आखिर जीत हमारी / भाग 7 / रामजीदास पुरी
अन्धेरे में
गहरी अंधेरी रात्रि की कालिमा सर्वत्र व्याप रही थी । सारा वातावरण शान्त था । रह-रह कर झींगुरों की आवाजें उस सन्नाटे को भेदती हुई प्रकृति की भयानकता को बढ़ा रही थीं । शिशिर की रात में कोई भी प्राणी दिखाई नहीं देता था । पशु पक्षी और कीड़े मकोड़े तक अपने-अपने बिलों में सिकुड़े पड़े थे ।
उस वन में एक हल्की सी सरसराहट हुई । शायद कोई सिंह, बाघ अथवा भालू अपने शिकार की खोज में अपनी खोह से निकला हो !
परन्तु सरसराहट के पास आने पर पता चला कि वह कोई हिंसक पशु नहीं था अपितु दो आदमी थे जो न मालूम इस घनी अंधेरी रात्रि में शिकार की टोह में निकले थे अथवा मार्ग भूले यात्री थे या किसी सेना के गुप्तचर अथवा हूण सिपाही । इतना अवश्य था कि वह किसी आवश्यक कार्य को समाप्त कर लौटते दिखाई देते थे क्योंकि इस ठण्डी रात्रि में बिना कारण आने का साहस कोई नहीं कर सकता था ।
झाड़ियों के कांटों से बचते और सरकण्डों को इधर-उधर हटाते बढ़ते हुए वे चले आ रहे थे । रात्रि की ठण्ड या थकान अथवा भयानक अंधकार की विभीषिका का नाम तक उन होठों पर सुनाई नहीं देता था । उनकी चाल में कहीं भी सुस्ती अथवा आलस्य नहीं था । पूरी स्फूर्ति और उत्साह से बड़ी सावधानी से वे बढ़ते चले आ रहे थे ।
आगे चलने वाला युवक सहसा ठिठक कर खड़ा हो गया ।
"क्यों, क्या बात है?", पीछे-पीछे आते हुए दूसरे युवक ने रुकते हुए पूछा । "यहाँ किसी शव के सड़ने की दुर्गन्ध आ रही है । सम्भवतः पास ही किसी सिंह की गुफा है ।"
यहाँ पर वन अधिक घना नहीं था, थोड़ी दूर पर खेत दिखाई देते थे ।
"हमें थोड़ा सा हटकर चलना चाहिए क्योंकि दुर्गन्ध बढ़ती चली जा रही है ।" दोनों ने वह मार्ग छोड़ दिया और दूसरी दिशा में बढ़ने लगे ।
कंटीली झाड़ियां पार करते ही एक खुला-सा मैदान आ गया जिसके किनारे पर किसी नगर की अंधकार में डूबी अट्टालिकाओं पर कहीं-कहीं टिमटिमाते दीपकों की रोशनी दिखाई देती थी ।
परन्तु जिस दुर्गन्ध से बचने के लिए उन्होंने मार्ग बदला था, और भी तीव्र हो गई थी और इस प्रकार प्रतीत होता था जैसे वे किसी युद्ध-क्षेत्र के पास आ निकले हों, जहाँ हजारों शव पड़े सड़ रहे हैं ।
बातचीत से दोनों भारतीय युवक दिखाई देते थे । उनमें से एक बोला, "यदि समय होता तो अवश्य दुर्गन्ध का पता लगाते परन्तु अब तो आगे ही काफी देर हो चुकी है ।"
"आओ, हमें भी तो उधर से ही जाना है । रास्ते में एक नजर उधर भी डालते जायें ।"
रात की उस नीरवता में आदमियों की पदचाप सुनकर दो गीदड़ अपने स्थान से भागकर निकल गए और दूर जाकर रोने से लगे । थोड़ी दूर पर कोई प्राणी किसी शव को फाड़कर खा रहा था ।
"सिंह है शायद ।" "नहीं, यह तो लकड़भग्गा दिखाई देता है क्योंकि इतनी सुगमता से मृतक शरीर की हड्डियों को चबाने वाला और कोई प्राणी नहीं हो सकता । यदि सिंह होता तो गीदड़ भला यहां कैसे दिखाई देते ?"
उन्होंने अपनी नाक पर कपड़ा रख लिया और शवों के पास से गुजरने लगे । सितारों के प्रकाश में उन्होंने देखा कि एक लम्बा-चौड़ा गड्ढ़ा खुदा हुआ था जिसमें कुछ मरे हुए मनुष्यों के शव पड़े थे । कुछ पर थोड़ी-थोड़ी मिट्टी पड़ी थी और कुछ को जंगली जानवरों ने खींचकर बाहर निकाल लिया था जो अधखाये इधर-उधर पड़े सड़ रहे थे ।
शवों को इस प्रकार फेंकने का कोई कारण तो अवश्य होगा । इसको सोचते हुए दोनों यात्री क्षणभर खड़े रहे और लकड़भग्गे को देखते रहे जो शव को खा रहा था ।
शीघ्रता के कारण वह किसी निश्चय पर नहीं पहुँच सके । ठीक उस समय जब वह आगे बढ़ने लगे, किसी के आने की आहट से दोनों चौंक पड़े और पास ही एक झाड़ी में दुबक गए ।
दूर किसी गाड़ी के आने का शब्द सुनाई दिया, जिससे बचने के लिए वे दोनों और भी घनी झाड़ियों के पीछे हो गए ।
जिस ओर से गाड़ी आ रही थी उसी तरफ से एक विदेशी सैनिक का गीत अंधकार को भेदता हुआ उस सारे प्रान्त में गूंज उठा, जिसका आशय था - "यदि मेरे पास दो ढ़ालें होतीं, तो एक से मैं अपने शत्रु के प्रहारों को रोकता और दूसरी के नीचे ओ ! मेरी प्रियतमे ! मैं तुम्हें छुपाए साथ-साथ लिए फिरता !"
"...प्रत्येक आक्रमण के पश्चात् जब मेरा शरीर थकावट से चूर और घावों से छलनी हो जाता और सब सिपाही बेखबर सो रहे होते, और किसी शत्रु के आक्रमण का भय नहीं रहता, उस समय ओ मेरी प्राण-प्यारी ! मैं अपनी ढ़ाल के नीचे से तुम्हें निकालता और अपने आलिंगन में बांधकर सो जाता और तब तक हम स्वप्नों के देश में विचरते जब तक कि प्रकाश की किरणें आकर हमारी दुनियाँ को उजाड़ न देतीं और कूच का रणसिंघा न बज उठता ।"
दोनों यात्री पास आती इस गाड़ी को ध्यान से घूरने लगे, जिसमें दो खच्चर जुते हुए थे । पास आती गीत की ध्वनि हल्की पड़ती जा रही थी ।
"आनन्द मनाने के लिए तो है हूण और उनका सरदार हप्ताली और शव ढोने के लिए हैं हम किदारे ।" गाड़ी के भीतर बैठा हुआ कोई बोला । "हूं", गाड़ी हाँकने वाले ने कहा । "बस ! बस !! रोको । और आगे कहाँ ले जाओगे? रात के समय इन्हें गड्ढ़े में फेंकने की क्या आवश्यकता, यहीं मैदान में ही डाल दो । दिन निकलने से पहले इन्हें वन के खूंखार जानवर खा जायेंगे ।" "हमें जैसी आज्ञा मिली है उसका पालन तो करना ही चाहिए । नीचे उतरो, यदि तुम्हें इस काम से घृणा है तो आकर खच्चरों की लगाम थामो, मैं इन्हें उठा-उठाकर गड्ढ़े में डाल देता हूँ ।" "अवश्य ! यह काम तुम्हीं करो, इतने में यदि तुम बुरा न मानो तो वे शव .... अपनी ....पूर्ति ....।" "मूर्ख, शैतान .....!"
"हा ! हा !! हा !!!" वह अट्टहास कर उठा, "मैं तो केवल तुम से मजाक कर रहा था ।"
"इतना सुन्दर गीत सुनकर तुम इतनी विद्रूप हँसी हँसोगे, ऐसी मुझे आशा न थी । अच्छा, और इस मृत लड़की के पैरों को पकड़कर नीचे गढ़े में फेंको । अभागी लड़की कितने खूंखार आततायियों की वासना का शिकार बनी ।"
झाड़ी में छिपे दोनों युवकों की आँखों में खून उतर आया, परन्तु उन्होंने प्रतिशोध की ज्वाला में जलती आग को शान्त किया ।
उसने गाड़ी में पड़े शवों को घसीट-घसीट कर उस गड्ढ़े में फेंकना शुरू किया जो आधे से अधिक भरा हुआ था, जिसके शब्द सुनकर एक बार फिर सारा वन गीदड़ों के रोदन से गूंज उठा ।
"यह किसको रो रहे हैं ?" "आक्रमणकारियों की जान को ।" गाड़ी में बैठे सैनिक ने फिर मजाक किया ।
"आक्रमणकारियों की जान को कैसे ? इनकी कृपा से ही तो इन्हें भरपेट भोजन घर बैठे मिल गया । यह तो उन भारतीयों की जान को रोते होंगे जो अहिंसा के पुजारी न किसी को मारते ही हैं और अगर कोई मर जाय तो उसकी लाश को जलाकर भस्म कर देते हैं ।"
"बहुत ठीक ।" इतने में उसने दो शवों को खींचकर गड्ढ़े में डाल दिया ।
"मैं !" गाड़ी हाँकने वाले ने कुछ व्याकुलता सी अनुभव की । उसने एक क्षण सोचकर उत्तर दिया, "न मैं किदार हूं और न मैं हूण ।"
"तो?" आश्चर्य से चौंकते हुए उसने कहा, "मैं ईरानी हूं ।" उसकी आँखें गर्व से चमक उठीं ।
"ईरानी ! अरे, तुम्हें हूण सेना में किसने भरती कर लिया ?"
