आजाद-कथा / भाग 1 / खंड 14 / रतननाथ सरशार
मियाँ आजाद ठोकरें खाते, डंडा हिलाते, मारे-मारे फिरते थे कि यकायक सड़क पर एक खूबसूरत जवान से मुलाकात हुई। उसने इन्हें नजर भर कर देखा, पर यह पहचान न सके। आगे बढ़ने ही को थे कि जवान ने कहा -
हम भी तसलीम की खू डालेंगे; बेनियाजी तेरी आदत ही सही।
आजाद ने पीछे फिर कर देखा, जवान ने फिर कहा -
गो नहीं पूछते हरगिज वो मिजाज; हम तो कहते हैं, दुआ करते हैं।
'कहिए जनाब, पहचाना या नहीं? यह उड़नघाइयाँ, गोया कभी की जान-पहचान ही नहीं'। मियाँ आजाद चकराए कि यह कौन साहब हैं! बोले - हजरत, मैं भी इस उठती ही जवानी में आँखें खो बैठा। वल्लाह, किस मरदूद ने आपको पहचाना हो।
जवान - ऐं, कमाल किया! वल्लाह, अब तक न पहचाना! मियाँ, हम तुम्हारे लँगोटिये यार हैं अनवर।
आजाद - अख्खाह, अनवर! अरे यार, तुम्हारी तो सूरत ही बदल गई। यह कह कर दोनों गले मिले और ऐसे खुश हुए कि दोनों की आँखों से आँसू निकल आए। आजाद ने कहा - एक वह जमाना था कि हम-तुम बरसों एक जगह रहे, साथ-साथ मटर-गश्ती की; कभी बाग में सैर कर रहे हैं, कभी चाँदनी रात में विहाग उड़ा रहे हैं, कभी जंगल में मंगल गा रहे हैं, कभी इल्मी बहस कर रहे हैं; कभी बाँक का शौक, कभी लकड़ी की धुन। वे दिन अब कहाँ!
अनवर ने कहा - भाई, चलो, अब साथ-साथ रहें, जिएँ या मरे; मगर चार दिन की जिंदगी में साथ न छोड़ें। चलो; जरा बाजार की सैर कर आएँ। मुझे कुछ सौदा लेना है। यह कह कर दोनों चौक चले। पहले बजाजे में धँसे। चारों तरफ से आवाजे आने लगीं -आइए, आइए, अजी मियाँ साहब, क्या खरीदारी मंजूर है? खाँ साहब, कपड़ा खरीदिएगा? आइए, वह-वह कपड़े दिखाऊँ कि बाजार भर में किसी के पास न निकलें। दोनों एक दुकान में जा कर बैठ गए। दुकान में टाट बिछा है, उस पर सफेद चाँदनी, और लाला नैनसुख या डोरिये का अँगरखा डाटे बड़ी शान से बैठे हैं। तोंद वह फरमायशी, जैसे रुपए के दो वाले तरबूज! एक तरफ तनजेब, शरबती, अद्धी के थानों की कतार है, दूसरी तरफ मोमी छींट और फलालैन की बहार है। अलगनी पर रूमाल करीने से लटके हुए लाल-भभूका या सफेद जैसे बगले के पर, या हरे-हरे धानी, जैसे लहबर। दरवाजा लाल रँगा हुआ, पन्नी से मढ़ा हुआ। दीवार पर सैकड़ों चिड़ियाँ टँगी हुईं।
अनवर - भई, स्याह मखमल दिखाना।
बजाज - बदलू, बदलू, जरी खाँ साहब को काली मखमल का थान दिखाओ, बढ़िया।
लाला बदलू कई थान तड़ से उठा लाए - सूती, बूटीदार। अनवर ने कई थान देखे, और तब दाम पूछे।
लाला - गजों के हिसाब से बताऊँ, या थान के दाम।
अनवर - भई, गजों के हिसाब से बताओ। मगर लाला, झूठ कम बोलना।
लाला ने कहकहा उड़ाया - हुजूर, हमारी दुकान में एक बात के सिवा दूसरी नहीं कहते। कौन मेल पसंद है? अनवर ने एक थान पसंद किया, उसकी कीमत पूछी।
लाला - सुनिए खुदाबंद, जी चाहे लीजिए, जी चाहे न लीजिए, मुल दस रुपए गज से कम न होगी।
अनवर - ऐं, दस रुपए गज! यार खुदा से तो डरो। इतना झूठ!
