आखिर वह कौन था? / गोवर्धन यादव
"कैसी है अब जानकी...क्या हुआ था उसे...अभी दो दिन पहले तक तो ठीक थी...अचानक ऐसे क्या हो गया...किस वार्ड में भरती है...इतना सब कुछ हो गया और आपने हमें फ़ोन करके बतलाना तक उचित नहीं समझा...क्या हम इतने पराए हो गए हैं? अगर उसे कुछ हो जाता तो हम तुम्हें ज़िन्दगी भर माफ़ नहीं करते।"
वे क्रुद्ध सिंहनी की तरह दहाड़ रही थीं। दहाड़ सुनकर उनकी घिग्गी-सी बंध गई थी। कुछ प्रश्न तो ऐसे भी थे, जिन्हें सुनकर, वे अन्दर ही अन्दर तिलमिला भी उठे थे। इस दुर्घटना के ठीक बाद उन्होंने टेलीफ़ोन लगाया भी था, लेकिन किसी ने उठाया नहीं। इसके बावजूद भी वे कह रही हैं कि हमें फ़ोन लगाकर सूचना तक नहीं दी? बार-बार फ़ोन लगाने का समय ही कहाँ बचा था उनके पास? । यह वह समय था, जब जानकी को तत्काल अस्पताल ले जाना ज़रूरी था।
प्रत्युत्तर में वे बहुत कह सकते थे, । शब्दों का अक्षय भंडार था उनके पास। फिर शब्दों की अर्थवत्ता को नए-नए आयाम देने वाले सिद्धहस्त प्राचार्य के लिए, यह कोई दुष्कर कार्य नहीं था, वे जानते थे कि सामने खड़ा शख़्स कोई और नहीं बल्कि उनकी भाभीजी थी। वे सदा से ही उन्हें सम्मान देते आए हैं। मुँह लगकर कैसे बात कर सकते थे? । फिर उन्हें यह अधिकार भी बनता है। वे हर हाल में उनका सम्मान बचाए रखना चाहते थे। मर्यादा कि भी अपनी एक सीमा होती है और वे किसी भी सूरत में मर्यादा कि सीमा लांघना नहीं चाहते थे। अतः चुप रहना ही श्रेयस्कर लगा था उन्हें।
बोलते समय उनका चेहरा तमतमाया हुआ था। शब्दों में तलखी थी। वे कुछ ज़्यादा ही तेज सुर में बोल भी रही थीं।
सारा गुस्सा एक साथ में उगल देने के बाद वे एकदम शांत हो गई थीं। तेज बोलने के कारण अथवा सीढ़ियाँ चढ़कर आने के कारण वे हाँफ़ भी रही थीं।
वे सिर झुकाए भाभीजी के क्रोध का सामना करते रहे थे। सब कुछ सुन चुकने के बाद, उन्होंने अपने सूख चुके हलक को, थूक से गिला करते हुए कुछ कहना चाहा लेकिन इसके पहले ही जयश्री अपनी मम्मी पर भड़क उठी।
"मम्मीजी... आप भी कैसे-कैसे ऊल-जुलूल बातों को लेकर बैठ गईं... देखतीं नहीं आप... अंकल जी इस समय कितनी भीषण मानसिक-यंत्रणाओं के दौर से गुजर रहे हैं। क्या अभी और इसी समय इतना सब कुछ पूछना ज़रूरी है? पत्नी कोमा में पड़ी हैं। बेटा विदेश में है। ऐसे कठिन समय में इन्हें सवालों की नहीं, बल्कि सहानुभूति में पगे शब्दों के मलहम की ज़रूरत है। ऐसे शब्द...जो इनका ढाढस बंधा सके."
