आखिर जीत हमारी / भाग 9 / रामजीदास पुरी

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भगोड़े सांप [edit]

पुजारी की कोठड़ी के बाहर ढलती धूप में चारपाई बिछाए, रुद्रदत्त एक तकिये के सहारे बैठा था । चाहे आयुर्वेदाचार्य की जादूभरी औषधियों ने उसे मौत के मुँह से बचा लिया था, परन्तु विष का प्रभाव उसके चेहरे की नीलिमा और शरीर की दुर्बलता के रूप में प्रकट था ।

"हूण आक्रमणकारी बचकर निकल गया, महाबाहु !" उसने पूछा ।

दूसरी चारपाई पर बैठा महाबाहु बोला, "मगध सम्राट् की कृपा से, हमने उनका विरोध किया परन्तु वह न माने । यदि मैं और विरोध करता तो ......।"

"मुझे पता है । वह यहाँ आये थे और उन्होंने सारा वृत्तान्त सुनाया था । अभी उनके हाथियों की धूल दृष्टि से ओझल नहीं हुई । बताते थे कि श्री धूमकेतु को विजय स्तम्भ की आधारशिला रखने के लिए पीछे छोड़ आए हैं, और आप राजधानी में पहुंचकर विजयोत्सव मनायेंगे ।"

"मैंने उन्हें परामर्श दिया ।" महाबाहु बोला, "कि विजय स्तम्भ की आधारशिला को किसी विशेष स्थान की अपेक्षा अपनी जाति के युवकों के हृदय में त्याग और बलिदान के प्रचार से रखो जिससे वह प्रत्येक समय में विजय प्राप्‍त करें । परन्तु यदि स्वार्थ अहिंसा और भोग विलास हो गया तो .....।"

रुद्रदत्त ने दूसरी बार महाबाहु की बात को काटा । उसने कहा, "महाबाहु ! महाभारत में एक कथा आती है कि जब महाराज परीक्षित तक्षक नाग से डसे जाने के कारण परलोक सिधारे और उनके पुत्र महाराजा जन्मेजय ने समर्थ ऋषियों द्वारा ऐसा यज्ञ आरम्भ किया जिसके मंत्रों के बल से संसार के कोने-कोने से सांप खिंच-खिंच कर हवन कुंड की अग्नि में गिरने और राख होने लगे तो आखिर सांपों का एक जोड़ा इन्द्र के सिंहासन के पाद से लिपट गया । मंत्र शक्ति कुछ ऐसी प्रबल थी कि सिंहासन समेत वह सांप का जोड़ा हवन कुंड की ओर खिंचने लगा । इस पर इन्द्र ने सांपों पर दया करके ऋषियों से कहा कि इनको प्राणदान दिया जाए, नहीं तो सृष्टि से जीवों की एक योनि मिट जाएगी । यदि इन्द्र और आस्तिक सांपों के उस जोड़े के प्राण न बचाते तो मनुष्य जाति और दूसरे जीव-जन्तु, जो इसी जोड़े की सन्तान के कारण संसार भर में प्रत्येक वर्ष लाखों की संख्या में मर जाते हैं, न मरते ।"

"यह तो है ।" "मैं पूछता हूं कि तुमने यह कथा पढ़ी है अथवा नहीं ?" "पढ़ी है, नहीं क्यों ?" "ठीक, तो मैं पूछता हूं कि सांपों का वह जोड़ा क्या फिर इन्द्र के सिंहासन से लिपटा रहा ?"

"जहां तक स्मरण है उस कथा में तो इस बात का कोई वर्णन नहीं । परन्तु विचार है कि वह जोड़ा थोड़े समय तक, जब तक उसका भय दूर न हुआ होगा, उस सिंहासन से लिपटा रहा होगा । इसके पश्चात् शनैः शनैः उतरकर इधर-उधर घूमता हुआ किसी ऐसे स्थान पर जाकर रहने लगा होगा जो सांपों के रहने योग्य हो ।" महाबाहु ने उत्तर दिया ।

रुद्रदत्त फिर बोला, "उस समय भी इन्द्र और आस्तिक की इस दया पर महाराज जन्मेजय अथवा कोई और भी सही, कुछ लोगों ने बुरा मनाया होगा । तो मैं समझता हूँ और मेरा विचार है कि तुम इसका समर्थन करोगे कि बुरा मानने वाले उन लोगों ने बड़ी भूल की जो मनुष्य के शत्रु उस सांप के जोड़े को पीछे से ढूंढकर न मार डाला और उन्हें अंडे बच्चे देने और बढ़ने का अवसर दिया ।"

महाबाहु की आँखें खुल गईं । वह चौंक पड़ा । उसके चेहरे पर लज्जा की लाली फैल गई ।

"मुझसे सचमुच बड़ी भूल हुई रुद्रदत्त ! मगध सम्राट् ने चाहे उनको प्राणदान दे दिया परन्तु मुझे चाहिए था कि उनके युद्धक्षेत्र से निकल जाने के पश्चात् अपने राष्ट्रवादी युवकों के दो दस्ते उनके पीछे भेज देता तो उनको किसी वन में ठिकाने लगा देते ।"

