आचार-व्यवहार / ब्रह्मर्षि वंश विस्तार / सहजानन्द सरस्वती
अब हम ब्राह्मणों के आचार-व्यवहारों पर दृष्टिपात करते हुए इन अयाचक दलवाले ब्राह्मणों के आचार-व्यवहारों का भी वर्णन करते हैं। प्रथम ही दिखला चुके हैं कि क्यों कहीं-कहीं इनमें तम्बाकू इत्यादि पीने का अभ्यास हो गया और क्योंकर आजकल भी सभी ब्राह्मणों में बहुत से ऐसे व्यवहार घुसते चले आते हैं और चले आएँगे। जिन्हें प्राचीन लोग अनुचित समझते थे और समझते हैं। यद्यपि पूर्व समय में ब्राह्मणादि तंबाकू का खाना, पीना अथवा सूँघना निषिद्ध अथवा बुरा समझते थे। क्योंकि वह स्वदेशी वस्तु न हो कर अज्ञात, विदेशी और मादक वस्तु हैं। तथापि आजकल अथवा इससे कुछ पूर्व भी लोगों की घृणा उससे एकदम जाती रही। सिवाय अज्ञान और दंभमूलक मिथ्या अभिनिवेश और दिखावे के कुछ न गया। क्योंकि प्राय: मुसलमान लोग ही इसे इस देश में लाए। अतएव संस्कृत कोश में इसके लिए कोई पर्याय शब्द नहीं मिलता और न तो धर्मशास्त्रों में ही इसका वर्णन हैं। उन्हीं मुसलमानों के संसर्ग से या देखा-देखी कोई ब्राह्मण उसे पीने लगा और कोई खाने और कोई सूँघने में ही प्रवृत्त हो गया। कोई-कोई तो दोनों या तीनों करने लगे जो आज तक सभी ब्राह्मणों में पाए जाते हैं। यही दशा क्षत्रियादि जातियों की भी है।
यदि पीने का ही विचार करिए तो समस्त गौड़ सनाढ्य, जिझौतिया, सारस्वत, गुजराती, दक्षिणात्य, बंगाली और उत्कल प्रभृति इसे पीते हैं। कोई हुक्का पीता हैं और कोई बीड़ी या सिगरेट। आरा जिले में तथा मिथिला में भी प्राय: बहुत से सर्यूपारी कहलानेवाले पीते हैं। हाँ, केवल बहुत से कान्यकुब्जों, सर्यूपारियों और मैथिलों में दिखलाने मात्र के लिए यह बात रह गई है क्योंकि पीनेवाले बहुत कम हैं। तथापि अब तो धीरे-धीरे अंग्रेजी सभ्यता के प्रचार से ऐसा हो रहा है कि सिगरेट देवता कम-से-कम अंग्रेजी के विद्यार्थियों के मुख से बात कर रहे या करना चाहते हैं और यह आशा प्रतीत होती है कि थोड़े ही दिनों में इंजन की तरह मुख से फुक-फुक धुआँ निकालने में एक ब्राह्मण बच्चा भी न बचेगा। क्योंकि यवनों की घनिष्ठता कुछ देशों में न थी। कान्यकुब्ज, सर्यूपार और मिथिला में उनका इतना प्रभाव न था जितना पश्चिम, बंगाल, पंजाब और दक्षिण में था। इसलिए इस देश में उसकी कुछ कमी थी। परंतु अंग्रेजी सभ्यता तो घर-घर घुस रही है और अंग्रेजों के भी प्रधान व्यवहार की ये वस्तुएँ हैं। इसीलिए सभी इसका प्रयोग क्यों न करने लग जावेंगे? प्रथम तो इसके रोकने के लिए सभाएँ भी न होती थीं और न जगह-जगह व्याख्यानों की झड़ ही लगा करती थी। परंतु आजकल तो इसके रोकने का बहुत यत्न हो रहा है, तो भी इसके प्रचार की (सो भी विदेश के बने सिगरेट की) उन्नति छोड़ कर अवनति देखने में नहीं आती। इसलिए पूर्वकाल में इसके प्रयोग करने वालों का अपराध ही क्या था? क्योंकि जब कोई विलक्षण कालचक्र में आ जाता है, तो प्रकृति उसे बलपूर्वक करा ही डालती है, कारण कि प्रकृति में उसी के भाव भर जाया करते