आजादी की तीसरी लड़ाई / रूपसिंह चंदेल
क्रान्तिदिवस (10 मई ) पर विशेष आलेख
10 मई, 1857 को ब्रिटिश हुकूमत के ख़िलाफ़ एक क्रांतिकारी जंग प्रारंभ हुई, जिसकी लपटों में लाखों भारतीयों ने अपनी कुर्बानी दी । अँगरेज़ों ने इसे गदर कहकर उसके महत्व को कमकर सिद्ध करने का प्रयत्न किया तो अँगरेज़ीपरस्त भारतीय इतिहासकारों ने उसे राज-विद्रोह कहा - अर्थात् वह कुछ राजाओं, जमींदारों और जागीरदारों द्वारा अपने अधिकारों के लिए अँगरेज़ी हुकूमत के विरुद्ध किया गया विद्रोह मात्र था । किसी ही इतिहासकार ने उसे जनक्रान्ति कहा । आश्चर्य होता है जब आज भी कुछ लेखक उसके लिए ‘गदर’ या ‘विद्रोह’ शब्द प्रयोग करते हैं, जबकि वास्तविकता यह थी कि वह एक जनक्रान्ति थी, जिसमें राजाओं, जमींदारों, जागीरदारों के सैनिकों के साथ ब्रिटिश सेना में नियुक्त सैनिकों ने जितने उत्साह से भाग लिया था उससे कम सक्रियता या उत्साह जनता में नहीं था । यदि वह जनक्रान्ति नहीं थी तो अँगरेज़ सेनापतियों ने बर्बरता का प्रदर्शन करते हुए ग्रामीणों को पेड़ों से लटकाकर फाँसी क्यों दी थी या उन्हें तोपों के मुँह से बांधकर गोलों से मौत के घाट क्यों उतारा था ! ऐसा उन्हें केवल इसलिए करना पड़ा, क्योंकि क्रान्तिकारी सैनिकों के साथ उन्हें किसानों /ग्रामीणों का विरोध/प्रतिरोध झेलना पड़ रहा था ।
नाना साहब के हाथों कानपुर के पतन की सूचना मिलने पर जनरल हैवलाक ने, जो उन दिनों इलाहाबाद में था, एक बड़ी सेना के साथ कानपुर के लिए प्रस्थान किया था । उसकी सेना में पर्याप्त सिख सैनिक थे जिनका दुरुपयोग उसने ग्रामीणों को दण्डित करने के लिए किया । इतिहास में यही एक मात्र ऐसा उदाहरण हमें मिलता है जब अपने विलासी राजाओं के निर्देश पर सिखों ने अँगरेज़ों का साथ दिया था ।
हैवलाक इलाहाबाद से शेरशाह शूर मार्ग ( जिसे अँगरेज़ों ने बाद में ग्राण्ड ट्रंक रोड (जी.टी. रोड) नाम दिया और शेरशाह शूर द्वारा कलकत्ता से पेशावर तक बनवाया गया यह मार्ग इतिहास के पन्नों में दर्ज होकर रह गया ) कानपुर के लिए चला और मार्ग के दोनों ओर पड़ने वाले गाँवों में उसने जो विनाश लीला रची उससे शायद बर्बरता भी शर्मसार हुई होगी ।
उसने बच्चों,बूढ़ों,जवानों - जो भी पुरुष पकड़ में आए उन्हें मार्ग के दोनों ओर खड़े पेड़ों से फाँसी पर लटका दिया था । बीच-बीच में उसे उनके जिस प्रतिरोध का सामना करना पड़ा था उसे रोकने और उनमें आतंक पैदा करने के लिए उसे यह करना ही था । महिलाओं के साथ खुले खेतों में बलात्कार किया गया । विरोध करने वाली महिलाओं के साथ बलात्कार के बाद उनके गुप्तांगों में संगीनें घोंप उनकी हत्या भी उन्होंने की । इस बर्बर सेनापति ने गाँवों में ताण्डव के लिए सैनिकों को खुली छूट दे दी थी । केवल हैवलाक ही ऐसा कर रहा था ऐसा नहीं - जहाँ-जहाँ क्रान्ति की ज्वाला प्रज्वलित थी अँगरेज़ों ने वहाँ यही किया था । कहते हैं बाद में हफ़्तों लाशें पेड़ों से लटकी रही थीं। जिन्होंने हॉवर्ड फ़ास्ट का ‘स्पार्टकस’ पढ़ा होगा उन्हें सूली पर लटकाए गए गुलामों के विवरण याद होंगे । अतः ये तथ्य यह बताते हैं कि वह जनक्रान्ति ही थी । जनता अँगरेज़ों से इतना त्रस्त थी कि अपने राजाओं के आह्वान पर उसे उठ खड़े होने में ही अपनी मुक्ति दिखी होगी । अँगरेज़ों ने किसानों का रक्त चूसने के लिए इतने बिचौलिए पैदा कर दिए थे, जिनके कारण आए दिन किसानों की जर, जोरू और ज़मीन दाँव पर लगे रहते थे । जंग में राजा के साथ से उन बिचौलियों से मुक्ति का मार्ग भी उन्हें दिख रहा था ।
गाँव के किसानों की भाँति शहरों में भी आम-जन अँगरेज़ों के विरुद्ध लड़ रहा था । कानपुर की अजीजन बाई और उसकी सहेलियाँ युद्ध के दौरान न केवल क्रान्तिकारी सैनिकों में मेवा बांट रही थीं.... जल पहुँचा रही थीं, बल्कि हाथ में तलवार लहराती क्रान्तिकारियों का उत्साहवर्धन भी कर रही थीं और सामने पड़ने वाले अँगरेज़ की गर्दन भी नाप रही थीं । अजीजन वेश्या थी और उसके घर में क्रान्तिकारियों की गुप्त बैठकें होती थीं, जिनमें अजीमुल्ला खां, शमस्सुद्दीन, टीकासिंह जैसे योद्धा और रणनीतिकार भाग लेते थे । यहाँ यह बताना आवश्यक है कि 1857 की जनक्रान्ति का सारा श्रेय अजीमुल्ला खां को था, इतिहासकारों ने जिसकी घोर उपेक्षा की है । शायद इसलिए कि वह एक मुसलमान थे ।
