आचार्य किशोरीदास वाजपेयी के नाम पत्र / रामधारी सिंह 'दिनकर'
साउथ एवेन्यू लेन, नई दिल्ली
२१-८-६५
श्रद्धेय वाजपेयीजी,
आपका पत्र मिला। आपका यह पितृ-स्नेह बलदायक होगा।
आपने जो बातें बतलायी हैं, उनमें से अधिकांश पर आरूढ़ हूँ - यहाँ तक कि अब ब्रह्मचर्य में भी ढील नहीं है। किन्तु, असली बीमारी मेरे मन में बसी हुई है और वह परिवार को लेकर है। दुर्भाग्यवश, मेरे बड़े लड़के ने परिवार का ध्वंस कर दिया, रजिस्ट्री से बँटवारा कर लिया और अब बतलाता है कि उसके पास जीविका नहीं है। मैंने राय दी कि जो घर तुम्हें हिस्से में मिला है उसे किराये पर उठा दो और खुद किराये में रहो। मेरे पास जो भी सम्पत्ति थी, दोनों भाइयों के बीच बँट गयी। मेरे पास न घर है, न कारबार। पटने में किराये के मकान में रहता हूँ। सम्पत्ति के नाम पर एक मोटर कार है जो पटने में है।
राहुलजी की दुर्दशा उनकी पत्नी ने की। नवीनजी को मृत्यु के मुख में उनकी पत्नी ने ढकेला। बेनीपुरी की दुर्दशा उसके पुत्र ने की और मुझे भी दुर्दशा में मेरा बेटा ही डाले हुए है। जो कहीं भी मार नहीं खाता, वह सन्तान के हाथ मारा जाता है। तब भी मानता हूँ कि भगवान मेरे बेटे को कल्याण करें।
भागलपुर में हालत बहुत खराब थी। दिल्ली में ज्यादा आराम है। तब भी दिमाग के भीतर खंजर घूमता रहता है। बड़ी मुश्किल से उसे रोक पाता हूँ। मैं जीवन में चारों-ओर से घिर गया हूँ। मृत्यु और वैराग्य के सिवा तीसरा दरवाजा दिखायी नहीं देता है। दु:ख भूलने को ही वाइसचान्सेलरी की ओर गया था। दु:ख भूलने को ही दिल्ली आ गया हूँ। किन्तु, संसार-त्याग के बिना मुझे मानसिक शान्ति अब शायद नहीं मिलेगी।
आपके उपदेशों पर अमल करने की कोशिश करूँगा।
आपका
दिनकर