बरामदे में लटके बल्बों से झरती पीली-बीमा रोशनी को चीरते हुए, उनकी नज़र बेंचें पर बैठे मरीजों के अभिभावकों पर जा टिकी। सभी के म्लान चेहरे, पीले पके आम की तरह लटकी सूरतें और चेहरों पर चिंता कि मकड़ियों के घने जालों को देखकर, वे सिहर उठे थे। फिर पीली मिट्टी से पुती दीवारें भी, उनके भय में वृद्धि करने लगी थी।
उनकी नजरों के सामने रह-रहकर उस नवयुवक का धुंधला-सा चेहरा डोलने लगता, जिसे वे पहिचान नहीं पा रहे थे। हिंसक हो चुकी भीड़ को चीरता हुआ वह उनके पास आया था और विनयपूर्वक कहने लगा था-" अंकलजी ...आपकी एबुलेंस शायद ही आगे बढ़ पाएगी। सायरन बजता रहेगा लेकिन उसे सुनने वाला कौन है? देखते नहीं भीड़ का उन्माद? । संभव है, कहीं वे इसे भी आग के हवाले कर दे। अब तक कई गाड़ियाँ फ़ूँकी जा चुकी है...अगर इसी तरह आप खड़े रहे तो अंटी को खो बैठेंगे। देख रहे हैं आप... किस क़दर मारकाट मची है, पत्थर पर पत्थर बरसाए जा रहे हैं। जगह-जगह टायर जला कर रोड में अवरोध बिछाये जा रहे हैं। आप मुझे नहीं जानते लेकिन मैं आपको भली-भांति जानता हूँ। मैं कभी आपका विद्यार्थी रहा हूँ। आप निश्चिंत रहें, मैं किसी तरह बचते-बचाते इन्हें अपने कंधे पर डालकर अस्पताल ले जाता हूँ। आप भी किसी तरह वहाँ पहुँचने की कोशिश कीजिए. कृपया सोच-विचार में देर मत लगाइए... जरा-सी भी देरी की तो इनकी जान जा सकती है। क्या आप मुझ पर भरोसा करेंगे?
"क्या आप मुझ पर भरोसा करेंगे" ...शब्द अन्दर गहरे तक उतर कर कोहराम मचाने लगे थे। उन्होंने उस नवयुवक के एक-एक शब्द को ध्यान से सुना था। वे सोचने लगे थे-... एक अजनवी देवदूत बनकर उनके सामने खड़ा प्रार्थना कर रहा है कि वह इस संकट की घड़ी में उनके काम आ सकता है। सच ही कह रहा है वह...अगर जरा-सी भी देरी, मैने अपनी ओर से की, तो निश्चित ही मैं जानकी को खो बैठुंगा। अगर ऐसा कुछ हुआ तो वे ज़िन्दगी भर अपने को कभी माफ़ नहीं कर पाएंगे। उन्होंने उस नवयुवक को तत्काल ही ऐसा करने की अनुमति दे दी थी...
पलक झपकते ही उस नवयुवक ने अचेत पड़ी जानकी को अपने कंधे पर डाला और भीड़ को चीरता हुआ द्रुतगति से अस्पताल की ओर बढ़ चला था। वे भी यंत्रवत उसके पीछे हो लिए थे।
वे कुछ ही क़दम साथ चल पाए थे कि भीड़ ने उन्हें पीछे ठेल दिया था। वे गिरते-गिरते भी बचे थे। किसी तरह उन्होंने अपने को गिरने से बचाया और बचते-बचाते अस्पताल की ओर बढ़ने लगे थे।
अस्पताल पहुँचकर उन्होंने रिसेप्शन काउण्टर पर अपना परिचय दिया। मुश्किल हालातों का हवाला देते हुए सारा किस्सा कह सुनाया और जानना चाहा कि उनकी पत्नी को किस वार्ड में भरती किया गया है? । उन्हें यह जानकर प्रसन्नता हुई कि युवक के जानकी को अस्पताल में भरती करवा दिया है और इस समय वह आई.सी.यू. वार्ड में भर्ती है। एक आशा कि किरण उन्हें दिखाई देनी लगी थी कि देर-सबेर ही सही, वह स्वस्थ हो ही जाएगी।
