आगरे का ताज / बावरा बटोही / सुशोभित

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आगरे का ताज
सुशोभित


वो एक बहुत लम्बा और बेसबब दिन था!

इतना कि सांझ होते-होते मुझको लगने लगा कि मेरे अस्तित्व के केंद्र पर एक ऐसा भार निर्मित होता जा रहा है, जिसके मलबे तले मैं धंस जाऊंगा।

मैं ताज महल देखने के लिए उस सफ़र पर नहीं निकला था, लेकिन उस बेसबब दिन मैंने तय कर लिया था कि आज मैंने कुछ और नहीं तो ताज महल ज़रूर देखना है।

मैं ताज महल को एक बार देखने में क़ामयाब होना चाहता था। नाकामियों के आलम में वो ज़िद मेरे वजूद के लिए ज़रूरी बन चुकी थी।

मैं आगरे की तंग गलियों में घुसा, हाथी घाट से आगे बढ़ा, सैंड स्टोन में निबद्ध लाल क़िले की सुदीर्घ प्राचीरों ने मेरा स्वागत किया। एक याद मेरे ज़ेहन में कौंधी-

शाह जहाँ अपनी ज़िंदगी के आख़िरी सालों में आगरे के क़िले में एक रौशनदान से ताज महल को देखता रहता था। क़िला तो यह रहा, तो ताज महल भी समीप ही होना चाहिए। यह सोचकर मैंने गर्दन घुमाई।

और तब, सुदूर क्षितिज पर मुझको दिखाई दिया बादल का वह टुकड़ा, महज़ बादल नहीं, कशीदे में ढला हुआ धवल मेघपर्वत! दुनिया जिसको ताज महल बुलाती है!

यह बात डेविड कैरोल ने कही थी कि हिंदोस्तां के दोआब के धूल-धक्कड़ भरे, पार्थिव भू-दृश्य पर ताज महल मानो ज़मीन से उगा हुआ नहीं, बल्कि हवा में तैरता हुआ मालूम होता है।

और साल 1914 में काउंट हरमन कैसरलिंज ने अपनी 'डायरी ऑफ़ अ फ़िलॉस्फ़र' में दर्ज़ किया था कि मैं अपनी आंखों पर यक़ीन नहीं कर पाया, मेरे सामने एक ऐसी इमारत थी, जो सफ़ेद पत्थर की बनी होने के बावजूद भारहीन थी- 'अ मैसिव मार्बल स्ट्रक्चर विदाउट वेट!'

भारहीन? क्या इसका सम्बंध मेरे अस्तित्व के केंद्र पर निर्मित उस भार से था, जिसके तले मैं दबता जा रहा था? क्योंकि, सनद रहे कि कंठ में रूंधे खारे पानी से भारी इस संसार में कुछ और नहीं होता!

सच कहूं तो अगर उसी मोड़ से मुझे लौट आना होता तो भी मैं इस तसल्ली के साथ ध्वस्त होता कि मैंने एक नज़र ताज महल को देखा है, उतनी ही दूरी से, जितनी दूरी से शाह जहाँ उसे देखा करता था। मैं उसे एक मर्तबा देखने को लेकर ऑब्सेस्ड हो चुका था!

लेकिन मेरा नसीब उस शाम आगरे के बुलंद दरवाज़े से भी ऊंचा था, तभी तो टिकट खिड़की बंद होने से ऐन पहले मैं ताज महल का आख़िरी टिकट ले पाया और उसके अहातों के भीतर दाख़िल हो सका।

उस शाम मेरा वहाँ पर होना किसी करिश्मे से कम नहीं था, मेरे जैसे ही नश्वर पुतलों के हुजूम से घिरा होने के बावजूद।

आख़िर ये वही इमारत थी ना, केवल जिसको देखने के लिए दुनिया से सबसे ज़्यादा लोग हिंदुस्तान आते हैं? ये कोई अगम्य कूटभवन तो था नहीं। किंतु मुझे विश्वास नहीं था कि मैं कभी अपनी आंखों से उसे देख सकूंगा।

अहाते में घुसते ही मुझे फिर नज़र आया संगेमरमर का वह सफ़ेद ग़ुब्बारा, जिसे पहले हाथी घाट से देखा था। इस बार थोड़ा और बड़ा और क़रीबतरीन।

दरवाज़ा-ए-रोज़ा, जो अगरचे ताज महल का दरवाज़ा ना होता, तो अपने आपमें एक बुलंद तख़लीक़ कहलाता, मेरे सामने मौजूद था और उसके झरोखे से दिखाई दे रहा था वह तिलिस्माई सफ़ेद स्वप्न।

ताज महल का पहली बार दीदार आपके होश फ़ाख़्ता कर देने के लिए काफ़ी है।

जब आप दरवाज़ा-ए-रोज़ा से भीतर दाख़िल होते हैं और ताज महल इस दरवाज़े की फ्रेम्स में से बाहर निकलकर रफ़्ता-रफ़्ता आपके सामने साकार होने लगता है तो आपको 'गूज़-बम्प्स' हो आना लाज़िम है।

आपके रौंगटे खड़े हो सकते हैं। आप दांतों तले अंगुली चबा सकते हैं। आप किसी सैलानी से टकरा भी सकते हैं या ख़ुद ठोकर खाकर गिर सकते हैं।

ताज महल देखने के बाद आपके हवास अगर गुम ना हो जाएं तो समझ जाइये कि आप मर चुके हैं। कि आप दो टांगों पर चलता हुआ एक मक़बरा बन गए हैं!