"अब धूमकेतु कहाँ है ?" "मगध की राजकीय सेनाओं का एक दल लेकर स्यालकोट तक गया है, उनको वहाँ का अधिकार दिला दें और अपने राष्ट्रवादी युवकों को वापस साथ ले आए ।"

"और वे ईरानी ?" "बाहर हैं । उन्हें पहरे वालों और आयुर्वेदाचार्य के पास छोड़ आया हूं ।" "चार घोड़े तैयार कराओ ।" "आप यात्रा कर सकेंगे ?" "करनी पड़ेगी । नहीं तो एक सांप बीस बच्चे देगा और वह हजारों मनुष्यों को डसेंगे ।" "पांच सौ हूण उसके साथ हैं ।" "कोई चिन्ता नहीं । काम हम अपने ढ़ंग से करेंगे । और वह ढ़ंग कभी असफल नहीं हुआ ।"

महाबाहु नीचे उतर गया । रुद्रदत्त ने खड़े होकर कई दिन की दुर्बलता और आलस्य को परे हटाने के लिए अपने कन्धों को हिलाया और भुजाओं को दो-तीन बार झटका । उसकी छाती तन गई और आंखों में अपरिचित मानसिक शक्ति चमकने लगी ।

"घोड़े तैयार हैं ।" रुद्रदत्त उठ खड़ा हुआ । उसने भूरे रंग की ऊनी चादर अपने कंधों पर लपेटी और खड़ग कमर में बांध ली । "चलिये ।"

मन्दिर की सीढियों के नीचे चार सेवक घोड़े पकड़े खड़े थे । दोनों ईरानियों ने रुद्रदत्त को नमस्कार किया ।

"भारतीयों को लड़ते देखा, शापूर ?" "देखा श्रीमान ! भारतीय की खड़ग से मौत भी पनाह माँगती है ।"

"भारतीय के लिए विधाता ने मौत बनाई ही नहीं, शापूर ! वह एक जीवन से दूसरे जीवन में, एक युग से दूसरे युग में संसार को वीरता, उच्चता, ज्ञान और धर्म के कारनामे दिखाता, शरीर बदलता चला जाता है ।"

"सच है । तक्षशिला में विशारद की उपाधियां प्राप्‍त कर लेने के पश्चात् भी भारतीयों से बहुत कुछ सीखना शेष रह जाता है ।"

"हां, श्रीमान् ! यदि मगध सम्राट् के स्थान पर कोई और सम्राट् होता तो मेहरगुल इस प्रकार बचकर न जा सकता था ।"

"अब दो ईरानी और दो भारतीय" उसने अपने घोड़े की बाग थामते हुए कहा, "हिन्दुस्तान के तीन राजाओं की भूल का प्रायश्चित करने जा रहे हैं । प्रार्थना कीजिए कि ईश्वर हमें सफलता दे ।" उसने मध्यम धूप में चमकती हुई घोड़े की पीठ पर थपकी दी और अपना पैर रकाब में रखा । किन्तु ....

ठीक उसी समय मन्दिर की दीवार के मोड़ से वृद्ध बौद्ध भिक्षुणी इस ओर आती दिखाई दी । उन्हें कहीं जाते देखकर वह दूर ही से बोली, "बेटा !"

रकाब में उसी प्रकार पैर रखे रुद्रदत्त के मन में कोई भाव उत्पन्न हुआ जिसका प्रभाव उसके चेहरे पर झलक आया । "एक आवश्यक काम पर जा रहे हैं मां ! तुम्हारा आशीर्वाद लेना भूल गए थे । इसके लिए क्षमा करो और अब हमें आशीर्वाद दो कि हमें सफलता मिले ।"

"सफलता मिले बेटा ! तुम लोगों को, राष्ट्रवादी वीरों को सदा सदा सफलता मिले । भारत का कण कण यह आशीर्वाद देता है परन्तु बेटा, अपने काम पर जाने से पहले हमारे काम को सफल बनाते जाओ । सब सामग्री तैयार है । अपने पवित्र हाथों से हमारी चिताओं को अग्नि देते जाओ ।"

जैसे किसी अदृश्य शक्ति ने सामने से धक्का मारा हो । जैसे मस्तिष्क की गहराइयों में किसी पुरानी स्फूर्ति ने सहसा उभरकर शरीर और आत्मा दोनों को चौंका दिया हो । सवार होने वालों के पैर रकाबों से बाहर निकल आए ।

"मां ...." "बेटा, तुम ने वचन दिया था कि जब आक्रमणकारियों से देश सुरक्षित हो जाएगा, जब सूरमाओं के खांडे अत्याचारी हूणों को उनके पाप का दंड दे चुकेंगे, तब तुम्हारे हाथ हमारे आत्मदाह में हमारी सहायता करेंगे ।"

"हमें वह वचन याद है माँ । परन्तु ...."