"किसी ने भी नहीं । अब मैं युद्धबन्दी हूं । जब मैं पकड़ा गया था, बहुत ही सुन्दर था और बहुत अच्छा गाता था । एक हूण सरदार ने मुझे अपनी सेवा में रख लिया । अब वह सरदार मारा जा चुका है । दूसरे सरदार ने मुझे नहीं निकाला और अपनी ही सेवा में लगा लिया । वे सब मुझसे बहुत प्रसन्न हैं ।"
"इससे क्या होता है ? आखिर तुम हो तो युद्धबन्दी ही । तुम्हें एक स्वतन्त्र किदार के साथ सम्मानपूर्वक बोलना चाहिए था, तुम मेरे बराबर कैसे बोल रहे थे ?"
"हुजूर, मैं भला आपके बराबर कब बोल रहा था ?" "बराबर की कहते हो ! तुम तो उल्टा मुझे डांट रहे थे ।" "मुझे माफ किया जाय, मैं तो जनाब का सेवक हूँ हुजूर ।" "नहीं-नहीं ! मैं तुझे जान से मारूँगा ।" "हुजूर, यदि मैंने सचमुच अपराध किया है तो मुझे सरदार के पास ले जाकर उपस्थित कर दीजिए । वे जो दण्ड मुझे देंगे, मैं भुगतने को तैयार हूँ, चाहे मुझे मृत्युदंड क्यों न दें ।"
"मुझे हूण अधिकारियों को कष्ट देने की क्या आवश्यकता है, जब अपने अपमान और तिरस्कार का दंड देने के लिए मेरे पास खड़ग है और मेरी भुजाओं में बल है ? यदि किसी ने पूछा तो कह दूंगा कि युद्धबन्दी था, अवसर मिलते ही भाग गया ।" अपने प्राणों की रक्षा के लिए ईरानी बंदी दौड़कर गाड़ी के पीछे जाकर खड़ा हो गया । बड़ी फुर्ती से उसने बांस निकालकर किदार सैनिक का वार रोका ।
सिपाही अपने वार के रुकते ही क्रोध में पागल हो उठा । उसने बड़ी ही फुर्ती से उस पर तीन-चार प्रहार किये जिससे बांस के टुकड़े-टुकड़े हो गए और वह दूर गड्ढ़े में जा गिरे । अवसर से लाभ उठाने के विचार से ईरानी एकदम कूदा और किदार से गुत्थमगुत्था हो गया । दोनों एकदम जमीन पर गिर पड़े और आपस में एक-दूसरे को मारने के लिए लड़ने लगे । प्राण रक्षा के इस संघर्ष में वह स्थान और दुर्गन्धि दोनों ही भूल गए ।
झाड़ी के पीछे छिपे दोनों यात्री जिन्हें आगे ही बड़ी देर हो चुकी थी, बाहर निकले परन्तु फिर एकदम पीछे हट गए । क्योंकि इतने ही समय में ईरानी बन्दी किदार सिपाही की रक्त से रंगी तलवार लिए कुछ बुड़बुड़ाता हुआ बाहर निकल आया था । इस समय उसे न विजय का उल्लास था, न प्राण बचाने की प्रसन्नता और न किए गए अपराध का भय ! वह इतना घबरा गया था कि उसको कुछ भी समझ में नहीं आता था कि अब वह क्या करे ?
वह फिर बुड़बुड़ाया, "कहीं भाग जाना चाहिए । परन्तु नहीं, पकड़ा जाऊंगा ! हूण हत्यारा समझकर और हिन्दू हूण समझकर मुझे मार डालेंगे ।"
झाड़ी में छिपे एक व्यक्ति ने कहा, "इसे अवश्य अपने साथ ले चलना चाहिए, काम आएगा ।"
"बात तो ठीक है, परन्तु हमें अभी तो अपने ही काम से फुर्सत नहीं है । लौटते समय यदि मिलता तो साथ ले चलते ।"
ईरानी सुध-बुध खोकर अपने ही स्थान पर जड़ समान खड़ा बड़बड़ा रहा था । ठण्ड, दुर्गन्ध कोई भी उसे विचलित नहीं कर पा रही थी, मानो वह पत्थर बन चुका था ।
"हूण सरदारों के पास ही चलूं । उन्हें सारी घटना सचमुच बता दूं । मृत्यु तो दोनों ही तरफ है, शायद .....।" वह भारी कदमों से लड़खड़ाता हुआ चल पड़ा और गाड़ी पर चढ़ गया । उसने बड़े भारी मन से गाड़ी को बस्ती की ओर मोड़ा ।
आकाश में अभी तक अंधेरा छाया हुआ था, रात अभी काफी लगती थी । गाड़ी की घंटियों का स्वर जब समाप्त हो गया तो दोनों यात्री अपने स्थान से उठकर उन स्त्रियों का शव देखने के लिए गड्ढ़े की ओर बढ़े जिन्हें वे अभी फेंककर गये थे ।
वह पाँच स्त्रियों और लड़कों के शव थे । तारों के प्रकाश में जो थोड़ा बहुत दिखाई देता उसमें यात्रियों ने देखा उनके शरीर पर कई प्रकार के घावों के चिन्ह थे जिनसे अब भी हल्का-हल्का रक्त रिस रहा था ।
एक यात्री बोला, "देश आज नरक बन गया है ।"
"जिस देश में एकता न हो, वहां इस प्रकार हो जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं । इतिहास यही बताता है कि जब-जब किसी देश या जाति के लोग अकर्मण्य और स्वार्थी हो जाते हैं, उनका इसी प्रकार नाश होता है । हम अत्याचारियों और आक्रमणकारियों के नाश में विश्वास रखते हैं, यही हमारा मूलमंत्र है और यही हमारे जीवन का उद्देश्य ।"
बातचीत से दोनों रुद्रदत्त के राष्ट्रवादी युवक दिखाई देते थे जो न मालूम किस काम से जा रहे थे ।
किदार सिपाही के शरीर से अब भी गर्म-गर्म रक्त निकल रहा था । उन्होंने शीघ्रता से अपने मार्ग पर पैर बढ़ाये और फिर अन्धकार में विलीन हो गए ।
स्यालकोट का विशाल नगर जो आजकल हूण सम्राट् मेहरगुल की राजधानी बना हुआ था, अंधकार में डूबा हुआ विकराल पर्वत के समान उत्तर-पश्चिम की ओर फैला हुआ था । सारा नगर शान्त और नीरव था । जिस ओर वह दोनों युवक जा रहे थे, हूणों की छावनी उनकी विपरीत दिशा में स्थित थी परन्तु शाही किला उसी दिशा में था । अब वह थोड़ा-थोड़ा दिखाई देने लगा था । यद्यपि दोनों यात्री मुख्य मार्ग से हटकर जा रहे थे, परन्तु उनकी चाल में किसी प्रकार का डर अथवा घबराहट नहीं थी । इसलिए यह नहीं कहा जा सकता था कि वे अपने लक्ष्य से अपरिचित हैं । चलते-चलते वे एक ऐसे स्थान पर पहुंचे जहाँ कई धूनियां जल रही थीं । उनसे जलती आग की लपटों से स्थान रह-रह कर चमक उठता था ।
दोनों यात्री रुके । एक ने कहा, "क्यों न थोड़ा हाथ सेंक लें, ठंड बहुत पड़ रही है । किदार सिपाही की तलवार छूट गई थी, कहीं हम लोगों से अपनी कमन्द न छूट जाय ।"
"नहीं, ऐसी बात तो सम्भव नहीं है । आओ, थोड़ा हाथ ही सेंक लें । इस बुझती चिता की आग से सेकें, कहीं तेज आग से हमारे चेहरे न पहचाने जायें ।"
उसने नीचे झुककर राख को लकड़ी से एक ओर हटाया जिससे धधकते कोयले चमकने लगे, उनके साथ-साथ हड्डियों के टुकड़े भी चमकने लगे । आग के सामीप्य से उनको थोड़ी गर्मी अनुभव हुई । उस शमशान में उन्होंने चारों ओर दृष्टि दौड़ाई और अपने कानों को सतर्क कर लिया ।
