आखिर हो क्या? / अब क्या हो? / सहजानन्द सरस्वती
तो क्या अब निराशा ही निराशा है? क्या शोषित-पीड़ितों के लिए अंधेरा ही अंधेरा है? क्या अब कुछ हो नहीं सकता? उत्तर सीधा है। हो भी सकता है, नहीं भी हो सकता है। सबकुछ निर्भर करता है कि शोषित-पीड़ितों की आवाज निरंतर उठानेवाले क्या करते हैं? जो लोग किसान-मजदूरों की ओर से बराबर चिल्लाते रहे हैं वह इस मौके पर क्या करते हैं? यह तो सभी मानते हैं कि इतिहास करेवट ले रहा है─भारतीय आजादी की लड़ाई का इतिहास। वह इतिहास दक्षिण करवट ले इसकी पूरी कोशिश है, पूरी तैयारी है, इसका पूरा आयोजन है। दुनिया की ऐसी लड़ाइयों का इतिहास भी यही बताता है कि ऐसे मौके पर वह दाहिनी करवट बदलता है-Right about turn करता है और भारत उसका अपवाद न होगा। यह करवट थोड़ी देर बाद बाईं हो जाए, यह बात जुदी है-Left about turn हो जाए, यह संभव है, जैसा कि रूस में हुआ था। मगर क्या रूस के जैसा लेनिन यहाँ कोई है? क्या उसके जैसा किसान-मजदूरों का मसीहा और क्रांति की कला का पारंगत कलाविद कोई है? अगर नहीं है तो क्या हम हाथ पर हाथ धार बैठे रहें? मगर, इतिहास तो बैठा रहेगा नहीं, समय तो रुकेगा नहीं और किसान-मजदूरों के शत्रु तो इंतजार करेंगे नहीं। वे तो अपनी राह चले जाएँगे। तो क्या यह दाहिनी करवट यों ही बदलने दी जाए और हम कुछ न करें?
करना तो होगा ही। यदि खुद न करेंगे तो मजबूरन करना पड़ेगा, मगर तब जब बहुत देर हो चुकी रहेगी और करना-धारना बेकार सिध्द होगा। यदि हममें-वामपंथी होने के दावेदारों में-जरा भी नेकनीयती और ईमानदारी होगी, जरा भी हया होगी, तो हमें कुछ न कुछ ठोस काम करना ही होगा, आगे कदम बढ़ाना ही होगा। 1934 में हमारे इतिहास की एक मामूली करवट थी, तो वामपक्ष ने कदम बढ़ाया और सोशलिस्ट पार्टी बनी। फिर 1939 में कुछ ऐसा ही मौका था, तो वामपक्षीय कमेटी Left consolidation committee और फार्वर्ड ब्लाक का जन्म हुआ। मगर, इस करवट के सामने वे दोनों कुछ न थे। तब तो लड़ाई के एक ही पर्व के दरम्यान यह करवट थी। मगर, अब यह पर्व खत्म हुआ और दहिनी करवट की जोरदार तैयारी है। फलत: हमें कुछ न कुछ ठोस कदम आगे बढ़ाना ही होगा, नहीं तो आगेवाली पीढ़ी हमें कोसेगी, धिक्कारेगी।
इस बार हमें कोई नयी पार्टी न बना कर मुस्तैदी से सभी दलों और पार्टियों का जो वर्ग-विहीन समाज की स्थापना माक्र्सवादी ढंग से करने को तैयार है, एक संयुक्त मोर्चा या प्लेटफार्म बनाना है। इस काम के लिए चाहे कोई कमेटी बने या उसे एक पार्टी का ही रूप दिया जाय यह बात दूसरी है। फ्रांस आदि देशों के संयुक्त मोर्चे की त्रुटियों से हम बचने का उपाय करें और कदम आगे बढ़ाएँ भी। इस काम के लिए एक केंद्रीय स्थान पर सभी दलों के प्रमुख व्यक्तियों की ओर ऐसे लोगों की भी, जो किसी पार्टी में नहीं हैं, मगर माक्र्सवादी विचार रखते हैं, एक बड़ी मीटिंग बुलाई जाए। यह काम जल्द होना चाहिए। देर की गुंजाइश नहीं है।
उस मीटिंग में एक सम्मिलित कार्यक्रम तैयार किया जाए। यह कार्यक्रम कम से कम छोटे से छोटा हो। इसमें एक ही दो बातें रहें। मगर वे सर्वसम्मत हों और खुले दिल से सभी उसे स्वीकार करें। दबी जवान और आधा दिल से स्वीकृति बातें इस प्रोग्राम में न रहें। दृष्टांत के लिए आज दक्षिणपंथी लीडरों का कांग्रेस संबंधी अगला कदम ले कर उसकी असलियत का प्रचार ही ले सकते हैं। उसका क्या रहस्य है और उसमें क्या खतरे हैं, इसके प्रचार में किसी को आनाकानी नहीं हो सकती है। फलत: संगठित रूप से इसका मुस्तैदी से प्रचार होने की बात तय कर सकते हैं। इसी तरह की दूसरी बातें ढूँढ़ी जा सकती हैं। मेरा अपना विचार है कि राष्ट्रीय आजादी के प्रश्न के एक करवट बैठ जाने के कारण अब किसी भी वामपक्षीय पार्टी के साथ दूसरी पार्टीवालों को संयुक्त मोर्चा बनाने में कोई खास अड़चन नहीं होनी चाहिए। मैं तो यह भी मानता हूँ कि सबों में माक्र्सवाद की इतनी भक्ति अपने लक्ष्य के प्रति इतनी ईमानदारी वफादारी और इतनी हया, इतनी लज्जा मौजूद है कि जरूर आगे बढ़ेंगे और अनायास होनेवाली हाराकिरी से लोगों को बचाएँगे। सबों को अपनी प्रतिष्ठा, आत्मसम्मान का ख्याल है और यह भी मालूम है कि कुछ न करने पर एक के बाद दीगरे भीगे जूते पड़ने हैं। सबों की शान में बट्टा लगना है, बेइज्जती होनी है जो गीता के शब्दों में मौत से भी बुरी है, 'संभावितस्य चाकीर्ति मरणादतिरिच्यते'