आचरण / आदर्श जीवन / डेविड ई शी / रामचंद्र शुक्ल

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संसार में आचरण ही देखा जाता है। उसे हमारा आत्मबल निरीक्षण करने की न तो फुरसत है, न गरज। वह हमारे चरित्र ही को हमारे आत्मबल का आभास समझता है। इससे यह मतलब नहीं कि मनुष्य के कार्यों ही से सदा उसके हृदय की थाह मिलती है और उसकी बुध्दि, भावना तथा प्रवृत्ति का ठीक-ठीक पता लगता है। प्राय: ऐसा होता है कि मनुष्य के कार्य या तो उसकी मनोवृत्ति को बहुत बढ़ाकर प्रकट करते हैं या छिपाते हैं। मनुष्य जैसा होता है, वैसा हम उसे समझते हैं। कौन मनुष्य कैसा है, यह हम उसके कार्यों को देखकर निश्चित करते हैं। अत: जो अपने को भला कहलाना चाहता है, वह भलों के अनुकूल अपना आचरण बनाता है। किसी के विषय में जो सम्मति यों ही मोटे तौर पर बिना उसके कर्मों के ब्योरे पर ध्यान दिए हुए स्थिर की जाती है, वह प्राय: अधूरी और कभी-कभी अनुपयुक्त होती है। पर जहाँ तक मैं देखता हूँ, समाज के अधिकांश लोगों से इसके अतिरिक्त और दूसरे प्रकार की सम्मति की बहुत आशा भी नहीं की जा सकती। समाज में हम यह नहीं कह सकते कि कर्म पर विचार करते हुए वह उसकी नीयत की पूरी छानबीन करे या उसकी अवस्था को अच्छी तरह सोच समझकर कुछ निर्णय करे। यदि समाज किसी को गलीज में सना हुआ देखेगा तो यही समझेगा कि वह पनाले में गिरा था। यदि किसी भले आदमी को लोग दो-चार लुच्चों के साथ देखेंगे तो वे अवश्य समझेंगे कि वह अपने को नष्ट कर रहा है, चाहे वह अपने मन को इस प्रकार भले ही समझा ले कि 'मैं जो काजल की कोठरी में अपनी सात्विकता की ज्योति को संसार से छिपाए हूँ, वह केवल इसलिए जिसमें उससे साफ निकलकर मैं और भी प्रशंसा प्राप्त करूँ।' पर इससे क्या होता है? संसार तो उसके चारों ओर फैली कालिमा ही को देखेगा, ज्योति न देखने जायेगा। अस्तु हमें अपने आचरण का ध्यारन रखना चाहिए। हम चाहे बात-बात में इसकी परवाह न किया करें कि मुंशी तिरबेनी सहाय देखेंगे तो क्या कहेंगे, पर हमें इस बात का ध्यान अवश्य रखना चाहिए कि मुंशीजी को हमारी यथार्थ विडम्बना की कोई सामग्री न मिले। युवकों को अपने उद्देश्यों की निर्दोषता का निश्चय बहुत अधिक होता है, इससे उन्हें सावधन रहना चाहिए कि उनके कर्म निर्दोष हों और उन पर कोई किसी प्रकार का लांछन न लगा सके, बुरे भावों का आरोप न कर सके। युवकों में एक प्रवृत्ति और बहुत होती है। वे लोक विरुध्द कार्य करने में अपनी बड़ी बहादुरी समझते हैं, वे बँधी हुई रीति मर्यादा का बड़ी उमंग के साथ तिरस्कार करते हैं, वे व्यक्तिगत स्वतन्त्रता का पक्षमण्डन बड़ी धूमधाम के साथ करते हैं। पर, जैसा कि मिल¹ ने दिखाया है, एक व्यक्ति की स्वतन्त्रता ऐसी न होनी चाहिए कि वह बहुतों की स्वतन्त्रता में बाधा डाले। यदि स्वतन्त्रता कुछ थोड़े ही से लोगों को प्राप्त हो जाती है, तो उस पर उनका इजारा हो जाता है और वे और लोगों की स्वतन्त्रता में बाधक होने लगते हैं। समाज के नियम इसलिए बनाए गए हैं जिसमें उसके व्यक्तियों का सम्बन्ध परस्पर ठीक रहे। इससे जो उनका तिरस्कार करता है, उसे लाभ बहुत थोड़ा और हानि बहुत अधिक होती है। झक्कड़पन चाहे उतना बुरा न समझा जाय, पर लोगों को वैसा ही खलता है जैसा अत्याचार। उसे कोई अच्छा नहीं कह सकता। किसी शुभ कार्य व मंगलोत्सव में किसी को काले कपड़े पहने देख लोगों का काँव-काँव करना चाहे मूर्खता ही सही, पर ऐसे अवसरों पर कोई काले कपड़े पहनकर क्यों जाय? एक ग्रन्थकार बहुत ठीक कहता है कि जो बन्दर पालेगा, उसे वह सब नुकसान भरना पड़ेगा जो वह बन्दर तोड़-फोड़ करेगा। इसी प्रकार जो समाज की बँधी हुई रीति व्यवस्था को तोड़ेगा, उसे उसका परिणाम भोगना पड़ेगा।

इस पुस्तक में आत्मसंस्कार के लिए जो जो बातें बतलाई गई हैं उन्हें अंगीकार करके यदि युवा पुरुष उन पर बराबर चलें तो फिर किसी को कुछ कहने-सुनने की जगह न रहेगी। क्योंकि इस आत्मसंस्कार के अन्तर्गत मनोवेगों के परिष्कार और बुध्दि के परिमार्जन का भी विधान है तथा जीवन में मनुष्य के जो-जो कर्तव्यह हैं, उनके पालन की भी व्यवस्था है। हम पहले ही दिखला चुके हैं कि युवा पुरुष को अपने माता पिता व भाई के साथ कैसा होना चाहिए, उसे अपने नित्य के व्यवहारों का निर्वाह किस प्रकार करना चाहिए, तथा उसमें किस प्रकार के उद्देश्यों की प्रेरणा होनी चाहिए। उसके लिए यह बतलाया गया है कि वह घर में शान्त और शुध्द स्नेह की सुन्दर व्यवस्था रखे, अवसर पड़ने पर किसी को अपनी मैत्री से वंचित न रखे, इसका ध्याअन रखे कि दरिद्र, मूर्ख और पापी भी उनकी दया के पूर्ण अधिकारी हैं जो सब प्राणियों के प्रति अपना कर्तव्य निबाहना चाहते हैं। इतना ही नहीं, उसे यह भी समझाया गया है कि परमात्मा की ओर से उसे धारोहर की भाँति जो बड़ी बड़ी शक्तियाँ (इन्द्रिय, बुध्दि आदि) प्रदान की गई हैं, उनका यह पोषण और उपयोग करे। प्राय: हमें यह बड़ी देर में दिखाई पड़ता है कि हमारे हाथ में कैसा सुन्दर