हैं। इसी से जबकि यवन काल में उसका भाव प्रकृति में कम था, उस समय तम्बाकू के पीनेवाले बहुत कम थे। यहाँ तक कि हमने प्राय: सभी अयाचक दलवाले ब्राह्मणों के वृद्धों से पूछा है, तो मालूम हुआ है कि इन लोगों में भी इसका विशेष प्रचार प्राय: 40 या 50 वर्षों से ही हुआ है। परंतु इसी समय से ले कर उस भाव की उन्नति ही होती गई है। इसीलिए आज प्रकृति ने लोगों पर ऐसा दबाव डाला कि थोड़े दिनों में हजारों उपाय करने पर भी कोई भी इससे बचना नहीं चाहता।
हाँ, इस समय तक सभी समाजों में तंबाकू न पीनेवालों की भी कुछ संख्या है। किसी में कम किसी में अधिक। परंतु इससे क्या? जो मैथिल या कान्यकुब्ज अभी तक इसके न पीने की डींग मारा करते थे, वे लोग ही इसके विशेष रूप से व्यवहार करनेवाले हैं। प्राय: सभी के पास बड़े-बड़े बटुवे (कपड़े की थैली) हुआ करते हैं। जिनमें तंबाकू (खाने या सूँघने की) और सुपारी भरी रहती हैं। मैथिलों और कान्यकुब्जों या सर्यूपारियों पर ही क्या? सभी देश के ब्राह्मण पर खाने और सूँघनेवाला भूत सवार हो रहा हैं। क्या पीना ही खराब और खाना या सूँघना अच्छा है? यह बात किसी धर्मशास्त्र या पुराण में लिखी है? जैसा ही पीना, वैसा ही खाना या सूँघना। बल्कि पीने की अपेक्षा खाना-सूँघना और भी खराब है। क्योंकि पीने से तो धुएँ के रूप में उसके दुष्ट परमाणु मस्तिष्क वा उदर में थोड़े-थोड़े जाते हैं, परंतु खाने और सूँघनेवाले के तो साक्षात ही। कारण कि नासिका और नुखों में लोग जबरदस्ती से ठूँस दिया करते हैं। इसलिए पीनेवालों की अपेक्षा खाने और सूँघनेवालों को तो और भी बड़ा रोग लग गया है। इससे जो खाने वा सूँघनेवाले हो कर पीने वालों की निंदा करते हैं, उनकी तो वही दशा है कि 'अपना तो ढेंढर न देखे और दूसरों की फुल्ली निहारे'। हाँ जो लोग, चाहे अयाचक दल के ब्राह्मण हों, अथवा याचक ब्राह्मणों में से हो, किसी प्रकार से उसका व्यवहार नहीं करते, वे भले ही सब लोगों को ही, जो पीने, सूँघने या खानेवाले हैं, नीचा दिखला सकते हैं। इसलिए इस विषय में जो चालाक और दांभिक है उन लोगों में छल और धोखे से दूसरों को नीच बनाने के सिवाय और कोई तत्व नहीं हैं, क्योंकि कोई भी इससे बचा नहीं हैं।
यदि खाने और सूँघनेवाला पीनेवाले की निंदा करता, या उसे नीचा दिखलाता है, तो जैसा कि कह चुके कि पीनेवाला खाने और सूँघनेवाले की और भी निंदा कर सकता और उसे नीचा दिखला सकता है। क्योंकि जैसा कि कभी कह चुके हैं कि तंबाकू के वैदेशिक होने के कारण संस्कृत साहित्य में इसका वाचक कोई शब्द नहीं हैं। इसीलिए धर्मशास्त्रों में भी उसकी विधि या निषेध नहीं है, जिससे पीना खराब और मुँह एवं नाक में भूसे की तरह ठूँसना अच्छा लिखा हो। कहीं-कहीं मनुस्मृति आदि में गौड़ी सुरा के पीने का जो निषेध है, वह तो गुड़ आदि से बनी हुई जल की तरह पीने योग्य, का ही है, क्योंकि वही जल की तरह पी जा सकती है और तमाल तो काले-काले पत्तोंवाला बड़ा सा वृक्ष होता है, न कि तंबाकू का नाम तमाल है। जैसा कि रामायण में लिखा है :
