आचार संहिता / सुदर्शन प्रियदर्शिनी

Gadya Kosh से
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नाहर जान गया है की उस ने एक अलिखित आचार - सहिंता पर हस्ताक्षर किये है. वह यह भी जानता है की ऐसी आचार - सहिंता का दंड-भोक्ता वह इस देश में अकेला नही है. उस जैसे बहुतेरे सिर -फिरे हैं जिनोहने उसी की तरह कहीं मायावी -गोरी चमड़ी के तहत अपने स्वार्थों की पूर्ती के किये अपने ग्रीन कार्ड के उपनिषद रचे हैं. धीरे -धीरे सब के उपनिषद बोदे हुए हैं और होते चले गये है. किन्तु उस जैसे बोंगे के सिर पर आज भी उन उपनिषदी-मन्त्रों की अनुगूंज मधु-मक्खीय आवाज मे गूं गूं करती भिनभिना रही है.

नाहर उन संहितायों के हाथो चाहे उतना न बंधा हो किन्तु उन की उप -सहिन्तायों मे अवश्य जकड़ गया है.

हमारा परिवार एक न्युक्लिस परिवार होगा.

कोई तुम्हारा सम्बधि या माँ -बाप -हमारे घर मे नही रहेगा. हाँ मिलने आ सकते है. (आभार) अगर रहना होगा तो बाहर होटल मे रहेगा.

तुम्हारे हिन्दुस्तानी दाव -पेच, नियम -संस्कार, भाषा, किवदंतिया या घरेलू रीति -रिवाजों के लिए यहाँ कोई जगह नही है.

बच्चे क्रित्चियन बन कर बड़े होंगे और पलेंगे.

तुम हिनुस्तान नही जाओगे और वहाँ की बीमारिया लाकर अपने बच्चों को नही दोगे.

परिनुप्चुल एग्रीमेंट के तहत हमारी कोई भी समस्या हो तो घर तुम छोड़ोगे -में नही. बच्चों का लालन-पालन तुम पर और उन की देख -रेख आधी -आधी.

सगाई की अंगूठी की कीमत कम से कम तुम्हारी वार्षिक आय का दसवां भाग होगा और उस पर बाद में तुम्हारा कोई अधिकार नही होगा.

विवाहोत्तर आचार-सहिंता कुछ इस प्रकार है...

बर्तन साफ़ करना.

कुत्ते की देखभाल. नहलाने से टहलाने तक.

मुझे खाना बनाना नही आता और हिन्दुस्तानी तो कदाचित नही. जब कभी तुम हिंदुस्तानी खाना बनायो तो उस की स्मेल्ल का इलाज तुमेह ही करना होगा.( खुद हिंदुस्तानी खाना चाट -चाट कर खाती है।

वर्ष मे दो बार छुटीयों में बाहर ले जाना होगा। वह अपने दोस्तों के साथ क्लब या घुमने जाए तो कोई रोक- टोक नही होगी. (लेकिन वह नाहर के समय पर पूरी निगरानी रखेगी)

हिन्दूस्तानी पतियों की टांग -अडाने की और संस्कारी रोक टोक को यह लोग खूब अच्छी तरह से जानती हैं.

ब्लडी इंडियन के हाथों मै अपने बच्चे नहीं सोंप सकती.

हिदुस्तानी माँए बच्चों को सम्भालती कम और बिगाडती ज्यादा हैं.

कभी -कभार तुम मन्दिर -मस्जिद जायो तो जायो -बच्चे साथ नही जायेगे. धर्म के मामले में उनेह हम कन्फ्यूज़ नही कर सकते.

आज उसे लगता है वह किसी मकड़ी के जाल में फंस गया है. एक हाथ से जाला अलग करता है तो वह दूसरी ऑर से आ लिपटता है.अब आँखों के छलावे तो उतर गये हैं किन्तु उन की काई रोम -रोम में लग गई है. कैथी को मैंने क्या समझा था और वह क्या निकली, .