¹पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी की 'स्वाधीनता' देखो।

अवसर है और हमें उच्चकर्तव्य और फलदायक त्याग के लिए कैसी मधुर वाणी आह्नान कर रही है। जब कि हम आलस्य की जँभाई लेते हुए मार्ग पर चुपचाप खड़े अपना प्रारब्ध ही खोटा समझते हैं, उच्चाशय लोग आशापूर्वक आगे की ओर दृष्टि फैलाते हैं और कर्तव्य पालन का पवित्र अवसर पाते ही उसकी ओर झुक पड़ते हैं। आत्मसंस्कार के कार्य को यदि हम ठीक-ठीक समझेंगे, तो हममें हाथ में आए अवसरों से लाभ उठाने की प्रवृत्ति होगी, हमारी ऑंखें खुल जायँगी और हमारे कान खड़े हो जायँगे। इस प्रकार हमारा आचरण एक धार्मिक पुरुष का सा हो जायेगा और हमें अपने वर्तमान और भविष्य के कर्तव्य् का बोध हो जायेगा।

अपना ऐसा भव्य और सुन्दर आगम देखकर युवा पुरुष को ऐसा जीवन व्यतीत करने का उत्साह होगा जो परमात्मा के अनुकूल हो और जिससे लोक का हित हो। वह आप तो बराबर उन्नति करता ही जायेगा, दूसरों को भी ज्ञान, औदार्य और धर्म में उन्नति करने में सहायता देगा। वह लोक में जो कुछ सत्य, सुन्दर और पवित्र होगा, उससे प्रेम करेगा और इसमें तनिक भी लज्जित न होगा। वह काव्य और कला के उत्कृष्ट भावों तथा विज्ञान के प्रखर तत्वों को हृदयंगम करेगा। उसके अपने नित्य के व्यवहार में एक प्रकार का पुनीत उत्साह रहेगा जो उसके विचारों को उन्नत करेगा, भावों को पवित्र करेगा और परिश्रम करेगा। वह अपने धर्म सम्बन्धीकर्तव्य और आचार का पालन विनीत, श्रध्दालु और दम्भशून्य होकर करेगा, धर्मधवजी न बनेगा। वह धर्म को सदाचार का मूल मानकर उस पर दृढ़ रहेगा और मनुष्य तथा सृष्टि के पदार्थों की प्रकृति में परमेश्वर की सर्वव्यापिनी उदारता और बुध्दि का प्रकाश देखेगा। इस प्रकार आत्मसंस्कार के आदर्श को उन्नत करता तथा सच्चे पुरुष के समान श्रेष्ठ जीवन के हेतु प्रयत्न करता हुआ वह ईश्वराधन को अपना बड़ा भारी बल और सहारा समझेगा और सब बातों में उस परमात्मा की ओर देखेगा जो सदा उन लोगों के हृदय में प्रेरणा किया करता है, जो उसकी इच्छा के अनुकूल चलना चाहते हैं। ईश्वराधन के बिना आत्मसंस्कार एक ढकोसला मात्र होगा; क्योंकि परमात्मा ही की प्रेममयी भावना के अवलम्ब पर आत्मा अपनी उन्नति के साधन में आशा और उत्साह के साथ प्रवृत्त होती है।

अब हम नित्य प्रति के लौकिक व्यवहारों की ओर आते हैं। यहाँ युवा पुरुषों के आचरण के लिए कुछ नियम निर्धारित किए जा सकते थे, पर मैंने उन साधारण सिध्दान्तों ही का उल्लेख ठीक समझा है जो जीवन के समस्त उचित कर्मों तथा उद्देश्यों पर घटते हैं। इन सिध्दान्तों को कहाँ किस प्रकार व्यवहार में लाना चाहिए, यह मैंने प्रत्येक पाठक पर छोड़ दिया है। जो युवा पुरुष आत्मसंस्कार ऐसे महत्कार्य में प्रवृत्त होगा, उसे यह बतलाने की आवश्यकता न होगी कि सब काम ठीक समय पर करना चाहिए, पूरा परिश्रम करना चाहिए। वह असावधनी और टालमटूल की बुराइयों को अच्छी तरह समझेगा। अत: हम इससे थोड़ा आगे बढ़ते हैं। युवा पुरुष को जीवन के कार्यों को आरम्भ करते ही, जीवन के मार्ग पर पैर रखते ही रुपये की कदर समझ लेनी चाहिए। यह समझ बहुतों को बहुत कुछ दु:ख उठा चुकने पर आती है, जबकि सारी आशाओं पर पानी फिर जाता है और सारे हौसले पस्त हो जाते हैं। रुपये को लोग हाथ की मैल कहते हैं, पर यह मैल यदि मान-मर्यादा और औचित्य के साथ प्राप्त और वितरित की जाय तो नि:सन्देह बड़े महत्व की वस्तु है। चाहे हम उदारतापूर्वक लोभियों का तिरस्कार करें, चाहे हम ऐसे लोगों से उपयुक्त घृणा करें जो रुपया पैदा करना ही अपने अतिश्रांत और असंतोषपूर्ण प्रयत्नों का एकमात्र उद्देश्य समझते हैं और 'सर्वे गुणा: कांचनमाश्रयंति' के पूरे समर्थक हैं, पर द्रव्य की उपयोगिता को हम किसी प्रकार अस्वीकार नहीं कर सकते, न यह कह सकते हैं कि सच्चे प्रयत्न करनेवालों को द्रव्य से वंचित रहना चाहिए। विरक्त लोग धन को तुच्छ समझें तो समझ सकते हैं, पर गृहस्थ के लिए धन बड़ी भारी शक्ति है, भलाई करने का बड़ा भारी साधन है। यह दुर्बलों में बल ला सकता है, पीड़ितों का उध्दार कर सकता है, अनाथ बालकों के मुख पर प्रफुल्लता ला सकता है और दुखिया विधावाओं के ऑंसू पोंछ सकता है। धन का सदुपयोग करो, दुरुपयोग न करो। अपनी बुध्दि उसमें लगाओ, पर मनोवृत्तियों को उसके अधीन न करो। बहुतेरे नवयुवक रुपये के सम्बन्ध में बड़ी असावधनी प्रकट करते हैं और गहरी लापरवाही के साथ इधर-उधर उसे उड़ाते हुए कहते हैं कि वह तो हमारे हाथ में ठहरता ही नहीं। पर इस प्रकार की बेपरवाही से चाहे आशय की उच्चता प्रकट हो, पर ऋण की नौबत आती है और ऋण से अनेक प्रकार के कष्ट होते हैं। आत्मसंस्काराभिलाषी युवक के लिए ऋणी रहना किसी प्रकार ठीक नहीं। यदि वह ऋणी रहेगा, तो उसका चित्त किसी घड़ी चिन्ता से मुक्त ही न रहेगा, पुस्तकों की ओर क्या जायेगा। बाबू हरिश्चन्द्र रुपये-पैसे के मामले में बहुत असावधान रहे, जिसके कारण उनके जीवन का पिछला भाग बहुत किरकिरा हो गया। इँगलिस्तान का प्रसिध्द कवि गोल्डस्मिथ सदा ऋण का कष्ट भोगा करता था। उसने अपने भाई को बड़े मर्मस्पर्शी शब्दों में लिखा था-'अपने लड़के को किफायत करना सिखलाओ। उसके सामने इधर-उधर मारे-मारे फिरनेवाले उसके दरिद्र चचा का दृष्टान्त रखो। इसके पहले कि मैं अनुभव द्वारा दूरदर्शिता की आवश्यकता को जान लेता, मैंने पुस्तकों के द्वारा उदार और नि:स्वार्थ होना सीखा। इधर तो मैंने तत्वसदर्शियों की सी टेव पकड़ी, उधर चालबाजों की बन आई। साधारण वित्त का मनुष्य होकर भी कभी-कभी मैंने दान में अति कर दी। मैं न्याय की रीति भूल गया और मैंने अपनी दशा भी उन्हीं अभागों की सी कर डाली जिन्होंने मेरा कुछ भी उपकार न माना।' यदि कोई युवा पुरुष निरन्तर सुखपूर्वक निर्वाह करना चाहता हो तो उसे अपनी आमदनी से कम खर्च करना चाहिए। यदि वह उसके बराबर खर्च करेगा तो कुछ दिनों से उससे अधिक खर्च करने लगेगा। फिर क्या है, उसके ऊपर पहला ऋण होगा, कुछ दिन बीतते बीतते दूसरा होगा, तीसरा होगा, इसी प्रकार ऋण पर ऋण होता जायेगा और उसका तार जिन्दगी भर न टूटेगा। ऋण एक नाले के समान है, जो ज्यों ज्यों आगे चलता है त्यों त्यों बढ़ता जाता है। सबसे बुरी बात ऋण में यह है कि जिसे ऋण का अभ्यास पड़ जाता है, उसकी धड़क खुल जाती है; उसे आगम का भय नहीं रह जाता और जब तक उसका नाश नहीं हो जाता, तब तक वह विष का घूँट बराबर पिए जाता है। यदि उसका ऐसा चित्त हुआ जिसमें बात जल्दी लगती हो, तो वह चैन से न रह सकेगा, ऋण के बराबर बढ़ते हुए बोझ से दबकर छटपटाया करेगा।

