आज़ादी के दीवाने: सुभाष चन्द्र बोस / बलराम अग्रवाल

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दृश्य 1

सुभाष अपनी मेज-कुर्सी में बैठे पढ़ने में लीन हैं । मेज पर एक हिस्से में किताबों और पत्रिकाओं का ढेर लगा है। उनकी माँ का प्रवेश।

माँ — सुभाष, बधाई हो बेटे, तुम्हारे पापा ने तुम्हारे लिए विलायत जाकर पढ़ने का इन्तजाम

कर दिया है।

सुभाष — विलायत जाकर पढ़ने का ?

माँ — हाँ बेटे, वह चाहते हैं कि तुम आई ए एस बनकर वापस आओ और खानदान का नाम

रौशन करो।

सुभाष — गरीब और कमजोर अपने ही भाइयों पर राज करके खानदान का नाम कैसे रौशन

हो सकता है माँ?

(हाथ में बेंत और मुँह में काला-मोटा सिगार दबाए पिता का प्रवेश)

पिता — गरीब और कमजोर होना: या धनी और ताकतवर होना—यह परमात्मा का खेल है

बेटे। वही तय करता है कि किसे राजा बनाना है और किसे प्रजा।

सुभाष —आप अच्छी तरह जानते हैं पापाजी, कि भारतीय ॠषियों का बनाया दर्शन भाग्य को नहीं, कर्म को प्रधान मानता है।

पिता — चलो, ‘कर्म’ ही प्रमुख सही…तुम अब ‘प्रजा’ हो, कर्म करो—विलायत से आई ए एस

बनकर भारत लौटो और राज करो।

सुभाष —एक गुलाम को दूसरे गुलाम पर राज करने का अधिकार कैसे मिल सकता है पापाजी।

पिता — क्या मतलब?

सुभाष —मतलब यह पापाजी, कि मैं और आप भी अंग्रेजों के गुलाम ही हैं…हम भी तो

प्रजा ही हैं उनकी? हमें क्या हक़ है अनपढ़ और गरीब रह जाने वाली दूसरी प्रजाओं

पर हुक्म चलाने का, उन पर राज करने का।

पिता — तो?

सुभाष — असलियत यह है कि विलायत से पढ़कर आया हर हिन्दुस्तानी अंग्रेजों का पिट्ठू

बनकर यहाँ की जनता को उसी तरह लूटता है, जिस तरह खुद अंग्रेज।

पिता — क्या बकते हो?

सुभाष — बात आपको कड़वी लग रही है क्योंकि आपको भी अंग्रेजों ने मामूली वकील से

उठाकर अपना प्लीडर बनाया है। पहले आप सिर्फ ‘जानकीदास’ थे, उन्होंने पहले

आपको ‘सर जानकीदास’ बनाया उसके बाद ‘राय बहादुर जानकीदास’। आपकी

निगाह में अंग्रेजों ने आपका रुतबा बढ़ाया: लेकिन मेरी निगाह में, यह सब देकर

उन्होंने देश के लिए आपके जज्बे में कमी ला दी। हिन्दुस्तान में घुसने और पैर जमाने

के लिए बाबर को सिर्फ एक जयचन्द मिला था, लेकिन अंग्रेजों ने रुतबे बाँट-बाँटकर

सैकड़ों-हजारों जयचन्द इस देश में खड़े कर दिए हैं।

पिता — तुम्हारी जुबान बहुत चलने लगी है सुभाष।

सुभाष — मेरी जुबान सचाई उगलती है पापा। क्या यह सचाई नहीं है कि हिन्दुस्तान के

जितने भी ‘सर’ और ‘राय बहादुर’ हैं, वे अंग्रेजों के एक इशारे पर यहाँ की गरीब

जनता पर कोई भी जुल्म ढा सकते हैं?

पिता — सुभाष !!!

सुभाष — मैं विलायत नहीं जाऊँगा।

पिता — विलायत तो तुम्हें जाना ही पड़ेगा।

सुभाष — किसी कीमत पर नहीं। मुझे प्रेसीडेंसी कॉलेज से क्यों निकाला गया, पता है? सिर्फ

इसलिए कि मैंने एक बदतमीज अंग्रेज को तमीज सिखाने की कोशिश की।

पिता — नहीं, वहाँ से तुम्हें निकाला गया क्योंकि तुमने सिर्फ इसलिए अपने अध्यापक का

अपमान किया कि वह अंग्रेज था।

सुभाष — जानते हैं उसने मुझे क्या गाली दी? उसने मुझे ‘ब्लडी इण्डियन’ कहा… ‘ब्लडी’

यानी हरामजादा हिन्दुस्तानी।

पिता — और इतनी-सी बात पर तुमने उसका गिरेबान पकड़ लिया ! वाह !!!