"बस, इतना ही पर्याप्त है" कहकर पहला यात्री उठा । उसके पीछे दूसरा भी उठ खड़ा हुआ । दोनों बड़ी सावधानी से कदम बढ़ाते हुए चल पड़े जिधर किले के पिछली दीवार के ऊपर छोटी बुर्जी थी ।
अभी वे बुर्जी से थोड़ी दूर पर ही थे कि पाँच भीमकाय हूण पहरेदारों की टोली उधर आती दिखाई दी । दोनों पास ही मिट्टी की एक ढ़ेरी की ओट में छिप गए और उन्होंने अपनी सांस को रोक लिया ।
जब वे बातें करते हुए उनके पास से निकल गए तो पहला यात्री धीमे से बोला, "इनको गड्ढ़े का चक्कर लगाकर आने में कम से कम चौथाई घड़ी अवश्य लगेगी ....।"
"ठीक है, इतना समय काफी है, अब हमें देर नहीं करनी चाहिए ।" दोनों पेट के बल रेंगते हुए दीवार की ओर बढ़ने लगे । किले की दीवार के नीचे जाकर उन्होंने खड़े होकर चारों ओर दृष्टि दौड़ाई, फिर अपनी-अपनी कमर से कमन्द खोली और पूरी शक्ति से ऊपर फेंकी । जब वह ऊपर जाकर फंस गई तो उन्होंने पूरी शक्ति से खींचकर उसकी परीक्षा की ।
उन्होंने भगवान् का स्मरण किया और दोनों क्षणभर में बन्दर की फुर्ती से दीवार के ऊपर जा पहुंचे । इस समय पूर्व से हल्की-हल्की पौ फट रही थी ।
किले में लोग जाग पड़े थे परन्तु सर्दी के कारण अपने-अपने बिस्तरों में सिकुड़े पड़े थे । इसलिए किले में अब भी शान्ति ही दिखाई देती थी । शायद इसलिए सब आलस्य में पड़े थे कि हूण सम्राट् मेहरगुल आजकल राजधानी में नहीं था । कल सायंकाल से वह अपने सैनिकों के साथ शिकार खेलने निकल गया था और अभी तक वापस नहीं आया था । आज दोपहर तक उसके आने की सम्भावना थी, इसलिए किले के कर्मचारियों ने आज की रात खूब आनन्द में बिताई थी, अभी तक शराब की खुमारी उनके चेहरे पर व्याप्त थी ।
कुछ थोड़े से दास और दासियाँ रसोई की आग जलाने और सफाई करने में लगे थे । दो जमादार हड्डियों के ढ़ेर से टोकरियाँ भर रहे थे । उन्होंने रात को मारे गये चकोरों, बत्तखों के परों को भी इकट्ठा किया, टोकरी के ऊपर खींची हुई बारहसिंगों और बछड़ों की खालों को डाला और बाहर फेंकने के लिए चले गए । चारों तरफ टूटे प्याले और मदिरा के बर्तन बिखरे पड़े थे ।
दिन निकलते ही किले की चहल-पहल बढ़ गई और चारों तरफ सब लोग अपने निश्चित काम में लग गए । रात के थके पहरेदारों के स्थान पर नए पहरेदार आ गए । कसाइयों की गाड़ियाँ बकरे-बछड़े, दुम्बे और पहाड़ी पक्षियों को पकाने के लिए दे आईं । भट्ठियों और चूल्हों के धूयें आकाश में उठने लगे । मसाला पीसने वाले सिलबट्टों की आवाज गूँजने लगी ।
एक हूण सरदार ने सोए पड़े एक युवक पर चिमटा खींचकर मारा और चिल्लाया, "बुद्धू के बच्चे, तेरी नींद नहीं खुलती जब तक सूरज आसमान पर नहीं चढ़ आता ? तिस पर चींटी के समान रेंगता हुआ चलता है ! मृतक की सन्तान ! आज तुझे कौड़े लगवाऊंगा, तभी ठीक होगा ।" फिर वह पास खड़े एक दास से बोला, "जब पानी ही समय पर नहीं पहुँचेगा तो कोई क्या पकायेगा और क्या गूँधेगा ?"
भंगियों और अन्य नौकरों ने दीवानखाने और दरबार को झाड़-पोंछकर सजा दिया था । रसोईघर से पकवानों की सुगन्धि चारों तरफ फैल रही थी । कुछ हूण सरदार जो शिकार पर नहीं गए थे, सम्राट् के आगमन पर होने वाले स्वागत का प्रबन्ध करने लगे, जिनमें छावनी के अधिकारी भी थे ।
शीघ्र ही दरबार से राजद्वार तक घुड़सवार सैनिकों की मार्ग के दोनों ओर एक पंक्ति खड़ी हो गई जिनके हाथों में चमकते भाले थे जिन पर रेशमी झंडियाँ फहरा रहीं थीं । शाही गुप्तचर ने अपने दो कर्मचारियों के कान में कुछ कहा जिससे वे दोनों छोटे बुर्ज की ओर चल पड़े ।
दोपहर आई और चली गई । तीसरा पहर भी धीरे-धीरे ढ़लने लगा और प्रतीक्षा की घड़ियाँ बढ़ने लगीं । परन्तु सैनिक अथवा अधिकारी अपने स्थान से न हिले, भूख और प्यास की चिन्ता किए बिना वह पूरे अनुशासन में अपने स्थान पर खड़े रहे । तभी सैनिकों के अग्रिम दस्ते ने आकर सूचना दी कि सम्राट् आधी घड़ी में राजधानी में प्रविष्ट हो जायेंगे ।
वह दोनों यात्री जो रात्रि के पिछले पहर कमन्द लगाकर बुर्ज पर चढ़े थे, न मालूम कि प्रकार लोगों की आंखों से बचकर राज्य के अन्तःपुर वाले बुर्जे के भीतर एक गुप्त चौबारे में आ दुबके थे । किले का यह भाग बहुत दिनों से निर्जन पड़ा था तथा दूसरे स्थानों की अपेक्षा यहाँ पर अन्धकार भी अधिक था । किसी दासी को दण्ड देने के लिए इस स्थान पर बन्द कर दिया जाता था जहाँ वह बेचारी किसी छछुन्दर अथवा चुहिया की भांति इन अंधेरी दीवारों में सिर टकराती मौत की घड़ियाँ गिना करती थी या छुटकारे के लिए अपने परमात्मा से प्रार्थाना करती रहती थी ।
एक छोटी सी खिड़की के पास कान लगाये वह दोनों खड़े थे । वहाँ से नीचे राजगृह का वह भाग दिखाई देता था जहाँ मेहरगुल कोई आवश्यक मामला आने पर अधिकारियों से भेंट किया करता था अथवा जहाँ विशेष बातों का निर्णय लिया जाता था । राजगृह के बाहर वाले द्वार से लेकर अन्तःपुर तक के रास्ते में तुर्किस्तान की कोमल बालों वाली खालें बिछी थीं और उन पर कहीं-कहीं फूल बिखरे पड़े थे । जब वह फूल मुरझाने लगते तो ईरानी लौंडियाँ इनके स्थान पर ताजा फूल बिखेर देतीं थीं ।
"हम एक ही स्थान पर बैठे हैं ।" "हाँ, यह बात मुझे भी उचित दिखाई नहीं देती ।" "तुम्हारे न तो अभी दाढ़ी ही आई है और मूंछें भी छोटी-छोटी हैं, रंग भी गोरा तथा आवाज भी काफी पतली है ।" "किसी दासी को .....?" "तुम्हें ईरानी भाषा बोलना आता है ?" "हां, काम चलाने योग्य ।" "तो अवश्य करना ! परन्तु अभी नहीं, जब हूण सम्राट् की सवारी गढ़ के द्वार पर आ पहुंचे और सब लोग उसके स्वागत में लग जाएं .....।" "परन्तु तुमसे अलग होकर मैं कहाँ जाऊँ ?" "सामने की छत पर किसी सैलून की ओट में अथवा किसी झरोखे की ओट में ।" "कोई मुसीबत तो नहीं आ जायेगी ?"
"मुसीबत !" दूसरे यात्री के चेहरे पर मुस्कान दौड़ गई, "वह तो हमारे प्रत्येक पग पर खड़ी है । अपनी सावधानी और दूरदर्शिता के साथ हमें बचते रहना है ।"
"इन्हें साफ कर दीजिये ।" "अभी?" "हाँ !"