मैं यह नहीं मानता कि आत्मसंस्कार में निरत युवा पुरुष के लिए निर्धनता कोई बड़ी भारी बाधा है, उसमें भी आजकल जबकि लिखने-पढ़ने के सामान इतने सस्ते हैं और ज्ञान के मार्ग का बहुत कुछ कर उठा दिया गया है। पहली बात तो यह है कि निर्धनता परिश्रम की बड़ी भारी उत्तेकजक है, इतनी बड़ी उत्तेनजक है कि पैथागोरस कहता है कि 'योग्यता और अभाव दोनों का साथ है।' हमारे यहाँ के अधिकांश तत्वेवेत्ता और कवि निर्धन मनुष्य थे। सूर, तुलसी, जायसी, गौतम, कणाद आदि धानाढय पुरुष नहीं थे। जायसी में बहुत कुछ आत्मबल उनकी निर्धनता के कारण था। उनके विषय में एक जनश्रुति है कि उन्हें एक बार जौनपुर के बादशाह ने बुलाया। जब वे बादशाह के सामने गए, तब बादशाह उनके काले रंग और कानी ऑंख पर हँसा। जायसी ने चट कहा-मोहिका हँससि कि कोहरहि?' बहुत से विद्वान् ऐसे हुए हैं जो तत्वय चर्चा में मग्न रहते थे और समय पर जो कुछ रूखा-सूखा मिलता था, खाकर रह जाते थे। दूसरी बात यह है कि निर्धनता से मनोवेगों का संस्कार होता है। इसके द्वारा हम सहानुभूति और सहिष्णुता सीखते हैं, दूसरों को उसी दु:ख में देख, जो हम स्वयं भोगते हैं, हम उन पर दया करना सीखते हैं। यह बहुत प्रसिध्द कहावत है-'जाके पाँव न फटी बेवाई। सो का जानै पीर पराई।।' तीसरी बात यह है कि निर्धनता हमें प्रलोभनों में फँसने के साधनों से दूर रखती है और इस बात के लिए हमें विवश करती है कि हम प्रकृति निरीक्षण और पुस्तकावलोकन का आनन्द लें। पर निर्धनता का प्रभाव कुछ लोगों पर इसका उलटा भी पड़ता है। इससे उनका चित्त कठोर और संकुचित हो जाता है और उन्हें बहुत सी बातों के करने में आगा-पीछा नहीं रह जाता। यदि ऐसे मनुष्यों को अपव्यय और दुर्वव्यरसन के कारण ऋण का भी चस्काे हुआ, उनके सारे आचार-विचार पर पानी फिर जाता है और वे दिन दिन बुराइयों के गङ्ढे में गिरते चले जाते हैं। यहाँ पर यह स्पष्ट बतला देना आवश्यक जान पड़ता है कि वह बल और उत्साहप्रदायिनी निर्धनता, जिसमें पण्डित ईश्वरचन्द विद्यासागर ने इतना साधु प्रयत्न किया, उस निन्दनीय और शक्तिघातिनी निर्धनता से भिन्न है जिसमें भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, माइकेल मधुसूदन दत्ता और मिर्जा गालिब आदि के अपव्यय के कारण अपने दिन बिताए। बात तो यह है कि तुम अपनी जीवन यात्रा चाहे गरीब के मोटे कपड़े पहनकर आरम्भ करो, चाहे अमीर के रेशमी और कामदार कपड़े पहनकर, तुम्हें किफायत का ध्या न रखना चाहिए और मितव्ययी होकर ऋण के प्रेत को दूर ही रखना चाहिए।

ऋण के मुख्य रूप से चार कारण बतलाए जाते हैं, कपड़ा, लत्ता, जूता, तड़क भड़क और आमोद प्रमोद। जिसने आत्मसंस्कार का उच्च व्रत लिया हो, उसे इनमें से किसी के जाल में न फँसना चाहिए। कपड़े लत्तो ही को लो। थोड़े ही से खर्च में तुम अपना रूप रंग दस भले आदमियों के पास मर्यादापूर्वक बैठने के योग्य बना सकते हो। मैं यह नहीं कहता कि तुम विरक्तों के समान कपड़े लत्तो की कुछ परवाह ही न रखो और फटे पुराने चिथड़े लपेटे रहो। अपनी मर्यादा के लिए यह बहुत आवश्यक है कि हमारे कपड़े लत्तो ऐसे भद्दे और गँवारू न हों कि चारों ओर लोग उँगलियाँ उठावें, पर पहनावे आदि के विषय में बस इतनी ही बात का ध्या न रखना बहुत है। कोट की काट छाँट, पायजामे के चढ़ाव तार, टोपी की सजधज आदि के विषय में प्रवीणता दिखाने और तर्क वितर्क करने के लिए फैशन के गुलाम शोहदों और छिछोरों ही को छोड़ देना चाहिए। हम लोगों को तो इनसे अधिक महत्तव की बातें सीखनी हैं, इनसे अधिक उद्देश्यों का साधन करना है। सादगी, सफाई और सुडौलपन पहनावे के विषय में तीन ही बातें हमारे ध्याोन रखने की हैं, इनका चाहे हम जितना ध्याेन रखें, हमें ऋण न लेना होगा।