उनकी नजरें अब उस नवयुवक को खोजने लगी थी। वे उसे धन्यवाद के साथ ही कुछ ईनाम भी देना चाहते थे। चारों ओर नजरें घुमाकर उन्होंने देखा भी। लेकिन वह कहीं नज़र नहीं आया। उत्सुकतावश उन्होंने काउण्टर बैठे व्यक्ति से जानकारी लेनी चाही, तो उसने इन्कार की मुद्रा में अपना सिर हिला दिया था। उन्हें अपने आप पर आत्मग्लानि-सी होने लगी थी कि उसी वक़्त वह उसका नाम-पता आदि जान सकते थे, जब वह मदद देने के लिए आगे आया था। लेकिन अब कुछ नहीं किया जा सकता।
बेंच पर बैठे हुए उन्हें कोफ़्त होने लगी थी। कभी वे अपनी जगह से उठ खड़े होते। बरामदें का चक्कर लगाते फिर थक-हार कर पुनः बैठ जाते। फिर वे आहिस्ता से उठते और खिड़की के पास जाकर सटकर खड़े हो जाते। खिड़की में जड़े, जगह-जगह खरोचें गए कांच में से, वे भीतर झांकने का प्रयास करते। अन्दर कुछ भी दिखाई नहीं देता। वे वहाँ से हट जाते। फिर बेंच पर आकर बैठ जाते और मन ही मन अपने ईष्ट देव का सुमिरन करने लगते
वे खुली आँखों से हिंसक भीड़ का नजारा देख चुके थे देख चुके थे कि किस तरह दूकानों-मकानों और वाहनों को आग के हवाले किया जा रहा था। सड़क पर जगह-जगह टायर जलाए जा रहे थे। लोग गला फ़ाड़-फ़ाड़ कर चिल्ला रहे थे...ले के रहेंगे आजादी...हक से लेंगे आजादी...लड़कर लेंगे आजादी। कभी कोई रामधारीसिंह दिनकर की कविता कि पंक्तियों को दोहराता हुआ कहता...सिंहासन खाली करो कि जनता आती है... एक चिल्लाता...अभी तो ये अंगड़ाई है...फ़िर भीड़ में से आवाजें आती...आगे और लड़ाई है। कभी कोई चिल्ला उठता...साले सब चोर हैं...इस्तीफ़ा दो...अपने नेता के स्वर में स्वर मिलाते हुए पूरी टीम, शब्दों को ऊँचें स्वर में दुहराने लगती। इस तरह वे अपनी कर्कश आवाजें निकालते हुए, पूरे आकाश को विदीर्ण किये जा रहे थे। वे समझ नहीं पा रहे थे कि इन युवाओं को कौन-सी आजादी चाहिए? और किस बात की आजादी चाहिए? । आख़िर ये कैसा लोकतंत्र है, जहाँ जान-माल की कोई क़ीमत नहीं? आख़िर वे कौन हैं देशद्रोही, जो इस देश में अराजकता फ़ैला कर अपने मंसूबों को सफल होते देखना चाह्ते है? अपने ही शहर को जलाकर आख़िर इन्हें मिलता क्या है? क्या कभी इनकी सोच में, ये बात नहीं आती कि इस दंगाई में कितने ही निर्दोष लोग अपनी जान से हाथ धो बैठते है?
मन के आँगन में धधक रहे इन ज्वलंत प्रश्नों के ज्वालामुखी ने उन्हें अशांत कर दिया था। तभी उन्होंने वार्ड के दरवाजे को खुलता देखा। एक नर्स अपनी सैंडिले खटखटाते हुए बाहर निकली। यंत्रवत वे उठ खड़े हुए और उसे रोकते हुए उन्होंने जानकी के बारे में जानना चाहा। उसने टका-सा जवाब देते हुए कहा-"देखिए मिस्टर...न तो आप लोग चैन से बइठता है और न ही हमको अपना काम करने देता है। हम अपनी ओर से पूरी कोशिश कर रहा है, आगे क्या होगा, यह गाड (GOD) जानता है। हम नहीं" कहते हुए वह दूसरे कमरे में समा गई थी।
नर्स का रूखा-सा जवाब पाकर वे अन्दर तक हिल-से गए थे। ज़बान सूखने लगी थी और दिल घबराने लगा था। वे सोचने लगे थे-" सच ही तो कह रही थी। किसी को जिलाना और किसी के प्राण हर लेना, इनके हाथ में नहीं है। वे तो अपनी ओर से केवल कोशिश ही कर सकते हैं।