उसने अपने से छोटी अवस्था वाले युवक की सभी मूंछें अपनी कटार से साफ कर दीं । तभी किले के द्वार से शोर उठा, "हूण सम्राट् मेहरगुल की सवारी आ रही है ।"
"मैं जाऊँ?" "जाओ ! परन्तु देखना यदि कोई दासी सावधानी से हाथ न आए तो जल्दबाजी से मत लाना । मेहरगुल को मैं आप समझ लूँगा, तुम केवल सेनापति का ध्यान रखना । यदि इस समय अवसर न मिला तो रात्रि को प्रयत्न करना पड़ेगा ।"
"मैं समझता हूँ ।" वह धीरे से नीचे उतर गया और कुछ क्षणों बाद ही सीढ़ियों पर आयी ईरानी दासी को भुजाओं से उठा लिया । उसने उसके मुँह में इस प्रकार कपड़ा ठूँस दिया था कि उसकी आहट तक सुनाई नहीं दी ।
"जितेन्द्र !" जितेन्द्र उसका हाथ बंटाने के लिए उठा । दोनों ने मिलकर उस कोमल अंगों वाली ईरानी युवती के कपड़े उतारकर उसके हाथ-पांव बाँध दिये । मुँह में कपड़ा ठूंसकर उसकी गर्दन दबाई और उसे मूर्छित कर दिया । छोटी आयु के युवक ने शीघ्रता से उसके कपड़े पहने और उसे उठाकर भीतर कोठरी में ले गए ।
"किसी ने देखा तो नहीं, इन्द्रजीत ?" "नहीं, किसी ने नहीं ! परन्तु तुम इसका पूरी तरह ध्यान रखना कहीं यह होश में न आ जाय । क्या मैं बाहर से सांकल लगा आऊँ ?"
"नहीं ! परन्तु देखना, सावधानी से हाथ डालना । जल्दबाजी और असावधानी हमारे प्राणों के साथ हमारे देश का भी अहित करेगी ।"
नकारात्मक सिर हिलाते हुए अपने सिर के लम्बे बालों में अंगुलियों से मांग निकालता हुआ इन्द्रजीत बाहर निकल गया । जितेन्द्र ने बाहर से सांकल बंद होने का शब्द सुना परन्तु फिर उसे खोल दिया गया था । ऐसा दिखाई दिया जैसे बादशाह के स्वागत ने सारे वातावरण को भय से नीरव कर दिया था । सब तरफ शान्ति विराज गई थी तथा सन्नाटा सा छा गया था । जो वस्तु जहाँ पड़ी थी, थोड़े समय के लिए वहीं स्थिर हो गई । थोड़ी देर के बाद किले के सब नगारे बज उठे । चारों तरफ से सैनिकों ने सम्राट् के अभिनन्दन में जयकारे लगाने शुरू कर दिये जैसे समुद्र में तूफान आ गया हो ।
जितेन्द्र जिस स्थान पर बैठा था, वह एक डरावनी अन्धेरी कोठरी थी जिसमें केवल एक ही द्वार था । उन्होंने यद्यपि अन्दर प्रवेश करते ही सारी कोठरी को अच्छी तरह से देख लिया था, फिर भी उनकी आंखें किसी रोशनदान अथवा खिड़की को देखने के लिए चारों ओर घूमीं । परन्तु उसमें केवल एक ही सुराख था जिसमें केवल हवा और थोड़ा प्रकाश आ सकता था, और कोई मार्ग भी नहीं था । वह सुराख दो-अढ़ाई फुट ऊंचाई पर था जहाँ पंजों के बल खड़े होकर जितेन्द्र ने बाहर की ओर देखा परन्तु मोटी दीवार की चौड़ाई से राजभवन के उस भाग को छोड़कर कुछ दिखाई न दिया । उसकी दृष्टि दूर उस धुन्ध से लिपटी छोटे बुर्ज की कोठरियों पर टिकी । ताजी हवा का एक झोंका आकर उसके मुंह पर लगा ।
भीतर अन्धकार था और सारा वातावरण शान्त पड़ा था, जो अकेले आदमी को बोझिल सा लग रहा था । रह-रह कर बेसुध पड़ी ईरानी दासी के सांस लेने की आवाज सुनाई दे रही थी । वह पूर्णतया मूर्छित थी । यौवन और कोमलता की पुतली, परन्तु आज उसकी ओर ध्यान देने वाला कोई नहीं था ।
जितेन्द्र अपनी चिन्ताओं में डूबा हुआ था । उसका मस्तिष्क अपनी योजना पर दृष्टिपात करता और सामने आने वाली कठिनाई को दूर करने के विषय में सोचता जा रहा था और आंखें किले की दीवारों पर से घूमती चली जा रहीं थीं ।
"अगर कोई ऐसा रोशनदान या झरोखा होता जिससे वह बाहर की घटनाएं .....।" वह मन ही मन बड़बड़ाया परन्तु वाक्य पूरा होने से पहले ही उसकी दृष्टि दीवार के एक पत्थर पर जाकर ठहर गई । यह अन्य पत्थरों की अपेक्षा इतना बड़ा क्यों ? और इस पर लोहे का कुण्डा किसलिए ? परन्तु नहीं ! हो सकता है इसमें बंदी की हथकड़ी अथवा जंजीर बाँधते हों !
इससे यद्यपि उसकी चिन्तनधारा बन्द हो गई, परन्तु न मालूम क्या सोचकर उसने कुण्डे को पकड़ लिया और खींचना शुरू कर दिया । परन्तु कुण्डा अपने स्थान से टस से मस न हुआ, जैसे जंग ने उसे और कड़ा और न हिलने योग्य बना दिया हो । उसने अपनी कमर से कटार निकाली और उसकी मूंठ को उसमें फंसाकर दायें-बायें दबाव डालना शुरू किया । धीरे-धीरे वह चोकोर पत्थर हिलना शुरू हो गया और उस चौड़ी दीवार में इतना सुराख निकल आया जिसमें दो आदमी आसानी से छुप सकते थे । उसके अन्दर पतली जाली का एक झरोखा था जिसमें से बाहर का सारा दृश्य दिखाई देता था ।
उसने चैन की साँस ली ।
जाली में से उसने देखा, इन्द्रजीत उससे भी ऊपर की मंजिल में जो और भी सुनसान थी, दो खम्भों की ओट से ईरानी लौंडी बना खड़ा है, जो किसी काम के लिए ऊपर गई हो और सम्राट् की सवारी की वापसी पर वहीं खड़ी होकर जलूस का तमाशा देखने लगी हो ।
"लड़का निर्भय और समझदार लगता है, परन्तु कहीं दोनों के लिए संकट न बन जाय ।"
उसने ईरानी दासी के कोमल शरीर को उठाया और उस गह्वर में घुस गया । "रात से पहले तो .....।" उसने अपने अंगरखे में से एक पोटली-सी निकाली और उसे लड़की की नाक पर रख दिया । थोड़ी देर सुंघाने के बाद उसे फिर अपने अंगरखे में छुपा लिया । "रात से पहले कुछ करना ठीक नहीं रहेगा, फिर भी ... परन्तु अभी तो काफी दिन है ।"
बाहर झरोखे में से नीचे राजगृह का लम्बा-चौड़ा प्रांगण दिखाई दिया जिसका सफेद संगमरमर का चमकीला फर्श किले के पश्चिमी भाग की दो ऊंची उभरी हुई दीवारों में से आती हुई सूर्य की किरणों के टकराने से और भी अधिक चमक रहा था । खालें बिछी मार्ग की सीढ़ियों के नीचे दो घुड़सवार पहरेदारों के बरछों की नोंक नजर आ रहीं थीं । प्रांगण के एक कोने में अंतःपुर के द्वार पर एक ईरानी दासी खड़ी थी । हूण सम्राट शायद किले में प्रवेश के बाद किसी वस्तु का निरीक्षण करने अथवा आदेश देने में लग गए थे । इसीलिए उनके भीतर आने में अब तक विलम्ब हो रहा था ।
हूण सम्राट् मेहरगुल, जो बड़े ऊंचे कद का, लम्बे चौड़े डील-डौल वाला बलवान् सम्राट् था, शाही चाल से चल रहा था । उसके पीछे प्रमुख अधिकारियों की एक टोली आ रही थी, परन्तु अभी वह राजभवन की दीवार से दूर ही था । तभी एक भारतीय स्त्री की दुःख और प्रार्थना की डूबी आवाज सुनाई दी ।
"सम्राट् ! हूण सम्राट् !!" "क्या बात है?" चलता-चलता सम्राट् रुक गया ।
"कुछ नहीं हजूर ।" हाथ हिलाकर किसी को परे हटाने का संकेत करते हुए पीछे सीढ़ियों पर से कोतवाल ने निवेदन किया ।
"हजूर सम्राट् ! मैं कुछ निवेदन ....।" वही आवाज फिर सुनाई दी । एक अधूरा वाक्य जो बीच में दबा देने के कारण पूरा होने से रह गया था ।
मेहरगुल अपने स्थान पर किसी मोटे वृक्ष के तने के समान खड़ा हो गया । उसके भारी पैर के नीचे लोमड़ी की खाल सिकुड़कर इकट्ठी हो गई जिसकी पश्म ने सम्राट् के जूतों को ढक दिया ।
"यह प्रार्थना करने वाला कौन है ?" "हजूरेआली !" कोतवाल ने पहले दण्डवत् की, फिर निकट आकर बोला, "बाहर से लाई गई हिन्दू लड़कियों में से एक है ।"