जूए के विषय में बहुत क्या कहा जाय? युवा पुरुषों के लिए इस बुराई में फँसना अब उतना सुगम नहीं है। सरकार ने जूएखाने बन्द कर दिए हैं जिनमें न जाने कितने अभागों के घर सत्यानाश हो गए हैं। पर जूए की प्रवृत्ति जिसमें हो जाती है, वह उसके हजारों ढंग निकाल लेता है। इस प्रवृत्ति को आरम्भ में ही दबाना चाहिए। नवयुवकों को यह दृढ़ प्रतिज्ञा कर लेनी चाहिए कि हम किसी प्रकार की बाजी न लगावेंगे वा चिट्ठी आदि न डालेंगे। उन्हें घुड़दौड़ इत्यादि की बाजी से कोसों दूर रहना चाहिए। आजकल के समय की बड़ी भारी बुराई चटपट अमीर हो जाने तथा बिना काम धन्धा किए रुपया पैदा करने की इच्छा है। पर यदि तुमने इस प्रकार की इच्छा से अपना रुपया बिना समझे बूझे धूर्तों के खड़े किए हुए नकली कारबार में लगाया या चौगुना सूद देनेवाले दिवालिए बैंकों में रखा, तो समझ रखो कि झूठी आशा मात्र पर तुमने अपना सर्वस्व गँवाया और बैठे बैठाए अपने ऊपर दु:ख का अंधड़ बुलाया। इस संसार में असावधान तथा आगा पीछा न सोचनेवाले लोगों के लिए धूर्तों का दरवाजा चौबीसों घंटे खुला है। धन की 'हाय हाय' में पुरुष अपनी मर्यादा गँवाते हैं और स्त्रियाँ अपनी स्वाभाविक मृदुलता से हाथ धोती हैं। आत्मसंस्कार की अभिलाषा रखनेवाले युवक को भी यदि यह भयानक रोग लग गया, तो बड़े ही दुर्भाग्य की बात है। फिर उसे आत्मसंस्कार की सारी आशा छोड़ देनी चाहिए, सादी रहन और ऊँचे विचार रखने का सारा संकल्प हृदय से निकाल देना चाहिए। एक प्रभावशाली लेखक लिखता है-'धन की यह प्रबल वासना इस अति को पहुँच गई है कि इसके कारण हम जीवन के यथार्थ और स्वाभाविक सुख का कुछ अन्दाज ही नहीं पाते। जबकि हमने उसको, जो साधन मात्र है, महत्ताम उद्देश्य बना डाला, जबकि उसकी कामना जिससे कुछ शारीरिक सुख सुलभ हो, धर्म और ज्ञानसम्पत्ति की कामना से कहीं अधिक गहरी हो गई, तब इसके सिवा और होना ही क्या है? फिर तो हम धनी होने ही के लिए जीवननिर्वाह करते हैं, जीवननिर्वाह करने के लिए धनी नहीं होते। केवल वर्षों का बीतना ही जीवन नहीं है। खाना पीना और पड़े रहना, शीत घाम सहना, अभ्यासानुसार धन के कोल्हू में नधो नधो ऑंखें मूँदकर चक्कर काटना, बुध्दि को बहीखाते और विचारों को व्यवसाय की जिन्स बनाना-इन्हीं बातों को जीवन नहीं कहते। इतने में तो मानव जीवन की सज्ञानता का बहुत ही क्षुद्र अंश जाग्रत् होता है और वे उच्च वृत्तियाँ सुषुप्ति अवस्था में रहती हैं जिनके कारण जन्म सफल होता है। ज्ञान, सत्य, प्रेम, सौन्दर्य, विश्वास, सद्गुण आदि ही से जीवन में यथार्थ शक्ति आती है। आनन्द की हँसी, जो कलेजे की कली को खिला देती है, ऑंसू जो हृदय को आर्द्र कर देते हैं, संगीत जो थोड़ी देर के लिए हमारी बाल्यावस्था फेर लाता है, ईश्वराराधन जो हमारा आगम हमारे निकट लाता है, शंका जो चित्त में विचार उत्पन्न करती है, मृत्यु जिसका रहस्य हमें चकित करता है, बाधाएँ जो हमें प्रयत्न करने को विवश करती हैं, व्यग्रता जो अन्त में हमें आशा बँधाती है तथा इसी प्रकार की और जो बातें हैं, वे ही हमारी स्वाभाविक स्थिति का पोषण करने वाली हैं। पर ऐसी बातों से जो मानव जीवन की नस नस में घुसी हुई हैं, धन के लोलुप सदा दूर भागते फिरते हैं। उन्हें ऐसी बातों की चाह नहीं जो नित्य और सार रूप चेतन से सम्बन्ध रखती हैं। वे परमार्थ से चित्त को हटाकर स्वार्थ में लीन होते हैं। वे जीवन के सच्चे और स्वाभाविक व्यापारों से जीविका की चिन्ता का बहाना लेकर भागते हैं और जीवननिर्वाह के लिए तैयारी ही करते मर जाते हैं।'

ऋण का तीसरा कारण मैंने दिखावट वा ठाट-बाट बतलाया है। हम अपने को ऐसे प्रकट करना चाहते हैं जैसे हम वास्तव में नहीं हैं। हम अपने साथियों से अपने को बढ़कर दिखाना चाहते हैं, हम अपव्यय में उनसे बढ़ चढ़कर रहना चाहते हैं और अति करने में उनसे पीछे नहीं रहना चाहते। मैं बहुत से ऐसे युवक पुरुषों को जानता हूँ जिन्होंने घोर वासना के वशीभूत होकर अपना प्रारम्भिक जीवन किरकिरा कर दिया। पहले तो वे 'बड़े आदमियों' की संगत में मिले। वहाँ उन्होंने देखा कि उनके साथी अच्छे अच्छे कपड़े पहनते हैं और ज्यादा खर्च वर्च रखते हैं। अत: अपने सद्गुण और आचरण के द्वारा प्रतिष्ठा प्राप्त करने के स्थान पर वे अपने मित्रों से उन्हीं का सा ठाट बाट मिलाकर मिले और संसार पर यह प्रकट करके उनकी बराबरी का दावा करने लगे कि 'हम भी तुम्हारे उन्हीं के इतना या उनसे अधिक खर्च रखते हैं' वाह! मनुष्यों की परस्पर छोटाई बड़ाई वा बराबरी की क्या अच्छी माप है! यदि मटरूमल इतना अधिक खर्च रखते हैं जितने की घासीराम की समाई नहीं, तो मटरूमल चाहते हैं कि घासीराम हमारी प्रशंसा करें। पर इस प्रकार की दिखावट गँवारपन और बेईमानी है। कोई भला आदमी झूठा आडम्बर रचकर अपनी प्रतिष्ठा कराना नहीं चाहता। कोई भला आदमी अपने को उससे अधिक नहीं प्रकट करना चाहता जितना वह वास्तव में है। प्रत्येक समाज इस प्रकार के लुच्चों की भरपूर खबर लेता है। वह मनुष्य जो ऊपरी ठाटबाट और रंग ढंग दिखाकर अपनी धाक बाँधना चाहता है, निस्सन्देह नीच है। ऐसों की समाज में बड़ी निन्दा होती है।