वह सुंदर थी या है - काया के बाहरी पारदर्शी रंग के नीचे ऐसा क्या सम्मोहन था जो मुझे खींच कर इस गर्त तक ले गया. उसी काया के नीचे रेंगती - चीटिंयां आज बाहर रेंगने लगी है और मेरे रक्त की प्यासी हो गई हैं, . नाहर अपने -आप से बार -बार पूछता है की वह क्यों भूल गया की चेहरा ढकने से सारी औरत -जात एक सी होती है. फिर भी ये सम्मोहन -आदमी को कितना टुच्चा बना देता है.

अब तो उस अलिखित समझोते की स्याही भी स्याह होने लगी है.

केवल एक व्यक्ति, केवल एक कांटा कैसे एक भरे -पूरे परिवार और उस के आसपास के सारे वातावरण को धुयांसा कर देने में समर्थ हो जाता है.

आज मां और अपने चाचा -ताऊ की आवाजे जैसे सुरंग में चिल्ला -चिल्ला लौटने वाली अनूगूंज की तरह सुनाई देने लगी हैं.

बेटा ! हमारी छोड़, तेरी अपने जिन्दगी नर्क बन जायगी. अरे १ संस्कार और शर्म की चीज इन में नही होती. तू अमरीका में पैदा हुआ होता तब भी शायद यह सब हजम न कर पाता तू. उस पर तू तो यहाँ पैदा हुआ है. तेरे चारों और तो संस्कार गुड की चाशनी की तरह लिपटे हुए हैं, कैसे निकालेगा उनेह अपने तन -मन से.

पर उस समय कैथी के सिवाय सब झूठ, स्वार्थ और बेमानी लगता। आज तक समझ में नही आया की फूटे माथे को देख कर भी हम अपना ही माथा फोड़ कर क्यों देखना चाहते हैं की लहू किस रंग का है.

पिछले सप्ताह पुरुषोतम की एनी ने तो हद कर दी. अपने कपड़े फाड़ कर दो चार खरोंचें अपने बाजूयों पर हेयर पिन से खींच कर पुलिस बुला ली और पुलिस पुरुषोतम को पकड़ कर ले गई.

कहने को मेरा नाम नाहर है पर शीशे में अपना प्रतिबिम्ब देखता हूँ तो लगता है कहीं कोई आठवी क्लास का बच्चा कक्षा के पिछले बैंच पर दुबका बैठा है.

गैराज -खुलने की आवाज आ रही है. लगता है कैथी आ गई है. मोना और इरा अंदर दौड़ी ची आ रही हैं. नाहर के हाथ पॉवों में एक अन्यथा हरकत पैदा हो गई है. उस ने फटाक से फोन रख दिया है. नाहर माँ से बात कर रहा था. वह हमेशा घर के फोन (लैंड -लाइन) से ही माँ को फोन करता है क्यों की जाने वाली काल का एक दम पता नही चलता. सेल्ल-फोन तो नामुराद जान के दुश्मन हैं. आती -जाती हर फोन काल -इन के दांतों में किरकिरी की तरह अटी रहती है जो गाहे -बगाहे कैथी की नजर की चुभन बन जाती है.

तुम ने सरिता को फोन किया था !

हाँ क्यों !

पर क्यों !

युहीं हाल -चाल पूछने के लिए !

इतनी क्या आन पड़ी थी. उस ने कभी मेरा हाल नही पूछा !

नाहर मन ही मन बुदबुदाया और दांत पीस कर रह गया. उस का मन चाह रहा था, कहे की क्यों पूच्छे वह तुम जैसी चुडेल का हाल.?

नाहर स्वयम को कोचना सीख गया है, वह स्वयम अपने -आप को पहचान नही पाता, कितना बदल गया है. उस की अपने सोच और दृष्टि भी कितनी कुंद हो गई है. पिछले दस -सालों से उस की नाक के नीचे कैथी उस की माँ और सविता को छोटा करती रही है. उस पर तुर्रा यह कि वह स्वयम माँ और बहन का साथ न दे कर कैथी का साथ देता रहा है. उस के अपने इसी