"परन्तु नहीं बेटा !" वृद्ध भिक्षुणी जिस के चेहरे पर मिट जाने की प्रबल इच्छा चमक रही थी, रुद्रदत्त की बात काटती हुई कहने लगी "अब अधिक समय तक इस मलिन शरीर के साथ जिया नहीं जाता जिसके साथ पापों की भयानक काली स्मृतियां चिमटी हुई हैं और जिस पर अत्याचारों के घाव बने हुए हैं । हम उसी दिन जल मरतीं जिस दिन हम से बलात्कार हुआ था, परन्तु तुम्हारी प्रेरणा और देश रक्षा के कर्त्तव्य से प्रेरित होकर इसे आज तक टाले रखा था ।"

"तो मां ! देश रक्षा का कर्त्तव्य अब कौन सा पूर्ण हो चुका है ? जब तक देश और जाति रहेंगे, इनकी रक्षा की आवश्यकता भी बनी रहेगी ।"

"यह ठीक है बेटा परन्तु देश के संकट के दिन कुछ समय के लिये तो टल ही गए हैं । इतने समय में, बल्कि ईश्वर करे इससे भी पहले हम फिर जन्म लेकर शुद्ध आत्माओं और पवित्र शरीरों के साथ फिर कर्मक्षेत्र में आ पहुंचेंगी और अपना छोड़ा हुआ कर्त्तव्य फिर से सम्भाल लेंगी । बेटा ! तुम को हमारे आत्मिक दुःख का पता नहीं । हमारी स्थिति ऐसी है जैसे फूलों पर मंडराती तितली को संडास कोठड़ी में बन्द कर दिया जाये, जैसे गंगा की मछलियाँ किसी सड़े हुए जोहड़ के कीचड़ में जा पड़ें, जैसे हरे-भरे वनों में कुलेले करने वाली हिरनियाँ किसी तपते, गर्म, पथरीले बन्दीगृह में बन्द कर दी गई हों, ....गन्दगी के ढ़ेर में गाड़ दिया जाय । परन्तु नहीं, अपने आत्मिक दुःख का ठीक ठीक चित्र खींचने के लिए पूरी उपमा हमें नहीं सूझती । "बेटा ! तुम राष्ट्रवादी युवक ब्रह्मचारी हो । जिस कर्त्तव्य को लेकर कर्मक्षेत्र में उतरे थे, उसे पूर्ण रूप से निभाते जा रहे हो । किसी आलस्य तथा पतन के दाग तुम ने अपनी आत्मा पर नहीं आने दिये ।"

"....तुमको वेदना की उस झुलस देने वाली कसक और प्रायश्चित की उस असह्य चुभन का पता नहीं जो किसी पथभ्रष्ट आत्मा को प्रत्येक समय तड़पड़ाती रहती है । ऐसी अवस्था में हमारा संसार से विदा हो जाना ही ठीक है ।"

"बहुत अच्छा माताओ !" भावावेश में आने वाले रुद्रदत्त की आवाज भारी हो गई । "चलो, जिन आँखों ने धर्म और आदर्श की रक्षा के लिए लड़ने वाले भारतीय वीरों को समरभूमि में अंग-भंग कटवाकर गिरते देखा है, वह आज सत और पवित्रता की मतवाली भारत की नारियों को शान्तचित्त से चिताओं पर चढते देख लेती हैं ।"

घोड़ों की बागें फिर नौकरों को थमा दी गईं और वह चारों युवक वृद्ध भिक्षुणी के पीछे-पीछे चलते मन्दिर की वाटिका में पहुंचे जहाँ पेड़-पौधों से खाली धरती के एक चौकोर टुकड़े पर मालवा नरेश द्वारा भिजवाए चंदन की बहुत सी चिताएं बनी हुईं थीं, और उनमें से प्रत्येक के पास एक भिक्षुणी खड़ी थी, चुपचाप और बिना हिले-जुले, पत्थर की मूर्ति । धैर्य, सहनशीलता, तत्परता और शीघ्रता के भाव उनके चेहरों पर उभरकर अपने स्थान पर ठहरे हुए प्रतीत होते थे ।

