्तु आप हमें इतना अवश्य बता दीजिए कि उनके जीवन को कोई खतरा तो नहीं है ?"

"नहीं, अब भय की कोई बात नहीं है ।"

"तो ...." तनिक विश्राम के विचार से मुड़ता हुआ सवार बोला, "मैं आप की आज्ञा से अपने साथियों सहित तालाब के किनारे बैठ कर आप की अनुमति की प्रतीक्षा करता हूँ ।"

"महाबाहु ! धूमकेतु !" रुद्रदत्त ने उन्हें उठने का संकेत किया ।

महाबाहु उठता हुआ बोला, "भगवान शायद हमारी कठिनाइयों को दूर करते प्रतीत होते हैं ।"

धूमकेतु ने कहा, "आप राष्ट्र की सेवा के लिए एक राजनैतिक खेल खेलने मगध जा रहे थे परन्तु प्रभु ने घर बैठे ही हमारी समस्या हल कर दी । वह मोहरा जिसका हमें ज्ञान नहीं, उसे बड़ी चतुराई से रखिए क्योंकि आपका प्रतिद्वन्द्वी शत्रु से 'बदला' और हमारा 'उपकार' दो प्रहारों के बीच में है, इसलिए हमारी विजय निश्चित है ।"

"अभी से ही ऐसी बातें किसलिए धूमकेतु ?" "परन्तु आप कौन सा पग उठाने जा रहे हैं ? क्या हम उससे अनभिज्ञ ही रहेंगे ?" "शीघ्रता न करो महाबाहु । आप लोगों के सन्मुख ही तो खेल खेला जायेगा ।" "अच्छा चलिए ।" धूमकेतु साथ-साथ चलता हुआ बोला, "हमारा उद्देश्य खेल जीतना है, मोहरें गिनना नहीं ।"

"आप लोग", रुद्रदत्त सामने खड़े पहरे वालों से बोला, "अपने अपने स्थान पर लौट जाइये ।" "महाराज, हम तो इसलिए आ गए थे", ग्रामीण युवक बोले, "कहीं घोड़ों पर आने वाले शत्रु पक्ष के न हों ।" "नहीं, वे मित्र हैं, राजकर्मचारी हैं । आप लोग उनके पास जाकर भोजनादि के विषय में पूछ सकते हैं ।"

एक मरियल कुत्ता तालाब पर चढ़कर घोड़ों की ओर मुँह करके भौंकने लगा । झोंपड़ियों पर चढ़ी नीले फूलों वाली लताएं हवा के झोंके से हिल उठीं । गेंदे के फूलों पर बैठी तितलियां उड़ने लगीं । द्वार के पास खड़े आचार्य जिज्ञासानन्द से रुद्रदत्त ने पूछा, "घायल की कैसी हालत है, महाराज ?"

"अच्छा है ! हिमालय की आशुफलप्रद औषधियों के रसों से शीघ्र ही स्वस्थ हो जायेंगे ।" "क्या उनसे बातचीत की जा सकती है ?" "मेरे विचार में उनसे बातचीत करने में कोई हानि नहीं । परन्तु इस बात का ध्यान अवश्य रखना पड़ेगा कि वह आवेश में न आ जायें अथवा दुःख उन्हें न घेर ले ।"

"हम आपके आदेश का ध्यान रखेंगे", रुद्रदत्त ने पीछे मुड़कर हाथ से संकेत किया जिससे घुड़सवारों का नायक शीघ्रता से पग उठाता उनके पास आ खड़ा हुआ ।

"केवल तुम लोगों को चिन्ता से मुक्त करने के लिए मैंने सन्यासी महाराज से घायल सम्राट् से मिलने की आज्ञा ले ली है । तुम एक दृष्टि देख सकते हो और दो शब्दों में उनका कुशलक्षेम जान सकते हो ।"

सवार ने अनुग्रह से हाथ जोड़ लिए ।

तभी पीछे से वेदान्ताचार्य ने आकर पूछा, "घायल सम्राट् कौन ?" उनके स्वर में विस्मय था ।

रुद्रदत्त मुस्कराया, "आचार्य जी, आपने इतनी दौड़-धूप कर जिस व्यक्ति के प्राणों की रक्षा की है वह मगध सम्राट् श्री नरसिंह बालादित्य हैं ।"

"ओह !" आश्चर्य से अभिभूत होकर सन्यासी बोला, "बचाने वाले तो भगवान् हैं या आप लोग । यदि आप लोग यहां न होते तो नरपिशाच न केवल सम्राट् की हत्या कर देते अपितु हमें भी तलवार के घाट उतार देते ।"

उन सब ने झोंपड़ी के भीतर प्रवेश किया जहाँ घायल सम्राट् लेटे हुए थे ।

सम्राट् का सम्मान करते हुए वेदान्ताचार्य ने पूछा, "अब आपका स्वास्थ्य कैसा है महाराज ?"

सम्राट् के दुर्बल मुख-मण्डल पर दुःख और गौरव की मिली-जुली चमक उत्पन्न हो गई और वह बोला, "तो आप लोगों को पता चल गया? शायद कर्मचारी आ गए हैं । मैं अपना रहस्य पहले ही बता देता, परन्तु मैंने सोचा था कि आप लोगों में मिथ्याडम्बर की भावना काम करने लगेगी जिससे मुझे सच्ची शान्ति नहीं मिल सकेगी ।"

"क्या मैं जान सकता हूं कि किस-किस ने मुझे अत्याचारी हूणों के पंजे से बचाया है ? मैं बुरी तरह घायल हो गया था, अत्यधिक रक्तस्राव के कारण मेरी शक्ति क्षीण हो रही थी और मेरी आंखों के आगे अंधकार छा रहा था । मैं केवल अपने आत्मबल के भरोसे ही आक्रमणकारियों के प्रहारों को रोक पा रहा था । मुझे केवल इतना ही स्मरण है कि किसी शत्रु की खड़ग से मेरे पेट की आँतें बाहर निकल आईं थीं और उसके पश्चात् जब मेरी आंखें खुलीं तो मुझे विश्वास नहीं हो रहा था कि मैं जीवित हूँ ।"

"हम तीनों ने ।" रुद्रदत्त ने कहा, "आपकी इस विपत्ति में काम आने का सौभाग्य प्राप्‍त किया है । परन्तु हम से भी अधिक इसका श्रेय पूज्य सन्यासी बाबा को है जिनकी दौड़ धूप ने आपके संकट से घिरे होने की हमें सूचना दी थी । और उसके बाद चिकित्सक महाराज जिनकी औषधियों ने आपको स्वस्थ किया ।"

सम्राट् ने कृतज्ञता से अपने हाथ जोड़े और दोनों सन्यासियों ने उन्हें आशीर्वाद दिया ।