"क्या कहना चाहती है?" "कुछ नहीं सम्राट् ! यह तो मेरे कर्मचारी की मूर्खता के कारण श्रंगार कक्ष में न जाकर यहां आ गई ।"
"उसे उपस्थित करो ।" सम्राट् की आंखों में मस्ती की झलक उभर रही थी । शिकारघर से किले की ओर चलने से पहले उसने अखरोट की शराब के कई प्याले पी लिए थे ।
कोतवाल वापस जाते हुए सिपहियों को लड़की समेत बुलाने के लिए शीघ्रता से सीढ़ियां उतर गया । सम्राट् निश्चल होकर अपने स्थान पर खड़ा रहा । एक बार उसने तलवार की मूठ पर हाथ मारा, फिर अपनी छिछरी दाढ़ी को दबाया । सब अधिकारी अपने-अपने स्थानों पर जड़वत् हुए खड़े थे ।
"बोल, क्या कहती है ?" कोतवाल और दो सिपाहियों के आगे-आगे एक युवा लड़की को आते देखकर मेहरगुल ने भारी आवाज में पूछा । वह अच्छी भारतीय भाषा बोल लेता था ।
मैं पूछती हूँ हम ...." लड़की ने अपने गले को साफ करते हुए कहा, "किस अपराध में पकड़कर लाये गए हैं ।"
हूण सम्राट् की तीव्र दृष्टि पहले लड़की की ओर, फिर कोतवाल की ओर घूम गई ।
"महाबली" कोतवाल बोला, "यह वन में रहने वाले किसी ब्राह्मण की लड़की है । इसे राजसभा में बात करने का शिष्टाचार नहीं आता । मुझे आज्ञा दीजिए कि इसे ले जाकर उचित ढ़ंग से समझा दूँ ।"
"अच्छा होता" मदिरा के मद में मतवाले मेहरगुल ने लड़की के सुन्दर चेहरे की ओर देखते हुए कहा, "तुम यह बात पूछने के लिए रात को खाना खाने के दो घड़ी पश्चात् तक प्रतीक्षा करती जब तुम्हारा श्रंगार कर हमारे विलास भवन में लाया जाता परन्तु अगर तुम्हें अभी ही पूछना है तो पूछो ।"
"मुझे आपके आदमी क्यों पकड़कर लाये हैं ?" "इसलिये कि तुम वन में अकेली बैठी बुरी लगती थी । सुन्दर युवतियाँ वीरों के पहलू में ही शोभा देती हैं ।"
हूण सम्राट् की आँखें वासना से चमक उठीं ।
इतना असभ्य उत्तर सुनकर जिसमें सम्पूर्ण स्त्री जाति का अपमान भरा हुआ था, उस लड़की के हृदय को ठेस लगी परन्तु इस परिस्थिति में जहाँ वह आपदाओं में घिरी थी, उसने बड़ी शान्ति और गम्भीरता से काम लिया । वह बड़े नम्र स्वर में बोली, "मुझे जब मेरे पिता की कुटिया से, जब वह बाहर गए हुए थे, पकड़ कर लाया गया । वह इस दुःख को कैसे सहन करेंगे ? हम संसार को त्यागकर वनों में रहते थे, कन्द मूल खाकर, झरनों का पानी पीकर ईश्वर-आराधना करते थे । किसी मनुष्य की तो बात ही क्या, चींटी तक को दुःख न देते थे । मैं हूण न्याय की दुहाई देकर पूछती हूँ आखिर हमारा अपराध क्या है ?"
मेहरगुल का हास्य गंभीरता में बदल गया । वह कहने लगा, "तुमने बहुत बड़ा अपराध किया है । तुम्हारा पिता बहुत बड़ा विद्वान् होगा जो संसार को त्यागकर वनों में रहने लगा । उसने अपनी जाति को प्रत्येक प्रकार की सेवा, एकता और ज्ञान से वंचित कर दिया जो उसे ऐसा न करने पर अवश्य मिलते । केवल तुम्हारा ही पिता नहीं, तुम जैसी लड़कियों के हजारों पिताओं ने इसी प्रकार अपने कर्त्तव्य और उत्तरदायित्व को एक ओर रखकर वनों में निवास करना शुरू कर दिया और अपनी जाति को इस दिशा में पहुंचा दिया कि आज इस आलसी, निकम्मी और कायर जाति को ज्ञान देने के लिए मुझे ईश्वर ने कोड़ा बनाकर भेजा है । ऐसे पिताओं के घर में जन्म लेने वाली लड़कियाँ दण्ड की अधिकारिणी हैं और उनके लिए यही दण्ड है कि उन्हें बलपूर्वक उठा लाया जाय और जब आक्रमण करने वाले वीर अपनी वासना तृप्त कर लें, तो कुम्हलाये फूलों की भांति एक ओर फेंक दिया जाये ।"
अपमान की चोट खाई हुई दुःख और विवशता में डूबी लड़की ने फिर पूछा, "परन्तु मेरे साथ की अन्य लड़कियाँ तो ग्रामों और नगरों से पकड़कर लाई गईं हैं जिन के मां बाप ने तो संसार नहीं छोड़ा । उन्हें क्यों लाया गया है ?"
"इसलिए कि उनके पिताओं ने अपनी बस्तियों के अच्छे विद्वान् लोगों को न केवल वन में जाने दिया अपितु उन लोगों के संसार छोड़ने को कर्त्तव्य और त्याग का नाम देकर उनकी पूजा की तथा दूसरों को भी ऐसा करने की प्रेरणा दी ।"
"अत्याचार ?" मेहरगुल बोला, "संसार में अत्याचार कोई वस्तु नहीं है । प्रत्येक असहाय और मन को अच्छी न लगने वाली परिस्थिति में ही अत्याचार दिखाई देता है । जो किसी न किसी दुर्बलता और अभाव पर प्रकृति का अटल विधान मनुष्य जाति को दिए बिना नहीं रहता ।"
"हो सकता है । यह सच है ।" "यह पूर्णतः सच है । तुम शायद इसको सच नहीं समझती परन्तु सत्य के भी अनेक रूप हैं । किसी को इसका कोई रूप दिखाई देता है, किसी को कोई । युद्धप्रिय, विजयी जाति की सच्चाइयां कायर जातियों की समझ में नहीं आ सकतीं ।"
चार नौकर राजभवन के अन्दर से एक मसनद उठा लाये । हूण अधिकारी अपने सम्राट् मेहरगुल को, आशा के विरुद्ध, हारी जाति की एक लड़की के साथ वादविवाद करते देख कर आश्चर्य प्रकट करने लगे।
"मुझे छोड़ दो सम्राट् ! मैं आपका धन्यवाद करूँगी और मेरा वृद्ध पिता आपको आशीर्वाद देगा ।"
"आशीर्वाद ! हा हा हा !! तुम वनों में रहने वाले तिलकधारी ब्राह्मण आशीर्वाद दे-देकर भारतीय राजाओं को ही प्रसन्न कर सकते हो और शाप देकर डरा सकते हो । परन्तु हम हूणों को तो सुन्दरी ! तुम्हारे पिता के आशीर्वाद के स्थान पर तुम्हारे यौवन की अधिक आवश्यकता है परन्तु ....।" उसने अपना एक पाँव मसनद पर रखा, एक कठोर निश्चय उसके मन में आया, "तूने हूण सम्राट् को, जिसकी तलवार के सामने आज पूर्व और पश्चिम थर-थर कांप रहे हैं, इस निडरता से संबोधित किया है । इस उद्दंडता पर तुम्हें दंड दिया जायेगा ।"
"दण्ड?" "कोतवाल !" महरगुल की आंखें क्रोध, बर्बरता और दानवता से चमक उठीं । "हजूरेआली !" "अपने दो सिपाहियों को कहो कि एक कुत्ते को लाएं, इस लड़की की साड़ी नोंचकर इसे .....।"
अधिकारियों की आंखें चमकने लगीं । लड़की धक्का खाकर एक स्तम्भ से जा लगी, जैसे किसी ने उस पर सामने से प्रहार किया हो । पसीने में डूबी, अपने आपको सम्भालती वह खरखराती हुई आवाज में बोली, "क्या कहा आपने? क्या आवाज दी आपने ?" जैसे उसे अपने कानों पर विश्वास न आया हो ।
मेहरगुल ने अपना होंठ दबाया । तिब्बत का सफेद रंग वाला ऊँचे डोल का गद्दी कुत्ता .....।
कोतवाल ने आगे बढ़कर लड़की की साड़ी को पकड़ना चाहा ।
"ऐसा न करो... ऐसा करने की आज्ञा न दो । ईश्वर स्त्री जाति का अपमान नहीं सह सकते । महासती द्रोपदी को पापी कौरवों ने नंगा करने का दुस्साहस करना चाहा था । सब कुछ नष्ट हो गया था ।"
"हमने तुम्हारे देश की कहानियों में ऐसी कोई कहानी अवश्य सुनी थी । कोतवाल !" "जी आलीजाह !" "इसकी साड़ी खींच लो ।" "यह ऐसा नहीं कर सकता । कोई भी ऐसा नहीं कर सकता ।" "क्यों ! क्या तुम कोई ऐसा शाप देना जानती हो जिसके प्रभाव से तुम्हारे शरीर को छूने वाला पत्थर हो जाये ?"