भारी कदमों से चलते हुए वे पुनः बेंच पर आकर बैठ गए थे और मन ही मन जानकी के जल्दी स्वस्थ होने की कामना करते हुए ईश्वर से प्रार्थना करने लगे थे।
देर तक प्रार्थना में लीन रहने के बाद वे अपने अतीत की भूल-भुलैया में प्रवेश करने लगे थे। बात चार-साढ़े चार बजे की थी, तभी फ़ोन की घंटी घनघना उठी। फ़ोन अजय का था। उसने बतलाया कि वह घर आ रहा है। उसने यह भी बतलाया कि अब की बार वह पूरे पन्द्रह दिन हम लोगों के साथ ही रहेगा। ख़बर ही कुछ ऐसी थी जिसे सुनकर जानकी बेहद खुश हुई थी। ममता कि कुम्हलाई लतिका हरियल होने लगी थीं। पोर-पोर में आनन्द की लहरियाँ हिलोरे लेने लगी थीं। मन-मयूर थिरकने लगा था। पैर तो उसके ज़मीन पर ही नहीं पड़ रहे थे। वह फ़िरकी की तरह घूम-घूमकर नाचती भी जा रही थी। बेटे के आगमन की ख़बर पाकर कौन माँ भला खुश नहीं होगी? ।
अपने बेटे की आगमन की ख़ुशी को यादगार बनाने के लिए उन्होंने भी कुछ योजनाएँ बना डाली थीं। वे चाहते थे कि अति विशिष्ट स्वजनों, अतिथियो और रिश्तेदारों की उपस्थिति में अजय और जयश्री की मंगनी की भी घोषणा कर देंगे। गोविन्द उनका दोस्त ही नहीं बल्कि एक सच्चा हमदम भी है। उन्हें पक्का यक़ीन है कि वह इस रिश्ते से इनकार नहीं करेगा। उनकी दिली इच्छा थी कि दोस्ती अब रिश्तेदारी में बदल दी जानी चाहिए. अतिगोपनीयता बरतते हुए उन्होंने पूजा ज्वेलर्स के यहाँ वेडिंग-रिंग भी बनवा कर रख ली थी।
कल्पनाओं के रंग-बिरंगे बादल झमझमाकर बरस रहे थे और वे उसमें भींग भी रहे थे। प्रसन्नता से लकदक होता जानकी का चेहरा और फ़ुलझड़ी से झरते हास्य को देखकर उनकी प्रसन्नता द्विगुणित हो उठी थी। तभी टेलीफ़ोन की घंटी घनघना उठी। जानकी ने अति उत्साहित होते हुए रिसीवर उठाया। दूसरी तरफ़ अजय था।
पता नहीं, अचानक क्या हुआ? । उसका दिपदिपाता चेहरा बुझने लगा था। वह कांति-हीन होने लगी थी। मुक्त-हास्य की जगह तनाव घिरने लगा था। उसकी मुठ्ठियाँ कसने लगी थीं। वे कुछ समझ पाएँ, इसके पूर्व ही वह गीली मिट्टी की दीवार की तरह भरभरा कर गिर पड़ी थी।
"हे भगवान! ये क्या हो गया" कहते हुए उठ खड़े हुए. पास आकर देखा। नब्ज टटोली। कुछ भी समझ में नहीं आया। वे बुरी तरह से घबरा गए थे। सोचने-समझने की बुद्धि को जैसे काठ मार गया था। धड़कने बढ़ गई थी।
ठीक उसी समय एक एम्बुलेंस उधर से गुजर रही थी। ड्रायवर शायद किसी मरीज को अस्पताल पहुँचा कर खाली वापिस लौट रहा था। उन्होंने एम्बुलेंस को रुकने का ईशारा किया। ड्रायवर से विनती की कि वह मरीज को अस्पताल तक पहुँचाने में हमारी मदद करे। वह मान गया। उन्होंने शीघ्रता से जानकी को उसमें लिटाया और अस्पताल की ओर बढ़ चले थे। वे जब घर से निकले थे, तब शहर में नीरव शांति पसरी हुई थी। जैसे ही एम्बुलेंस अस्पताल के करीब पहुँची ही थी कि उनका सामना क्रुद्ध भीड़ से हुआ, जो सरकार के खिलाफ़ नारे लगाती, दूकानों में तोड़-फ़ोड़ करती, बसों, कारों और गाड़ियों के काँच तोड़ती-फ़ोड़ती, जगह-जगह टायरों को जलाकर विरोध प्रदर्शन कर नारे लगाती हुई आगे बढ़ रही थी
