आज़ादी के बाद का हिन्दी साहित्य / प्रताप सहगल
आज़ादी से पहले के हिन्दी साहित्य की तीन प्रमुख प्रवृत्तियाँ बिल्कुल साफ़ हैं। पहली प्रवृत्ति है साहित्य का राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक स्वरूप। आज़ादी से पहले निशाना साफ़ था, दोस्त और दुमन भी साफ़ थे। किसका विरोध करना है किससे दोस्ती-यह भी साफ़ था, इसलिए आज़ादी-पूर्व के साहित्य में एक बड़े हिस्से खासकर कविता और नाटकों में राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक चेतना के स्वर प्रमुख रहे। अपनी अस्मिता को पहचानने की कोशिशें भी होती रहीं। दूसरी प्रवृत्ति को हम व्यक्ति के स्तर पर देख सकते हैं। इस प्रकार के साहित्य में व्यक्ति के रिश्तों, उसके दुःख और दर्द और उसकी तकलीफें और ख़ुशियाँ पकड़ने और बाँटने की कोशिशें प्रतिध्वनित हुईं। कविता में इस तरह की धारा मौजूद थी, लेकिन कथा-साहित्य में यह प्रवृत्ति गहरे स्तर पर झलकती रही। तीसरी प्रमुख प्रवृत्ति हम वर्ग, व्यक्ति और उनके द्वंद्वात्मक रिश्तों की पहचान, उसके संघर्ष की दास्तान, उसकी आशाएँ, उसके स्वप्न और उनकी टूटन को मान सकते हैं। इकाई और समूह के संघर्ष को रेखांकित करने वाली कृतियाँ सामने आईं, जिनमें अधिकतर समूह के पक्ष में इकाई के विगलन को ही महत्तवपूर्ण माना गया है। यह प्रवृत्ति कमोबेश आज़ादी के बाद के साहित्य में भी दिखती है।
इस संक्षिप्त-सी पूर्व पीठिका के बाद हम आज़ादी के बाद के हिन्दी साहित्य पर नज़र डालें तो परिदृश्य साफ़ तौर पर बदलता हुआ दिखाई देता है। साहित्य शून्य से जन्म नहीं लेता और साहित्य मात्र समाज का दर्पण नहीं होता। वह समाज के अंदर की हलचलों को भी पकड़ता है। वह व्यक्ति और समाज के रिश्तों की पड़ताल भी करता है। वह समाज में अंतर्निहित कमज़ोरियों को भी रेखांकित करता है। वह व्यक्ति को भी आइना दिखाता है। वह सामाजिक और राष्ट्रीय होने के साथ-साथ वैश्विक भी होता है।
हिंदी साहित्य सचमुच सामाजिक एवं राष्ट्रीय चिंताओं, संघर्षों और हितों को लाँघ कर आज़ादी के बाद ही वैश्विक हुआ है। यह प्रक्रिया जटिल रही है। आज़ादी के बाद का साहित्य जहाँ राष्ट्रीय अर्थों में 'स्थानीय' रहा है, वहीं उसने वैश्विक स्तर पर होती हलचलों को भी पकड़ा है, उससे प्रभावित हुआ है।
आज़ादी के आसपास अँगड़ाई लेती साहित्यिक युवा-पीढ़ी के सामने दो महायुद्धों की विभीषिकाएँ थीं। सीधे तौर पर न सही, लेकिन परोक्ष स्तर पर उसका असर था। युद्ध की भयावहता को उसने पहचाना, दूसरी ओर विभाजन के साथ ही घटी सांप्रदायिक त्रासदी की तो वह चश्मदीद गवाह ही थी। इसलिए कोई आश्चर्य नहीं था कि इस पीढ़ी को संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा प्रदत्त मानव-स्वातंत्र्य, मानव-स्वाभिमान और