व्यवहार से उस के सम्बन्धों के बीच एक दुराव आ गया है. एक मीलों लम्बा -खलाव पैदा हो गया है. उस ने स्वयम कैथी के इन विशिष्ठ -मन्त्रनायों वाले यज्ञों में समिधायें डाल-डाल कर अपने छतें धुआंसी की है. आज किसे दोष दे. यहाँ तक की सविता राखी भेजती - और कैथी नाक -मुहं सिकोड़ती -यह तुम्हारे ब्लडी रिवाज -और ढ्कोसलें. वह ये सब छिपा कर जैसे अपने अंदर के दैत्यों से लड़-लड़ कर अपना सामना करता. रसोई के एक शेल्फ में उस ने अपना छोटा सा मन्दिर बना रखा था. माँ जब -तब दीवाली -दशहरे पर लक्ष्मी और शिव की छोटी -छोटी मूर्तियाँ भेजती है, वह उनेह मन्दिर में छुपा कर श्रद्धा के साथ रख लेता है और चोरी -छुपे रसोई में काम करते समय या दफ्तर जाते हुए माथा टेक लेता है. कैथी के सामने तो त्योहारों का नाम तक नही लेता क्यों की तब वह उसे ऐसी हिकारत और निम्न दृष्टि से देखती है कि स्वयम त्यौहार का नाम धुन्यासा हो जाता है. पहले माँ दीवाली -होली पर शगुन भेजती थी, मिठाई भेजती थी पर उस शगुन का कैथी के हाथों अपमान होते देख, उस ने माँ को कुछ भी भेजने के लिए मना लिया था.

उसे लगता है माँ की उम्र तो बीत जायगी जब तक वह उनेह विशवास दिला पायगा कि में वही बेटा हूँ माँ.सब समझता हूँ. मुझे क्षमा कर दो. में अँधा हो गया था.

उस दिन उस ने वापिस आकर पूछा था - क्या माँ ने फोन किया था?

नही तो ! तुम्हे किस ने बताया.

माँ ने !

कैथी बुदबुदाती हुई दूसरे कमरे में चली गई. स्पष्ट था माँ ने फोन किया और कैथी ने उसे बताया नही.

माँ अस्पताल में थी. हार्ट पैन के कारण एमर्जन्सी में दाखिल हुई थी. सरिता ने कई बार फोन किया पर कैथी ने नाहर को बताया तक नही. उस का सेल्ल फोन कहीं भी मिल नही रहा था. उसी दिन कैथी ने बच्चों को नाहर के पीछे लगा दिया -उनेह फ्लोरिडा -वेकेशन पर ले जाने के लिए. बच्चों की कुछ दिन की छुट्टियाँ जो थीं.

सरिता सेल्ल पर फोन करती रही थी क्यों की जब सेल्ल फोन मिला (जिसे कैथी ही ने कहीं बच्चों के खिलोनो में छुपा दिया था) उस में उस की लगभग बीस काल्स थीं, . और माँ का अस्पताल में चौथा दिन था. उस दिन वह बहुत टूट गया था. उसे लगा वह किसी चट्टान के नीचे दब गया है और सांस नही ले पा रहा. स्पष्ट रूप से वह कभी सरिता और माँ को पता नही लगने देता था कि ये सब कैथी कर रही है. यों बहुत सालों तक तो स्वयम उसे भी कहाँ पता चला था.

छोटी छोटी पहाड़ी तराइयों से इठलाती हुई सर्दी धीरे धीरे पगडंडिया उतरने लगी थी. एक बार सर्दी उतरती तो फिर उतरती और सब कुछ अपने पंजे में दबोच लेती थी. शेर के जबड़ों में फंसी -प्रकृति भी शांत हो जाती थी. लबादों पर लबादे चढ़ा कर ही दरवाजे से बाहर निकलना हो पाता था. ऐसे में अधबीच -रात -जब कभी उस की आंख खुलती तो माँ -आकर आँखों में बैठ जाती - जिस के परिपेक्ष्य में झांकती सरिता अपनी जवानी की उजाड़ पगडंडियो पर बुत बनी बैठी दिखाई देती. माँ की विवश -आँखों में जैसे -मेरी ओर एक दर्याद्र दृष्टि. उस दृष्टि में विवशता, हाथ बंधे कैदी सी -राहत के लिए मेरी ऑर देखती और हताशा में लौट जाती. में बेचेनी में उठ जाता और आकर ड्राइंग रूम के गलियारे में इधर -उधर, आगे -पीछे टहलते -टहलते सुबेर कर देता. कैथी उठती और बिना कुछ कहे, या पूछे उस की तियोरियां चढ़ जाती. मुझे लगता मेरे अंदर कुछ उफनने को तैयार बैठा है.

