आखि़र कोई क्यों लिखे / प्रताप सहगल
किसी ने कहा है कि आज की दुनिया कि सबसे बड़ी दुर्घटना लिखित शब्द की मौत है। सभी सत्यों की तरह से यह भी आंशिक सत्य लगता है। अगर यह सच पूरा होता तो शब्दों का छपा हुआ अम्बार रोज़ हमारे सामने न आता। 'लिखित शब्द की हत्या' की जि़म्मेदारी रेडियो, दूरदर्शन तथा सिनेमा आदि प्रचार माध्यमों को दी जाती है, लेकिन एक तथ्य यह भी है कि आज विश्व में प्रतिदिन एक हज़ार नयी किताबें छपकर बाज़ार में आ जाती हैं। यह अपने आप में एक प्रतिमान है। इसका अर्थ यह नहीं कि आज लिखित शब्द को कोई नुक़सान नहीं हुआ है।
शब्द जब सर्जनात्मक साहित्य का माध्यम बनता तो वह गहरे संकट में आ जाता है। लिखता पत्रकार भी है, लिखता सिनेमा का कोई चलता हुआ लेखक भी है और लिखता कोई दूसरे प्रचार माध्यमों के लिए भी है, लेकिन हर तरह का लेखन रचना नहीं होता। जिस संकट और जिस शब्द की हत्या कि बात हम कर रहे हैं, उसका सम्बंध इसी रचनाधर्मी सर्जनात्मक शब्द से है, तो ऐसे माहौल में यह सवाल पैदा होता है कि आखि़र आज कोई लिखे तो क्यों लिखे? आज स्वतंत्र रूप से किया गया लेखन लेखक को दो वक़्त की रोटी भी नसीब नहीं करवा सकता। यह बात कमोबेश सभी भारतीय भाषाओं के लेखकों पर लागू होती है। लेखक की हिम्मत यह है कि वह लिखने से बाज़ नहीं आता। आँख फोड़ता है, पेट ख़राब कर लेता है, सर्वाइकल हो जाता है। दिल कमज़ोर पड़ने लगता है और इस सबके साथ ही वह आर्थिक दृष्टि से भी हमेशा पिछड़ा रहता है, तो फिर वह आखि़र लिखता क्यों है? ऐसे भी अनेक उदाहरण हैं कि कुछ लोगों ने अपने यौवन में बड़े उत्साह से लेखन शुरू किया और उम्र बढ़ने और वक़्त की मार पड़ने के साथ वह या तो प्रकाशक बन गए या कोई और व्यवसायी। इनकी बात जाने दें। जो सारी मुसीबतों और दिक्कतों के बावजूद भी शब्द में आस्था बनाए रखते हैं यह सवाल उन्हीं के लिए है कि आखि़र वे क्यों लिखते हैं। इसका कोई भी एक जवाब दे पाना मुमकिन नहीं, सिवाय इसके कि वे इसी के लिए अभिशप्त हैं। तो क्या उनकी अभिशप्तता को हम एक वस्तुसत्य मानकर उन्हें ऐसा ही रहने दें?
लेखक हो या कलाकार, दार्शनिक हो या वैज्ञानिक वह अपने जीवन का बेहतर हिस्सा समाज को बेहतर बनाने के लिए लगा देता है, अपने जीवन का बहुमूल्य हिस्सा वह समाज को दे देता है तो क्या समाज का यह दायित्व नहीं बनता कि वह यह सोचे कि उनकी सेवाओं के बदले वह उन्हें क्या दे रहा है? किसी भी समाज के सांस्कृतिक उत्थान का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि वह अपने लेखकों, कलाकारों, वैज्ञानिकों और दार्शनिकों का कितना ध्यान रखता है।
भारतीय समाज में आज सबसे दयनीय स्थिति लेखक की है। देश के एक बड़े हिस्से में समझी जाने वाली भाषा हिन्दी के लेखक ही दयनीय स्थिति में हैं तो दूसरी भारतीय भाषाओं के लेखकों की स्थिति क्या हो सकती है। केरल में अगर लेखकों की थोड़ी-सी स्थिति बेहतर है तो वह उनके अपने संगठन की वज़ह से है। हिन्दी में या फिर दूसरी भाषाओं में लेखक अगर आर्थिक दृष्टि से संपन्न नज़र आता है तो वह अपने लेखन नहीं, किसी और वज़ह से है। इसलिए प्रायः सभी लेखक लेखन को एक पेशे की तरह से न अपनाकर एक मजबूरी की तरह से अपनाते हैं। पेशे से वकील, पत्रकार या फिर शिक्षक लेखन के सहारे अपनी आजीविका नहीं चला सकते। ऐसी स्थितियों में, जब लेखन से पर्याप्त मुद्रा प्राप्त न हो सके तो समाज और सरकार का यह दायित्व बन जाता है कि वह आर्थिक दृष्टि से विपन्न लेखक-समाज के बारे में सोचे।
हिंदी तथा दूसरी भाषाओं के लेखकों के अनेक ऐसे उदाहरण हैं जिन्हें बीमारी की हालत में आर्थिक अभाव के कारण सही चिकित्सा न मिलने की वज़ह से अकाल मृत्यु का सामना करना पड़ा। हाल ही में अहमदाबाद में आथर्स गिल्ड ऑफ इंडिया के तेरहवें वार्षिक सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए गुजरात के राज्यपाल श्री आर॰ के॰ त्रिवेदी ने अपने अनुभव से ऐसी बातें सामने रखीं, जहाँ सहायता न पहुँचने या समय से न पहुँचने के कारण लेखक की मौत को आगोश में जाना पड़ा। जब सरकारी ओहदों पर बैठे यह 'बड़े लोग' यह सब जानते हैं तो वे लेखकों के लिए कुछ करते क्यों नहीं?