लाला - अच्छा, तो आप भी कुछ फर्माओ।
अनवर - हम चार रुपए गज से टका ज्यादा न देंगे।
आजाद ने अनवर से कहा - चार रुपए गज में न देगा।
अनवर - आप चुपके बैठे रहें, आपको इन बातों में जरा भी दखल नहीं हें। शेख क्या जाने साबुन का भाव?'
लाला - चार रुपए गज तो बाजार भर में न मिलेगी। अच्छा, आप सात के दाम दे दीजिए। बोलिए, कितनी खरीदारी मंजूर है? दस गज उतारूँ?
अनवर - क्या खूब, दाम चुकाए ही नहीं और गजों की फिक्र पड़ गई। वाजबी बताओ, वाजबी। हमें चकमा न दो, हम एक घाघ हैं।
लाला - अच्छा साहब, पाँच रुपए गज लीजिएगा? या अब भी चकमा है?
अनवर - अब भी महँगी है, तुम्हारी खातिर से सवा चार सही। बस पाँच गज उतार दो।
लाला ने नाक भौं चढ़ा कर पाँच गज मखमल उतार दी, और कहा - आप बड़े कड़े खरीदार हैं। हमें घाटा हुआ। इन दामों शहर भर में न पाइएगा।
आजाद - भई, कसम है खुदा की, मेरा ऐसा अनाड़ी तो फँस ही जाय और वह गच्चा खाय कि उम्र भर न भूले।
अनवर - जी हाँ, यहाँ का यही हाल है। एक के तीन माँगते हैं।
यहाँ से दोनों आदमी अनवर के घर चले। चलते-चलते अनवर ने कहा - लो खूब याद आया। इस फाटक में एक बाँके रहते हैं। जरी मैं उनसे मिल लूँ। मियाँ आजाद और अनवर, दोनों फाटक में हो रहे, तो क्या देखते हैं, एक अधेड़ उम्र का कड़ियल आदमी कुर्सी पर बैठा हुआ है। घुटन्ना चूड़ीदार, चुस्त, जरा शिकन नहीं। चुन्नटदार अँगरखा एड़ी तक, छाता गोल कटा हुआ, चोली ऊँची, नुक्केदार माशे भर की कटी हुई टोपी। सिरोही सामने रखी है और जगह-जगह करौली कटार, खाँड़ा, तलवारें चुनी हुई हैं। सलाम-कलाम के बाद अनवर ने कहा - जनाब, वह बंदूक आपने पचास रुपए की खरीदी थी; दो दिन का वादा था, जिसके छः महीने हो गए; मगर आप साँस-डकार तक नहीं लेते। बंदूक हजम करने का इरादा हो, तो साफ-साफ कह दीजिए, रोज की ठाँय-ठाँय से क्या फायदा?
बाँके - कैसी बंदूक, किसी बंदूक? अपना काम करो, मेरे मुँह न चढ़ना मियाँ, हम बाँके लोग हैं, सैकड़ों को गच्चे, हजारों को झाँसे दिए, आप बेचारे किस खेत की मूली हैं? यहाँ सौ पुश्त से सिपहगरी होती आई है। हम, और दाम दें?
अनवर - वाह, अच्छा बाँकपन है कि आँख चूकी, और कपड़ा गायब; कम्मल डाला और लूट लिया। क्या बाँकपन इसी का नाम है? ऐसा तो लुक्के-लुच्चे किया करते हैं। आज के सातवें दिन बाएँ हाथ से रुपए गिन दीजिएगा, वरना अच्छा न होगा।
बाँके ने मूँछों पर ताव देकर कहा - मालूम होता है, तुम्हारी मौत हमारे हाथ बदी है। बहुत बढ़-बढ़ कर बातें न बनाओ। बाँकों से टर्राना अच्छा नहीं।
इस तकरार और तू-तू, मैं-मैं के बाद दोनों आदमी घर चले। इधर इन बाँके का भांजा, जो अखाड़े से आया और घर में गया, तो क्या देखता है कि सब औरतें नाक-भौं चढ़ाए, मुँह बनाए, गुस्से में भरी बैठी हैं। ऐ खैर तो है? यह आज सब चुपचाप क्यों बैठे हैं? कोई मिनकता ही नहीं। इतने में उसकी मुमानी कड़क कर बोली - अब चूड़ियाँ पहनो, चूडियाँ! और बहू-बेटियों में दब कर बैठ रहो। वह मुआ करोड़ों बातें सुना गया, पक्के पहर भर तक ऊल-जलूल बका किया और तुम्हारे मामू बैठे सब सुना किए। 'फेरी मुँह पर लोई, तो क्या करेगा कोई!' जब शर्म निगोड़ी भून खाई, तो फिर क्या। यह न हुआ कि मुए कलजिभे की जबान तालू से खींच लें।