मानव-अस्मिता जैसे मूल्य बहुत आकर्षक लगे। एक तरफ़ तो वैश्विक स्तर पर मानव-मूल्यों की पहचान और रक्षा कि बातें हो रही थीं, तो दूसरी ओर अपने ही देश में पुनर्निर्माण की प्रक्रिया शुरू हो गई थी। नेहरू और पटेल के दृष्टिकोण और संघर्ष सामने थे, लेकिन अंततः नेहरू के प्रजातांत्रिक समाजवादी मानवीय मूल्यों ने साहित्यकारों पर गहरा असर डाला। इससे हमारे साहित्य का चेहरा बदला। राष्ट्रीय-चेतना कि जगह मानवीय चेतना ने ली। नेहरू स्वप्न द्रष्टा भी थे और स्वप्न जीवी भी। साथ ही वे एक बड़े बुद्धिवादी भी थे। कुल मिलाकर उनके व्यक्तित्व ने लेखकों, कलाकारों एवं बुद्धिजीवियों को प्रभावित भी किया और प्रेरित भी। इसीलिए आज़ादी के बाद के साहित्य में 'मनुष्य' केंद्र में आया। समाज और राज्य के साथ उसके रिश्तों की पड़ताल होने लगी। पचास के आसपास की कविता इस बात की गवाह है। उस समय की बहसें भी गवाह हैं कि छायावादी रोमानवाद की जगह नव्य रोमानवाद ने ली, लेकिन साहित्य में यथार्थ का स्वरूप गहरे स्तर पर आने लगा। इस यथार्थ की व्याख्याएँ अलग-अलग तरीक़े से होने लगीं, लेकिन मुख्यतः मार्क्सवाद से प्रभावित दृष्टिकोण एक तरफ़, तो दूसरी ओर गाँधीवाद से प्रभावित दृष्टिकोण। इन्हीं के बीच तीसरा दृष्टिकोण विदेशी लेखकों से प्रभावित हुआ। इसमें नीत्शे, कामू, काफ्का, सार्त्र और कीर्कगार्द ने एक नई व्यक्तिवादी पीढ़ी को जन्म दिया तो एक तरफ़ घोर व्यक्तिवाद, अस्तित्ववाद और दूसरी ओर भौतिक द्वंद्ववाद। इन दोनों अतियों ने हिन्दी साहित्य पर असर डाला। यह भी रेखांकित करना अनुचित न होगा कि इन दो अतिवादों के बीच भी एक राह थी, जो स्थितियों को स्थितियों के रूप में ही रखने की हामी थी। उस पर वह किसी वाद को चिपकाना नहीं चाहती थी, लेकिन परोक्ष स्तर पर प्रभाव तो आते ही हैं।
साहित्य को न तो हम सामाजिक हलचलों से काट सकते हैं न राजनीतिक। आर्थिक दबाव भी अपनी भूमिका का निर्वाह अपनी तरह से करते हैं। राजनीतिक दृष्टि से देखें तो 60 से पहले ही भाई-भतीजवाद पनपने लगा था, भ्रष्टाचार के स्वर सुनाई देने लगे थे। लेखक और कलाकार तो नेहरू के समाजवादी यूटोपिया से प्रभावित थे, साथ ही वे चीन की क्रांति भी देख चुके थे और पुनर्निर्माण की प्रक्रिया भी। वे इस तरह की बातों से सचमुच आहत हुए, लेकिन असली झटका तो उन्हें सारे देश के साथ-साथ सन् 62 में चीनी हमले से ही लगा।