नाथ देखु यह विटप विशाला। पाकर जंबु रसाल तमाला॥
इससे पुराणों के नाम पर कल्पित श्लोक बना कर 'तमाल पत्र दर्पण आदि पोथियों में केवल तंबाकू के पीने की जो निंदा की गई है वह पक्षपात और परस्पर द्वेष मात्र है।
हाँ, सामान्य रीति से अज्ञात वैदेशिक पदार्थ होने के कारण सभी प्रकार के अन्य पदार्थों की तरह उसके भी खाने, पीने और सूँघने सभी का निषेध समझा जावेगा। इसलिए यदि किसी ने धर्मशास्त्रों के नाम पर केवल पीने की निंदा के एक-दो मनगढ़ंत श्लोक बना लिए हों, तो उसकी वंचकता मात्र है क्योंकि खाने और सूँघने के विषय में भी ऐसे बहुत से कल्पित श्लोक बन सकते हैं।
परंतु यदि सभी प्रकार के खाने, पीने, सूँघने की निंदा के श्लोक मिलें तो वे सत्य की दृष्टि से माने जा सकते हैं। क्योंकि वस्तुत: मादक द्रव्य होने से अन्य मादक द्रव्यों की तरह उसका किसी प्रकार का भी सेवन अच्छा नहीं हो सकता, प्रत्युत हानिकारक ही हो सकता है। जो वैद्यकादि ग्रन्थों में कहीं-कहीं उसका निषेध आता है, वह भी सामान्य रीति से खाने, पीने सभी का हैं। इसलिए विचारदृष्टि से तंबाकू का खाना, पीना और सूँघना सभी एक प्रकार के और निंदित हैं। अत: सभी को छोड़ना चाहिए, न कि अन्ध परम्परा का अनुसरण कर के खाने एवं सूँघने को तो हथिया लेना और केवल पीने में दोष बतलाना उचित है। इसीलिए पं. भीमसेन शर्मा ने सन 1915 ई. के अपने 'ब्राह्मण सर्वस्व' पत्र के एक अंक में युक्तियों और वैद्यकादि ग्रन्थों का प्रमाण दे कर इसके खाने और सूँघने आदि सभी की निंदा की हैं और सभी को समान ही ठहराया है।
दूसरा व्यवहार जिसे ले कर इन अयाचक दलवाले ब्राह्मणों की निंदा की जाती है और एक तरफ डिगरी दी जाती है वह इनमें सब जगह तो नहीं, परंतु काशी और पश्चिमी प्रदेशों के जिलों और बड़े-बड़े बाबुआनों में नमस्कार, प्रणाम और पालागन की जगह 'सलाम' की प्रथा है। यद्यपि दरभंगा, मुजफ्फरपुर आदि तिरहुत के और छपरा, गाजीपुर, बलिया वगैरह जिलों में नमस्कार, प्रणाम और पालागन की ही प्रथा प्रचलित है। तथापि जो पूर्वोक्त स्थानों में कहीं-कहीं 'सलाम' की रीति पड़ गई है उसका कारण तो प्रथम ही दिखला चुके हैं कि यवनों का घनिष्ठ संसर्ग होने से उनके-से ही आचार-व्यवहार हो गए, और नमस्कार की जगह सलाम करने में ही लोग गौरव समझने लगे। परंतु जो लोग वहाँ तक नहीं पहुँच सकते थे, या कुछ विवेकी होते थे, उन ब्राह्मणों में प्रणाम, नमस्कार की ही प्रथा पड़ी रह गई। इसीलिए मिथिला प्रांत में मैंने ही कई जगह बाबुआनों में देखा है कि जब वहाँ की उनकी याचक ब्राह्मण प्रजा पत्रों में नमस्कार शब्द का प्रयोग करती है, तो वे लोग, यह समझ कर कि प्रजा लोग हमारी बराबरी का दावा करते हैं और प्रतिष्ठा नहीं करते, रंज होते हैं और नमस्कार शब्द को काट कर सलाम लिखने को कहते हैं। इस बात में जिसे संदेह हो वह स्वयं जा कर अथवा मेरे साथ चल कर अच्छी तरह देख सकता है। क्या यह बात पूर्वोक्त सिद्धांत को पुष्ट नहीं कर रही हैं?