‘1857 का प्रथम स्वातंत्र्य समर’ में विनायक दामोदर सावरकर ने स्पष्ट लिखा है कि "यदि अजीमुल्ला खां नहीं होते तब वह क्रान्ति नहीं हुई होती ।" सावरकर ने यह पुस्तक तब लिखी थी जब वह मात्र बाईस वर्ष के थे । बाद में वह कट्टर हिन्दूवादी हो गए थे । यदि बाद में उन्होंने यह पुस्तक लिखी होती तब वह निष्पक्ष रहे होते या नहीं कहना कठिन है ।
लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि जिनकी कुर्बानियों के कारण आज हम स्वतंत्र देश में साँस ले रहे हैं .... शासन ने उन्हें भुला दिया । कृतघ्न उत्तर प्रदेश सरकारों ने (कांग्रेस से लेकर बसपा तक ) इन वीरों के एक भी वास्तविक बुत नहीं लगवाए । हैवलाक ने कानपुर जीतने के बाद नाना के राज्य बिठूर की ओर प्रस्थान किया था । (कानपुर से 25 कि.मी. दूर) । उसने नाना की हवेली को तोपों से ज़मींदोज़ करवा दिया था । इससे भी जब उसकी आत्मा को शांति नहीं मिली, उसने हवेली की जगह हल चलवा दिया । हवेली के नाम पर दीवार का एक खण्डहर टुकड़ा वहाँ खड़ा है । अपनी, कांशीराम और अपने चुनाव चिन्ह हाथी की मूर्तिंयाँ गढ़वाने और उन्हें स्थापित करवाने में आम जनता की गाढ़ी कमाई के हज़ारों करोड़ रुपए ख़र्च करने वाली मायावती का ध्यान इस ओर क्यों नहीं गया ? बिठूर में नाना की हवेली की जगह कोई म्यूजियम क्यों नहीं बनाया जा सका, जहाँ 1857 संबन्धी समस्त चीज़ें सुरक्षित,संरंक्षित और उपलब्ध होतीं ।
ऐसी दुखद स्थितियों में मुझे कानपुर के क्रान्तिकारी हलधर बाजपेई के वे शब्द याद आ रहे हे हैं जो वह अपने मित्रों से कहा करते थे, "हम आज़ाद हैं कहाँ ! देश को अभी तीसरी आज़ादी की लड़ाई लड़नी होगी ।"
वास्तव में--- हम यानी आम आदमी आज़ाद कहाँ है। आज़ादी केवल दस प्रतिशत लोगों के हाथों क़ैद है। करोड़ों लोग ग़रीबी रेखा के नीचे जी रहे हैं. दरअसल यह आजादी मात्र सत्ता का हस्तांरण थी--- गोरे अँगरेज़ों के हाथों से काले अँगरेज़ों के हाथों। देश को कल के राजे, जमींदार जैसे लोग ही संचालित कर रहे हैं और जो आम लोगों के बीच से सत्ता में आए वे उनसे भी अधिक भ्रष्ट हो गये।
हलधर बाजपेई चन्द्रशेखर आज़ाद और भगतसिंह के साथियों में थे और आज़ाद के बाद वह दूसरे क्रान्तिकारी थे जो दोनों हाथों से एक साथ पिस्तौल से दुश्मन पर गोलियाँ दागते थे ।
तो क्या तीसरी लड़ाई की शुरूआत नक्सलवादियों ने कर दी है । शायद यह बात सही नहीं है अन्यथा नक्सलवाद के पुरोधा कानु सान्याल को उनके दिग्भ्रमित होने की बात न कहनी पड़ती । बेशक उसकी शुरूआत आदिवासियों को पीड़ा-शोषण से निजा़त दिलाने के लिए हुई, लेकिन आज वे उन आदिवासियों की लड़ाई कम (गौतम नौलखा के अनुसार छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के छः सौ गाँवों को सरकार ने इसलिए जलाकर राख कर उन्हें विस्थापित कर दिया जिससे उस ज़मीन को वह बहुराष्ट्रीय कंपनियों को दे सके ) अपने लिए अधिक लड़ रहे हैं ...... अर्थात अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित करने की लड़ाई । झारखंड और छत्तीसगढ़ में वे समान्तर सरकारें चला रहे हैं । यदि वे आदिवासियों की लड़ाई लड़ रहे होते तब उनके निशाने पर सामान्य सिपाही नहीं होते, आदिवासियों की दुर्दशा के लिए जिम्मेदार ठेकेदार, भ्रष्ट अफ़सर और स्विस बैंकों में धन जमा करने वाले नेता होते ।
तब फिर आज़ादी के लिए यह तीसरी लड़ाई कौन लड़ेगा और कब लड़ी जाएगी यह लड़ाई ! लड़ी भी जाएगी या नहीं । लड़ी गई तो उसका स्वरूप क्या होगा ! अभी कुछ कहना ज़ल्दबाज़ी होगी, लेकिन अमीरी-ग़रीबी, शोषक-शोषित, और ऊँच-नीच के बीच की खाई जिस प्रकार निरंतर बढ़ती जा रही है उससे स्पष्ट है कि कभी न कभी यह लड़ाई लड़ी अवश्य जाएगी ।