सुभाष — ‘इतनी-सी बात’ यह आपको लगती होगी पापा: मेरे नजर में यह बहुत बड़ी गाली

थी। वह गाली उसने अकेले मुझे नहीं दी, पूरे भारत को दी…और पूरे भारत का

अपमान …मैं नहीं सह सकता।

पिता — अंग्रेज हमारे खैरख्वाह, हमारे ‘राजा’ हैं—समझे ! हमें गालियाँ देने का उन्हें पूरा हक

है। …और यह भी समझ लो कि हमारे अन्दर उनके जैसा तेज-तर्रार दिमाग नहीं है।

सुभाष — आप भूल रहे हैं पापा कि भारत को पूरे विश्व का गुरु कहा जाता रहा है।

पिता — कहा जाता रहा होगा किसी जमाने में। इस जमाने में तो अंग्रेज ही सारे संसार के गुरु

हैं। धरती के इतने बड़े इलाके पर इनका राज है कि इनके राज्य में कभी सूरज नहीं

डूबता—यह बात तो तुम जानते ही हो।

सुभाष — बावजूद इसके, वे इन्सानियत से खाली हैं। मैं उनसे नफरत करता हूँ।

पिता — तुम उनसे नफरत नहीं ईर्ष्या करते हो। जलते हो उनकी कामयाबी से।

सुभाष — कामयाब वे सिर्फ लुटेरेपन और वहशीपन में हैं…इन्सानियत की भावना से वे

बहुत दूर हैं।

पिता — तुम चाहे जो कह लो, लेकिन मैं जानता हूँ कि तुम विलायत क्यों नहीं जाना चाहते

हो।

सुभाष — क्यों?

पिता — इसलिए कि तुम उनके मुकाबले खुद को ‘हीन’…इन्फीरियर महसूस करते हो।

सुभाष — मेरे बारे में यह कहकर आप खुद अपना भी अपमान कर रहे हैं पापाजी।

पिता — तुम्हें डर है कि—यहाँ थोड़े-से अंग्रेजों के बीच नहीं रह पा रहा हूँ तो विलायत में

हजारों-लाखों अंग्रेजों के बीच कैसे रह पाऊँगा।

सुभाष — वे किसी भी तरह हम से बेहातर नहीं है पापा। न बल में, न बुद्धि में। हाँ, वे चालाकी और धोखेबाजी में जरूर हमसे बहुत आगे हैं।

पिता — चालाकी और धोखेबाजी भी बुद्धि और साहस का ही खेल हैं बेटे…और इसमें वे हमसे बेहतर हैं।

सुभाष — बिल्कुल नहीं। …और आपकी इस बात को गलत सिद्ध करने के लिए मैं विलायत जाऊँगा। मैं आपको दिखा दूँगा कि हिन्दुस्तानी हर हाल में उनसे बेहतर हैं।

(इतना कहकर सुभाष गुस्सा दिखाते हुए कमरे से बाहर हो जाता है। पिता, माँ की रो देखकर मुस्कुराता है।)

पिता — देखा प्रभावती, प्यार से नहीं, भड़काने से माना है विलायत जाने के लिए।

दृश्य 2

उद्घोषक — विलायत पहुँचकर सुभाष चन्द्र बोस ने सन् 1921 में आई सी एस की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की। उसके साथ ही दर्शनशास्त्र में ऑनर्स की डिग्री भी हासिल की। लेकिन इसके साथ ही उन्होंने चौंकाने वाली एक कठोर घोषणा भी कर डाली। ऐसी घोषणा, जो अंग्रेजों के शासनकाल में उससे पहले कभी किसी ने नहीं की थी।

(उद्घोषणा के साथ ही मंच पर सुभाष चन्द्र बोस को रात-रातभर पढ़ते, परीक्षा देते और परीक्षा में पास होते दिखाया जाता है। इसके बाद अलंकरण समारोह का दृश्य दिखाई देता है। सभी उत्तीर्ण विद्यार्थी और अंग्रेज उच्चाधिकारी मंच पर मौजूद हैं। नाम की घोषणा के साथ ही एक-एक विद्यार्थी, जिन्हें पहले से दर्शक दीर्घा में बैठा दिया गया था, उठकर मंच पर जाता है और अलंकरण प्राप्त करके अपनी जगह आ बैठता है। अंग्रेज उद्घोषक सुभाष चन्द्र बोस का नाम घोषित करता है—)