भांजे की जवानी का जोम था; शेर की तरह बफरता हुआ बाहर आया और बोला -मामूजान, यह आज आपसे किसकी तकरार हो गई? औरतें तक झल्ला उठीं और आप चुपके बैठे सुना किए? वल्लाह, इज्जत डूब गई। ले, अब जल्दी उसका नाम बताइए, अभी आँतों का ढेर किए देता हूँ।
मामू - अरे, वही अनवर तो है। उसका कर्जदार हूँ। दो बातें सुनाए भी तो क्या? और वह है ही बेचारा क्या कि उससे भिड़ता! वह पिद्दी, मैं बाज, वह दुबला-पतला आदमी, मैं पुराना उस्ताद। बोलने का मौका होता तो इस वक्त उसकी लाश न फड़कती होती? ले गुस्सा थूक दो; जाओ, खाना खाओ; आज मीठे टुकड़े पके हैं।
भांजा - कसम खुदा की, जब तक उस मरदूद का खून न पी लूँ, तब तक खाना हराम है। मीठे टुकड़ों पर आप ही हत्थे लगाइए। यह कह कर घर से चल खड़े हुए। मामू ने लाख समझाया, मगर एक न मानी।
इधर अनवर जब घर पहुँचे, तो देखते क्या हैं, उनका लड़का तड़प रहा है। घबराए, वह क्या, खैरियत तो है? लौंडी ने कहा - भैया यहाँ खेल रहे थे कि बिच्छू ने काट लिया। तभी से बच्चा तड़प कर लोट रहा है। अनवर ने आजाद को वहीं छोड़ा और खुद अस्पताल चले कि झटपट डॉक्टर को बुला लाएँ। मगर अभी पचास कदम भी न गए होंगे कि सामने से उस बाँके का भांजा आ निकला। आँखें चार हुई। देखते ही शेर की तरह गरज कर बोला - ले सँभल जा। अभी सिर खून में लोट रहा होगा। हिला और मैंने हाथ दिया। बाँकों के मुँह चढ़ना खाला जी का घर नहीं। बेचारे अनवर बहुत परेशान हुए। उधर लड़के की वह हालत, इधर अपनी यह गत। जिस्म में ताकत नहीं, दिल में हिम्मत नहीं। भागें, तो कदम नहीं उठते; ठहरें तो पाँव नहीं जमते। सैकड़ों आदमी इर्द-गिर्द जमा हो गए और बाँके को समझाने लगे - जाने दीजिए, इनके मुकाबिले में खड़े होना आपके लिए शर्म की बात है। अनवर की आँखें डबडबा आईं। लोगों से बोले - भाई, इस वक्त मेरा बच्चा घर पर तड़प रहा हे, डॉक्टर को बुलाने जाता था कि राह में इन्होंने घेरा। अब किसी सूरत से मुझे बचाओ। मगर उस बाँके ने एक न मानी। पैतरा बदल कर सामने आ खड़ा हुआ। इतने में किसी ने अनवर के घर खबर पहुँचाई कि मियाँ से एक बाँके से तलवार चल गई। जितने मुँह उतनी बातें। किसी ने कह दिया कि चरका खाया और गरदन खट से अलग हो गई। यह सुनते ही अनवर की बीबी सिर पीट-पीट कर रोने लगी। लोगो, दौड़ो, हाय, मुझ पर बिजली गिरी, हाय, मैं जीते-जी मर मिटी। फिर बच्चे से चिमट कर विलाप करने लगी - मेरे बच्चे, अब ते अनाथ हो गया, तेरा बाप दगा दे गया, हाय, मेरा सोहाग लुट गया।
मियाँ आजाद यह खबर पाते ही तीर की तरह घर से निकल कर उस मुकाम पर जा पहुँचे। देखा, तो यह जालिम तलवार हाथ में लिए मस्त हाथी की तरह चिंघाड़ रहा है। आजाद ने झट से झपट कर अनवर को हटाया और पैतरा बदल कर बाँके के सामने आ खड़े हुए। वह तो जवानी के नशे में मस्त था, पहले, हथकटी का हाथ लगाना चाहा, मगर आजाद ने खाली दिया। वह फिर झपटा और चाहा कि चाकी का हाथ जमाए, मगर यह आड़े हो गए।