वृद्ध भिक्षुणी अपने साथ वाली भिक्षुणियों के साथ जा खड़ी हुई । वह बोली, "हे भगवान ! पता नहीं तुम्हारे कितने रूप और कितने नाम हैं, और न इस बात का पता है कि तुम तक पहुँचने के कितने मार्ग हैं - कर्म और ज्ञान, यज्ञ और सन्यास ! किसी युग में कोई मार्ग अच्छा माना जाता है और किसी में कोई । अपने काल के अनुसार त्याग और तप द्वारा उस पदवी तक पहुंचने का प्रयत्‍न करना चाहा था जो तेरे मार्ग के निकट पहुंचा देती हैं । परन्तु न जाने किस के पाप के कारण एक महान् घोर अत्याचार ने हमारा सब कुछ नष्ट-भ्रष्ट कर डाला और हम पथभ्रष्ट होकर रह गईं । इसके पश्चात् शान्ति और एकान्त में रहने वाली इन आंखों ने धर्मयुद्ध की भूमि पर वीरता और बलिदान के वह दहकते दृश्य देखे जिन्होंने मन के दृढ़ विचारों में उथल पुथल मचा दी । हमने देखा कि आत्मोन्नति के लिए सुख भरे घरबार को त्यागकर वनों को जाने वालों की तुलना में देश रक्षा के लिए अंग-अंग कटवाने वाले शूरवीर कहीं सच्चे और ऊंचे हैं, जहां तप तथा समाधि की तुलना में कर्त्तव्य का यह खेल आधी घड़ी में समाप्‍त हो जाता है, प्राणायाम की तुलना में प्राणों की आहुति देना और कपाल में श्वास चढ़ा लेने की तुलना में अपना शीश मातृभूमि की भेंट चढ़ा देना अधिक विस्मयजनक है । पुरुष योद्धा बनें, और स्त्री योद्धा जनें । आज तक के जीवन के अनुभव से यही बात ठीक लगती है । हम प्रार्थना करती हैं कि अगले जन्म में ईश्वर हमें देश सेवा की सामर्थ्य दे । इस जन्म में स्त्री बन इन राष्ट्रवादी युवकों पर बोझा सिद्ध हुई हैं । अगले जन्म में इनका बोझ हल्का करने वाली बनें ।"

उसने चुम्बक से कपड़े के टुकड़े पर आग का पतंगा झाड़ा और उसे जलाकर लम्बी लकड़ी से बांधी घी में भीगी सूत की पट्टी पर रख दिया जिससे कुछ क्षणों में अग्नि ज्वाला उठने लगी ।

"लो बेटा !" उसने जलती हुई मशाल रुद्रदत्त के हाथ में दे दी । "अपने पवित्र हाथों से हमारी चिताओं को आग दे दो जिससे यह विमान बनकर हमें परलोक में ले जाएं ।"

भिक्षुणियाँ चिताओं में जा बैठीं । रुद्रदत्त और उनके साथी एक क्षण के लिए चुपचाप खड़े रहे । फिर रुद्रदत्त का संकेत पाकर महाबाहु ने बारी-बारी चिताओं को आग लगा दी और बरतनों में से घी-सामग्री के कड़छे भर-भरकर उन पर डाले ।

धूएं के गोले और आग की लपटों के बीच थोड़े समय तक मन्त्रों के जाप की हल्की सी ध्वनि उठती रही । आग और मौत ने प्रत्येक वस्तु को लपेट में ले लिया ।

सूर्य अस्त हो गया । पता नहीं, सामग्री डालने का पात्र महाबाहु के हाथ से गिर पड़ा । बहराम और शापूर ने अपनी आँखों के आंसू पोंछे । पीछे दूर खड़े ऊंटों में से एक शोक भरे स्वर में बिलबिलाया ।

रुकी हुई हवा फिर चल पड़ी ।

"देर हो रही है महाबाहु !" रुद्रदत्त बोला ।

महाबाहु ने एक ठण्डी साँस भरी । "चलो ।"

चारों ने इनकी चिताओं को नमस्कार किया । नौकरों को उचित ढ़ंग से समझाया । फिर चिताओं के प्रकाश और गर्मी को पीछे छोड़ यह आगे चल पड़े ।

मन्दिर के सामने घोड़े उसी प्रकार खड़े थे । वे तुरन्त उन पर चढ़ गए और उनकी बागें उठा लीं । उत्तर-पश्चिम हिन्दुस्तान के मार्ग, वन और पहाड़ियाँ रुद्रदत्त और महाबाहु को इस प्रकार ज्ञात थीं जिस प्रकार किसी को अपने हाथ की रेखायें । यात्रा की आवश्यकता को ध्यान में रखकर कुछ भोजन उनके साथ था जिसमें से आवश्यकतानुसार कुछ उन्होंने घोड़ों की पीठों पर ही खाया । सरपट तो नहीं, फिर भी पर्याप्‍त वेग से वह चलते गए । जब नवमी का चाँद डूब रहा था तो रुद्रदत्त ने चलते-चलते कहा "सर्प की कृपा से इतना लाभ तो हुआ है कि शीत और नींद दोनों पास नहीं फटकते ।"

"अभी आपको और चिकित्सा करानी चाहिए थी ।" "औषधि मेरे पास है जिसके सेवन से कुछ दिनों में ठीक हो जाऊंगा । महाबाहु ! युद्ध में तुम्हें कोई घाव तो नहीं आया ?"