लेखकों का शोषण केवल प्रकाशक ही नहीं सरकार भी करती है। सरकारी अकादमियाँ और संस्थाएँ साल में दो-चार लेखकों को पुरस्कार देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेती हैं। दस-बीस हज़ार या पचास हज़ार का जीवन में मिला एक पुरस्कार क्या लेखक की सभी सेवाओं को एकमुश्त चुका देने का एक ज़रिया है। इसमें मज़े की बात यह होती है कि पुरस्कार की राजनीति में भी सीधा लेखक शिकार होता है। समय पर न मिलने वाले महत्तव, पहचान या धन का कोई मूल्य नहीं होता।
सरकारी तंत्र में पत्रिकाएँ, कुछ सरकारी प्रकाशन, रेडियो, फ़िल्म प्रभाग तथा दूरदर्शन ऐसे माध्यम हैं, जहाँ से लेखकों को आमदनी हो सकती है। पत्रिकाओं में प्रकाशित रचनाओं पर मानदेय रचना के स्तर पर नहीं बल्कि शब्दों या पृष्ठों की संख्या को गिनकर दिया जाता है और वह भी बहुत कम। मान लीजिए दो हज़ार शब्दों का कोई चलता हुआ लेख या कोई मेहनत से तैयार किया हुआ शोध-लेख या कोई उच्चस्तरीय कहानी लिखी गई तो सभी रचनाओं को एक ही मानदण्ड से आँका जाएगा, जो उचित नहीं है। इसी तरह रेडियो एवं दूरदर्शन से लेखकों की दी जाने वाली फीस भी अल्प होती है। जहाँ अर्थ-लाभ अधिक होता है वहाँ राजनीति भी ऊँची होती है और कहीं-कहीं तो कमीशन या लड़की और शराब की सेवा के बाद ही कोई बड़ा कान्ट्रेक्ट मिल पाता है। क्या कोई प्रगतिचेता लेखक इस गोरख धंधे में पड़ सकता है? ऐसी स्थिति में अर्थ-लाभ के बड़े कान्ट्रेक्ट ज़्यादातर उनके हाथ में जाते हैं, जो मूलतः लेखक नहीं होते। लेखकों को ड्योढ़ी फीस देकर प्रसारण के सभी अधिकार लेने की भी परंपरा यहाँ मौजूद है और अगर प्रसारण की व्यवस्था रायल्टी के आधार पर है तो बाद के प्रसारणों की रायल्टी प्रायः लेखकों को नहीं मिलती। दूरदर्शन में फैला भ्रष्टाचार तो लेखक को किसी माया-लोक-सा लगता है। पिछले ही दिनों एक बड़े अधिकारी और कुछ छोटे अधिकारी गिरफ्त में आए, लेकिन क्या स्थितियाँ कुछ बदली हैं? ऐसे में एक सामान्य लेखक की क्या हैसियत कि वह अपनी रचना को छोटे पर्दे तक पहुँचा पाने का दुस्साहस कर सके।
सरकार को चाहिए कि स्क्रिप्ट के चुनाव के लिए गठित समितियों में नौकरशाहों और राजनेताओें की बजाय लेखकों को समुचित प्रतिनिधित्व दे तो हालात बदल सकते हैं। सरकारी प्रकाशनों से प्रकाशित साहित्य भी या तो प्रचारात्मक होता है और सर्जनात्मक साहित्य होता है तो उसे बेचने की कोई कोशिश नहीं की जाती। प्रकाशन विभाग के निदेशक ने बताया कि एक लेखक को एक छोटी-सी किताब से लगभग पचास हज़ार रायल्टी मिली लेकिन साथ में यह भी कह दिया कि उन लेखक ने अपने सम्बंधों से अमुक सरकार में वह किताब बिकवा दी थी। पहले किताब लिखिए फिर छपवाने के लिए किसी बड़े साहब की चिरौरी कीजिए। छप जाए तो कोई राजनीतिक तिकड़म भिड़ाइए तो... तो कौन कर सकता है इतना सब। निजी प्रकाशकों के हाथों से भी लेखक को रायल्टी नहीं मिलती या बहुत कम मिलती है। क्या इन प्रकाशकों को नकेल डालने के लिए कोई बेहतर अनुबंध पत्र तैयार नहीं किया