बड़े बड़े खर्चों के आमोद प्रमोद में लीन होने से भी बहुधा ऋण होता है। तुम कहोगे कि युवा पुरुषों के लिए कोई न कोई आमोद प्रमोद तो अवश्य चाहिए। ठीक है, पर जो आमोद प्रमोद दिन दिन दु:ख के समुद्र में ढकेलता जाय, वह किसी काम का नहीं। यदि तुम्हारी औकात इतनी नहीं है कि तुम थिएटर देखने जाओ, बड़े बड़े भोज दो, नाच रंग का सामान करो, तो तुम अपने मन बहलाव की ऐसी बातें निकालो जितने में खर्च कम हो। एक छात्रा ने एक बार मुझसे कहा था कि मैं अपना मन बहलाव किफायत में अच्छी तरह कर लेता हूँ। बात भी ठीक है। सरकारी अजायबघर हैं, चित्रशालाएँ हैं, विज्ञानालय हैं, जहाँ थोड़ी देर चले जाने में कुछ नहीं लगता । जब जी चाहे सितार, हारमोनियम आदि से जी बहलावे, जंगल, पहाड़ वा मैदान की ओर निकल जाय और प्रकृति के सौन्दर्य का आनन्द ले। यदि मन ही बहलाना है तो उसके सौ ढंग हैं। किफायत से रहनेवाले आदमी के लिए मन बहलाव की कमी नहीं है। यदि खेल की रुचि हो तो गेंद, चौगान आदि कम खर्चवाले खेलों से बिलियर्ड आदि कीमती खेलों की अपेक्षा स्वास्थ्य को अधिक लाभ है। सन्ध्याद के समय नदी के किनारे टहलने से जितना चित्त प्रफुल्लित होता है, उतना ठाट बाट के साथ मेलों में धाक्का खाने से नहीं। क्या ही अच्छा हो, यदि कोई मनुष्य जिसे पूरी जानकारी हो, कोई ऐसी छोटी पुस्तक लिखे जिसमें लोगों के लिए कम खर्च में होनेवाले आमोद प्रमोद का विधान हो। इस प्रकार की पुस्तक बड़े मजे की और बड़े काम की होगी। किसी के लिए कोई मनबहलाव बतलाने में सबसे पहले यह आवश्यक है कि उसकी रुचि का, यदि वह शुध्द और सात्विक है, विचार किया जाय। नीत्युपदेशकों का प्रथमकर्तव्यश यह है कि वे किफायत के लाभों को जोर देकर समझावें। किफायत सुख, स्वतन्त्रता और पूर्णता की जननी तथा संयम, स्वास्थ्य और प्रफुल्लता की सहगामिनी है। मैं यह बात आग्रहपूर्वक कहता हूँ कि प्राकृतिक सौन्दर्य का प्रेम ज्ञान का प्रधान अंग है। मनुष्य की वृत्ति और आचरण पर भी इसका बड़ा प्रभाव पड़ता है। मनुष्य के लिए यह आनन्द का अक्षय स्रोत है। सृष्टिकर्ता का सारा भाव इसकी सृष्टि में है। जो प्रत्येक फूल को देखकर प्रफुल्लित होता है, जिसे प्रत्येक झरने में आनन्द की ध्व।नि सुनाई पड़ती है, वह कभी श्रान्त और उदास नहीं रह सकता। वह चाहे जहाँ रहे, उसे कोई न कोई वस्तु ऐसी मिल जायगी जिससे उसका मनोरंजन होगा, जिसमें उसका चित्त रमेगा, जो उसके अन्त:करण के मर्म को स्पर्श करेगी। चाहे कोई ऋतु हो, वह अपने चारों ओर सुन्दर और विचित्र पदार्थों की सजावट देखेगा। प्रकृति देवी के समक्ष अपना हृदय भर खोलना चाहिए; फिर तो वह अपनी विभूति का ऐसा शुभ मन्त्र फूँकेगी जिससे बुरे विचार हवा हो जायँगे और सारी उदासी उड़ जायगी। प्रकृति के भाव में कुछ ऐसी मोहिनी शक्ति है जो हमारी कुवृत्तियों को दबा देती है। पर्वतों की शान्त और मनोहारिणी छटा के सामने जाकर, समुद्र की रहस्यमयी भीषण वाणी को सुनकर कोई अपने कृत्रिम सांसारिक भावों को स्थिर नहीं रख सकता। उसकी बुध्दि निस्सन्देह भ्रष्ट है, उसका हृदय अवश्य कलुषित है जो उस समय भी अपनी सांसारिक कुवासनाओं को नहीं छोड़ सकता जब कि कोकिल का मनोहर कण्ठनाद आकाश से रसबिन्दु टपकाता है और प्रभात का शीतल समीर कुसुमित कानन का सौरभ लिए मन्द मन्द चलता है। आत्म संस्कार में प्रकृति का अध्य यन भी सम्मिलित है जिससे कल्पना और बुध्दि को शुध्द और उन्नत करने वाली एक अलौकिक शक्ति प्राप्त होती है। मनुष्य की आत्मा के लिए उससे बढ़कर भाव और कहाँ से आवेगा जो उसे वन, पर्वत, समुद्र और नक्षत्रों से प्राप्त होता है, जो उसे नदी तट की फूली हुई झाड़ियों तथा मन्द और अखण्ड गति से बहते हुए झरनों में दिखाई देता है? प्रकृति के पास जाओ और सब कुछ लो। संगीत लो। हरी-हरी घासों के बीच बहते हुए नालों के कलकल में और उड़ते हुए पक्षियों के स्वर में कैसा सुन्दर आलाप भरा है, कैसी सुन्दर तान सुनाई देती है! पृथ्वी पर से जीवों की मिलित ध्वेनितरंग उठकर कैसे अलौकिक संगीत का सुर भरती है! कलाचातुरी लो। कला भी प्रेरणा के लिए प्रकृति ही का मुँह ताकती है। प्रकृति ही से वह रंग और आकृति के विचित्र विचित्र मेल लेती है। विज्ञान लो। प्रकृति ही उसका मूल आधार है, प्रकृति ही उसका उद्गम स्थान है। प्रकृति ही से वैज्ञानिक विचारों का आविर्भाव और प्रकृति ही से समाधान होता है। हरे-भरे कछारों, श्यामल अमराइयों, लहलहाते खेतों में जो मधुर और कोमल शक्ति है, वह और कहाँ पाई जा सकती है? गगनभेदी हिममण्डित गिरि शिखर से बढ़कर भव्य प्रभाव और किसका पड़ सकता है? विविध छायाओं और ज्योतियों से विभूषित सागर के अपार विस्तार से बढ़कर चमत्कार और कहाँ देखने को मिल सकता है? यहाँ पर मैं कलाकोविद रस्किन नामक प्रसिध्द ऍंगरेज ग्रन्थकार के कुछ शब्द बिना उध्दात किए नहीं रह सकता-'यह एक शान्त और शुभ प्रभाव है जो अज्ञात रूप से हृदय में प्रवेश करता है। यह चुपचाप बिना किसी प्रकार का उद्वेग उत्पन्न किए फैलता है। इसको ग्रहण करने में किसी प्रकार का खटका या किसी प्रकार की उदासी नहीं होती। इससे उग्र मनोवेग नहीं उभरते। यह मनुष्यों के मत मतान्तर से अक्षुण्ण और अन्धाविश्वास से निर्लिप्त रहता है। यह सीधा कर्ता के हाथ से छूटकर आता है और उस परमात्मा के सामीप्य का आभास लिए हुए जगमगाता है। यह आकाशमण्डल में खचित दिखाई पड़ता है। यह प्रत्येक नक्षत्र से आभासित होता है। यह उड़ते हुए मेघखण्डों और अलक्ष्य पवन में रहता है। यह पृथ्वी की पहाड़ियों और घाटियों में रहता है जहाँ तृण-गुल्म-शून्य शिखर चिर-तुषार-पूर्ण वायु को स्पर्श करते हैं, जहाँ निविड़ कानन के बीच प्रचण्ड वायु के झोंके खाकर हरी-हरी पत्तियाँ लहरें मारती हैं। यह प्रभाव आकुल समुद्र के भाषा वक्षस्थल पर सुबोध भाषा में अंकित मिलता है। यही प्रकृति का काव्य है। यही हमारी आत्मा को सहारा दे देकर ऐसा दृढ़ कर देता है कि वह सारी भव बाधाओं को कुछ नहीं समझती। यही हमारे उस बन्धन को, जो हमें भौतिकता से बध्द रखता है, क्रमश: तोड़कर हमारी कल्पना के सामने आध्या त्मिक सुन्दरता और पवित्रता का एक विश्व उपस्थित करता है।' मित्रो! तुम इस प्रभाव को अपनाओ, फिर देखो कि तुममें इतना बल आ जायेगा कि तुम कालक्रम के अनुसार आने वाली आपदाओं और जीवन को अव्यवस्थित करने वाले संकटों को कुछ भी नहीं समझोगे। यदि तुम थके होगे तो यह तुम्हें विश्राम देगा; यदि दु:खी होगे तो ढाढस देगा। यही एकान्त में तुम्हारा सच्चा और शुध्द साथी होगा। यही तुम्हारे उस परब्रह्म के ज्ञान और आनन्द के रहस्य को खोलेगा, प्रकृति जिसका ऊपरी आच्छादन मात्र है। यही तुम्हारे आगे उस नीच वृत्ति की घोरता को प्रत्यक्ष करेगा; जिसके वश में होकर एक मनुष्य दुसरे मनुष्य को खाने के लिए तैयार रहता है। यही तुम्हारे हृदय में उन उच्चभावों का समावेश करेगा जो हृदय को दुर्बल नहीं होने देते और आत्मा को मोहनिद्रा नहीं लेने देते।