"छाती पर तलवारों के दो गहरे घाव और रान पर बरछे की हूल । मरहम लगाकर उन पर पट्टियाँ बांधी हुई हैं । दिन निकलने पर जहाँ घोड़े बदलेंगे वहां इनको भी बदल लूंगा ।"

"और श्री बहराम और शापूर के तो कोई चोट नहीं आई ?"

बहराम बोला, "साधारण घाव हैं जिन पर मगध के राजवैद्य ने अपने हाथ से औषधि लगाकर पट्टी कर दी है और उनमें कोई विशेष पीड़ा नहीं ।"

"युद्ध में कूदकर घाव खाए बिना लौटना वीरता को लाज लगाना है । जो वीर अपने शरीर को चिता तक घाव के बिना ले जाता है वह महापापी है ।"

घोड़ों की टापों से डरकर दो चरख अपनी भद्दी चाल से दौड़ कर एक सघन वृक्ष की ओट में जा छुपे । टहनियों में बसेरा लेने वाली दो तुगतारें बोलीं । एक बहुत बड़ा तारा टूटा और उसकी लकीर प्रकाश फैलाती दूर रेत और पत्थरों के ऊंचे टीले के पीछे जाकर ओझल हो गई ।

इसी प्रकार अपने घोड़ों की टापों से चरखों, भेड़ियों और बसेरा लेने वाले पक्षियों को डराते वह दो रातें और दो दिन लगातार चलते रहे । प्रत्येक स्थान पर यही सूचना मिली कि वह, जिन का पीछा किया जा रहा है, यहां से होकर आगे चले गए हैं । तीसरी रात जब वह जम्मू की सीमा की एक बस्ती में से होकर आ रहे थे तो उन्होंने वहां एक अनोखी घबराहट देखी जो गाँव के स्वाभाविक जीवन पर अचानक छाई प्रतीत होती थी ।

"क्या बात है महाशय ?" अपना घोड़ा रोककर रुद्रदत्त ने एक से पूछा ।

"श्रीमान् ! वह वृद्ध घबराहट की सी अवस्था में बोला, "एक घुड़सवार कह गया है कि परसों जो हूण सम्राट् अपने सरदारों समेत यहाँ से होकर गया था और जिसको काश्मीर नरेश ने अतिथि बनाकर ठहरा लिया था, वह महाराज की हत्या करके काश्मीर राज्य सम्भाल बैठा है ।"

रुद्रदत्त का चेहरा एकदम गम्भीर हो गया ।

महाबाहु और ईरानियों को जैसे किसी ने छाती पर बरछा मारा ।

वह वृद्ध व्यक्ति बोला, "कई मनुष्य सम्भवतः राजघराने से सम्बंध रखने वाले, गाँव के बाहर मठ में आकर ठहरे हैं । पूरी बात उनसे ही मालूम हो सकेगी । परन्तु वहां के पुजारी ने रोक दिया है कि गांव का कोई वासी यहाँ न आए ।"

और कुछ कहे बिना रुद्रदत्त ने अपने घोड़े की बाग मठ की ओर उठा दी । "मुझ से बड़ी भूल हुई, मार्ग में महाबाहु बोला, "यदि मैं उनको वहीं ठिकाने लगा देता तो आज एक राज्य नष्ट न होता । इसका सारा पाप मेरे ही ऊपर है ।"

"बड़े अचम्भे की बात है", शापूर कहने लगा, "कि पाँच सौ हूणों के सामने किस प्रकार एक राज्य की सेनाओं ने हथियार डाल दिए और वहां के कर्मचारियों ने उसके अधीन होना स्वीकार कर लिया ।"

बहराम बोला, "संसार बदल गया, परन्तु कश्मीरी न बदले । जो विजय पाता दिखाई दिया, उसी का बनना स्वीकार कर लिया । तूफान के सम्मुख चट्टान बनकर खड़ा हो जाना सम्भवतः इनके जातीय चरित्र के विरुद्ध है । जब मैं तक्षशिला में पढ़ता था तब भी, यद्यपि ऐसी तो नहीं, परन्तु इससे मिलती-जुलती घटना हुई थी ।"

रुद्रदत्त ने अपने घोड़े की बागें दाईं पगडंडी पर मोड़ीं । वह बोला, "सीमा के प्रान्तों में जहाँ बलिदान के प्रचार की कमी हो और केन्द्र की सैनिक-शक्ति शिथिल हो जाए वहां के लोगों के स्वभाव में ऐसे दोष आ ही जाया करते हैं । कुछ भी हो, काश्मीर पर हमारा अधिकार होना चाहिये । उत्तर की ओर से हिन्दुस्तान की रक्षा के लिए ऐसा होना आवश्यक है ।"