अंग्रेज उद्घोषक — मिस्टर सुबास चन्द्रा बो…ऽ…स

(सुभाष अलंकरण प्राप्त करने के लिए मंच पर जाते हैं। अफसर उनको डिग्री भेंट करता है। गले में तमगा डालता है।)

सुभाष — थैंक्यू…थैंक्यू वेरी मच सर…अगर आज्ञा हो तो मैं दो शब्द यहाँ कहना चाहता हूँ।

अफसर — व्हाई नॉट…श्योर।

सुभाष — मेरे सहपाठियो, गुरुजन और आमन्त्रित महानुभाव ! मैं इस समारोह में सम्मानित किए जाने पर आप सब का आभार व्यक्त करता हूँ। मैं भारत से विलायत आया और मैंने आई ए एस पास किया—इसलिए नहीं कि हिन्दुस्तान जाकर मैं कोई बड़ा अफसर बनना चाहता था। बल्कि इसलिए आया कि मेरे पापा मुझे यानी एक हिन्दुस्तानी नागरिक को किसी भी अंग्रेज के मुकाबले मूर्ख, निकम्मा और डरपोक मानते थे। मैं उन्हें दिखा देना चाहता था कि मौके दिये जायें तो हम हिन्दुस्तानी दुनिया की किसी भी कौम से कम बुद्धिमान और साहसी नहीं हैं। मैं खुश हूँ कि उनका दिया चेलैंज मैं सफलता के साथ पूरा कर पाया। उन्हें अपनी ताकत दिखा पाया। अब मैं अपनी आई ए एस की इस डिग्री को ज्यों का त्यों अपने इस प्यारे संस्थान के पास रख रहा हूँ। धन्यवाद।

अफसर — मिस्टर सुबास…आप अइसा नाईं कर सकटा…

सुभाष — सर! मैं सिर को ऊँचा करके यह कहने की स्थिति में हूँ कि इस डिग्री पर संस्थान ने मेरा नाम लिखकर मुझे सौंपा है। यह अब मेरी है। इसे मैं किसी भी इज्जतदार जगह पर रखने के लिए आजाद हूँ।

अफसर — बट यू आर नॉट अलाउड टु रिटर्न इट… आप इसे वापस नाईं कर सकटा …नो वन इज़ अलाउड टु इन्सल्ट द ब्रिटिश…अंग्रेजों को बेइज्जत करने का हक किसी को नाईं…

सुभाष — …और मेरे पूरे देश को गुलाम बनाकर अंग्रेज जो सैकड़ों साल से उसको बेइज्जत कर रहे हैं उसका क्या?

अफसर — बकवास बन्द…इस गुस्ताखी का सज़ा जरूर मिलेगा तुम्हें।

सुभाष — जानता हूँ…क्योंकि सिवाय जुल्म करने के आप कर भी क्या सकते हैं। मैं आज ही वापस हिन्दुस्तान

जा रहा हूँ सर। गुड बाय।

दृश्य 3

(सुभाष चन्द्र बोस के निवास का बाहरी हिस्सा। कुछ हिन्दुस्तानी सिपाही ब्रिटिश पुलिस की ड्रेस में पहरे पर खड़े हैं। दो सिपाही आपस में बातें कर रहे हैं।)

सिपाही 1 — इस आदमी ने हिन्दुस्तान की आजादी की लड़ाई में जान डाल दी है।

सिपाही 2 — वाकई, शेर का बच्चा है।

सिपाही 1 — हाँ, जब बोलता है तो सुनकर इतना जोश भर जाता है रगों में कि…कई बार तो लगता है …नौकरी छोड़कर जंग में कूद पड़ना चाहिए।

सिपाही 2 — एकदम मेरे मन की बात कह दी तूने।

सिपाही 1 — चुप। दरोगा साहब आ रहे हैं।

(दरोगा का प्रवेश)

दरोगा — ए, टुम साला पहरा देटा, के मस्टी करटा…ऐं !

सिपाही 1 व 2 एक साथ — सॉरी सर !

(सैल्यूट मारकर दोनों गश्त लगाने लगते हैं। दरोगा वहीं खड़ा रह जाता है। निवास के भीतर से एक पठान निकलकर आता है)

पठान — ए…दरोगी…दरोगी…अमारा माई-बाप…सलाम-अलेकुम…सलाम-अलेकुम !

दरोगा — टमीज से बाट करो पठान…अम डरोगी नाईं डरोगा हैं, समझे !

पठान — समजतीए…समजतीए…अम सब समजतीए।

दरोगा — मुलाकाट कर आया, अब भाग। चल, फूट यहाँ से…

पठान — फूटतीए…फूटतीए !