काशीस्थ भूतपूर्व पंडित प्रवर काकाराम शास्त्री के विषय में एक ऐसा ही आख्यान है। वे भी तो महियाल ब्राह्मण ही थे। इसलिए उनके भगिनी पति (बहनोई) कोई प्रतिष्ठित महियाल, जो फौजी हवलदार थे, उनसे मिलने के लिए जब काशी में आए, तो शास्त्री जी ने अपने विद्यार्थियों को इशारा किया कि उनको भी प्रणाम या नमस्कार करें। परंतु ऐसा करने पर बहनोई जी ने विद्यार्थियों से कहा कि 'भाई! प्रणाम या नमस्कार तो उन्हें ही (शास्त्री जी को) करो, मुझे तो सलाम किया करो।' क्या यह आख्यान पूर्वोक्त धारणा का पोषक नहीं हैं? आजकल तो इसके सैकड़ों क्या हजारों उदाहरण हैं। क्या आजकल के अंग्रेजी पढ़नेवाले वकील, बैरिस्टर या अफसर लोग प्रणाम, नमस्कार की जगह परस्पर 'गुडमार्निंग' (Good morning) या सलाम नहीं करते? यहाँ तक की स्कूल के विद्यार्थी भी उसी का अभ्यास करते हैं। चाहे परस्पर तो कभी प्रणाम आदिशब्दों का प्रयोग भी हो जावे। परंतु जब से वे लोग बड़े-बड़े अंग्रेज और मुसलमान अफसरों से मिलते हैं, तो क्या वहाँ भी नमस्कार या प्रणाम शब्द का ही प्रयोग होता है? क्या स्कूलों और कॉलेजों में सभी छात्र 'गुडमार्निंग' (Good morning) नहीं करते? फिर उसी बारम्बार के अभ्यास से परस्पर भी वही करने लग जाते हैं, और लग जावेंगे। ठीक इसी प्रकार यवन राजाओं के यहाँ सलाम शब्द का प्रयोग होते-होते अभ्यास पड़ जाने से धीरे-धीरे परस्पर और प्रजाओं के साथ भी उसी सलाम शब्द का प्रयोग जहाँ-तहाँ हो गया। इसी से केवल राजा बाबुओं और काशी, जौनपुर, मिर्जापुर आदि में ही इस 'सलाम' शब्द का प्रचार विशेष हैं, क्योंकि यहाँ यवनों का विशेष सम्बन्ध रहा है। इसीलिए पंजाब आदि क्षेत्रों में ब्राह्मणों के प्राय: बहुत से आचार यवनों के-से हो गए हैं। क्या अन्य ब्राह्मण जमींदार की प्रजा यदि मुसलमान हो तो वह मालिक को सलाम न करेगी? क्या इससे उसकी निंदा या हीनता हो सकती है? फिर इन अयाचक दलवाले ब्राह्मणों की प्रजाओं का कहीं-कहीं सलाम करना देख क्यों लोगों को नशा हो जाता है, इसका कारण हम नहीं समझते।
परंतु थोड़ी-सी जगह को छोड़ कर अधिकांश स्थानों में तो प्रजा के साथ अथवा परस्पर भी प्रणाम, नमस्कार या पालागन ही होते हैं। इसीलिए इतिहास लेखक अंग्रेजों ने भी इस बात को स्पष्ट शब्दों में कहा है। जैसा कि मिस्टर फिशर बी. ए. (F.H. Fisher B.A.) ने आजमगढ़ के गजेटियर के 65वें पृष्ठ में लिखा है कि :
"They are saluted with the pranam-or pailagi, and return the salutation with sa blessing or 'ashirbad'."