जिन्दगी कभी एक रस नही रहती.धूप और छाँव की तरह, सांझ और सबेर की तरह पहलू बदलती रहती है. ऐसे लगता है जैसे बचपन में खिलोनो से खेलते -खेलते आप बीच से उठ कर बाहर चले गये हैं और और वापिस आने तक किसी ने सारा खेल बिगड़ दिया है. इसी ने उस सब के बीच से बस बचपन चुरा लिया हो. यों माँ ही नही -उस पुराने घर की पुश्तेनी -भुरती हुई दीवारों में उघडी इंटों की झरीटो से जो दूर की छतों पर पतंग -उड़ाते साथी दीखते थे -वह भी कहीं उम्र के सालों की तरह साथ छोड़ गये थे,.

पिछली बार जब माँ और सरिता आई थी तो बड़ी कड़ाके की शीत लहर चल रही थी. उसे एक दिन के लिए बाहर जाना था. माँ को कह कर गया था कि वह उस के आने से पहले न जाए.पर उस मौसम में उसे पहुचने में बहुत देर हो गई थी. मौसम पर भी जैसे उस दिन काली चढ़ कर बोल रही थी. बर्फीली हवाएं -झकझोर देने वाला झक्कड़ -असमय अन्धकार ने जैसे सारे दिन का मुहं काला कर दिया था. रास्ते भर वह आशंकायों में डूबता -उतरता रहा था. वह जाना नही चाहता था माँ को छोड़ कर - पर काम की विवशता थी.

कैथी पर उसे तनिक भी विश्वास नही था, फिर भी वह नही सोचता था कि कैथी इतनी पढ़ी -लिखी हो कर इंतनी ओछी और इतनी असम्वेदनशील हो सकती है.

कैथी अंततः वही निकली जो आज तक लोग अनुमान लगाते थे, . माँ को नकारना एक तरफ, सरिता को तो वह ऐसे दुत्कारती थी जैसे वह छोटी बच्ची हो. सरिता की योग्यता, ऊंची डिग्री उस की भव्य नौकरी या तो उसे ईर्षा से डसती थी या उसे अपनी हीनतायों की ग्रन्थियों से ग्रसित करती थी.

वह कभी सोच नही सकता था कि कैथी सी एक अदना लडकी - जो उस समय उसे पाने के लिए कुछ भी कर सकती थी -एक दिन उस के पारिवारिक जीवन की ऐसी धज्जियां उड़ा देगी.

वह सोचता है प्रेम कुछ होता भी है कि नही ! प्रेम का वजूद इतना बेमानी और झूठा है जो महज एक गढ़ी हुई कहानी सा लगता है. कुछ ग्रन्थियों का किसी विशेष स्थिति में, विशेष तरह का हारमोनिक स्खलन ! नही तो देव-तुल्य अमृत जैसा प्रेम एक दिन हाड़- मांस के इसी पुतले में जहर -बन कर जान -लेवा क्यों बन जाता है. आज ही नही -अनादि काल से इस प्रेम का जादू सिर चढ़ कर बोलता रहा है. विश्व -व्यापी सम्पदाएं, राज्य और सल्तनतों को रोधता आया है. वही बिजली के गर्जन सा उत्तंड हो कर क्षण में क्षीण हो जाता है. पर इसी बीच न जाने कहाँ- कहाँ वज्रपात कर क्या कुछ धाराशयी कर जाता है. आश्चर्य कि बात है कि यह सदियों से बार -बार हर बार होता है और कोई इस आततायी का कुछ नही कर सका या सकता है.