महाबाहु को जैसे कोई शक्ति पीछे की ओर खींच रही थी । वह कहने लगा, "यदि आज्ञा दें तो मैं उल्टा जाकर मालव, मगध अथवा स्यालकोट से अपनी सेनायें ले आऊँ ? आज से दसवें दिन हमारे सैनिक काश्मीर की पहाड़ियों में लड़ाई के मोर्चे संभाल लेंगे ।"

"और आज से पाँचवें दिन तुर्किस्तान से हूण फौज मेहरगुल की सहायता के लिए आ पहुँचेगी । क्या तुम्हारा विचार है कि उसने अपने देश से कुमक न मंगवाई होगी ? यदि नहीं मंगवाई, तो भी आजकल में वह इसके लिए अपना संदेश भेज देगा । नहीं महाबाहु ! दस दिन अथवा पाँच दिन की प्रतीक्षा नहीं की जा सकती । जो कुछ हम करने आए हैं, वह इससे बहुत पहले कर डालना चाहिए ।"

"हम चार आदमी ?" "चार आदमियों की संख्या को थोड़ी समझना अथवा उनमें किसी प्रकार की वृद्धि करना यह एक ऐसी बात है जिसे मेरे विचार से मठ के भीतर पहुँच कर संकटग्रस्तों से मिल लेने के पश्चात् तक उठा रखना चाहिए । जो योजना हम अब बनायें, संभव है उनसे मिलकर हमें उसको बदल डालना पड़े ।" "बहुत अच्छा !"

एक विद्वान् और चतुर दीखने वाला युवक पुजारी सायंकाल के झुटपुटे में द्वार के भीतर खड़ा लाल-लाल आकाश में कुछ देख रहा था कि देखकर चौंका । अपने चिन्ता-भरे चेहरे पर स्वागत की मुस्कराहट उत्पन्न करता हुआ वह बोला, "आइये श्रीमान् !" उन्होंने अभिवादन किया ।

"हम रात को यहां विश्राम करना चाहते हैं ।" महाबाहु ने कहा ।

"बड़ी प्रसन्नता से, परन्तु मेरा विचार है..." उसने घूरती हुई दृष्टि से आने वालों की ओर देखकर कहा, "पूरा सुख और आराम संभवतः आप को यहां न मिल सके क्योंकि कुछ लोग जो पहले से यहाँ ठहरे हुए हैं, वह किसी बहुत बड़े संकट में से निकलकर आए हैं और दुःख की आग अभी उनकी बातचीत और क्रियाकलाप से दूर नहीं हुई ।"

"वास्तव में", महाबाहु बोला, "हम उन लोगों से ही मिलना चाहते हैं । हमें किसी ऐसे व्यक्ति ने भेजा है जो ऐसे दुःखों और संकटों की चिकित्सा जानता है ।"

"यह बात और भी अच्छी है, भीतर चलिए । दाएं हाथ की कोठड़ियों में काश्मीर का राज्यच्युत अल्पायु का राजकुमार ठहरा हुआ है । यदि उसका सिंहासन दिलाना सम्भव न हो, तो उसे किसी मित्र राजा के दरबार में ले जाइए जहाँ उसको प्राणों का भय न हो और वह अपने दुःख के दिन भली प्रकार बिता सके ।"

मठ के ऊँचे फाटकों वाले द्वार के पथरीले फर्श पर से जब इन के घोड़े निकले तो एक गूंज उत्पन्न हुई जिसमें छत के नीचे बैठे दो कबूतर फड़फड़ाते हुए उड़ गए ।

भीतर दो पालकियाँ और दस बारह घोड़े खड़े थे । परे कुछ सेवक भोजन बना रहे थे जिनसे कुछ मसालों की सुगन्धि, जो काश्मीर की भूमि से सम्बन्ध रखती है, हवा में फैली हुई थी । कर्मचारी और राजघराने की महिलायें मन्दिर में प्रार्थना करने गईं हुईं थीं । केवल राजकुमार सोलह-सत्रह वर्ष का एक सुन्दर नवयुवक कोठड़ी में पलंग पर सिर झुकाए बैठा था । उसके चेहरे पर चिन्ता की गहरी लकीरें बनी थीं । जब उसने गर्दन उठाकर देखा तो मध्य भारत के चार सशस्‍त्र युवक द्वार पर खड़े थे ।

"आइये ! मैं समझता हूं हम एक दूसरे को नहीं जानते । कहिये, आप किस से मिलना चाहते हैं ?"

"राजकुमार !" रुद्रदत्त बोला, "काश्मीर में जो कुछ हुआ उसकी सूचना हमें अभी इस गाँव में मिली है । हम उसे ही रोकने के लिए आ रहे थे । खेद है कि हम समय पर न पहुँच सके ।"

"पिताजी ने", राजकुमार कहने लगा, "उस हारे हुए नीच हूण को अपने यहाँ अतिथि बनाकर ठहरा लिया । प्रत्येक प्रकार का सुख दिया । किसे पता था कि वह यों धोखा और अनर्थ करेगा ? ओह ! मैं इस शोक से पागल हुआ जाता हूं । प्राण बचाकर भागने के पश्चात् कुछ नहीं सूझता कि कहां जाऊं ? क्या करूं ?"