अर्थात 'भूमिहार ब्राह्मणों को लोग प्रणाम या पालागन शब्द से प्रणाम किया करते हैं, जिसके बदले में वे लोग 'आशीर्वाद' दिया करते हैं।'
इसलिए सलाम शब्द से ये अयाचक दल के ब्राह्मण हीन नहीं समझे जा सकते। हाँ, यह शब्द जब प्रतिष्ठित समझा जाता था, तो था, अब तो इसकी प्रतिष्ठा नहीं हैं, इसलिए इसमें प्रतिष्ठा समझना भूल है। किंतु अब तो यही उचित हैं कि इस 'सलाम' शब्द को सर्वदा के लिए ही तिलांजलि दे दी जावे और परस्पर नमस्कार एवं प्रणाम शब्दों के ही व्यवहार हो। क्योंकि ब्राह्मणों के लिए परस्पर इन संस्कृत शब्दों का ही प्रयोग उचित है और उसी से शोभा भी है। हाँ, प्रजा लोग पालगी कर सकते हैं। परंतु सलाम शब्द तो कहीं भी न रहना चाहिए। इसमें बड़ा भारी दोष तो यह है कि जिसे लोग समझते ही नहीं। क्योंकि यदि कोई नीच जाति या प्रजा हो कर 'सलाम' करे, तो झटपट उत्तर में भी सलाम ही निकल आता हैं, जिससे बराबरी हो जाती है। यदि वहाँ आशीर्वाद शब्द का प्रयोग होता अथवा जीओ, खुश रहो इत्यादि, तब तो कोई हर्ज नहीं होता। परंतु प्राय: ऐसा नहीं होता। यदि ऐसा हो तो नीच लोग यदि सलाम भी करें, तो एक प्रकार से हर्ज नहीं हैं, परंतु पालागन तो बहुत अच्छा है।
तीसरी प्रथा दृष्टि देने योग्य यह है कि कुछ जगह अयाचक दलवाले बड़े-बड़े लोग भी पुरोहित दलवाले छोटे-छोटे बच्चों को भी प्रणाम करते हैं। यद्यपि यह प्रथा सब जगह नहीं हैं, तथापि जहाँ कहीं हैं उसके होने का उचित कारण आगे प्रसंगवश दिखलावेंगे। जिससे यह स्पष्ट हो जावेगा कि ऐसा करना केवल भूल से हैं, न कि दूसरी दृष्टि से। इसलिए हम इस बात को स्वीकार करते हैं कि केवल अपने गुरु या पुरोहित को छोड़ कर, सो भी केवल पूजते समय, बाकी उसी ब्राह्मण को प्रणाम या पालागन करना चाहिए, चाहे वह अयाचक हो या याचक, जो विद्यादि सद्गुण संपन्न अथवा अवस्था या दर्जे में अपने से श्रेष्ठ हो, जैसे चाचा बड़ा भाई इत्यादि। अन्यों के साथ तो समानता का ही व्यवहार रखना चाहिए, चाहे प्रथम अपने ही 'नमस्कार' करना चाहिए या वे ही करें, जैसा कि पटना चौक के निवासी पं. रामजीवन भट्ट और उनके पुत्र कृष्ण भट्ट अयाचक ब्राह्मणों के साथ करते थे और करते हैं। परंतु छोटे-छोटे बच्चे, चाहे याचक दल के हों अथवा अयाचक दल के, यदि केवल प्रणाम करें, तो आशीर्वाद के ही योग्य हैं, नहीं तो अपने घर वे और अपने घर आप रहें। यही निष्कृष्ट सिद्धांत है। जिसका प्रचार मिथिला आदि के अयाचक ब्राह्मणों में है, जिनमें से प्रसिद्ध-प्रसिद्ध दृष्टांतों को प्रमाण के साथ आगे दिखलावेंगे। इसलिए सर्वत्र इसी के प्रचार की नितान्त आवश्यकता है। इसमें संकोच या मुरव्वत का काम नहीं हैं, क्योंकि धार्मिक कामों में ऐसा नहीं किया जाता।