"मैं इतना सामर्थ्य तो नहीं रखती, परन्तु इससे पहले कि कोई मेरे शरीर का निरादर करे, मेरी आत्मा शरीर से निकल जाएगी ।"
"हाँ ! चलो यह और भी तमाशा होगा । पुरानी किताबों में लिखा है कि मिस्र के जादूगर काहन किसी दूधमुँहें बच्चे के मांस का कीमा अपने शरीर पर मलकर अपनी आत्मा को अपनी इच्छा से बाहर निकाल लिया करते थे और फिर जब चाहते थे, शरीर में लौटा लेते थे ।"
लड़की को अपमान निश्चित दिखाई देने लगा, जिस पर उसने मौत को ही स्वीकार करने का निश्चय कर लिया । अपने इस निश्चय पर पहुंचकर उसके दिल को एक अनुपम शान्ति का आभास मिला, प्रत्येक प्रकार का भय अथवा घबराहट उसके हृदय से निकल गई । मृत्यु को सन्निकट देखकर वह बेधड़क होकर बोली, "हूण सम्राट ! मैं यह शरीर छोड़ने को तैयार हूँ । इसमें रहते हुए इसका इतना अपमान एक भारतीय लड़की से देखा न जाएगा । परन्तु एक बात तुम सब कान खोलकर सुन लो कि अत्याचार की जो आँधियाँ तुमने संसार में उठानी आरम्भ की हैं, ईश्वर इसे सहन नहीं करेगा । तुमने हिन्दुस्तान का धन लूटा, खेतियाँ उजाड़ीं, नगर-ग्राम जलाकर मरघट बना डाले । इस बहुत बड़ी राष्ट्रीय हानि को सम्भवतः भारतीय किसी प्रकार सहन कर लेते परन्तु जो तुमने राक्षसों और बर्बरों की भांति देवियों के सतीत्व भंग करने आरम्भ कर दिये हैं, इसे हिन्दू सूरमा सह नहीं सकेंगे । भारतीय युवक अपनी माताओं, बहनों के इस घोर अपमान का बदला लेने के लिए सिंहों की भाँति दहाड़ते हुए तुम पर टूट पड़ेंगे । योद्धाओं की खड़गें शीघ्र ही हूणों का अंत कर डालेंगीं और उनके शव गीदड़ों और चीलों का भोजन बनेंगे ।"
"इसे नंगी कर दो और सिपाहियों को कहो कि कुत्ते को लेकर आ जायें ।" मेहरगुल आप भी शीघ्रता से चलकर वहां जा खड़ा हुआ ।
और जब यह सब कुछ होने वाला था, एक दैवी विध्वंस, एक विनाश का गोला मेहरगुल के कान से टकराता कुत्ते और कोतवाल पर टूट पड़ा । छुरी हाथ में थामे एक ईरानी लौंडी ने इस कुकृत्य को रोकने के लिए अपने प्राणों की चिन्ता छोड़कर ऊपर से इन पर छलांग लगा दी । छुरी लगनी तो मेहरगुल की गर्दन पर थी, परन्तु वह उसकी कनपटी और कान को घायल कर सकी । बहुत ऊँचाई से अचानक गिरे शरीर की चोट से कोतवाल धरती पर गिर पड़ा और कुत्त चीख मारकर सटपटाने लगा । प्राणरहित युवती के पास ही लौंडी, जिसका शरीर बुरी तरह स्तम्भ से टकराया था, लहू में सांस तोड़ने लगी ।
जैसे किसी शत्रु ने आक्रमण किया हो । हूण सरदारों ने अपनी तलवारें म्यानों से सूत लीं । मेहरगुल के कान से लहू टपकता देखकर एक अधिकारी शाही हकीम को बुलाने दौड़ा, दूसरे ने अपना पटका घाव के नीचे कर दिया ।
पटके वाले सरदार को हाथ से परे हटाता क्रोध से गर्जता हुआ मेहरगुल बोला, "देखो ! एक स्त्री ने दूसरी स्त्री का सम्मान बचाने के लिए अपने प्राणों की बलि दी है अथवा कोई षड्यन्त्र है ?"
"जी आलीजाह !" चोट खाया हुआ कोतवाल अब अपने आपको थोड़ा सम्भाल चुका था । "पता लगाओ कि ऊपर से कूदने वाली सचमुच स्त्री है अथवा पुरुष ?" "पुरुष है हजूर ।" "फिर गुप्तचर ! हम पूछते हैं क्या तुम्हारा प्रबन्ध है ?"
कोतवाल थर-थर काँपने लगा ।
"गढ़ की नाकाबन्दी कराके जांच करवाओ । शायद शत्रुओं के कुछ और लोग भी ....।"
हकीम ने आकर दण्डवत् की और घाव पर पट्टी करने लगा । कोतवाल कर्मचारियों के नाम आवश्यक आदेश देने के लिए मुड़ा ।
"प्रत्येक स्थान छान मारा जाए, कोना-कोना, चप्पा-चप्पा । कोई संदिग्ध पुरुष तथा स्त्री पड़ताल से न बचे ।" मेहरगुल पट्टी बंधवा कर अंतःपुर की ओर चल पड़ा और सरदारों का समूह और सैनिकों की टोलियाँ वापिस जाने लगीं ।
जिस समय वह ईरानी लौंडी हूण कोतवाल पर गिरी, तो दीवार के गुप्त स्थान से छुपा हुआ जितेन्द्र उस नीच कृत्य से क्षुब्ध हो रहा था, तभी अचानक चौंक पड़ा । घटना की वास्तविकता को समझकर वह बड़बड़ाया, "ओह ! ऐसा देखकर वह कैसे चुप रह सकता था ! खैर, कुछ भी हो, वह अपना कर्त्तव्य पालन करता हुआ मरा है । मेहरगुल थोड़ा इधर न हटता तो कटार उसकी गर्दन में उतर गई होती । म्लेच्छ का भाग्य अच्छा ..... अब .....ढूंढते हुए यहाँ भी आएंगे । दीवार के अन्दर बने हुए इस गुप्त स्थान का सम्भवतः उन्हें पता हो ।"
साथी के मर जाने के शोक को भुलाकर, नई परिस्थिति में महल का मार्ग ढ़ूँढ़ने के लिए वह सोचने लगा । उसे सामने से दो आदमी कमरों की देखभाल के लिए आते दिखाई दिए ।
"अब क्या करना चाहिए?" प्राणों की रक्षा का प्रश्न उसके मस्तिष्क में चक्कर काटने लगा । परिस्थिति ऐसी थी जिसमें प्राण लेने के लिए आने वाले के साथ भी जी तोड़कर मुकाबला किया जाना असम्भव था । बल्कि यहाँ तो इसका प्रश्न ही नहीं था । पिंजरे में बन्द चूहे अथवा दड़बे में दुबकी मुर्गी को जैसे मौत का पंजा आकर सहसा दबोच लेता है, ऐसे ही कोतवाल के आदमी घड़ी भर में आकर उसे पकड़ लेंगे ।
दीवार के भीतर जो गुप्त स्थान बना हुआ था, वह बाहर कमरे में खड़े होकर दिखाई न देता था । भले ही साधारण व्यक्ति को उस का होना दिखाई न देता हो, किन्तु गिद्ध की आँख और अरबी कुत्ते की घ्राण शक्ति रखने वाले हूण सिपाहियों की दृष्टि से बचा न रह सकता था । वह अवश्य उसको पहले से ही जानते होंगे ।
बाहर कमरे में कई पैरों की चाप सुनाई दी । जितेन्द्र को ऐसा अनुभव हुआ कि आने वाले पग कमरे के फर्श पर नहीं, अपितु उसके हृदय पर पड़ रहे हैं । ठण्डे और बोझल, परन्तु उसके धैर्य में कमी न आई । वह इस बलहीन कर देने वाले अनुभव से चौंका । एक दृष्टि उसने बेसुध पड़ी लौंडी पर डाली, जिसकी पलकों में चेतना उत्पन्न होने लगी थी । उसने उसकी नाक पर बेसुध कर देने वाली औषधि की पोटली रखी, इसके पश्चात् अपने दोनों हाथों से गुप्त स्थान के पत्थर में लगा कुण्डा पकड़ लिया तथा दीवार में टांगें अड़ा लीं । आने वालों ने बाहर से इस कमरे के चक्कर न खाये परन्तु आगे वाले कमरे को ही देखभाल कर लौट गए, कुण्डे को किसी ने न छेड़ा । पश्चिम में पहुंचते हुए सूर्य की किरणें बाहर वाली दीवार के झरने में से छन-छनकर आने और उस पर फूल-पत्ते बनाने लगीं, जो मध्यम पड़ती हुई आखिर मिट गईं । थोड़े समय में ही सायंकाल का झुटपुटा रात के अन्धेरे में परिवर्तित हो गया और वहाँ मशालें और फानूस जगमगाने लगे ।
"अभी रात के पहले पहर तक यहीं छिपे रहना चाहिये कि लोग रात के भोजन से निपट लें परन्तु इतने समय तक मूर्छित रहने के कारण वह देवी कहीं मर न जाये जिसे राष्ट्रवादियों और हूण आक्रमणकारियों के संघर्ष में कष्ट उठाना पड़ा है," वह मन ही मन सोचता रहा ।