मनुष्य का आचरण बहुत कुछ उसके जीवन के उद्देश्य पर निर्भर रहता है। भूमि पर रेंगनेवाले कीड़े को ऊपर की वायु के सुहावनेपन का क्या अनुमान हो सकता है? यदि मनुष्य का संकल्प बहुत क्षुद्र है, तो उसे पूरा करने में शायद कुछ प्रयत्न न करना पड़े। पर प्रयत्न वा चेष्टा ही की प्रेरणा से मनुष्य में क्षमता आती है और उसकी शारीरिक और मानसिक शक्तियाँ उन्नत होती हैं। यदि श्रेष्ठ जीवन व्यतीत करना चाहते हो, तो हमें चाहिए कि हम अपना उद्देश्य श्रेष्ठ रखें, हम अपना आदर्श उच्च रखें। जब एक बार हम अपने हृदय में अपना आदर्श यह सोचते हुए स्थिर कर चुकें कि हम उसे अवश्य प्राप्त करें, हमारा जीवन उसके अनुरूप अवश्य हो, तब हम धीरे धीरे उस आदर्श तक पहुँच ही जायँगे और हममें नित्य प्रति मानसिक और आध्याबत्मिक उन्नति दिखाई पड़ेगी। फल वा पुरस्कार की उच्चता के अनुसार ही प्रयत्न को उच्चता प्राप्त होती है, यद्यपि प्रयत्न का आनन्द फल के आनन्द पर निर्भर नहीं रहता। लड़ाई में सिपाहियों को जो बड़े बड़े तमगे दिए जाते हैं, उनके कारण प्रत्येक वीरोचित कर्म में एक नवीन और मनोहर कान्ति आ जाती है। वह सैनिक जो वीरत्व का कोई बड़ा चिद्द प्राप्त करने पर उद्यत होगा, अपने और साथियों से कहीं बढ़कर साहस और धीरता दिखावेगा। उसकी आत्मा वीरता की उतनी मात्रा तक क्रमश: पहुँचती जायगी जितनी उस पदक की प्राप्ति के लिए अवश्यक है। अतएव प्रकृति की नम्रता और व्यवहार की विनीतता का उपदेश देते हुए भी मैं यही चाहता हूँ कि युवा पुरुष अपने अपने लक्ष्य उच्च रखें। यदि वे ऐसा करेंगे तो बहुत सम्भव है कि वे उससे बढ़कर दाँव मारेंगे। वारेन् हेस्टिंग्ज (भारत के प्रथम गवर्नर जनरल) ने यही संकल्प करके जीवन के कार्यक्षेत्र में पैर रखा था कि अपनी पुरानी जमींदारी फिर प्राप्त करेंगे। उन्होंने अपना यह संकल्प तो पूरा ही किया; इससे बढ़कर और भी बहुत कुछ किया-उन्होंने भारतवर्ष में ब्रिटिश साम्राज्य की नींव स्थिर कर दी और अपने समय के राजनीतिज्ञों में उच्च स्थान प्राप्त किया। यह मैं मानता हूँ कि उनका उद्देश्य बहुत उच्च नहीं था; क्योंकि केवल स्वार्थपूर्ण उद्देश्य उच्च नहीं हो सकता। आत्मसंस्कार के इच्छुक युवा पुरुष इससे अधिक विशद जीवन की ओर लक्ष्य रख सकते हैं, इससे अधिक ऊँचे उद्देश्य हृदय में धारण कर सकते हैं। उन्हें अपने विचारों को विस्तृत करना चाहिए, उन्हें आगम का भी ध्याेन रखना चाहिए। उन्हें यह समझकर कि उनके अधिकार में केवल यह कालबध्द जीवन ही नहीं बल्कि अमरत्व भी है, मनुष्य जन्म को सफल करनेवाले कार्यों और उद्देश्यों में रत होना चाहिए। इस विस्तृत संसार में प्रत्येक मनुष्य के लिए कोई न कोई शुभ कर्म है। उसे उत्कण्ठापूर्वक उसको ढूँढ़ निकालना तथा सच्चे कर्मनिष्ठ की भाँति उसमें तत्पर हो जाना चाहिए। इस संसार में बहुत कम लोगों को उच्च लक्ष्य रखने के कारण विफलता होती है, अधिकांश लोगों का जीवन क्षुद्र लक्ष्य रखने के कारण क्षुद्र हो जाता है। एक बार जब कि मैं छोटा था, अपने शिक्षक से निशाना लगाना सीख रहा था। शिक्षक ने मुझसे कहा-'निशाने से ऊपर मारो, नहीं तो खाली जायेगा।' उनके इस कथन में बड़ा भारी उपदेश भरा था। इसी उपदेश पर ध्यामन रखने का मैं पाठकों से अनुरोध करता हूँ। तुलसीदासजी ने जो इतनी बड़ी रामायण लिख डाली, वह इस कारण कि उन्होंने आरम्भ ही से कोई 'पचासा' वा 'चालीसा' लिखना नहीं ठाना था, बल्कि ऐसा महाकाव्य लिखने का संकल्प किया था जो सदा अमर रहेगा। रविवर्मा क्या कभी ऐसे भावपूर्ण और सुन्दर मुखड़े चित्रित कर सकते, यदि वे मैनाबाई और हीराबाई की बाजारू तसवीरें ही बना लेना अपने लिए बहुत समझते? क्या प्रसिध्द मूर्तिकार म्हातरे संगमर्मर की ऐसी ऐसी सजीव मूर्तियाँ गढ़ सकते, यदि उनकी टाँकी काली और भैरव की भद्दी प्रतिमाओं ही तक रह जाती? नहीं, कदापि नहीं। जैसा संकल्प होगा, वैसा ही कार्य होगा; जैसा जीवन का उद्देश्य होगा वैसा ही आचरण होगा। हमारे हृदय को सदा ज्ञान का लोलुप होना चाहिए। ज्ञान हमारा उद्देश्य होना चाहिए-ज्ञान भी ऐसा जोकर्तव्य् साधन में हमें समर्थ करे। इस ज्ञान की खोज में ज्यों ज्यों हम नित्य नई नई भूमियों को प्राप्त होते जायँगे, त्यों-त्यों हमें ऐसा आनन्द होता जायेगा जो भद्दे विचार के लोगों को स्वप्न में भी सुलभ नहीं। जो आत्मसंस्कार के बल से प्रेरित और उत्तेाजित है, उसके लिए विपत्ति का जंजाल और सम्पत्ति का प्रलोभन क्या है? वह स्वानुभूति का सुख अनुभव करता है। विपत्ति उसे घेर सकती है, पर उसकी आत्मा की अटल स्वच्छन्दता को नष्ट नहीं कर सकती। उसके कठिन और कड़ दिन आ सकते हैं, पर जिस दृढ़ता के साथ वह अपने उद्देश्यसाधन में तत्पर रहता है, उसमें वे किसी प्रकार की बाधा नहीं डाल सकते। यह हो सकता है कि कार्य करने के लिए उसके पास साधन अल्प हों, पर वह जो कार्य करेगा, उसमें कार्यकर्ता के पवित्र भाव का आभास मिलेगा। इटली के एक प्रसिध्द चित्रकार से एक सरदार ने पूछा-'भाई! तुम जो रमणियों के ऐसे मनोहर भावपूर्ण मुख अंकित करते हो, उनके आदर्श कहाँ से पाते हो?' चतुर चित्रकार ने यह कहकर कि मैं अभी बताता हूँ, एक भद्दी ग्रामीण स्त्री को बुलाया और उसे आकाश की ओर मुँह उठाकर बैठ जाने को कहा। उसके बैठ जाने पर उसने झट प्रार्थना में रत एक अत्यन्त सुन्दरी रमणी का भावपूर्ण चित्र खींच डाला और सरदार की ओर फिरकर कहा-'पवित्र और सुन्दर भाव चित्त में होना चाहिए, फिर इसकी परवाह नहीं कि नमूना कैसा है।'