"तुम लोग !" सम्राट् ने अपने कर्मचारी की ओर देखकर कहा, "अच्छा होता यदि मैं तुम लोगों से अलग न होता । कभी-कभी अत्यधिक आत्म-विश्वास भी संकट में डाल देता है ।"

"परमात्मा का धन्यवाद है जिसने इस विपत्ति से आपकी रक्षा की ।"

कर्मचारी के शब्दों में राजभक्ति की झलक थी । उसने आवेग से उमड़े आंसुओं को पोंछा ।

"मारने वाले से बचाने वाला अधिक बलवान् होता है", जिज्ञासानन्द बड़बड़ाया।

सम्राट् ने अपने सरदार से कहा, "दो घुड़सवार प्रान्त के अधिकारी के पास भेज दो ताकि वह रथ लेकर आ जाए । कल प्रातः या सायंकाल तक मुझे आशा है कि मैं यात्रा के योग्य हो जाऊंगा ।"

आज्ञा पाते ही कर्मचारी झोंपड़ी से बाहर चला गया और दोनों सन्यासी भी किसी कार्य से बाहर चले आए । रुद्रदत्त अपने दोनों साथियों के साथ उठता हुआ बोला, "आप आराम करें, हमारी बातचीत से आपको कष्ट होगा ।"

"नहीं-नहीं ! आप बैठिये, मेरा स्वास्थ्य अब पहले से ठीक है और अकेले पड़ा रहना तो बहुत ही अखरेगा । अब जब आपको इस बात का पता चल ही गया है कि मैं मगध सम्राट् हूं, मैं चाहता हूं आप मुझे कहें कि इस उपकार के लिए मैं आपको क्या पुरस्कार दूं?"

"पुरस्कार !" उपेक्षा से रुद्रदत्त मुस्कराया । उसके मन में सम्राट् के प्रति कोई बड़प्पन का भाव नहीं था । वह पूर्ववत् अपनी गम्भीर वाणी से बोला, "हमें किसी पुरस्कार की आवश्यकता नहीं, हमने सम्राट् समझकर आपकी रक्षा नहीं की थी अपितु एक हिन्दू के नाते हमने आपकी जान बचाई थी । आपके प्राणों की रक्षा ही हमारा पुरस्कार है महाराज !"

सम्राट् ने अपनी पैनी दृष्टि रुद्रदत्त के चेहरे पर जमा दी । दो व्यक्तित्व एक दूसरे को समझ लेने के लिए उतावले हो उठे । उनकी दृष्टि आपस में टकराई, मानो कर्त्तव्य और भावना के दो स्फुल्लिंग आपस में टकराकर प्रकाशित हो उठे हों ।

"आप लोग क्या काम करते हैं ?" "जब देश पर अत्याचारी हूणों की सेनायें छा रही हों, चहुं ओर विनाश की आंधी चल रही हो, देश की सेवा के सिवाय और कौन सा कम रह जाता है ? हम देश में जागृति का मंत्र फूँकने में प्रयत्‍नशील हैं और ऐसा करने के लिए लोगों को प्रेरणा देते हैं ।"

सम्राट् की दृष्टि में रुद्रदत्त का व्यक्तित्व ऊँचा उठने लगा । एक बार उन्होंने खिड़की से बाहर देखा जहाँ थोड़ी दूर पर एक वृक्ष के ठूंठ पर दो गिद्ध अपने पंखों को फैलाये बैठे थे । अभी-अभी उन्होंने कोई शव खाया था । बाहर से दृष्टि हटाकर सम्राट् बोला, "देशसेवा सचमुच महान् कार्य है, देश को आपत्ति से बचाना और आक्रमणकारियों का दमन करना प्रत्येक सच्चे हिन्दू का कर्त्तव्य है । जिस प्रकार अत्याचारी हूणों से आपने मेरी रक्षा की है उसी प्रकार सैंकड़ों अमूल्य प्राणों की भी अपने रक्षा की होगी । यदि आपने केवल मेरे ही प्राण बचाये होते तब भी महान् कार्य था । मैं ऐसी बात किसी स्वार्थ के वशीभूत होकर नहीं कह रहा अपितु कर्त्तव्य की भावना से प्रेरित होकर कह रहा हूँ क्योंकि विदेशियों के प्रति जितना रोष मेरी छाती में धधक रहा है उतना सम्भवतः किसी हिन्दू राजा के हृदय में नहीं होगा । फिर भी मैं आपकी देशभक्ति की प्रशंसा करता हूँ । हूण सेनाओं की जिस बाढ़ को मैं आज तक न रोक सका, उसको आप तीन व्यक्ति किस प्रकार रोक सकोगे ?"

रुद्रदत्त की गर्दन आत्माभिमान से ऊपर उठ गई । उसकी आंखें तेज से चमक उठीं । वह बोला, "तीन देशभक्त और एक सम्राट् मिलकर बहुत कुछ कर सकते हैं और यदि तीन सम्राट् और तीन देशभक्त मिल जायें तो सब कुछ किया जा सकता है ।"

"तीन सम्राट् ?"

रुद्रदत्त ने सम्राट् के मन में जिज्ञासा उत्पन्न कर दी । वह दो क्षण के लिए चुप हो गया । सारे वातावरण में अजीब सा मौन छा गया ।

"दो घुड़सवार भेजे जा चुके हैं महाराज !" बाहर से एक सैनिक ने आकर सूचना दी ।

"बहुत अच्छा !" सम्राट् बोला, "अब तुम लोग आराम करो । गांव के मुखिया को कहकर अपने और साथियों के ठहरने का प्रबन्ध कर लो । भोजन और घोड़ों के चारे की सब सामग्री नकद मूल्य देकर मोल लेना । किसी किसान व मजदूर को सताने का प्रयत्‍न मत करना । बस, जाओ और आराम करो । जब जरूरत होगी, तुम्हें बुलवा लेंगे ।"

कर्मचारी नमस्कार करके चला गया । एक बार फिर वातावरण में मौन छा गया । थोड़ी देर बाद सम्राट् मौन भंग करता हुआ बोला, "हमारी बातचीत का दौर जब अपनी अन्तिम सीमा पर पहुँच रहा था तभी मूर्ख कर्मचारी ने आकर उसमें बाधा डाल दी । परन्तु एक बार हम दुबारा उसको वहीं से आरम्भ कर सकते हैं । आप कह रहे थे तीन देशभक्त और तीन सम्राट् अगर मिल जायें तो सब कुछ किया जा सकता है । परन्तु वह सब योजनाएं जिन्हें आसानी से सोचा जा सकता है, उनको क्रियात्मक रूप देने के लिए अनेक बाधाओं का सामना करना पड़ता है जिससे कई बार काम असम्भव दिखाई देने लगता है ।"