समय बीतता गया और इसके साथ ही आवाजें और प्रकाश रात को लुप्त होते गए । रात के पहले प्रहर का गजर बजा और एक भयंकर गूँज मौन की छाती को फोड़ती हुई चारों ओर फैल गई । परन्तु इसके पश्चात् पहले से भी अधिक सन्नाटा छा गया । खोल के भीतर बैठा हुआ जितेन्द्र अपने स्थान पर स्थिर बैठा रहा । साथी के मर जाने के शोक के साथ-साथ ही उसे अपने बच निकलने का कोई ढ़ंग दिखाई न देता था । आशा के विरुद्ध सोची हुई योजनाओं के उलट-पलट हो जाने का खेद, फिर आधुनिक परिस्थिति में अपने निश्चय को पूरा करने की धुन - इनमें से न जाने कौन सी वस्तु उसको घेरे हुए थी । इस प्रकार एक घड़ी समय बीत गया ।
एक घड़ी और बीती । इसके पश्चात् उसने धीरे-धीरे पूर्णतया बिना शब्द किए कुण्डे को चक्कर देकर गुप्त स्थान का मुंह खोल दिया । तंग और अंधेरा कमरा खाली पड़ा था, उसने सांस रोककर सुनने का प्रयत्न किया । उसका मन कहता था कि सम्भव है कोतवाल का कोई सिपाही अथवा गुप्तचर किसी कोने में दबा बैठा हो, परन्तु कोई साधारण सी सरसहाट भी अनुभव न हुई । उसने बेसुध लौंडी को उठाकर बाहर कमरे में डाल दिया । उसके मुंह पर बेसुध बना देने वाली औषधि वाली पोटली थोड़े समय तक और रखी । फिर दबके का द्वार बन्द करके पेट के बल रेंगता हुआ बाहर निकल आया ।
रात का अंधेरा अधिक गहरा हो गया था जिसको आकाश पर छाए हुए बादलों ने और भयानक बना दिया था । राजभवनों और पहरे के स्थानों को छोड़कर सभी प्रकाश बुझ चुके थे । सर्दी के बर्फीले झोंके कभी तेज, कभी धीमे चल रहे थे । आकाश में कभी-कभी मेंह की एक-आध बूंद टपककर वातावरण को और ठंडा, बोझल और उदासीन बना रही थी । परन्तु सर्दी के अतिरिक्त एक और वस्तु भी थी जो जितेन्द्र को बुरी तरह अनुभव हो रही थी, वह थी कुत्ते की भौंक । थोड़ा भोजन जो बना था उसे वह अपने साथी के साथ खाकर समाप्त कर चुका था और फिर ऐसा कोई अवसर हाथ न लगा कि वह गढ़ के भीतर से कुछ प्राप्त कर सकता । वह स्वाभाविक रूप से भूख-प्यास सहन करने वाला था । परन्तु न जाने वह यात्रा की थकान का प्रभाव था अथवा उस संघर्ष का जो उसने गढ़ में प्रवेश करने से लेकर अब तक किया था कि उसकी भूख साधारण अवस्था से कहीं अधिक तेजी से भड़क उठी थी । यहाँ तक कि उसे अपने शरीर में एक विशेष दुर्बलता का अनुभव होने लगा । परन्तु कुछ भी हो, उसका कर्त्तव्यपरायण हृदय प्रत्येक प्रकार की भीतरी दुर्बलताओं तथा बाह्य बाधाओं पर छा जाने पर तुला हुआ था । अपने स्थान पर लेटे हुए उसने किसी शब्द को सुनने की चेष्टा की । एक बार जिस प्रकार नेवला गर्दन उठाकर देखता है, उसने कोहनियों के सहारे अपने सिर को थोड़ा-सा ऊपर कर इधर-उधर देखा । इसके पश्चात् ठण्डी पथरीली छत पर पेट के बल रेंगता हुआ एक ओर को बढ़ने लगा ।
दो सीढ़ियाँ ऊपर चढ़कर वह गढ़ की सबसे ऊंची मंजिल पर जा बैठा और दूर तक फैली हुई छत को पार करने के लिए गढ़ की दीवार के कगूरों पर जा चढ़ा । यहाँ से वह कमन्द के द्वारा नीचे उतर जाना चाहता था परन्तु एक नई बाधा बीच में आ पड़ी । पिछली रात कमन्द उसके साथी के पास रह गई थी । एक ऐसी भूल थी जिसको कोई समझदार गुप्तचर नहीं करता ।
एक ठंडा सांस उसके होठों से निकला और विवशता की आह उसके मुंह से निकली । कगूरों के उभरे हुए किनारे चट्टानों की भांति ऊँचे दिखाई देने लगे और बाहर की गहराई से सिर चकराने लगा ।
"मूर्ख !" वह मन ही मन बड़बड़ाया । कुछ क्षणों तक वह कगूरों के अनगिनत पत्थरों में एक पत्थर बना अपने स्थान पर चुपचाप बैठा रहा । शीघ्र ही ठंडी हवा के झौंके से वह चौंक पड़ा और उसकी तबीयत इस नई कठिनाई पर सफलता प्राप्त करने के लिए कोई ढंग सोचने लगी । इसके सिवाय कोई मार्ग ही न था कि सारी दीवार का चक्कर काटकर कोई थोड़ा ऊँचा स्थान ढूंढे और पगड़ी और धोती की मिली जुली लम्बाई से लटकर नीचे कूद जाए । चाहे इससे प्राण जाएं अथवा रहें । फिर भी .....।"
राजभवन और बुर्ज के किनारे उसने पूरे धैर्य और सावधानी के साथ लांघे । इसके पश्चात् उसके रेंगने का वेग तेज हो गया । परन्तु राजकीय रसोई घर की सीमा पार करने के पश्चात् वह बढ़ता हुआ इस प्रकार रुका, जैसे उस पर किसी ने आगे से चोट की हो । उसकी रात के अंधेरे को चीरती हुई तीव्र दृष्टि अपने ठीक सामने किसी वस्तु पर जमकर रह गई । कोई मनुष्य उसी की भांति उसी की ओर बढ़ा आ रहा था । दोनों के बीच केवल इतना अन्तर था कि वह हाथ बढ़ाकर एक दूसरे को छू सकते थे । जिस प्रकार उसे देखकर वह ठिठका था, उसी प्रकार इसे देखकर वह डर के मारे इतना घबराया कि एक हल्की सी चीख के साथ बाहर की ओर नीचे लुढ़क गया । परन्तु उसने लुढ़कते समय जितेन्द्र की टांग हाथ में पकड़ ली । इस अचानक झटके और खिंचाव के कारण जितेन्द्र के हाथ से किनारा छूट गया ।
साठ-सत्तर हाथ की ऊंचाई पर से गिरकर हाड़-मांस के बने हुए मनुष्य की तो बात क्या, एक पत्थर अथवा काँसे की मूर्ति भी तो टुकड़े-टुकड़े हो जाती ! परन्तु जिस वस्तु पर वह गिरे, वह धरती के स्थान पर पीपल का एक छोटा-सा वृक्ष था जो गढ़ की दीवार के बीच पत्थरों में उगा हुआ था । दो मनुष्यों के भारी बोझ के आ पड़ने से उसका दुर्बल तना बुरी तरह झूला किन्तु टूटा नहीं । यदि वह जड़ को छोड़कर टहनियों की ओर गिरते तो उनमें से निकलकर नीचे आ पड़ते परन्तु ठीक जड़ के पास आ गिरने से उनके प्राण बच गये । उस समय जब मौत नीचे मुंह खोले खड़ी थी, जीवन के प्यार ने बिजली जैसी तेजी के साथ गिरने वालों की सूझ-बूझ तेज कर दी । उन्होंने तने को और एक बाहर को निकली हुई जड़ को दृढ़ता से पकड़ लिया और परिस्थिति को समझने के लिए अपनी सुध को स्थिर किया और इस भारी संकट की घबराहट को छोड़कर एक-दूसरे की ओर देखने लगे ।
"जीवन कितना प्यारा है !" दूसरा मनुष्य सूखे हुए गले से बोला कि "पहली बार गिरा तो तुम्हारी टांग पकड़ ली, दूसरी बार गिरा तो इस पेड़ से लिपट गया । जबकि मैं जानता हूँ कि जो अपराध मैंने किया है, उसका दंड मौत को छोड़कर और कुछ नहीं । रात भर जी लूँ, दिन निकलते ही मेरी गर्दन उड़ा दी जाएगी ।"
जितेन्द्र होश में आ चुका था । वह दीवार की आधी ऊंचाई पर था जहाँ से पगड़ी और धोती की सहायता से नीचे कूद जाना घातक नहीं था । उसने अंधेरे में दूसरे मनुष्य की आवाज को ध्यान से सुना, घूरती हुई तीव्र आंखों से उसके चेहरे को देखा और पहचान गया ।
"डरो मत ! मैं तुम्हारा शत्रु नहीं हूं । अधिक बातें पूछने और बताने का अवसर नहीं है । इसलिए इन्हें किसी और समय के लिए रख छोड़ो । क्या तुम अपने अधिकारी की हत्या करके आ रहे हो ?"