महाबाहु का दिल भर आया । रुद्रदत्त बोला, "आप स्वयं कुछ न करें । केवल उन लोगों को सहायता दें जो कुछ करना चाहते हैं ।"

"बताइये, मैं क्या सहायता दूं ?" "एक ऐसा व्यक्ति हमारे साथ कर दीजिए जिसको काश्मीर के वनों, पहाड़ों, राजधानी की गलियों और राजप्रासाद के कमरों आदि की पूरी जानकारी हो, जिसके प्रभाव से कहीं छुपकर ठिकाना अथवा विश्राम मिल सकता हो ।"

दो क्षण तक सोचकर राजकुमार ने कहा, "यदि आपको आपत्ति न हो तो इस काम के लिये मैं स्वय़ं अपने आपको उपस्थित कर सकता हूँ । अपना राजपाट पाने के लिए नहीं, बल्कि पिता की हत्या का बदला लेने के लिए मैं मौत के मुँह में भी कूदने को तैयार हूँ । आप रात को आराम करें । कल दिन निकलते ही हम चल पड़ेंगे ।"

"आराम और बदला?" रुद्रदत्त ने तीव्र दृष्टि से राजकुमार की ओर देखते हुए कहा, "राजकुमार ! मृत को जीवित करना और जीवित को मृत बनाना यह काम दिन में नहीं होते ।"

"तो मैं अभी तैयार हूं । अभी चलिए ।"

जब कर्मचारी लौटे तो महाबाहु ने उन्हें अपना परिचय कराया । सारी बात समझाई और साधारण विचार विनिमय के पश्चात् उन्हें आवश्यक आदेश दिए । किवाड़ की ओट में से राजमाता ने कहा, "बेटा ! जाते हुए मन्दिर में मूर्ति के चरणों को छूकर देवी से आशीर्वाद लेते जाना । भगवान तुम्हारी रक्षा करे ।"

पाँच घुड़सवार मठ से बाहर निकले । द्वार पर मोटी बत्ती का एक धूएं वाला दीपक जल रहा था और बाहर चबूतरे के पास के अग्निकुंड में जलती हुई लकड़ियां चटक रही थीं । पुजारी से रात को गप लड़ाने वाले तीन किसान अन्दर जाने से पहले आग के किनारे खड़े होकर थोड़ा अपने हाथ पांव सेंकने लगे थे ।

एक पगडंडी के मोड़ पर, जब रात बीत चुकी थी और पर्याप्‍त दिन चढ़ आया था, एक मोटे और आकाश से बातें करने वाले वृक्ष की ओट में से निकलकर एक बरछे वाले हाथ ने उनका मार्ग रोका । "किधर मुंह उठाए जा रहे हो ?" एक काश्मीरी सैनिक वृक्ष की आड़ से निकलकर सामने आ खड़ा हुआ ।

"क्षमा करना," रुद्रदत्त बोला, "हम मार्ग भूल गए हैं ।"

"बलभद्र !" राजकुमार ने अपने रक्षक दस्ते के सैनिक को पहचान कर आवाज दी ।

"कौन, अन्नदाता राजकुमार ?" "हाँ ।"

पहरेवाले ने पुराने स्वभाव के अनुसार राजकुमार को प्रणाम किया । राजकुमार ने कहा, "हम आवश्यक काम के लिए इधर जाना चाहते हैं ।"

"जाइए अन्नदाता ।" पहरे वाले में राजकुमार को रोकने का साहस न था ।

"क्या हूण शिकार खेलने के लिए आ गया है ?" "अभी आया है ।" "तो हमें किसी ऐसे रास्ते से उस तक ले चलो कि किसी की दृष्टि हम पर न पड़े । कोई देख ले तो कहना कि प्रजा के पीड़ित लोग हैं । प्रार्थना करने जा रहे हैं । समझ गए?"

"समझ गया अन्नदाता !" "तो सोचते क्या हो ? डरते हो ?" "अन्नदाता की सेवा में डर किस बात का ? परन्तु अच्छा हो कि घोड़ों को यहीं छोड़ दिया जाए ।"

सवारों ने नीचे उतर कर घोड़ों को पेड़ की जड़ों से बाँध दिया और चट्टानों और झाड़ियों की ओट में होते हुए वे काश्मीरी सैनिकों के साथ-साथ चलने लगे ।