"अगर आप बुरा न मानें तो मैं यही कहूंगा कि बड़ों का बड़प्पन इसी में है कि वह ऐसी ही बाधाओं को दूर कर असम्भव को सम्भव कर दिखायें । धर्म, ज्ञान, नीति, युद्ध कला आदि प्रत्येक विषय में आज तक जितनी भी महान् बिभूतियाँ हुई हैं, उन्होंने असम्भव की धधकती भट्ठी में हाथ डालकर जीव्न और विजय के अज्ञात और अपरिचित अंगारों को सम्भव के ठण्डे क्षेत्रों में रखा है ताकि मानवता और धर्म उनसे उष्णता और प्रकाश प्राप्‍त कर सकें ।"

सम्राट् ने बोलने वाले को सिर से पैर तक देखा और बोले, "आप लोगों ने अपना परिचय केवल तीन ऐसे यात्रियों के रूप में कराया है जो देश सेवा में ही रत रहते हैं, परन्तु आप लोगों की बातें सुनकर उसकी सत्यता में सन्देह होता है । देश का दर्द रखने वाला साधारण यात्री जब सम्राटों और साम्राज्यों की जोड़-तोड़ और उनकी कठिनाइयों को हल करने की बातें करने लगता है तो उसके व्यक्तित्व को समझना कठिन हो जाता है ।"

धूमकेतु और महाबाहु ने देखा कि सम्राट् की आँखों में रुद्रदत्त का व्यक्तित्व महत्वपूर्ण होता जा रहा है और वह भी स्वयम् अपने आपको रहस्यमय बनाता चला जा रहा है । सम्राट् के शंकाकुल प्रश्न के उत्तर में रुद्रदत्त मुस्कराया और बोला, "सम्राट ! हमने अपने परिचय में कहीं भी छल नहीं किया । जिस प्रकार इस यात्रा में सहसा एक घटना ने हमें आपकी सेवा का शुभ अवसर प्रदान किया और आपके सामने इतने स्पष्ट रूप से बात करने का मौका दिया, उसी प्रकार हमें और भी एक-दो राजाओं की सेवा का सौभाग्य प्राप्‍त हुआ है, इसलिए उन तक हमारी थोड़ी बहुत पहुँच है ।"

आचार्य जिज्ञासानन्द एक नौकर के साथ भीतर आया जिसके पास रुई के फोहे, केले का कोमल पत्ता और सफेद पत्थर की एक छोटी कटोरी थी जिसमें हरे सुनहरे रंग का स्वरस पड़ा हुआ था ।

"मैं आपके पेट का घाव देखना चाहता हूँ ।" "देख लीजिए ।"

आचार्य जिज्ञासानन्द सम्राट् के घाव पर झुका । उसने अपनी अंगुलियों से, जिन पर परीक्षण के कारण कई प्रकार के धब्बे लगे हुए थे, सम्राट् के पेट पर बंधी पट्टी को खोला ।

"अब टीस तो नहीं ?" "नहीं, दर्द तो नहीं है परन्तु यह स्थान सुन्न सा लगता है ।"

"यह सारी रात इसी अवस्था में ही रहेगा । दिन निकलने तक घाव पूर्णतया भर जायेगा और यह अवस्था दूर हो जायेगी ।" उसने पत्टी पर रूई से बूंद-बूंद टपका कर सारा रस घाव पर डाल दिया । सम्राट् ने हल्की सी फरेरी ली और उसके रोंगटे खड़े हो गए ।

"क्यों ?" "इसके घाव से स्पर्श होते ही एक अजीब आनन्द मिश्रित सनसनाहट सी होती है ।" "आनन्द सोम का, सन्नाटा गोमूत्र के शोरे का और ....।"

आचार्य पट्टी बांधता गया और अपनी धुन में औषधियों के गुणों का बखान करता गया जिसकी ओर किसी का ध्यान नहीं था ।

दूसरा नौकर जिज्ञासानन्द की आज्ञानुसार एक कटोरे में कोई पीने की वस्तु लेकर आ पहुंचा ।

"ले आए ?" "हाँ, श्रीमान ।" "आपके शरीर से अत्यधिक रक्तस्राव हो चुका है जिसको पूरा करने और हृदय की गर्मी बनाये रखने के लिए आपको ऐसे आठ प्याले पीने पड़ेंगे । मैंने इसमें एक ऐसी औषधि मिला दी है जो सारी रात आप को मूत्र त्याग की इच्छा नहीं होने देगी और आप बिना हिले-डुले लेटे रहेंगे । हिलने-जुलने का प्रयत्‍न न करें अन्यथा घाव खुलने का डर रहेगा ।"

गर्दन एक ओर मोड़कर सम्राट् ने कटोरे का रस पी लिया । "कुछ अजीब से स्वाद और सुगन्धि वाली औषधि है ।"

"हाँ ! हिमालय की कन्दराओं में जिस प्रकार अनेक चमत्कारी योगियों का निवास है, उसी प्रकार उसकी तराईयों में असंख्य गुणों और भिन्न-भिन्न स्वादों वाली औषधियाँ उत्पन्न होती हैं । पहाड़ों की चोटियों पर उगी बूटियों और उसकी जड़ों में जमी धातुओं के मेल से, विद्या अनुभव और समाधि से प्रकाशित हुई मनुष्यों की बुद्धि कई ऐसे रसायनों का आविष्कार कर सकती है जिसकी सहायता से मृत्यु पर भी विजय पाई जा सके और प्रकृति के अनेक भेदों को उलट-पलट किया जा सके ।"

सम्राट् बोला "मेरा राजवैद्य भद्रशील भी यद्यपि अपनी कला में बड़ा योग्य है, परन्तु मेरा विचार है वह आप से मिलकर अभी कई बातें और सीख सकता है ।"

"भद्रशील... उसने, मेरा विचार है, तक्षशिला से शिक्षा ग्रहण की है । इस नाम का एक विद्यार्थी वहाँ आयुर्वेद श्रेणी में मुझसे पढ़ा करता था ।"

"ओह ! तो क्या आप तक्षशिला के आयुर्वेदाचार्य जिज्ञासानन्द हैं ?"