लेकिन मैं ताज महल की ख़ूबसूरती पर फ़िदा नहीं हुआ था। उसकी भव्यता पर भी नहीं। हाँ, उसकी भारहीनता ने ज़रूर मेरे भीतर के मलबों के बरअक़्स मुझे एक 'काउंटर-पर्सपेक्टिव' मुहैया कराया था, लेकिन शायद उसके लिए भी नहीं।

मैं ताज महल पर उसकी 'सीमेट्रीकल परफ़ेक्शन' के कारण मर मिटा था। वो इमारत पूर्णता की परिभाषा थी। उसे एक-एक बालिश्त नापकर, फीतों से जोखकर बनाया गया था। और उसकी संरचना में कहीं भी कोई असंतुलन पैबस्त नहीं था। वो हर मायने में पूर्णता की अंधी झोंक में बनाई गई एक दीवानावार क़यामत थी।

नहर, फ़ौवारे, सब्ज़े - सभी सिलसिलेवार। घास के ख़ाब में चारबाग़ की काटें एकदम मुनासिब। चार मीनारें एक लय में झुकी हुईं। ख़ुदाख़ाने के बरअक़्स मेहमानख़ाना और अजायबघर के बरअक़्स नौबतख़ाना - हूबहू 'मिरर इमेज'। और, इतना ही नहीं, जमना पार बसाया गया मेहताब बाग़ भी ताज के बाग़ की ठीक उल्टी प्रतिलिपि थी। हमारी हैसियत नहीं थी कि दो या तीन आयामों में इस अजूबे को देखें। हमें इसे 'बर्ड आई व्यू' से देखना चाहिए था। परिंदों की आंख में जो मंज़र होता है, वैसे।

मेरा दिल धक्क से रह गया!

मैं कितना अधूरा था, ये तख़लीक़ कितनी सम्पूर्ण थी! मैं कितना मामूली था, ये इमारत कितनी आलीशान थी! मैं कितना ग़ैरमुनासिब था, ये महल कैसे अपने होने भर से अपने आसपास के नज़्ज़ारों को रौशन किए दे रहा था! मुझे अपनी ज़िंदगी वैसी ही मुकम्मल चाहिए थी, जैसा कि ताज महल मुकम्मल था। लेकिन बोनसाई के दरख़्तों जैसा बौना, कितना बेज़ार सा ही वह सिलसिला, मेरे दिन-रातों का जम सका था।

मुझे ताज महल से इसलिए मोहब्बत हो गई थी, क्योंकि मैं ख़ुद कभी ताज महल जैसा सर्वांग सुंदर नहीं बन सकता था, शायद कोई भी नहीं बन सकता था, यह अवसाद कम नहीं था।

मेरे गाइड ने कहा- लीजिए साहब, ये रही डायना चेयर। प्रिंसेस डायना ने यहाँ बैठकर ताज महल के सामने अपनी तस्वीरें उतरवाई थीं, तभी से तमाम सेलेब्रिटीज़ यहीं तस्वीरें खिंचवाती हैं। तमाम आमो-ख़्वास। आप भी आइये, तस्वीरें उतरवाइये।

मैंने इनकार कर दिया।

वो समझा नहीं। मैंने कहा- मैं अपनी तस्वीर नहीं खिंचवाऊंगा। उसने कहा- आप यह कहना चाहते हैं कि आप ताज महल के सामने अपनी तस्वीर नहीं खिंचवाना चाहते? मैंने कहा- जी, आप दुरुस्त समझे, मैं ठीक यही अर्ज़ करना चाहता हूं। उसने कहा- मेरे तजुर्बे में यह पहली बार है, जब किसी ने ताज महल के सामने अपनी तस्वीर उतरवाने से इनकार किया है, अमूमन तो यहाँ अपनी तस्वीरें उतरवाने की ज़ोर-आज़माइश लगी रहती है।

मैंने कहा- दुनिया में इससे अश्लील, अभद्र और अशालीन कुछ नहीं हो सकता कि आप ताज महल के सामने अपनी तस्वीर खिंचवाएं। यह नाफ़रमानी है, यह ग़ैरशाइस्तगी है। यह अनैतिक है, पाप है, जुर्म है कि आप पूर्णता के इस स्मारक के समक्ष अपनी मामूली हस्ती को धकेलने की कोशिश करें। मैं ताज की हज़ारहाँ तस्वीरें उतारूंगा, लेकिन ताज के सामने अपनी कोई तस्वीर हरगिज़ नहीं खिंचवाऊंगा। क़सम है!

गाइड चुपचाप सोचता रहा।

वो यह तो हरगिज़ नहीं सोच रहा होगा कि ताज महल के करिश्माई हुस्न के कारण उस लम्बे और बेसबब दिन के इंतेहाई छोर पर आख़िरकार मैं अपने अस्तित्व के केंद्र में धंसकर रह गया था। मैं इससे बच नहीं सका था।

और मलबे में धंसे हुए लोग मरहम की तलब भले रखते हों, मेरे मोहतरम भाई, वो अपनी तस्वीरें कभी नहीं उतरवाते।

ख़ुशआमदीद!