"हाँ !" उस आदमी ने कांपती हुई आवाज में कहा । "क्या उसने तुम्हारे लिए प्राणदंड इसलिए निश्चित किया था कि तुमने पिछली रात अपने एक साथी नौकर को मार डाला था ?" "और वह नौकर क्या खच्चर गाड़ी चलाने वाला एक किदार सिपाही था ?" "तुम तो सब कुछ जानते हो ।"
"धीरे बोलो भले आदमी ! नीचे मोड़ पर से पहरे वालों की टोली इस ओर को आती हुई सुनाई दे रही है ।" और वह झट चुप कोकर भीत के साथ चिपक गए ।
टोली के सिपाही बातें करते जा रहे थे । "मेरी समझ में नहीं आता कि इतने कड़े पहरे के होते हुए शत्रु का वह गुप्तचर किस प्रकार गढ़ में घुसा होगा ?"
"भाई, तुम क्या जानो ! यह लोग बड़े उस्ताद हैं और अब नए राष्ट्रवादी युवक तो बस एक मुसीबत ही हैं ।"
"और क्या जी, मैंने सुना है कि इस देश में जादू मन्त्र बहुत है । क्या पता उसके जादू के प्रभाव ने पहरे वालों की दृष्टि बन्द कर दी हो !"
"वह जादू मन्त्र जानता होता तो छुरी से क्यों प्रहार करता ?" "परन्तु भाई, गिरा वह इस प्रकार था जैसे आकाश से टूट पड़ा हो । किसी की समझ में नहीं आया कि उसने कहाँ से छलाँग लगाई ।"
सिपाही निकल गए तो जितेन्द्र ने थोड़ी ऊँचाई पर दाईं ओर बनी हुई खिड़की की ओर संकेत करके ईरानी बन्दी से पूछा, "कुछ पता है कि यहाँ कौन रहता है ?"
"कहाँ? इस खिड़की के भीतर ?" हाँ ।" "रहता तो कोई अवश्य है, परन्तु यह पता नहीं कि कौन रहता है । सम्भवतः सेना का बड़ा अधिकारी हो ।"
जितेन्द्र और इन्द्रजीत गढ़ की स्थिति का पता लगाने भेजे गए थे, परन्तु अपने ढ़ंग से उन्होंने निश्चय कर लिया था कि जिस प्रकार भी हो, वह हूण सम्राट् अथवा उसके सेनापति को मारने का प्रयत्न करेंगे । किन्तु घटनायें कुछ इस प्रकार की हुईं कि वह न केवल यहाँ की स्थिति का ही पूरी तरह पता लगा सके अपितु दोनों में से एक ने अपने प्राणों से ही हाथ धो लिया । सेवा की दृष्टि से उसका बलिदान चाहे कितना ही ऊँचा क्यों न हो, परन्तु गुप्तचर के कर्त्तव्य को सामने रखते हुए यह किसी अनाड़ी और शीघ्रता करने वाले लड़के की हरकत से अधिक मूल्य न रखता था । जितेन्द्र के लिए अपने साथी की मौत की सूचना लेकर लौटना इतना शोकप्रद था, जितना पूरी स्थिति का पता लिए बिना जाना । इसमें सन्देह नहीं कि जितना समय उसे मिल सका था, उसमें उसने दूरी पर होती बातचीत और अपने अनुमानों से कुछ काम की सूचनायें इकट्ठी कीं थीं, परन्तु यह सूचनायें अधिक महत्वपूर्ण न थीं ।
अपने कार्य की असफलता का अनुभव कर, कुछ कर दिखाने की भावना एक बार फिर उसके मन में उभरी । इस प्रकार के एक दो गढ़ उसने देखे थे और उनकी बनावट के ढंग से वह भली प्रकार परिचित था । ऐसी खिड़की के पीछे अवश्य किसी ऊँचे अधिकारी अथवा कर्मचारी का निवास स्थान होना चाहिए । यदि इसका यह अनुमान झूठा नहीं था, तो इसके भीतर अवश्य हूण राज्य का कोई बड़ा अधिकारी सो रहा होगा । "यदि यहाँ से जाते-जाते उसे भी मौत के घाट उतार जायें, तो कुछ सफलता मिले", यह सोचकर उसने निर्भीक ईरानी से दबे स्वर में कहा, "तुम इसी प्रकार दीवार के साथ दुबके रहो, मैं अभी थोड़ी देर में आता हूँ ।"
"बाबा ! तुम कहाँ जाने लगे ? इस में खतरा है ।" ईरानी घबरा गया । परन्तु निर्भीक भारतीय को न मानते देखकर दीवार से चिपट गया ।
खिड़की खुली थी, परन्तु भीतर किसी फानूस अथवा दीपक का प्रकाश नहीं था । जितेन्द्र ने हाथ लम्बा करके खिड़की की बढ़ी हुई निचली कगार पकड़ ली और उससे लटक गया । दूसरा हाथ चौखट पर डालकर उछला और भीतर की दहलीज को पकड़ने के लिए दूर तक हाथ मारा, परन्तु दीवार इतनी चौड़ी थी कि किनारा हाथ न लगा और हाथ खाली लौट आने के कारण अपने बोझ से मजबूर होकर फिर कगार से आ लटका और झूलने लगा । इतना संघर्ष करते समय उसकी उंगलियों और कलाइयों को भारी शक्ति लगानी पड़ी थी । ऐसे ही एक और सफल प्रयत्न करने से पहले वह इसी प्रकार लटकते हुए एक पल सुस्ताना चाहता था । केवल एक पल .... परन्तु इस एक पल के ठहराव के बीच ही उसे सुस्ताने का अवसर न देते हुए एक मनुष्य का चेहरा खिड़की से बाहर झांकने लगा । परिस्थिति अति भयानक थी । एक पल की ढ़ील, जिसमें वह इसको कगारे में लटकता देखकर प्रहार कर सकता, मौत का संदेश ला सकती थी । परन्तु युवक ढ़ील का अभ्यस्त न था । इससे पहले कि वह उसका पता लगाये, उसने अपने बोझ को छोड़कर दूसरे हाथ से तेज फल की कटार उसके सिर को ताक कर फेंकी जो पाँच उंगल उसकी खोपड़ी में उतर गई ।
एक हल्की सी गरगराती कराहट खिड़की में से बाहर झांकने वाले के मुंह से निकली । जान तोड़न की अवस्था में उसने आकाश में किसी वस्तु को पकड़ने के लिए अपनी मुट्ठियां फैलाईं, फिर उसके पांव डगमगाए और वह लड़खड़ाकर बाहर, नीचे धरती पर जा गिरा ।
"भद्र !" एक शब्द हुआ, न जाने संतोष का न जाने आश्चर्य का । एक ठण्डी सांस जितेन्द्र के मुंह से निकली । उसकी कर्म-शक्ति फिर तेज हो गई । अब यहाँ थोड़ी-सी देर तक ठहरना भी खतरनाक था । उसने ईरानी को आवाज दी, "यह मोटी टहनी झुकाकर मेरे पास कर दो ।" और जब वह उसके हाथ में आ गई तो "अब मेरा हाथ पकड़ो ।"
सहारा लेकर वह पीपल के तने से आ चिपटा । अब उसने पगड़ी और धोती उतारी । दोनों के गांठ लगाकर इसका एक सिरा तने के साथ बांधा । उसने लंगोट पहना हुआ था । वह ईरानी बन्दी से बोला, "मेरे नीचे उतरते ही झट उतर आना, देर न करना ।" और वह बंदर की सी फुर्ती के साथ नीचे उतर गया ।
ईरानी बन्दी, जिसे हूण प्राणदण्ड दे चुके थे, का जीवन युवक से बंधा था । वह अपने प्राण बचाने वाले की आज्ञा का पालन करता हुआ झट नीचे उतर आया । कटार का प्रहार खाकर ऊपर से गिरने वाले के शव पर झुके हुए जितेन्द्र ने ईरानी को आदेश दिया कि इसके कपड़ों की तलाशी ले और उसने आप कटार की तीन रगड़ों में उस की गर्दन धड़ से अलग की और उसके ही कपड़े से लपेटकर उसे गोद में ले लिया ।
"टीन की एक नलकी और चमड़े की एक थैली । न जाने इन में क्या है ?"
"लाओ, इन्हें मुझे दे दो । जहाँ कहीं प्रकाश में इस को पहचानने का अवकाश मिला तो इन्हें भी देख लूँगा । अब इसके शव को एक ओर छुपाने में सहायता दो ।" वह लेटे ही लेटे धकेलते हुए दूर तक ले गए । फिर उसे किसी ओट में छुपाकर उठे और वेगपूर्ण पंजों से चलते, जितना शीघ्र हो सके, बाहर निकल जाने का प्रयत्न करने लगे ।