"हां ! वही हूं और वह मेरे दूसरे साथी वेदान्ताचार्य हैं । यह सोच कर सन्यास लिया था कि किसी स्थान पर कुटिया बनाकर ईश्वर आराधना में अन्तिम समय गुजारेंगे परन्तु यहां आकर भी पुरानी अभिरुचि उसी प्रकार रही । वह वेदान्त, तर्क और मनोविज्ञान पर पुस्तकें लिखते रहते हैं और मैं आयुर्वेद पर परीक्षण करता रहता हूँ, परन्तु आज पता चला इन दोनों विद्याओं से शस्‍त्रविद्या अधिक उत्तम है । यदि वह यात्री यहां न आए होते तो हूण लुटेरों की खड़ग किसी का सिर न छोड़ती । इन्हीं देशभक्त यात्रियों ने राष्ट्रवाद की एक अद्वितीय योजना बनाई है जिसके लिए हम ग्राम-ग्राम घूमेंगे, लोगों को आक्रमणकारियों के विरुद्ध सजग करेंगे । हमें समझ नहीं आता आप जैसे बड़े-बड़े राजा क्यों इस बाढ़ से टक्कर नहीं लेते । यदि आप लोगों ने इधर ध्यान न दिया तो समझ लीजिए हमारा धर्म, संस्कृति, सम्मान, गौरव कुछ भी सुरक्षित नहीं रहेगा । यदि एक राजा उनका सामना करने में असमर्थ हो तो दो करें, दो न हों तो चार । इस प्रकार सम्पूर्ण भारत के महाराजा विदेशी शत्रुओं से टक्कर लेने के लिए एक झंडे के नीचे संगठित होकर इस आपत्ति से देश की रक्षा करें । एक राजा को मिटते देख कर दूसरे का यह समझ लेना कि वह सुरक्षित रहेगा, उसकी भारी भूल है, क्योंकि इसके पश्चात् उसकी बारी अवश्य आएगी ।"

"आपके आने से पहले", सम्राट् बोला, "यही बातचीत हो रही थी ।"

"मैं चलता हूँ, आप इस बातचीत का क्रम जारी रखें । बल्कि मैं तो कहूंगा कि बातों का समय गया । अब तो आचरण की आवश्यकता है । अब तो आप कार्यशील हों अन्यथा आप को दुःख होगा कि आज तक क्यों व्यर्थ बातें बनाते रहे ।"

आयुर्वेदाचार्य अपने दोनों नौकरों के साथ चला गया । जब वह जा रहा था तो रुद्रदत्त ने उठकर उसे कोई बात कही जिस पर उसने कहा, "बहुत अच्छा ।"

औषधि की खुराक ने सम्राट् के हृदय को पूर्ण शक्ति प्रदान की । खिड़की में से आ रही ढ़लते सूरज की किरण लम्बी होकर सम्राट् के कान के पास रेंगने लगी, मानो आकाश से कोई संदेश लाई हो ।

सम्राट् ने मौन भंग किया, "ऐसा कुछ हो सकता है । परन्तु राजाओं के दरबारों में कुछ शक्तियां ऐसी होती हैं जिनकी राय राजाओं की अपनी इच्छा के विरुद्ध हुआ करती हैं ।"

रुद्रदत्त बोला, "श्रीमान ! धुरा यदि घूमने पर तुला हुआ हो तो पहिये के पंख आप साथ-साथ चक्कर काटने लगते हैं ।"

सम्राट् ने पहेलियों में बातें करना आरम्भ कर दिया जैसे वह किसी की समझ की परीक्षा करना चाहता हो । परन्तु रुद्रदत्त, जो बातचीत के प्रत्येक ढंग में निपुण प्रतीत होता था, उसे संतुष्ट करने पर तुला हुआ था । सम्राट् बोला, "धुरा घुमाने के लिए भी घोड़ों की तेज दौड़ने वाली जोड़ी और उनकी पीठों पर पटखने वाला कोड़ा चाहिये ।"

रुद्रदत्त मुस्कराया । "हँसते हो ?" "हँसता आपकी बात पर नहीं बल्कि उस घटना पर हँसता हूँ जिसने आंधी की तरह दौड़ने वाले घोड़े और तेज चोट पहुंचाने वाला कोड़ा, दोनों उपस्थित कर दिये हैं । तीनों घोड़े हम आपके सामने उपस्थित हैं जिनसे आगे कोई चीज नहीं जा सकती और कोड़ा ....।"

बाहर से किसी के आने की आहट सुनाई दी और आचार्य जिज्ञासानन्द एक खाल उतरे मानव शरीर को, जिससे लहू टपक रहा था, साथ लेकर भीतर पहुँचा ।

"ओह ! यह कौन ?" मारे आश्चर्य के सम्राट् की आंखें फटी की फटी रह् गईं । उसने एकदम उठना चाहा, परन्तु फिर आचार्य की आज्ञा को याद करके विवश हो लेटा रहा । "यह कौन अभागा है और उसकी यह अवस्था किसने बना दी है ?"

"यह वह कोड़ा है सम्राट् !"

खाल उतरा हुआ व्यक्ति दुर्बलता और वेदना भरे स्वर में बोला - "सम्राट् ! ...सम्राट् ! आप इस अवस्था में ?"

सम्राट् ने झट आवाज पहचान ली । "अरे शशि ! चांद जैसे सुन्दर युवक, तुम्हारी यह अवस्था किसने बना डाली ? ओह ! हे ईश्वर !" शोक का मारा सम्राट् मूर्छित हो गया । जिज्ञासानन्द थोड़ा-सा बिगड़ता हुआ बोला, "मैंने आदेश दिया था कि इन्हें कोई शोक पहुंचाने वाली बात न कही जाए !"

"शोक सोच समझकर ही पहुँचाया गया है, आचार्य महोदय ! वह औषधि यदि आप लाए हैं तो इन्हें सुंघा दीजिए ।"

"सुंघा देता हूँ । मैंने तो केवल इनके स्वास्थ्य रक्षा के लिए कहा था, नहीं तो अपने कामों को आप मुझसे अधिक अच्छा समझते हैं ।"

सम्राट् को चेतना आने पर रुद्रदत्त ने पूछा, "कोड़ा तेज है, श्रीमान् ?"

"....हाँ !" सम्राट् की आंखें क्रोध और बदले की भावनाओं से जलने लगीं । वह पूंछ कुचले नाग के सदृश फुंकारता और बल खाता हुआ बोला, "जिसने मेरे प्यारे मित्र की यह अवस्था बनाई है, ईश्वर की सौगन्ध ! मैं उसके शरीर बोटियां उड़वा दूँगा । मेरे राज्य की प्रत्येक बस्ती में उसकी एक-एक बोटी और एक-एक हड्डी पहुँचेगी, और दंड का आदेश सुनाने के पश्चात् उसे चौक अथवा चौपाल में फिंकवा दिया जाएगा, जहाँ आवारा कुत्ते उसे चचोड़ेंगे । और ...."

रुद्रदत्त ने सफलता की निश्चिन्तता का एक गहरा सांस लिया । फिर वह खाल उतरे नवयुवक से बोला "अपने दुःख की कथा तुम अपने आप सुना दो शशि विक्रम !"