आजाद - बचा, यह उडनघाइयाँ किसी गँवार को बताना। मेरे सामने छक्के छूट जायँ, तो सही। आओ चोट पर। वह बाँका झल्ला कर झपटा और घुटना टेक कर पलट कर हाथ लगाने ही को था कि आजाद ने पैतरा बदला और तोड़ किया - मोढ़ा। मोढ़ा तो उसने बचाया, मगर आजाद ने साथ ही जनेवे का वह तुला हुआ हाथ जमाया कि उसका भंडारा तक खुल गया। धम से जमीन पर आ गिरा। मियाँ आजाद को सबने घेर लिया, कोई पीठ ठोकने लगा, कोई डंड मलने लगा। अनवर लपके हुए घर गए। बीबी की बाँछें खिल गईं, गोया मुर्दा जी उठा।
दूसरे दिन अनवर और आजाद कमरे में बैठे चाय पी रहे थे कि डाकिया हरी-हरी वरदी फड़काए, लाल-लाल पगिया जमाए,खासा टैयाँ बना हुआ आया और एक अखबार दे कर लंबा हुआ। अनवर ने झटपट अखबार खोला, ऐनक लगाई और अखबार पढ़ने लगे। पढ़ते-पढ़ते आखिरी सफे पर नजर पड़ी, तो चेहरा खिल गया।
आजाद - यह क्यों खुश हो गए भई? क्या खबर है?
अनवर - देखता हूँ कि यह इश्तिहार यहाँ कैसे आ पहुँचा? अखबारों में इन बातों का क्या जिक्र? देखिए -
'जरूरत है एक अरबी प्रोफेसर की नजीरपुर-कॉलेज के लिए। तनख्वाह दो सौ रुपए महीना।'
आजाद - अखबारों में सभी बातें रहती हैं, यह कोई तो नई बात नहीं। अखबार लड़कों का उस्ताद, जवानों को सीधी राह बताने वाला, बुड्ढों के तजुर्बे की कसौटी, सौदागरों का दोस्त, कारीगरों का हमदर्द, रिआया का वकील, सब कुछ है। किसी कालम में मुल्की छेड़-छाड़, कहीं नोटिस और इश्तिहार, अंगरेजी अखबारों में तरह-तरह की बातें दर्ज होती हैं और देसी अखबार भी इनकी नकल करते हैं। शतरंज के नक्श कौमी तमस्सुकों का निर्ख, घुड-दौड़ की चर्चा, सभी कुछ होता है। जब कभी कोई ओहदा खाली हुआ और अच्छा आदमी न मिला, तो हुक्काम इसका इश्तिहार देते हैं। लोगों ने पढ़ा और दरख्वास्त दाग दी; लगा तो तीर, नहीं तुक्का।
अनवर - अब तो नए-नए इश्तिहार छपने लगेंगे। कोई नया गंज आबाद करे, तो उसको छपवाना पड़ेगा। एक नौजवान साकिन की जरूरत है, नए गंज में दुकान जमाने के लिए; क्योंकि जब तक धुआँधार चिलमें न उड़ें, चरस की लौ आसमान की खबर न लाए, तब तक गंज की रौनक नहीं। अफीमची इश्तिहार देंगे कि एक ऐसे आदमी की जरूरत है, जो अफीम घोलने में ताक हो, दिन-रात पिनक में रहे; मगर अफीम घोलने के वक्त चौंक उठे। आराम-तलब लोग छपवाएँगे कि एक ऐसे किस्सा कहनेवाले की जरूरत है, जिसकी जबान पर हो, जमीन और आसमान के कुलाबे मिलाए, झूठ के छप्पर उड़ाए, शाम से जो बकना शुरे करे, तो तड़का कर दे। खुशामदपसंद लोग छपवाएँगे कि एक ऐसे मुसाहब की जरूरत है, जो आठों गाँठ कुम्मैत हो, हाँ में हाँ मिलाए, हमको सखावत में हातिम; दिलेरी में रुस्तम, अक्ल में अरस्तू बनाए - मुँह पर कहे कि हुजूर ऐसे और हुजूर के बाप ऐसे, मगर पीठ-पीछे गालियाँ दे कि इस गधे को मैंने खूब ही बनाया। बेफिक्रे छपवाएँगे कि एक बटेर की जरूरत है, जो बढ़-बढ़ कर लात लगाता हो; एक मुर्ग की, जो सवाए ड्योढ़े को मारे; एक मेढ़े की, जो पहाड़ से टक्कर लेने में बंद न हो।