(कहता हुआ पठान कुछ दूर धीरे-धीरे चलता है, फिर दौड़ लगाकर भाग जाता है।)

दरोगा —(गश्त लगा रहे सिपाहियों से) ए, टुम डोनों, सुनो, अब से किसी को बी, अन्डर नाईं जाने डेने का…समजे? कमिश्नर सा’ब का हुकुम ए के सुबास बोस से किसी का भी मुलाकाट का वक्ट खटम…

सिपाही 1 व 2 —(एक साथ) यस सर !

दरोगा — टुम डोनों अबी इदर रुको…अम उस आडमी को डेककर आटा…के वो जिन्डा ए या मर गया…ब्लडीफूल!

(दरोगा मकान के भीतर चला जाता है)

सिपाही 1 — इतने बड़े को गाली देता है…कुत्ता कहीं का।

(मकान के भीतर से दरोगा दौड़ता हुआ वापस आता है)

दरोगा — टुम डो-डो आदमी क्या पहरा डिया? … वो सुअर अन्डर नईं ए…टुम अमको भी मरवा डिया… ब्लडीफूल! टलास करो उसको…

(दोनों सिपाही हड़बड़ाकर अन्दर जाते हैं। दरोगा सिर पकड़कर जहाँ का तहाँ बैठ जाता है और रोने लगता है।)

दरोगा — (रोते हुए) ओ गॉड…वो पठान बनकर अमारा ई आँखों में धूल झोंक गया…कमिश्नर अमको हैंग कर डेगा…अमारा मडड करो ओ जीसस…

(पुलिस कमिश्नर का प्रवेश)

कमिश्नर — हे…ऽ…मिस्टर टॉम! ड्यूटी खरने खा ए खौन-सा टरीका ए?

दरोगा —(उसके पैरों में पड़कर) मर्सी…मर्सी सर…मर्सी।

कमिश्नर — रहम का भीक माँगटा! ख्यों?

दरोगा — (रोते हुए) सुबास बोस अमको चकमा डे गया सर…वो पठान बनकर अमसे बाट बी किया पर…

कमिश्नर — यू डर्टी पिग ! (टॉम को लात मारता है) टुम सारा भ्रिटिश अम्पायर का नाख खटा डिया… महारानी विक्टोरिया खा भेइज्जटी करा डिया…ओ गॉड, अब इण्डिया को आजाद होने से खोई नाईं रोक सकटा … जिस कन्ठरी में ऐसा बहादुर सिपाय होयेंगा वो कबी बी ज्यादा दिन टक गुलाम नईं रहने को सकटा…।

(दोनों सिपाही दौड़ते हुए-से मकान के भीतर से बाहर आते हैं। बाहर, कमिश्नर को खड़ा देख ठिठक-से जाते हैं। सारा दृश्य फ्रीज हो जाता है। पीछे सुभाष चन्द्र बोस की आवाज गूँजती है।)

सुभाष चन्द्र बोस की आवाज — मेरे प्यारे देशवासियो !

सिपाही 1 — (फुसफुसाकर सिपाही 2 से) यह तो बोस बाबू की आवाज़ है!

सिपाही 2 — (फुसफुसाकर सिपाही 1 से) किसी ने रेडियो चला रखा है…उसी से आ रही है शायद…कान लगाकर चुपचाप सुन…

(दोनों पुन: फ्रीज हो जाते हैं। पीछे से आवाज आनी पुन: शुरू होती है—)

सुभाष चन्द्र बोस की आवाज — दुनियाभर में अपनी चालाकी और धोखेबाजी के लिए मशहूर अंग्रेजों की सरकार को धोखा देकर मैं सुभाष चन्द्र बोस काबुल और मास्को होता हुआ जर्मनी आ पहुँचा हूँ। यहाँ पर आज मैं हिटलर का मेहमान हूँ। मैंने दुनिया को दिखा दिया है कि हम हिन्दुस्तानी अंग्रेजों से तिलभर भी किसी बात में कम नहीं हैं। …और इसीलिए यहाँ से अपने देश की आजादी के लिए मैं अंग्रेज सरकार के खिलाफ फौजी लड़ाई का ऐलान करता हूँ। मेरे प्यारे देशवासियो1 आजादी भीख की तरह माँगने से नहीं मिला करती, उसे लड़कर छिनना होता है और हम उसे वैसे ही छिनकर रहेंगे। हमने ‘आज़ाद हिन्द फौज़’ का गठन किया है। इस फौज़ के सिपाही की शक्ल में ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा’। वन्दे मातरम्। जय हिन्द।