आग / प्रेम जनमेजय
अनु ने बच्चे के लिए सामान खरीदा और बस स्टाप पर बनी पंक्ति में आकर खड़ी हो गई। अनु मिट गई और मिट कर रह गई मात्र एक पंक्ति। बस स्टॉप पर बनी एक पंक्ति।अस्तित्व और अनस्तित्व के मध्य की दूरी जैसे यह पंक्ति हो। तभी सामने वाले टैक्सी-स्टैंड पर एक चेहरे को देखकर वह चौंक-सी गई। पीठ होने पर भी काफी परिचित-सा लग रहा था। अनु ने पहचाना... नितिन था वह। साथ में शायद उसकी पत्नी थी। क्या नितिन ने विवाह कर लिया ? एक जलन-सी अनु के मस्तिष्क से लेकर हृदय तक फैल गई
नितिन और अनु के सम्बन्ध तीन वर्षों के अन्तराल का परिणाम थे। न जाने कब आपस में बातचीत प्रारम्भ हुई और कब ये संवाद मिलन में परिणत हो गए। उनका मिलन तो संयोग था और न ही कोई घटना। सहपाठी थे दोनों। धीरे-धीरे एक आकर्षण ने उन दोनों को बांध दिया। प्रेम की धीमी प्रक्रिया प्रारम्भ हो गई। मुलाकात और उसके पश्चात् क्षणिक एकान्त पाते ही दो शरीर एक दूसरे में कस जाते। गर्म-गर्म सांसों का अनुभव।
फिर भी दोनों के मन में एक संकोच था जो अपने को प्रकट नहीं होने देता था। शारीरिक स्पर्श तक पहुंचने के उपरान्त भी दोनों में विवाह संदर्भ को लेकर कोई बातचीत नहीं हुई थी। संम्भवतः वह एक दूसरे को तौल रहे थे।
शारीरिक स्पर्श का दोनों ने सुखद अनुभव पाया था, परन्तु समर्पण की सीमा से दूर। अनु अपने मानसिक रूप में नितिन को समर्पण देने को तैयार थी। नितिन जहाँ ले जाएगा, वह जायेगी। नितिन ने जो चाहा अनु ने उसे दिया। पर एक बिन्दु पर आकर वो रुक गई थी। रुक क्या गई, नितिन के शब्दों ने, उसके प्रश्न ने, उसे रोक दिया था, ‘अनु। तुम मुझसे विवाह करोगी!’
अनु के मस्तिष्क से जैसे शेष संदर्भ कट गए। नितिन का मात्र यही प्रश्न उसके मस्तिष्क को अपने परिवेश में बांधे था। नितिन से इसकी सम्भावना थी परन्तु प्रश्न आकस्मिक न होते हुए भी उसे आकस्मिक लगा था। मस्तिष्क पर छायी भविष्य की संभावनाओं ने उसके शब्द छीन लिये। प्रश्न के उत्तर में वह ‘हां’ भी तो नहीं कह पाई थी। सर झुकाए धरती में जैसे वह अपने शब्द खोज रही थी।
‘तुमने मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं दिया ?’ नितिन की आवाज भर्रा-सी गई। अनु के मौन ने उसे आशंकित कर दिया। वह उसके चेहरे पर अपने प्रश्न का उत्तर ढूंढ रहा था।
प्रसÂता ने अनु के चेहरे को जैसे भर-सा दिया। भविष्य के इन्द्रधनुषी स्वप्नों की बनती हुई लड़ी को जैसे उसके चेहरे को और झुकाते हुए अनु ने स्वीकृति दी थी, ‘हूँ’
नितिन द्वारा छोड़ें गये गहरे अनुश्वास को अनु ने भी अनुभव किया था।
‘‘तुम्हें आश्चर्य नहीं हुआ अनु ?’’
‘‘नहीं।’’
‘‘नहीं।’’
‘‘बस इतना कि यह प्रश्न तुमने पहले क्यों नहीं पूछा ?’’
‘‘मैंने सोचा कि.......’’
‘‘कि कहीं मैं इन्कार न कर दूं।,’
‘‘नहीं, यह बात नहीं। सोचा था कि पहले तुम्हें समझ लूं और स्वयं को समझने का अवसर दूं।’’
‘‘समझ लिया।’’
‘‘हां, तभी तो यह प्रश्न पूछा।’’
और तभी अनु ने जैसे सोच लिया कि वो नितिन से मिलना कम कर देगी। नारी के आकर्षण में जो रहस्य छुपा हुआ है, उसे वह इतनी शीघ्र नितिन के समक्ष नहीं खोलेगी। नारी के आकर्षण की शक्ति ही उसमें निहित रहस्य है। जितना वो छुपाती है, उतनी ही वह आकर्षित रहती है। जैसे-जैसे वह उन्हें खोलती, वैसे ही उसमें पुरुष को बांध लेने की शक्ति कमजोर हो जाती हैं और अन्त में वह रह जाती है-. विकर्षण का एक केन्द्र।
पर अनु अपने आपको रोक नहीं पाती। नितिन और अनु उसी भांति मिलते और क्षणिक एकांत पाते ही स्पर्श सुख में खो। फिर भी अनु एकान्त के कभ से कम अवसर नितिन को देती।
और उस दिन जब नितिन ने पूछा, ‘‘अनु, कल घर आओगी ?’’
