आजादी / संतोष भाऊवाला
आज वह आजाद हो गई थी। पति के अत्यचारों से अपने आपको मुक्त जो कर लिया था। रेलवे प्लेटफॉर्म पर चारों ओर गतिविधियों की रेलमपेल थी, यात्राओं का दौर था। फिर भी वह गहन सोच में डूबी हुई थी। उसे अस्मिता से निवृत होना था; शायद स्वयं संकल्प से एकलव्य की तरह अपना मार्ग ढूँढना था।
कैसे कर पाएगी वह? उसने तो पति के बिना एक कदम भी चलना न सीखा था। पुरानी स्मृतियों का खार रह रह कर सीने में एक टीस पैदा कर रहा था। बार बार लग रहा था, क्या उसने सही किया? क्या एकमात्र यही विकल्प था उसके पास? अगर वहां से न भागती तो शराबी पति, जो अपने होश खो चूका था, किसी भी क्षण उसे मौत के हवाले कर देता, पर क्या औरत इतनी कमजोर है, पलायन ही एकमात्र विकल्प है, अपने बच्चो को उस शराबी के भरोसे कैसे छोड़ सकती है वह, नहीं; वह हालात का सामना करेगी, न कि पलायन, अपने बच्चों और खुद के हक़ के लिये लड़ेगी। संकल्पित होकर आज वह सही मायने में आजाद हुई थी अपने डर से, उसके चेहरे पर स्वाभिमान की झलक थी।