काश्मीर की धरती के रंग-बिरंगे सुन्दर फूल और बहार पग-पग पर खिली थी । परन्तु इनकी ओर किसी ने ध्यान न दिया । जीवन तथा मौत के अन्तिम संघर्ष पर जाते हुए उनका ध्यान हूण सम्राट् की गर्दन और अपनी खड़ग के अतिरिक्त और किसी वस्तु की ओर न जा सकता था । उनके पट्ठे सतर्क और नाड़ियों में लहू की गति तेज हो गई थी ।

"अरे, तुम कौन हो ? किधर जाते हो ?" एक हूण सरदार ने ठीक उस समय उन्हें टोका जब यह मेहरगुल के पीछे कोई कोई पन्द्रह पग पर जा पहुंचे थे ।

"हम प्रजा के दुखी किसान हैं । न्याय चाहते हैं ।"

हूण सम्राट् ने गर्दन मोड़कर आने वालों की ओर देखा । रुद्रदत्त ने एकदम छलांग लगाई और खड़ग का एक भरपूर वार कर उसकी गर्दन उड़ा दी ।

यह काम इतनी तेजी से हुआ कि हूण और काश्मीरी, सभी जो वहाँ उपस्थित थे, स्तम्भित हो गए । परन्तु इस पर भी इनको पकड़ने के लिए इनकी ओर दौड़े । रुद्रदत्त के साथियों ने तलवारें मियानों से सूंत लीं ।

परन्तु रुद्रदत्त के धैर्य में कमी न आई । अपने स्थान पर खड़ा वह हूण अधिकारियों को डांटता हुआ बोला, "सावधान ! जो तुमने एक पग भी आगे बढ़ाया । जिन राष्ट्रवादी युवकों ने, अभी थोड़े ही दिन हुए, युद्धक्षेत्र में तुम्हारे धूएं बखेर दिये थे, उनका दस हजार का एक दल इस पहाड़ी की ओट में तैयार खड़ा है । और तुम काश्मीरी कर्मचारियो ! सुनो !! मैं राजकुमार की ओर से तुम्हें आज्ञा देता हूँ कि एक-एक हूण को चाहे वह यहाँ है चाहे राजधानी में, पकड़ लो और सूली पर चढ़ा दो । यदि तुमने आज्ञा मानने में तनिक भी ढील की तो याद रखो, तुम्हारे परिवारों के बच्चे-बच्चे सूली पर लटकवा दिए जायेंगे ।"

रुद्रदत्त की धमकी काम कर गई । हूण अधिकारी चकित और घिरे हुए अपने स्थान पर खड़े रहे । काश्मीरी राजकर्मचारी एक क्षण तो हिचकिचाए, तब राजकुमार ने अपने सिर का कपड़ा हटाकर स्वयं उन्हें आज्ञा दी, "हिन्दुस्तान की सेनाएं हमारी सहायता को आ पहुँची हैं, शत्रु मारा जा चुका है । उसके एक-एक आदमी को पकड़कर मौत के घाट उतार दो ।"

काश्मीरी कर्मचारियों ने राजकुमार को झुककर प्रणाम किया । कुछ ने हूण सरदारों को बंदी बना लिया और उनके हथियार छीन लिए और शेष राजकुमार की आज्ञा का पालन करने के लिए प्रसन्नता और जोश में भरे, दूसरे हूण सरदारों को पकड़वाने के लिए राजधानी की ओर दौड़े ।

रुद्रदत्त ने अपनी खड़ग की नोंक मेहरगुल के कटे हुए सिर में भोंकी । "श्री बहराम !"

"जी" "इधर आओ ।"

बहराम उसके सामने आकर खड़ा हो गया ।

"दोनों हाथ फैलाओ ।"

बहराम ने घुटने टेककर दोनों हाथ फैला दिए ।

खड़ग की नोंक में फंसे हूण आक्रमणकारी के सिर को बहराम की ओर बढ़ाता हुआ रुद्रदत्त बोला, "महर्षि जरदुस्त के ईरान की सेवा में भारत की ओर से यह तुच्छ भेंट स्वीकार करो । हमने अपनी पुण्यभूमि हिन्दुस्तान से अत्याचारी आक्रमणकारियों के प्रभाव को मूल से उखाड़ दिया है । तुम जाकर अपने देश से विदेश के राजनैतिक और धार्मिक प्रभाव को समाप्‍त कर डालो । हमारी शुभकामनाएं तुम्हारे साथ हैं ।"

बहराम ने मेहरगुल का कटा हुआ बोझल सिर अपने हाथों में ले लिया । दोनों ईरानियों के चेहरों पर प्रसन्नता के भाव थे ।

फूलों से लदी पहाड़ी पर से हवा के सुगन्धित झोकों में तैरती किसी पक्षी की मधुर आवाज सुनाई दी । कमलों समेत झील पर से दो राजहंस उड़े और नीले आकाश में उड़ते चले गए । सूर्य पर आया छोटा-सा बादल परे हट गया । धूप की आनन्ददायी और स्वर्णमयी किरणों से सारी घाटी जगमगा उठी ।

••• इति •••