आग और फूस / प्रतिभा सक्सेना
बड़ों की कही हुई बातें कभी-कभी सोचती ही रह जाती हूँ। कुछ सार तो है ही, अब कोई चाहे जितना दकियानूसी कह ले। व्यावहारिक दृष्टि से देखा जाय तो उनकी कही बात काफ़ी सही लगती है और यों तो सब स्वतंत्र हैं -जैसे जिसका मन माने।
मेरी सासु-माँ कहती थीं, 'जब आग और फूस एक साथ होई तो जरन(जलने) से कहां तक रोक सकित हो।नारी-नर का साथ ऐसा ही है। अरे भई, भगवान की रची दुनिया है अइस बनावा है कि सिरजनहार की इच्छा पूरी होवत रहे। ऐसा नहीं होता तो वो काहे अइस रचता। फिर काहे कोई फंदे में फँसता, सब उसकी लीला है ! दुनिया कैसे चलती, सब न साधू-संत बन जाते! ...कित्ता भी साध लो, मूल सुभाव कहाँ जाएगा आखिर है तो इन्सान ही न। जाने-अनजाने उमड़ आवत है। कित्ता बचि हैं विचारा !सो पहले ही अइस नउबत आवन से बचे रहो। पर दुनिया के मनई, जहाँ मना होय उहाँ उपत के जाय परत हैं।'
जिसे कबीर ने कहा है 'रुई पलेटी आग' वह तो धधकेगी ही। लपटें चाहे पल भर में बुझ जायँ। बाद में राख और कालिख ही बचे। तन के साथ मन भी तो लपेट में आता ही है। सुलगने से कैसे कोई रोकेगा? चाहे कित्ता साधो ! कहाँ तक रोक लगाएगा कोई। भड़कन अनिवार है। समेटे रखो जित्ता बस चले।
आग और फूस एक साथ रह कर भी जले नहीं। कौन मानेगा? एक बार को दूध का धुला रह भी जाए कोई, तो वह नियम का अपवाद कहा जाएगा। संभावना तो स्वाभाविक जो है उसीकी की जाएगी। अपवाद को कौन मानता है? और लोगों के मानने न मानने से फ़र्क पड़ता ही है।तो पहले से सावधानी रखने में क्या हर्ज ! बनी रहे कल्याणकारी दूरी। आँच सेंकना तक तो सही पर जानबूझ कर लपटों में हाथ डालना तो...! मुझे भी लगता है ठीक कहती थीं सासु-माँ। आग और फूस में एक समझदारी भरी दूरी बनाए रखने में ही कुशल है।
पर अपने को क्या करना ! काहे को चले आए हम बेकार। लौट चलो, यहीं से, काँटों की बाड़ है आगे तो - वर्जित प्रदेश! हमें तो सासु-माँ की बात याद आ गई - तुक की लगी, सो बता दी।
सब समझदार हैं,सोचेंगे अपनी-अपनी!