नौकर ने धरती पर एक गद्दा बिछा दिया और उस पर धुनी हुई रूई का एक बहुत बड़ा गोला दोहरा-तेहरा करके रख दिया । शशि ने अपने बदन से चिपकी लहू से लिपटी चादर फैलाई और बैठ गया ।

एक क्षण के लिए शशि की आंखें किसी लज्जाभाव से नीचे को झुक गईं और वह कुछ बोलने से हिचकिचाता प्रतीत हुआ, जैसे वह अपना कोई भेद छुपाना चाहता हो । परन्तु फिर जी कड़ा करके बोला, "मूर्खता मैंने ही की थी जिसका मुझे दंड भी मिल गया । यह प्रेम किसी को अपमान के अतिरिक्त कुछ नहीं देता । इसकी उलझन में फँसकर मैं इस अवस्था को पहुँचा हूँ । मेरे मामा के बेटे का विवाह था और मैं आपसे आज्ञा लेकर उसमें सम्मिलित होने के लिए गया था । परन्तु सब ऊँच-नीच जानता हुआ प्रेम का रोग अपनी जान को लगा बैठा । गंधार का एक क्षत्री सरदार, जो मेरे नाना का दूर का नातेदार भी है, इन आक्रमणकारियों से जान बचाकर अपने एक बूढ़े जमींदार मित्र के पास मेरे ननिहाल से थोड़ी ही दूर पर ठहरा हुआ था । परिचय बढ़ाने और सम्बन्ध सुदृढ़ करने के लिए वह अपनी धर्मपत्‍नी और बेटी समेत विवाह के उत्सव में उपस्थित था । परन्तु उसकी बेटी, मैं उसकी सुन्दरता की क्या प्रशंसा करूँ, उसे देखकर मन यही कहने लगता था कि संसार और उसकी प्रत्येक वस्तु को छोड़कर उसी का हो जाऊँ, उसी को देखता रहूँ । उसको प्राप्‍त करने में जो रुकावटें हैं, उनको दूर करने के लिए सिर हथेली पर रखकर आपदाओं और संकटों कें कूद जाऊं । "फिर जो हो सो हो' कहकर मौत के मुंह में छलांग लगा दूँ । परन्तु दुर्भाग्य से मेरा एक प्रतिद्वन्द्वी भी था और वह था मालवा राज्य का छोटा सेनापति । वह मुझसे कहीं अधिक बलवान् था । बहुत संभव था कि प्रतिद्वन्द्वता के जोश में आकर हम में खड़ग चल जाता । परन्तु वह बोला - शशि विक्रम, तू बड़ा सुन्दर और प्यारा युवक है । जब मैं तुम्हें मार डालने की इच्छा करता हूं तो मेरा हृदय दया तथा करुणा से भर जाता है ।

आपस में मार-काट करने की अपेक्षा मेरे विचार में यह ठीक रहेगा कि हम उस लड़की से ही पूछ लें कि हम दोनों में से किसे चाहती है । यदि वह मुझे न चाहती होगी तो मैं तेरे लिए उसके प्रेम को त्याग दूंगा । और यदि उसने मुझे पसन्द किया तो तुम मेरे मार्ग के कांटे बनने का विचार छोड़ देना । मैने इसे मान लिया । परन्तु उस रात जब हमने एक एकांत फुलवाड़ी में उससे मिलने का प्रबन्ध किया था, कहीं से हूण लुटेरे आ घुसे और उन्होंने कुछ घरों को लूटा तथा कुछ स्‍त्रियों का अपहरण करके ले गए जिनमें वह लड़की भी थी ।"

"अब क्या विचार है ? - मेरे प्रतिद्वन्द्वी ने पूछा । मैंने कहा, मैं उसे छुड़ाने जाऊँगा चाहे इस प्रयत्‍न में मेरी जान क्यों न चली जाए । यही तो प्रेम की परीक्षा है ।"

उसने एक ठण्डी आह भरी और बोला, "ओह ! मेरी सेना यहाँ होती, एक टुकड़ी ही होती ।" फिर भी वह तैयार हो गया और हम दोनों घोड़ों पर, विवाह-शादी को भुला हूण लुटेरों का पीछा करने लगे ।

सम्राट् बोला, "तुमने मूर्खता की शशि ! तुम मुझे सूचना भेज देते, मैं सारा प्रबन्ध करा देता । खैर, आगे कहो ।"

"बस, आगे क्या कहूँ, आगे की व्यथा सुनाने की शक्ति नहीं है । वह लड़की तो क्या हाथ आती, हम दोनों स्वयं हूण सिपाहियों के हाथों बंदी हो गए, जिन्होंने तुरन्त हमें अपने गुप्‍तचर चौकी में भेज दिया । वहाँ हम पहचाने गए और राजनैतिक भेद उगलवाने के लिए हम पर अत्याचार किया जाने लगा । आखिर दोनों को इस अवस्था में पहुंचा दिया गया, जिस में आपके सामने बैठा हूँ । यदि राष्ट्रवादी योद्धा अपने प्राणों को संकट में डालकर मुझे वहाँ से निकाल न लाते तो आप के दर्शन प्राप्‍त न होते । दहकती अंगीठियों के बीच भूखा प्यासा उल्टा लटकता हुआ प्राण दे देता ।"

"आह ! ओह !!" सम्राट् ने क्रोध और दुःख के दो ठण्डे सांस भरे । उसने प्रार्थना की दृष्टि से आयुर्वेदाचार्य की ओर देखते हुए कहा, "कृपा करके शशि के बदन पर कुछ ऐसी औषधि लगा दीजिए जिससे इसकी टीसें बन्द हो जायें । मुझसे इसका दुःख देखा नहीं जाता ।"

"कहो तो" आचार्य जिज्ञासानन्द बोला, "इसकी वैसी ही खाल, वैसा ही सुन्दर बदन बना दूँ जैसा पहले था ।"

यद्यपि सम्राट् को आदेश था कि वह हिले-जुले नहीं किन्तु विस्मय, प्रसन्न्ता और धन्यवाद के तिगुने उत्साह से वह अपने स्थान पर उठ बैठा । "क्या सचमुच महाराज ? शशि का चेहरा आपकी चिकित्सा से पहले जैसा सुन्दर और कांतिवान् हो सकता है ?"