लेखक साहित्य में मनुष्य की चिंताओं से आक्रांत थे। नई कविता के दौर में बहसें लघुमानव बनाम महामानव बनाम सहजमानव पर केंद्रित हो गई थीं। इन बहसों का घटाटोप इतना था कि साहित्य में उभरी यथार्थवादी आंचलिकता पर लोगों का ध्यान ज़रा देर में गया। पर जब गया तो आंचलिक साहित्य ने एक प्रवृत्ति को नहीं, बल्कि पूरी धारा को जन्म दिया। बात चीनी हमले की चल रही थी। 62 में पूरे देश के साथ-साथ सभी लेखकों, कलाकारों, चिंतकों, विचारकों एवं बुद्धिजीवियों का भी मोहभंग हुआ। मोहभंग हुआ आज़ादी के बाद बनने वाले भारत के सुनहले भविष्य से, मोहभंग हुआ 'रामराज्य' की कल्पना से, मोहभंग हुआ पुनर्निर्माण के प्रक्रिया और दिशा से, मोहभंग हुआ राजनेताओं से और नेहरू के यूटोपियाई समाजवाद से। यह एक तरह से नेहरू युग का अंत था और हिन्दी साहित्य में नए तरह के साहित्य के आने की तैयारी थी। इसमें केवल भारत में ही नहीं, वैश्विक स्तर पर होने वाली हलचलों ने भी हिन्दी साहित्य पर असर डाला। फ्रांस में हुआ छात्र-विद्रोह, प्राग् में दबा दिया गया जन-मानस का विद्रोह, क्यूबा में दो महाशक्तियों-अमरीका और रूस का आमना-सामना, वियतनाम की लंबी लड़ाई और पश्चिमी लेखकों के लेखन से बढ़ते हुए रिश्तों से हिन्दी साहित्य में अलग तरह का दौर शुरू हुआ। कविता कि जगह नई कविता कि तर्ज़ पर कहानी की जगह नई कहानी आ गई। कथा कि जगह स्थिति ने ली, बाह्य यथार्थ की जगह आंतरिक यथार्थ महत्तवपूर्ण हुआ। चरित्रों में उदात्त तत्त्व को गै़र-ज़रूरी मानते हुए चरित्र की वस्तुगत बुनावट को पकड़ा गया। कविता में भी 'आत्मगत' दृष्टिकोण के बजाय 'वस्तुगत' दृष्टिकोण हावी हुआ। मूल्यों के साथ आदर्श शब्द ही मूल्यहीन हो गया। कतिपय लेखकों ने तो मूल्यहीनता को भी एक मूल्य के रूप में स्वीकार किया। एक आक्रामकता ने साहित्य में जन्म लिया। आक्रामक स्थितियों, आक्रामक भाषा, आक्रामक मुहावरा। यानी टूट-फूट। अब लेखक के पास कोई स्वप्न नहीं था, इसलिए वह पाठक को कोई स्वप्न दे भी नहीं रहा था। उसने लेखक और आम आदमी के बीच पैदा किए गए भेद को अव्यावहारिक माना और आम आदमी की ही तरह भाषा बोलने लगा। टूटे हुए मूल्यों में जीने लगा। अपने वैशिष्ट्य को छोड़कर आम आदमी की ही जमात में शामिल हो गया। लेकिन यह दौर बहुत दूर तक नहीं चला।
साहित्य में सन् 70 के आसपास फिर मनुष्य पर बहस होने लगी। एक नए तरह के उग्रवाद के रूप में नक्सलवाद पनपा तो दूसरी ओर नरम रुख रखते हुए जनवाद। इन दोनों ने ही हिन्दी साहित्य को सामाजिक दिशा दी। राज्य लेखक एवं लेखन के रिश्तों को पुनर्भाषित किया गया। राज्य के दमनकारी और शोषणकारी रूप को चुनौती देते हुए रचना होने लगी। इस दौर की कविता, कहानी, नाटक, व्यंग्य आदि में व्यक्ति की तकलीफ़ों को पकड़ा गया है। विद्रूप की जगह व्यंग्य आ गया है। राज्य की उपेक्षा करते हुए कवि फूल और चिड़िया जैसे कोमल बिंबों की ओर लौटा। सामाजिक सरोकारों की नए सिरे से पहचान करने लगा। परिवार के सम्बंधों को साहित्य रेखांकित करने लगा। बच्चा, पत्नी, माँ, बेटा कविता के विषय बन गए। घृणा कि जगह प्रेम स्थापित हुआ।