उस क्रुद्ध भीड़ का कुरुप चेहरा आँखों के सामने नृत्य करने लगा था। विचारों के अश्व थम से गए थे। वे हड़बड़ा कर अपनी सीट से उठ खड़े हो गए थे। काफ़ी देर बाद, वे सामान्य हो पाए थे।
तभी उन्होने देखा। आई.सी.यू का दरवाज़ा खुला। एक नर्स बाहर निकली। उन्होने लपक कर जानकी के बारे में जानना चाहा। वे कुछ बोल पाते कि नर्स ने अपनी ओर से उन्हें खुशखबर देते हुए कहा-"जानकी जी को होश आ गया है। वे अब एकदम ठीक हैं। दो-तीन घंटे बाद हम उन्हें जनरल वार्ड में शिफ़्ट करेंगे, तब आप उनसे मिल सकते है" ।
खबर सुनते ही वे ख़ुशी में झूम उठे थे। उन्होंने हाथ जोड़कर ईश्वर को लाख-लाख धन्यवाद दिया।
तीन दिन अस्पताल में रहकर जानकी स्वस्थ होकर घर लौट आयी थी। अजय भी उसी दिन शाम को घर आ गया था।
वे चाहते थे कि जितनी जल्दी हो सके अजय और जयश्री की मंगनी कर देनी चाहिए. शुभ मुहूर्त निकलवाते हुए उन्होंने सभी मित्रो और रिश्तेदारों को निंमत्रण पत्र भिजवाये और शहर के सभी अखबारों में, उस गुमनाम युवक के बारे में जानकारी देते हुए प्रार्थना कि थी कि वह भी इस कार्यक्रम में ज़रूर आए.
शामियाने को किसी दुलहन की तरह सजाया गया था। जगह-जगह लगे फ़ानूस रंग-बिरंगी रोशनी में जगमगा रहे थे। स्व-चालित फ़वारों से लाल-पीली-नीली-नारंगी रोशनी फ़ेंकते हुए माहौल में शीतलता बिखेर रहे थे। स्टेज पर अजय और जयश्री, किसी बेशकीमती हीरों की तरह जगमगा रहे थे। जानकी के तो जैसे पर ही ऊग आए थे। वह फ़िरकी बनी, सबका दिल खोलकर स्वागत करने में जुटी हुई थी।
मेहमानों, रिश्तेदारों और स्वजनों से ठसाठस भरी भीड़ के बीच वे नमुदार हुए. उन्होंने माईक संभाला। अजय और जयश्री की सगाई की विधिवत घोषणा की। पूरा पण्डाल तालियों गड़गड़ाहट से गूंज उठा था। लोग आगे बढ़कर उन्हें बधाइयाँ और शुभकामनाएँ देने लगे थे।
वे हंस-हंस कर अपने स्वजनों की बधाइयाँ स्वीकार करते हुए सभी से मिल-जुल रहे थे। लेकिन उनकी नजरें बार-बार गेट पर जाकर ठहर जाती। उनका दिल कह रहा था कि वह युवक आएगा...ज़रूर आएगा। उसे न आता हुआ देख, मन निराशा के गहरे भंवर में डूबने लगा था। वे अपने धड़कते हुए दिल को बार-बार समझाते...देर से ही सही, लेकिन वह आएगा...ज़रूर आएगा...आशा का बुझता दीप, फिर टिमटिमाने लगता।
सारे मेहमान एक-एक करके जाने लगे थे। थोड़ी देर में पण्डाल लगभग पूरा खाली हो चुका था। वे अब भी पूरी तरह आशान्वित थे कि वह युवक आएगा...ज़रूर आएगा। इसी विश्वास की लाठी का सहारा लिए, वे गेट तक चल कर आए थे। उन्होंने चारों ओर नजरें घुमाकर देखा...बाहर सन्नाटा पसरा पड़ा था। वे खिन्न मन से, निराशा का लबादा ओढ़े लौटने लगे थे। मन के किसी कोने में एक प्रश्न उनुत्तरित रह गया था कि "वह नवयुवक कौन था" ?