"ज्योतिष के हिसाब से वर्ष की विशेष घड़ियों में मन्त्र पढ़कर तोड़ी हुई हिमालय की अनोखी बूटियाँ जादू का प्रभाव रखती हैं । कायाकल्प का एक नवीन ढ़ंग, जिसकी यद्यपि मैंने इससे पहले किसी रोगी पर परीक्षा नहीं की, उसे इस पर सफलता से प्रयोग करूंगा । चिकित्सा कठिन अवश्य है पर हानिकारक नहीं । मैं नवजात बच्चे की भाँति इसके शरीर पर नई, कोमल और सुन्दर त्वचा उत्पन्न कर दूँगा ।"

शशि ने आचार्य के पाँव पकड़ लिए ।

"तो महाराज !" सम्राट् के स्वर में नम्रता अपनी अंतिम सीमा को पहुंच गई थी । "ऐसा कर दीजिए !"

"ठहरिए !" रुद्रदत्त बोला ! "मुझे किसी के व्यक्तिगत दुःख-सुख की परवाह नहीं है । अब जब कि रथ में आँधी की भाँति दौड़ने वाले घोड़े जोते जा चुके हैं और तेज कोड़ा पटका जा चुका है । जब तक धुरा संचालित नहीं होता, मैं किसी को कुछ करने की अनुमति नहीं दूंगा ।" "आह, मुझ पर और मेरे मित्र पर उपकार करने वाले ! हमारे प्राण बचाने वाले ! धुरा घूम पड़ा है । अत्याचारी हूणों के अपवित्र पाँव अब एक घड़ी के लिए भी हिन्दुस्तान की पुण्यभूमि पर देखे नहीं जा सकते । नौकर को भेजकर मेरे सरदारों को बुला दो ।"

जब सरदार आ गए तो उसने उन्हें आज्ञा दी, "अभी जाकर घोड़ों पर सवार हो जाओ और उन्हें जितना तेज हो सके, दौड़ते हुए प्रान्त के अधिकारी के पास पहुंचो । उसे मेरी ओर से आज्ञा दो कि जितनी सेना उसके पास उपस्थित है, लेकर पड़ाव किए बिना धावा मारता हुआ यहाँ पहुंचे । और तुम यहाँ से सीधे राजधानी पहुंचो और सेनापति को आदेश दो कि स्थानीय रक्षा के लिए कुछ सैनिक टुकड़ियाँ छोड़कर शेष सारी सेना युद्ध के शस्‍त्रों और सामग्री से सुसज्जित कर मालवा और स्यालकोट के बीच उत्तर-पश्चिम की ओर बढ़ता चला जाए । हम वहीं उससे मिलेंगे ।" सम्राट् ने स्थान और दिशा के विषय में रुद्रदत्त का परामर्श लिया ।

"ठीक है । यहाँ पर मालवा और चालुकिया सेनाएं हमें मिल सकती हैं ।"

सरदार ने हाथ जोड़कर प्रार्थना की, "श्रीमान जी, यदि मौखिक आदेश के सथान पर लिखी हुई आज्ञा मिल जाती तो ...."

"तो तुम इसे लिख लो - हम नीचे अपने हस्ताक्षर कर देंगे । उधर पूज्य आचार्य जी से लेखनी और पत्र ले लो ।"

सरदार आज्ञा पत्र तैयार करने चले गए । आचार्य जिज्ञासानन्द शशि विक्रम की चिकित्सा करने के लिए उसे बाहर ले गया और तीनों राष्ट्रभक्त युवक कुछ नया परामर्श करने के लिए बाहर निकल आए । ध्यान उचटने के कारण उनके पग तालाब की ओर उठने लगे जहां किसी अन्य स्थान की अपेक्षा अधिक सन्नाटा और मौन का वातावरण था ।

"सम्राट् कहता था ।" यदि शशि को दिखाने से पहले पूछते तो कहता मैं कुछ स्वस्थ हो जाऊं तो राजधानी जाकर सेना तैयार करता हूं । तुम उधर मालवा और चालूकिया सेनाओं को तैयार कराओ । जब और जहां तुम्हारा सन्देश पहुंचेगा, मैं सेना लेकर आ जाऊंगा । इस पर यदि जोर देते कि इस प्रकार तो हमारे संघर्ष में ढ़ील पड़ जायेगी और परिस्थिति अधिक बिगड़ जाएगी, तो उसने यही उत्तर देना था कि नवयुवको ! एक साधारण विवाह शादी का प्रबन्ध करना होता है तो इसके लिए भी सप्‍ताहों पहले तैयारियाँ करनी पड़ती हैं । ऐसे घोर संग्राम के लिए जो दो जातियों के भाग्य का निर्णय कर दे, तैयारी के लिए आखिर समय चाहिए ।

उन्होंने सम्राट् के चार रक्षक सैनिकों को घोड़े दौड़ाए जाते देखा । आयुर्वेदाचार्य किसी काम के लिए नौकर से केले के आठ-दस हरे-भरे पेड़ कटवाता दिखाई दिया परन्तु उन्होंने उसकी ओर ध्यान न दिया । वे तालाब की धुली हुई साफ-सुथरी पैड़ी पर बैठ गए । रुद्रदत्त बोला, "महाभारत के संग्राम में जब महारथी अर्जुन जी छोड़कर बैठ गया था, तो श्रीकृष्ण ने बहुतेरा उपदेश दिया परन्तु जानते हो कि उसकी खड़ग कब मौत की बिजलियां बरसाने लगी थी ?"

"जब धोखेबाज कौरवों के हाथों अभिमन्यु मारा गया था ।" "हाँ ! उस समय बदले के आवेश में अंधे होकर उसने प्रण किया था कि यदि सांझ तक जयद्रथ को नहीं मारूंगा तो सूरज छिपने के पश्चात् स्वयं जीते-जी चिता में जल मरूंगा ।" "ऐसे ही शशि की दुर्घटना देखकर सम्राट् का क्रोध भड़क उठा ।"

"इसी प्रकार यहाँ आदर्श और कर्त्तव्य अपने स्थान पर ठीक हैं । परन्तु वीरों की वीरता उस समय दहाड़ती है जब मन पर सम्मुख चोट पहुंचती है । सिपाही उस समय भभक उठता है जब साथ-साथ लड़ते हुए उसके बाप, भाई, मित्र के अंग शत्रुओं के प्रहारों से कट-कटकर गिरने लगते हैं । मांएं, बहिनें और धर्मपत्‍नियाँ उस समय रण-चण्डियाँ बनतीं हैं जब उनके बेटों, भाइयों और पतियों की लोथें घावों से निढाल होकर लुढकती और मरुस्थलों में सड़ती दिखाई देती हैं ।"

महाबाहु बातचीत को बदलते हुए बोला - "अब तीन काम हमारे सामने हैं । एक, जाकर मालवा के महाराज और चालूकिया सरदारों को तैयार करना । दूसरे, साधारण हिन्दू जनता को विदेशी आक्रमणकारियों के विरुद्ध संगठित करके हथियारबद्ध कर देना ।"