तब अनु का स्वाभाविक प्रश्न था, क्यों ?’
‘‘यूं ही मिलकर बैठेगे, बातचीत करेंगे। कभी भी तो सम्पूर्ण रूप में अपने मिलन से हम संतुष्ट नहीं हो पाये हैं।’’
‘‘पर घर में..........?’’
‘‘घर में कल कोई न होगा। सब लोग किसी रिश्तेदार के यहां दावत पर जा रहे हैं। मैंने बहाना कर दिया है।’’
घर में कोई नहीं अर्थात् सम्पूर्ण एकांत। उस एकांत में नितिन किसी भी बिन्दु तक पहुंच सकता है। सम्पूर्ण एकांत, जिसमें उसके रहस्य की परतें एक-एक करके खुल जाएंगी। विवाह के उपरांत वह नितिन को क्या देगी ? क्या आकर्षण होगा उसकी सुहागरात में ? किन स्वप्नों को संजो कर वो सेज पर नितिन की प्रतीक्षा करेगी ? आज के समय में अनु की यह सोच बहुत पुरानी है। पर अनु तो इसी सोच के साथ अनु है। आवश्यक नहीं कि जिस धारा में सभी बह रहे हों अनु भी बहे।
‘‘नहीं नितिन।’’ अनु ने दृढ़ शब्दों में अपनी अस्वीकृती दी।
‘‘क्यों ?’’ नितिन चौंक गया। आज तक अनु ने उसी कभी ‘न’ नहीं कही थी।
‘‘मैंने सोचा था जब तुम विवाह के संदर्भ में कोई बात करोगे तो मैं तुमसे एकांत में मिलना छोड़ दूंगी।’’
‘‘अब तक जो मिलती रही हो।’’ चिढ़कर नितिन ने कहा।
‘‘पर अब नहीं।’’
‘‘पर क्यों ?’’
लज्जा की सीमा नारी को बांधरे रहती है। सम्भवतः अनु इसलिये सब कुछ खुलक नितिन को स्पष्ट नहीं कर पाई। वह बस इतना कह पाई, ‘‘मुझे मजबूर न करो, नितिन।’’
नितिन के संचित स्वप्न ताश के पत्तों के बने महल की तरह ढह गये। सम्पूर्ण एकान्त में मिलने के स्वप्न जो वह काफी दिनों से संजो रहा था, कच्ची नींद में टूट गए।नितिन ने इस क्षण के लिए बहुत श्रम किया था। उसने अन्तिम प्रहार किया।
‘‘तुम्हें मेरी कसम, अनु।’’
‘‘मैं कसमों पर विश्वास नहीं करती, नितिन। तुम मुझे इस तरह मजबूर.....’’
‘‘अनु, तो फिर यह हमारी आखिरी मुलाकात है।’’
ठगी-सी रह गई अनु। स्तब्ध, अशान्त। संवेदनारहित अनु, जैसे मृत्यु के उपरान्त कोई व्यक्ति।
घर पहुंचकर अनु का आत्मस्वाभिमान जाग उठा। पशु नहीं है, जिसके साथ जैसा चाहे व्यवहार किया जा सके। ऐसे पुरुष का क्या विश्वास जो इतने सस्ते में सम्बन्ध तोड़ दे। वह नितिन की दासी नहीं, उसका अपनी भी अस्तित्व है। वह ‘अनु’ है, मात्र नितिन की इच्छा में विलीन होने वाली नारी नहीं।
नितिन उससे नहीं बोलता, न बोले। नहीं मिलता, न मिले। वह भी अनुनय-विनय नहीं करेगी। नितिन के बिना भी रहना पड़ा तो वह रहेगी। उससे अलग, उसकी स्मृति से भी दूर। नितिन के किसी भी संदर्भ से उसे कोई दिलचस्पी न होगी। जब तक नितिन स्वयं आकर उसे न मनाये।
सब जैसे अनु ने दृढ़ कर लिया था। फिर समय ने उसे नितिन से दूर करके और दृढ़ कर दिया। उसका विवाह हुआ, दो बच्चे हुए। सब कुछ जैसे वह भूल गई। वह आज तक दृढ़ रही। परन्तु आज, नितिन के साथ उसी पत्नी को देख कर समस्त कटे हुए संदर्भ जीवित हो गये। एक तपन-सी उसके शरीर को बांध गई। एक आग-सी फैल गई उसके शरीर में... जैसे जंगल की आग फैल जाती है।