जा सकता। इस ओर लेखकों के संगठन भी निष्क्रिय क्यों रहते हैं। आथर्स गिल्ड ऑफ इंडिया, भारतीय लेखक संगठन, प्रगतिशील लेखक संघ या फिर जनवादी लेखक संघ जैसी संस्थाएँ लेखक की हालत को सुधारने के लिए क्या कर रही हैं? केवल गिल्ड ने कुछ मामले उठाए हैं और एक अनुबंध-पत्र भी तैयार किया है, जो प्रकाशकों को स्वीकार्य नहीं हो रहा। ऐसी स्थिति में लेखकों के पास एक ही जवाब है। अपने सहयोगी प्रकाशन। केरल का उदाहरण उनके सामने है। पंजाबी कोआपरेटिव सोसाइटी ने भी अच्छा काम किया है तो देश के दूसरे लेखक ऐसा क्यों नहीं कर सकते। लेखकों को अपना प्रकाशन आंदोलन चलाना होगा और इसमें सरकार को भी उनकी मदद करनी चाहिए।
विदेशों में सोसाइटी ऑफ ब्रिटिश आथर्स तथा आथर्स लीग ऑफ यू॰एस॰ए॰ की भूमिका से भी प्रेरणा ली जा सकती है।
लेखकों के लिए न पेंशन की सुविधा है, न चिकित्सा भी, न कोई बीमा योजना है और नाही कोई ऐसी व्यवस्था है जिससे वे अपनी लेखकीय प्रतिभा कि धार को तेज़ कर सकें। अकादमियाँ ठस्स हैं। उनमें बैठे लोग लेखन से दूर हैं। ऐसे हालात में लेखक समाज को कब तक और कितना सार्थक दे सकता है, यह सोचने की बात है।
हर पेशे के लोग पेशे के नाम पर सुविधाएँ लेते हैं, लेकिन लेखक के नाम इस समाज के पास कोई सुविधा नहीं है। वही मध्यकाल की मानसिकता आज भी बनी हुई है कि लेखक तो मुसीबत में ही अच्छा लिख सकता है, लेकिन सच यह है कि सुविधाओं के अभाव में ही हिन्दी में आज तक कथा-लेखन की अच्छी परंपरा नहीं बन सकी और हम कभी अंग्रेज़ी और कभी फ्रेंच तो कभी जर्मनी की कृतियों की ओर देखते हैं।
लेखक राज्याश्रय से बचता है, वैचारिक स्वतंत्रता के साथ ही वह सम्मानपूर्वक रहना चाहता है। इसलिए राजनीतिक विचारधारा किसी भी लेखक को मदद करने में रुकावट नहीं बननी चाहिए।
हाल ही में गंगाप्रसाद विमल और कमलेश्वर ने एक सुझाव दिया था कि कापीराइट से मुक्त हुई रचनाओं के प्रकाशन और विक्रय से प्राप्त राशि पर रायल्टी ली जाए और यह रायल्टी लेखक सहयोग निधि बनाकर उसमें जमा कि जाए। ज़रूरत पड़ने पर किसी भी लेखक को इससे मदद की जा सकती है। यह एक अच्छा सुझाव है और इस पर अमल होना चाहिए। यह सच है कि कालिदास और शेक्सपियर का कोई वंशज है तो लेखक है, नाकि प्रकाशक। इसी तरह की एक सहयोग निधि भारतीय लेखक संगठन ने भी बनाई लेकिन उसमें एक लाख जमा करने का लक्ष्य दस साल में भी पूरा नहीं हो सका। हाँ, अब संगठन के सदस्यों के सहयोग से चार किताबें प्रकाशित करवाई गई हैं। इनसे मिलने वाली रायल्टी भी सहयोग निधि में ही जमा होगी। यह एक अच्छी शुरुआत है और ऐसी और योजनाएँ भी सामने आनी चाहिए।
एक सुझाव यह भी है कि पुस्तकालयों से लेकर पढ़ी जाने वाली किताबों पर भी कुछ राशि रायल्टी के तौर पर लेखक को दी जानी चाहिए।
ऐसे और भी अनेक सुझाव हो सकते हैं, जिससे लेखकों की स्थिति बेहतर हो और अगर लेखकों की आर्थिक दशा को सुधारने के लिए न प्रकाशक ध्यान देता है, न सरकार, न समाज तो सवाल यही खड़ा होता है कि आखि़र कोई क्यों लिखे?