"और तीसरे ?" "तीसरा काम तो कोई काम नहीं । परन्तु काम का नाम अवश्य है और वह है सम्राट् के साथ उस समय तक रहकर उसके विचारों और प्रण की रक्षा करना, जब तक वह अपनी सेनाओं को लेकर मालवियों और चालूकियों के साथ युद्धक्षेत्र में नहीं कूद पड़ता ।"

"क्या आपका विचार है कि सम्राट् अपने प्रण से फिर जाएगा ?" "ऐसा विचार करने का मेरे पास कोई कारण तो नहीं । राजाओं और सम्राटों के स्वभाव के बारे में केवल एक सावधानी है जिसको सामने रखना मेरे विचार से अत्यावश्यक है ।"

"आपका विचार ठीक प्रतीत होता है" रुद्रदत्त बोला । "तो फिर हममें से कौन क्या करे?" धूमकेतु ने पूछा ।

रुद्रदत्त ने कहा - "थोड़ा सोचने दीजिए श्रीमान् ! प्रश्न किसी की निश्चय शक्ति और तत्परता का नहीं, प्रत्युत योजनाओं को ऐसा कार्यरूप देने का है जिससे आगे चलकर कोई भूल न हो और हमारी विजय में सन्देह न रहे ।"

सब चुप हो गए और एक बार फिर हर एक विचारों की अथाह गहराइयों में खो गया । पीछे से आर्युवेदाचार्य के नौकरों के लकड़ी के हथकोल्हू से केले के तनों को पेलने और रस निकालने का शब्द सुनाई देता रहा । सरसराता और तलतल करता थोड़ा परे छप-छप का एक और शब्द उत्पन्न हो रहा था । सम्भवतः दूसरा नौकर किसी कुण्ड को धो रहा था । आखिर रुद्रदत्त बोला, "मेरे विचार में यह ठीक रहेगा कि आचार्य जिज्ञासानन्द और आधी छाती कटी भिक्षुणियों को लेकर मैं जनता में घूमूँ और श्री महाबाहु जाकर मालवा राज्य और चालूकिया सरदारों को तैयार कर लें ।"

"और श्री धूमकेतु ?" "यह दोनों ईरानियों को लेकर संगठित हुए युवकों को शस्‍त्र विद्या और युद्ध-कला सिखलाने और ग्रामों तथा नगरों को प्राचीर युक्त बनवाने के लिए देश भर में घूमेंगे ।"

महाबाहु बोला "आपकी योजना के ठीक होने में सन्देह नहीं । परन्तु संभवतः आपने यह नहीं सोचा कि मालवा और चालूकिया सेनाओं का सेनापतित्व कौन करेगा । मालवा राज का बड़ा सेनापति बीमार पड़ा है । इधर खंडहरों में खाल उतरे, टूटी जूती की भांति निकम्मा बना पड़ा है । चिकित्सा से यदि वह ठीक भी हो गया तो भी इस पर कुछ ऐसा भरोसा नहीं किया जा सकता । जिस वीरता को स्‍त्री की सुन्दरता छू जाये वह पराक्रमहीन हो जाती है ।"

"सोचते समय यह कठिनाई भी मेरे ध्यान में थी महाबाहु ! और मैंने इसका यह हल सोचा है कि अब तीनों राजाओं की सेनाएं एक स्थान पर मिलें । उस समय उनका सेनापतित्व करने के लिए तुम उपस्थित होगे ही । इसमें सन्देह नहीं कि तीनों राजाओं की सेनाएं एक आदेश के नीचे लड़ती हुई शत्रु को हरा सकेंगी । परन्तु मुझे जनता की शक्ति पर अधिक भरोसा है । देश सेवा के नाम पर संगठित लाखों सशस्‍त्र हिन्दू श्रमिक, किसान, व्यापारी, विद्यार्थी न केवल सरकारी सेनाओं की किसी दुर्बलता अथवा भूल को दूर कर सकेंगे, बल्कि स्वयं अपनी शक्ति के भरोसे आक्रमणकारियों से भिड़कर उनका नाम तक मिटा डालेंगे । युद्ध की तैयारियों के लिए चाहे कितनी ही जल्दी क्यों न की जाए, परन्तु इसके लिए पन्द्रह-बीस दिन अवश्य चाहिएं । इस कालावधि में हम यदि अधिक नहीं तो साठ-सत्तर नगरों में अवश्य घूम लेंगे । जितने समय में युद्ध की आग भड़के, उतने में वेदान्ताचार्य और एक दो भिक्षुणियाँ, जो थोड़ा-बहुत बोलना जानती हैं, मेरी संगत में रहते हुए प्रचार का काम संभाल लेंगी । जबकि इसी समय में बहराम और शापूर श्री धूमकेतु से जनता को सैनिक बनाने का ढ़ंग सीख लेंगे । इस प्रकार युद्ध आरम्भ होते समय हम तीनों के पास इसके प्रबन्ध और देख-भाल के लिए अवकाश हो जाएगा और काम चलता रहेगा ।"

"चलो ठीक है । इन मृत हूण सैनिकों को तो ठिकाने लगा दिया गया है परन्तु उस हूण गुप्‍तचर का क्या बने ?"

"यदि जीवित रहता तो सम्भवतः किसी अवसर पर काम आ जाता । परन्तु हम इसे साथ-साथ खींचते नहीं फिर सकते ।"

"तो क्या इसकी गर्दन उड़ा दी जाये ?" "और क्या !" "हाँ ! क्योंकि यदि वह हमारे बढ़ते हुए कार्य के कारण किसी प्रकार भाग गया तो भारी क्षति पहुंचायेगा ।"

"अपने लिए" रुद्रदत्त हूण गुप्‍तचर की बात समाप्‍त करता हुआ बोला, "एक अच्छा सा घोड़ा मंगवा लो । तुम्हें श्री महाबाहु ! अभी मालवा को चल देना चाहिए ।"

धूमकेतु ने महाबाहु को परामर्श दिया, "अच्छा हो कि कुछ घुड़सवारों को सहायता के लिए साथ ले जाओ ।"

"न बाबा ! मैं तो अकेला ही ठीक हूं । यदि पहुंचने की शीघ्रता न होती, तो मैं घोड़ा भी न लेता । मुझे तो किसी दूत का भेष बदलकर शत्रुओं के बीच पैदल घूमकर ही आनन्द आता है । तब मैं वहाँ के सारे भेदों का पता लगाकर, राजनीति की छोटी सी चाल चलकर उनके सारे प्रयत्‍नों को तलपट करके रख देता हूँ ।"