युवा पुरुषों के लिए अनेक प्रकार के प्रलोभन हैं जिनका उल्लेख यहाँ कठिन है; पर जबकि मैं आत्मसंस्कार के शारीरिक, मानसिक और नैतिक तीनों विभागों पर विचार करने बैठा हूँ, तब मुझे उनके विषय में थोड़ा बहुत अवश्य कहना चाहिए। यहाँ मादकता की बुराइयों को बहुत विस्तार के साथ बतलाने की आवश्यकता नहीं। शिष्ट समाज में आजकल कोई नशे में चूर होकर नहीं बैठता। नशा मनुष्य के लिए बड़ा भारी कलंक और दोष है। इससे कोई युवा पुरुष किसी प्रतिष्ठित कार्य में सफलता प्राप्त नहीं कर सकता। बहुत से युवा पुरुष मादक वस्तुओं का सेवन कुछ अधिक करते हैं जिससे उनका पिछला जीवन दु:खमय हो जाता है, उनकी शक्तियाँ मारी जाती हैं, उनका शरीर क्षीण हो जाता है, उनकी बुध्दि मन्द हो जाती है। पहले लोग दस पाँच मित्रों के साथ में पड़कर थोड़ा-बहुत नशा पीते हैं; फिर धीरे धीरे उन्हें नशे का चस्काे लगा जाता है और वे भारी पियक्कड़ हो जाते हैं। जीवन में उपयुक्त आचरण के लिए नशे से बचना बहुत ही आवश्यक है। उन्मत्ता मनुष्य कोई कार्य ठीक ठीक नहीं कर सकता। नशे का चस्काह बुध्दि की स्फूर्ति का नाशक, धर्म और सुनीति का नाशक तथा उदार और उच्च भावों का नाशक है। लोग गिलास पर गिलास चढ़ाने का कोई न कोई बहाना निकाल लेते हैं, यह नहीं समझते कि वे अपने आपको धोखा दे रहे हैं। नवयुवक कभी नशे के फेर में इस भ्रान्त विचार से भी पड़ जाते हैं कि उनके श्रान्त चित्त वा मस्तिष्क के लिए किसी न किसी प्रकार का उद्दीपन चाहिए। लिखने पढ़ने के श्रम से जब उसका मन भरा जान पड़ता है, तब वे समझते हैं कि थोड़ा उत्तेमजक वा मादक पदार्थ सेवन कर लेने से उनका मन हरा और प्रफुल्लित हो सकता है। यह बात ऐसी ही है जैसा आग बुझाने के लिए उसमें घी डालना। किसी युवक वा विद्यार्थी के लिए नशे का नित्य नियम नाश का घर है। इस प्रकार के कृत्रिम उद्दीपन की वासना दिन दिन दूनी होती जायगी, उसकी तृष्णा दिन दिन बढ़ती जायगी और फिर उसका रोकना बराबर कठिन होता जायेगा। यह मैं बहुत दिनों के अनुभव की बात कहता हूँ कि जो कार्य अपनी स्वाभाविक शक्ति से किया जाता है, उससे बढ़कर अच्छा और कोई काम नहीं होता। उद्दीपन का सहारा लेना बड़ा भारी दोष ही नहीं, बड़ी भारी भूल भी है।