सन् 80 के बाद से आज तक के परिदृश्य को हम साहित्य का मौजूदा परिदृश्य कह सकते हैं। इससे पूर्व साहित्य विशेषकर कविता में कभी आवेग केंद्र में रहा था तो कभी विचार, लेकिन यह दौर सिंथेसिस का दौर है। इस दौर में पहले से बीज रूप से 'मुक्त कविता' को एक संतुलित एवं विकसित रूप में देखा जा सकता है।
आज़ादी के बाद और खासकर पिछले दस-बारह सालों में दलित-साहित्य का हिन्दी में उदय एक महत्तवपूर्ण घटना है। इससे पूर्व दलितों या पिछड़े वर्गों पर लिखा गया है, लेकिन उस लेखन में आत्मानुभव की कमी है इसलिए या तो उसमें दया का भाव है या सहानुभूति का या करुणा का। संवेदना के स्तर पर रचना नहीं हुई। लेकिन इधर दलितों द्वारा ही लिखा गया जो दलित साहित्य सामने आया है और आ रहा है। वह आक्रामक रूप में है, लेकिन यह आक्रामकता दिशाहीन नहीं है। उनके पास निशाना है। प्रश्न यहाँ यह ज़रूर है कि दलित साहित्य के नाम पर आने वाले 'कुछ भी' को साहित्य स्वीकार किया जा सकता है या नहीं। उसके मूल्यांकन के औज़ार वहीं होंगे, जो हमारे पास हैं या उसके लिए अलग औज़ारों की तलाश करनी पड़ेगी। जो भी हो, पर यह तो सच है कि दलित साहित्य ने साहित्य पर सवर्णों के वर्चस्व और उनके द्वारा बनाए गए पैराडाइम की चूलें हिला दी हैं।
इसी तरह से आज़ादी के बाद ही महिला-लेखकों द्वारा लिखा गया साहित्य भी बड़ी मात्रा में सामने आया है और उन्होंने पुरुषवादी दृष्टिकोण को जगह-जगह चुनौती दी है और अपनी तरह से स्त्री-पुरुष सम्बंधों, स्त्री और समाज के सम्बंधों तथा स्त्री और परिवार के सम्बंधों की पड़ताल की है।
कहने को तो कह दिया जाता है कि मीडिया के इस युग में शब्द मर रहा है, लेकिन सच यह है कि हम चाहे किसी भी साहित्यिक विधा को लें, हर विधा ने उत्तरोत्तर विकास किया है। कुछ लोगों के लिए समय किसी बिंदु पर ठहर जाता है और उन्हें उस बिंदु के बाद न तो साहित्य नज़र आता है और न ही कोई लेखक। ऐसे लोगों की बात क्या करें!
मेरी विनम्र धारणा यह है कि चाहे कविता हो या नाटक, कहानी हो या उपन्यास-इनमें चुनौती भरी रचनाएँ हुई हैं। व्यंग्य ने तो आज़ादी के बाद ही एक विधा के रूप में अपने-आप को स्थापित किया है। नाटकों ने हमेशा नए-नए प्रश्न हमारे सामने रखे हैं।
एकांकी की जगह पहले बीज नाटकों और बाद में लघु नाटकों ने ली। साथ ही नाटकों में विभिन्न लोक-नाट्य-शैलियों का इस्तेमाल होने लगा। कविता में लंबी-कविता एक सशक्त एवं सार्थक माध्यम के रूप में उभरी और स्थापित हुई। देशी-विदेशी रचनाओं विशेषकर कविता ओर नाटकों के अनुवादों की परंपरा बनी। इस तरह से भारतीय भाषाओं में हिन्दी साहित्य की लिंक-भाषा के रूप में स्थापित हुई। दुःखद बात यह है कि आज़ादी के बाद अगर हम अपवादस्वरूप दो-एक आलोचकों को छोड़ दे तो विधा के रूप में हिन्दी आलोचना और हिन्दी निबंध अभी भी अविकसित हैं।