"परन्तु आवश्यकता पड़ने पर खड़ग के हाथ भी तो खूब दिखाने आते हैं ।"

"वह तो प्रत्येक हिन्दू को आने चाहिएं । व्याकरण, वेदान्त, व्यापार, विद्यायें और कलाएं चाहे उसे आती हों परन्तु यदि उसे अवसर पड़ने पर शस्‍त्र चलाना और जान तोड़कर लड़ना नहीं आता, तो उसे कुछ भी नहीं आता ।"

सम्राट् को तीसरी पट्टी लगाकर और उसे तीसरी खुराक पिलाकर आयुर्वेदाचार्य कुण्ड के किनारे पहुंचा जहाँ उसके नौकर कई घड़े, कटोरियाँ, मटके और मर्तवान लिए खड़े थे । आचार्य जिज्ञासानन्द ने एक हाथ में बांस की दो आर-पार छेद की हुई नालियाँ पकड़ी हुईं थीं जिनके सिरों पर एक ओर मोम जैसी कोई वस्तु लगी हुई थी, दूसरे हाथ में मालाबारी ताड़ के पत्तों पर लिखी हुई किसी पुस्तक के दो पन्ने पकड़े हुए थे ।

"औषधियों से भरे इस कुण्ड में" वह शशि से कह रहा था, "तुम को पूरी पाँच घड़ियां डूबे रहना पड़ेगा । यह नालियाँ मैं तुम्हारे नथनों में लगा दूंगा जिनसे चिकित्सा का कार्य दो घड़ी में पूर्ण हो जाये । कुम्भक की हुई प्राणवायु के जोर से रोमों में से निकलता हुआ पसीना औषधियों की शक्ति को एकदम बढ़ा देगा । औषधियाँ अपनी पहली अवस्था में तुम्हारे शरीर को सुन्न करेंगीं । फिर जलन देंगी । परन्तु ऐसी अधिक नहीं कि सहन न की जा सके । इसके पश्चात् जब शरीर की त्वचा पहले की भांति ठीक हो जाएगी तो प्रत्येक प्रकार का कष्ट जाता रहेगा । बताओ, क्या तुम इस चिकित्सा के लिए तैयार हो ?"

"निःसन्देह श्रीमान् !"

संगमरमर के उस खाली किए, मंजे-पोंछे कुण्ड में, जो न जाने सन्यासियों ने गौओं को पानी पिलाने के लिए बनवाया था, न जाने इसमें जड़ी-बूटियों के कुछ प्रयोग किए जाते थे, शशि अपने शरीर से चादर उतारकर चित्त लेट गया । आचार्य ने झुककर उसके कानों में रूई के फोहे ठूंसे और नाक में बंसी की दोनों नलियाँ फंसा दीं, जिससे उसके नथुने फूल गए । कुण्ड के ऊपर एक लकड़ी रखकर उसने उस पर दोनों नलियाँ जमा दीं ।

तीनों राष्ट्रवादी युवक क्षण-भर के लिए अपना काम भूल गए और चिकित्सा के इस चमत्कार को देखने लगे । आचार्य जिज्ञासानन्द ने केले के रस से भरे हुए दो बड़े-बड़े घड़ों में, एक मर्तबान में से निकाल कर थोड़ी सी कोई भस्म घोली जिससे उसकी रंगत सुनहरी हो गई । फिर उसने अपने हाथ से दोनों घड़े बड़ी सावधानी के साथ कुण्ड में उड़ेल दिए । उसके तल में डूबा हुआ शशि ऐसा लगने लगा कि जैसे कोई सुन्दरी रेशम की रंगीन पतली चादर ओढ़े सो रही हो ।

किसी प्रकार तेजाब के मर्तबान में पहले उसने आठ मोती और सुखाये मृत साँप का एक टुकड़ा डाला । फिर हथेली पर मात्रा आंक कर थोड़ा सा लौह चूर्ण डाल दिया । जब इनको डाले थोड़ा समय हो गया तो उसमें छटाँक भर पारा डाल कर एकदम उसका मुंह जोर से बंद कर दिया । बाएं हाथ से उसे दबाया । दाएं से उसने एक और मर्तबान खोला और नौकर से केले के रस के तीसरे घड़े में थोड़ी मात्रा इस मर्तबान की भस्म की डलवाई और उसे आज्ञा दी कि लकड़ी की सहायता से उसे रस में भली प्रकार घोल दे । नौकर जब उसे घोल चुका तो आचार्य ने अपने हाथ का भांप उगलता मर्तबान उस घड़े में उड़ेल दिया और वह घड़ा कुण्ड में खाली कर दिया ।

नई औषधि के पड़ते ही सारी औषधि लाल होकर तुरन्त खौल उठी और उसमें नई झाग उठ-उठ कर कुण्ड के मुंह से टकराने लगी । बंसी की नलियों के इधर उधर हिलने से ऐसा प्रतीत होता था जैसे नीचे पड़ा हुआ शशि औषधि की जलन से तिलमिला रहा है ।

"जादू करते हो आचार्य महोदय !" रुद्रदत्त आयुर्वेद के इस चमत्कार को देखकर बोला ।

"हाँ, परन्तु संसार में तलवार का जादू ही सबसे बड़ा है । मैं एक की चिकित्सा करूँ, दस की करूँ, सौ की करूँ । परन्तु आक्रमणकारी एक जाति की जाति को घायल करते जायें तो मेरे जैसे जड़ी-बूटियों वाले वैद्यों की टोलियां हार जाती हैं । उस समय तो आप जैसे योद्धाओं की टोलियां ही अपना जादू रचकर अत्याचार की इस बढ़ी आती बाढ़ को 'स्तब्ध' कर सकती हैं ।"

"धन्यवाद ! हम राष्ट्रवादी युवक अपने आप को कुछ ऐसा योद्धा तो नहीं समझते किन्तु जब लोग किसी को योद्धा और रणधीर कहकर पुकारें तो उसे कुछ बन ही जाना चाहिए ।"

टापों का शब्द सुनाई दिया जिसकी ओर उन्होंने गर्दन मोड़कर देखा । गांव में ठहरे हुए सम्राट् के सिपाहियों में से एक आज्ञानुसार घोड़ा लेकर आ गया था ।

"लम्बा, दम्भ, और आंधी जैसी तेजी, परन्तु थोड़ा हठीला है, इसलिए लगाम को ....।"

"चिन्ता न करो" महाबाहु कूदकर घोड़े पर सवार हो गया । "अच्छा !" उसने दायें हाथ में लगाम पकड़कर बायें हाथ को ऊपर उठाते हुए कहा, "ईश्वर हम सब को सफलता दे । भारत कार्य, ईश्वरी कार्य !"

उसने घोड़े को एड़ लगा दी ।