आज़ादी का अर्थ / त्रिपुरारि कुमार शर्मा
आज़ादी का अर्थ जानने के लिए सबसे पहले ग़ुलामी का मतलब समझना बहुत ज़रूरी है। हम ग़ुलाम सिर्फ़ तभी नहीं होते जब हमें जेल या जंज़ीर में क़ैद कर दिया जाता है। हम ग़ुलाम तब भी होते हैं जब किसी नाम, धर्म, पार्टी, समाज, सम्प्रदाय, सीमा, सरहद, शादी या ऐसी किसी भी चीज़ से बंध जाते हैं। अगर कोई कहता है कि मैं आस्तिक हूँ तो वह भगवान से बंध जाता है। कोई कहता है कि मैं नास्तिक हूँ तब भी वह भगवान के न होने से जुड़ जाता है। बेहतर ये होगा कि हम किसी चीज़ के होने और न होने की उलझन से बचें। ये हक़ीक़त है कि जब कोई परेशानी या तकलीफ़ हमें गले से लगाती है तो हम बेचैन हो जाते हैं और घबराकर किसी दामन को थामना चाहते हैं। उस वक़्त एक उंगली अगर हमारी तरफ बढ़ता है तो हम पकड़ना चाहते हैं। यह नहीं सोचते कि हम बंध रहे हैं। हम ग़ुलाम हो रहे हैं।
सच तो ये है कि हम आज़ाद होना ही नहीं चाहते। जब तक हम नासमझ होते हैं हमारे माँ- बाप, समाज हर कोई हमें क़ैद करना चाहता है। समझदार होने के बाद, उम्र की हर दहलीज़ पर हम ख़ुद क़ैद होना चाहते हैं। इसका आग़ाज़ कुछ इस तरह से होता है। पैदा होते ही हमारा नाम रख दिया जाता है। हमें बताया जाता है कि ये तुम्हारी माँ है। ये बाप है। चाहे कोई अपना फ़र्ज़ निभाये या नहीं। सिर्फ़ पैदा करने वाले को माँ-बाप कहना कहाँ तक लाज़िमी है? कौन क्या है? किसे क्या कहा जाता है? दुनिया में सही और ग़लत की परिभाषा। बहुत कुछ बताया जाता है हमें। काश! कभी ऐसा हो भी कि सबको सबकुछ ख़ुद ही समझने का मौक़ा दिया जाये। दरअसल, हम जीने के लिए किसी न किसी सहारे की तलाश करते हैं। ऐसे में हम अपने आप को खो देते हैं। हम भूल जाते हैं कि इस दुनिया में न कोई हमें नुकसान पहुँचा सकता है और न ही फ़ायदा। बस अपनी सोच को फ़लक की एक छोटी-सी फ़ांक अदा करने की ज़रूरत है।
मुझे बहुत हंसी आती है जब कोई धर्म, पार्टी, समाज, सम्प्रदाय, सरहद बग़ैरह के नाम पर लड़ाई करने को अमादा हो जाता है। आज के दौर में हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन बग़ैरह ढ़ूँढ़ना बहुत आसान है मगर एक इंसान की खोज बहुत मुश्किल है। लोगों को अपने से अलग किसी और चीज़ से जुड़े रहने में न जाने क्या खुशी होती है। लोग ग़ुलाम रहने में एक अजीब तरह का मज़ा महसूस करते हैं। यही ग़ुलामी सारी तकलीफ़ों का सबब है। एक बार अगर हम इन बंदिशों से निकल जायें तो हम सारे दर्द ख़त्म हो जायेंगे। ज़िंदगी की परेशानी फ़ना हो जायेगी। इन बंदिशों से आज़ाद होते ही हम ज़िंदगी के मूल रूप को उपलब्ध हो जाते है। ज़िंदगी को पा लेते हैं। पैदा होना और मर जाना, इस दर्मियान हम कई दफ़ा पैदा होते हैं और मरते हैं। आज इंसान सबकुछ बनना चाहता है सिवा इंसान के। ज़मीन, ताक़त, पैसा, पद पता नहीं क्या-क्या चाहिए एक तथाकथित इंसान को। क्या इंसान होने से बड़ा कोई पद है?
हम उम्र भर प्यार की जूस्तज़ू करते हैं। हमेशा अपने से बाहर तलाशते हैं। कभी ख़ुद की जानिब मुड़ कर नहीं देखते। कभी अपनी रूह को नहीं टटोलते। क्या आपने कभी ख़ुद को पहचानने की कोशिश की है। एक बार दिल में झाँक कर, उतर कर देखें। कितना सकून हासिल होगा, इस बात का अंदाज़ा भी आप नहीं लगा सकते। दरअसल, आज के इंसान की हालत उस मृग की मानिंद हो गई है जिसकी नाभि में कस्तूरी होता है और वह तमाम जगह ढ़ूँढ़ता रहता है। अकसर लोग पूछते हैं कि प्यार क्या है? प्यार को समझाना और कहना मुमकिन नहीं है। इसे सिर्फ़ जाना, जीया और महसूस किया जा सकता है। जैसे किसी उड़ती हुई चिड़िया से पूछा जाये कि आकाश क्या है? तो वह कहेगी मेरे चारों तरफ जो है वही आकाश है। मगर आकाश की परिभाषा मुश्किल है।
अगर सबकुछ छोड़ कर हम अपने में डूबने की कोशिश करें। प्यार में डूबने की कोशिश करें तो मुमकिन है कि हम इंसानियत को हासिल कर सकेंगे। कोई कहता है कि वह एक इंसान से प्यार और दूसरे से नफ़रत करता है तो वह किसी से प्यार नहीं करता। प्यार तो हमारी फ़ितरत है। अगर हममें प्यार है तो वह सबकी ख़ातिर होगा। फिर वह कोई भी हो। अमीर, ग़रीब, इंसान, जानवर, सबके लिए। सच्चे अर्थों में हम तब ही आज़ाद हो पायेंगे। यह मेरा अपना तज़ुर्बा है। मैं अपने आप को सिर्फ़ और सिर्फ़ एक इंसान मानता हूँ। आज़ादी मेरे लिए सबसे ज़्यादा क़ीमती है। यही मेरी खुशी है। यही मेरे होने का अर्थ है।