माँ अंदर ही अंदर कितना रिसती होगी. माँ उस के लिए माँ नही सदैव दोस्त बन कर रही. पिता की अनुपस्थिति उस ने कभी खटकने नही दी. विवाह से पहले वह कैथी से विवाह करने की स्वीकृति के लिए बहुत चिंतित था. पर माँ ने पाश्चात्य -समाज की दीवारों को उधेड़ने तक ही बात सीमित रखी. कैथी के विषय में एक शब्द नही कहा और अपने बेटे की ख़ुशी के लिए सब कुछ सहज स्वीकार कर लिया. उस दिन से माँ के प्रति उस की श्रद्धा का आर -पार नही रहा. उस के बदले उस ने माँ को क्या दिया....प्रताड़ना, उपेक्षा और दूरी.... वह देखता सारे घर की सामाज्यी माँ - उस के घर में आकर -एक छोटे से कमरे के अँधेरे कोने मे अपनी विवश्तायों एवं जरूरतों की पोटली दबाए चुपचाप बैठी रहती, जैसे समय नाप रही हो की कब सरिता आये और उसे यहाँ से ले जाय.

वह रोज अपने आप से लड़ता है, पर इधर कुआ उधर खाई वाली स्थिति है. मन -मसोसते मुठियाँ भिन्च जाती है. उस दिन जब वह उस तूफानी रात में घर आया था तो माँ जा चुकी थी फिर भी उस ने दबे स्वर में मोना से पूछा -बेटा दादी और बुआ कहाँ हैं!

वह तो चली गई.

ऐसे मौसम में १

माँ ने कुछ नही कहा. उनेह जाने दिया और फटाक से दरवाजा बंद कर दिया.

उन्होंने कुछ खाया -पीया कि नही !

पापा मैंने नही देखा, में तो सुबह से यहीं थी.

कैथी कहाँ है?

अंदर..

पहली बार उसे लगा -वह नाहर है. किन्तु बेडरूम तक पहुचने से पहले वह फिर भीगी -बिल्ली बन गया.

"जब भी कुछ कहोगे - में बच्चों को ले कर चली जाउगी. फिर कभी उन का मुहं नही देख पाओगे " कैथी के शब्द उस के पॉवों में लिपट गये थे.

वह दरवाजे पर ठिठक गया.

बाहर बर्फ की लम्बी शहतीरों के साथ वह भी गिलहरी जैसा लटक गया था.

फिर भी हिम्मत जुटा कर कहा - ऐसे मौसम में माँ और सरिता को क्यों जाने दिया !

तो क्या बांध कर रख लेती ! उन की अपनी मर्जी थी जाने की.

वह कडवा घूँट पी कर रह गया. और अपना नाईट- सूट उठा कर गुसलखाने में चल गया.

कुत्ते के मुहं में हड्डी लग जाती है और वह कितनी -कितनी देर तक खाली हड्डी की भी जुगाली करता रहता है. इसी तरह यहाँ आकर -यहाँ की बेलगाम स्वछंदता का स्वाद, डॉलर की महता और हिंदुस्तान में पचास -गुना कर के बताने का फरेबी दम्भ आदमी को कहीं का नही छोड़ता.

शावर की बौछार में पहली बार उस के आंसू शावर की बौछार को मात देते रहे थे.

बाहर निकला तो उस की आँखे सूज गई थी. वह कितनी देर खिड़की के पास बैठा रहा. सामने पब्लिक स्क्वायर की चिमनी से उठता धुयाँ, धुंए में बनती परछाईया और परिछाइयों में झांकती उस की धुँआ -धुँआ जिन्दगी तिरोहित हो रही थी. उठ कर रसोई में गया. चाय का पानी रखा, कैथी के लिए के लिए कॉफ़ी का पर्कुलेटर ऑन किया और बच्चों के लिए पास्ता उबलने के लिए पानी रखा. सिंक में पड़े बर्तन भी ठिकाने लगा दिये.

ऊपर से सामान्य दिखते हुए भी उस दिन वह सामान्य नही था.

उसी दिन आधी रात को उस ने मोना और इरा को उठाया. ठीक भारी -भरकम कपड़े पहनाये और कुछ उठाये. पीटर के गले में जंजीर डाली और चुपचाप अलिखित आचार -सहिंता पर ठोकर मारता अपने बच्चों को लेकर पिछली खिड़की से कभी न लौटने के लिए निकल गया.