एक विद्वान् का कथन है-'इस समस्त विश्व में एक ही मन्दिर है और वह मनुष्य का शरीर है। इससे बढ़कर पवित्र और कोई मण्डप नहीं। किसी महान् पुरुष को मस्तक नवाना अस्थि मांसमय शरीर में व्यक्त होनेवाले आत्मरूप की आराधना करना है। जब हम मानव शरीर पर हाथ रखते हैं, तब स्वर्गधाम का स्पर्श करते हैं।' ठीक इसी प्रकार की एक और महात्मा की उक्ति है जिसने कहा है-'हैं! क्या तू नहीं जानता कि तेरा शरीर उस आत्मा का पवित्र मन्दिर है जो परमात्मा का अंश है!' कोई धर्मात्मा या ज्ञानवान् प्राणी जो शरीर की विलक्षण बनावट के महत्तव को समझता है, उसे अपवित्रता की छत से बचावेगा। स्त्रियों के लिए सतीत्व बड़ा भारी धर्म बतलाया जाता है, पर पुरुषों के चरित्र दोष का विचार करने में समाज बड़ी रिआयत करता है। किन्तु आत्मा के मंगल के लिए; चित्त की सुव्यवस्था के लिए, आध्याैत्मिक बल की रक्षा के लिए, अकाल मृत्यु से बचने के लिए, पुरुषों के लिए सच्चरित्राता अत्यन्त आवश्यक है। निष्कलंक शरीर के भीतर शुध्द चित्त ही बुध्दि और विचार का, उत्तम प्रवृत्ति और युक्त कर्म का, निर्द्वन्द्व गति और मृदुल चेष्टा का, सच्चे सिध्दान्त और निर्मल विवेक का, भगवत्प्रेम और स्वार्थत्याग का, शान्ति और विश्वास का, विचित्र उपासना और आध्यात्मिक सुख का मूल है। आत्मानुभव का आनन्द व्यभिचार के कुत्सित आनन्द से कहीं बढ़कर है। सांसारिक सुख के लिए जिस प्रकार बुध्दि का ठिकाने रहना और शरीर का स्वस्थ रहना आवश्यक है, उसी प्रकार चित्त का कुत्सित वासनाओं से विमुक्त रहना भी अत्यन्त आवश्यक है। वह जो पूर्ण पवित्रता की मूर्ति है, व्यभिचार का कठोर दण्ड देता है। उसके कोप का भीषण प्रभाव शरीर पर पड़ता है, बुध्दि पर पड़ता है, मस्तिष्क पर पड़ता है, हृदय पर पड़ता है और आत्मा पर पड़ता है। इस संसार में व्यभिचारियों की उनके दुष्कर्मों के कारण जो जो दुर्गतियाँ होती हैं, यद्यपि उनका ब्योरा ठीक ठीक समझना कठिन होता है, पर यह अच्छी तरह समझ रखना चाहिए कि पाप उनके शरीर को खाता चला जाता है, उनकी शक्तियों को भीतर ही भीतर क्षीण करता चला जाता है, यहाँ तक कि उनकी आत्मा जर्जर और कलुषित होकर अपनी सारी दैवी सम्पत्ति खोबैठतीहै।

धर्म और आयुर्वेद दोनों व्यभिचारी से पुकार पुकारकर कहते हैं-'समझ रख! तेरे पाप का भण्डा फूटेगा। यमदूत तेरे पीछे लगा है। उसका दण्ड तेरे ऊपर अवश्य उठेगा, चाहे जब उठे।' युवा पुरुषों से मैं स्नेह के साथ कहता हूँ कि वे इस घोर सत्यानाशी दोष से बचें जो संसार में स्त्रीु पुरुष के पवित्र सम्बन्ध को दूषित करता है और शुध्द सात्विक प्रेम के मूल का नाश करता है। अश्लील हँसी खेल, शृंगार की पुस्तकें, गीत आदि प्रवृत्ति के साधन हैं। इनसे युवा पुरुषों को बचना चाहिए। और सदा ध्याान रखना चाहिए कि जिनका अन्त:करण पवित्र है, उन्हें परमात्मा का साक्षात्कार होगा। जो अन्त:करण पवित्र है, वह पाप के लेशमात्र को भीतर नहीं घुसने देता; वह सीप के समान होता है जो स्वाती की बूँद के अतिरिक्त और किसी बूँद को नहीं ग्रहण करता। एक धार्मिक महात्मा की उक्ति है-'जब फल समूचे और अखण्डित रहते हैं, तब तुम उन्हें अच्छी तरह संचित कर सकते हो, कुछ को भुस में गाड़ सकते हो, कुछ को पताई और बालू के नीचे दबाकर रख सकते हो। पर जब वे एक बार चुटीले हो जाते हैं, तब उन्हें बचाकर रखने का केवल एक यही उपाय है कि वे शीरे वा शहद में डालकर रख दिए जायँ। यही दशा हृदय की पवित्रता की है। यदि वह कभी खण्डित वा दूषित न हुई, तो बराबर बनी रहेगी। पर यदि वह एक बार खण्डित हो गई तो उसकी रक्षा का सच्ची भगवद्भक्ति के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं, जो हृदय के लिए मधु वा चाशनी है।'

वही महात्मा आगे चलकर पवित्रता की रक्षा की सबसे अच्छी युक्ति भी बतलाता है। वह युवा पुरुषों को ऐसी बातों से चट दूर भागने की चेतावनी देता है जो अपवित्रता की ओर ले जाती हैं। क्योंकि यह पाप ऐसा है जो दबे पाँव प्रवेश करता है और जो थोड़े से बढ़ते बढ़ते बहुत हो जाता है। ऐसे पापों से भागना जितना सहज है, उतना उन पर विजय प्राप्त करना नहीं। पवित्रता का उद्गम स्थान हृदय है। दर्शन, श्रवण, कथन, घ्राण और स्पर्श में संयम का अभाव अपवित्रता है-विशेषत: जब हृदय को उससे आनन्द मिलता है। यह भी याद रखो कि बहुत सी ऐसी बातें हैं जो स्वयं अपवित्र नहीं, पर पवित्रता में धब्बा लगाती हैं। जिस किसी बात से पवित्रता की भावना कुण्ठित हो या उस पर किसी प्रकार का कल्मष चढ़े, वह इसी प्रकार की है। समस्त बुरे विचार वा इन्द्रियलोलुपता के प्रमादपूर्ण कर्म पवित्रता के नियम भंग के लिए सोपान हैं। इन्द्रियासक्तों की संगत से बचो। ऐसा प्रसिध्द है कि नीम आदि कड़घए पेड़ों के पास जो फलदार पेड़ लगाए जाते हैं, उनके फल कड़घए हो जाते हैं। इसी प्रकार यह सम्भव नहीं कि अपवित्र और व्यभिचारी पुरुष किसी से संसर्ग रखे और उसकी पवित्रता को दूषित न कर दे। अस्तु, सदा सज्जन और संयमी लोगों का संग करो, पवित्र वस्तुओं का चिन्तन करो, धर्मग्रन्थों का अवलोकन करो क्योंकि वे पवित्रता के स्रोत के मूल हैं। जो लोग उनका अध्ययन करते हैं, उनमें पवित्रता और दृढ़ता आती है।