इतने में मिर्जा सईद भी आ बैठे। बोले - भई, हमारी भी एक जरूरत छपवा दो। एक ऐसी जोरू चाहिए जो चालाक और चुस्त हो, नख-सिख से दुरुस्त हो, शोख और चंचल हो, कभी-कभी हँसी में टोपी छीनकर चपत भी जमाए, कभी रूठ जाएँ, कभी गुदगुदाए; खर्च करना न जानती हो, वरना हमसे मीजान न पटेगी; लाल मुँह हो; सफेद हाथ-पाँव हों, लेकिन ऊँचे कद की न हो, क्योंकि मैं नाटा आदमी हूँ; खाना पकाने में उस्ताद हो, लेकिन हाजमा खराब हो, हल्की-फुल्की दो चपातियाँ खाय, तो तीन दिन में हजम हो; सादा मिजाज ऐसी हो कि गहने-पाते से मतलब ही न रखे, हँसमुख हो, रोते को हँसाए, मगर यह नहीं कि फटी जूती की तरह बेमौका दाँत निकाल दे, दरख्वास्त खटाखट आएँ, हाँ, यह भर याद रहे कि साहब के मुँह पर दाढ़ी न हो।
आजाद - औरतों खैर, मगर यह दाढ़ी की बड़ी कड़ी शर्त है। भला क्यों साहब औरतें भी मुछक्कड़ हुआ करती हैं?
सईद - कौन जाने भई, दुनिया में सभी तरह के आदमी होते हैं। जब बेमूँछ के मर्द होते हैं, तो मूँछवाली औरतों का होना भी मुमकिन है। कहीं ऐसा न हो कि पीछे हमारी मूँछ उसके हाथ में और उसकी दाढ़ी हमारे हाथ में हो।
आजाद - अजी, जाइए भी औरत के भी कहीं दाढ़ी होती है?
सईद - हो या न हो, मगर यह पख हम जरूर लगाएँगे।
आपस में यही मजाक हो रहा था कि पड़ोस से रोने-पीटने की आवाज आई। मालूम हुआ कोई बूढ़ा आदमी मर गया। आजाद भी वहाँ जा पहुँचे। लोगों से पूछा इन्हें क्या बीमारी थी? एक बूढ़े ने कहा - यह न पूछिए, हुकूम की बीमारी थी।
आजाद - यह कौन बीमारी है? यह तो कोई नया मरज मालूम होता है। इसकी अलामतें तो बताइए।
बूढ़ा - क्या बताऊँ, अक्ल की मार इसका खास सबब है। अस्सी बरस के थे, मगर अक्ल के पूरे, तमीज छू नहीं गई! खुदा जाने, धूप में बाल सफेद किए थे या नजला हो गया था। हजरत की पीठ पर एक फोड़ा निकला। दस दिन तक इलाज नदारद। दसवें दिन किसी गँवार ने कह दिया कि गुलेअब्बास के पत्ते और सिरका बाँधो। झट-से राजी हो गए। सिरका बाजार से खरीदा, पत्ते बाग से तोड़ लाए और सिरके में पत्तों को खूब तर करके पीठ पर बाँधा। दूसरे रोज फोड़ा आध अंगुल बढ़ गया। किसी और मौखे ने कह दिया कि भटकटैया बाँधो, यह टोटका है। इसका नतीजा यह हुआ कि दर्द और बढ़ गया। किसी ने बताया कि इमली की पत्ती, धतूरा और गोबर बाँधो। वहाँ क्या था, फौरन मंजूर। अब तड़पने लगे। आग लग गई। मोहल्ले की एक औरत ने कहा - मैं बताऊँ, मुझसे क्यों न पूछा। सहल तरकीब है, मूली के अचार के तीन कतले लेकर जमीन में गाड़ दो तीन दिन के बाद निकालो और कुएँ में डाल दो। फिर उसी कुएँ का पानी अपने हाथ भर कर पी जाओ। उसी दम चंगे न हो जाओ, तो नाक कटा डालूँ। सोचे, भई, इसने शर्त बड़ी कड़ी की है। कुछ तो है कि नाक बदली। झट मूली के कतले गाड़े और कुएँ में डाल पानी भरने लगे उस पर तुर्रा यह कि मारे दर्द के तड़प रहे थे। रस्सी हाथ से छूट गई धम से गिरे, फोड़े में ठेस लगी, तिलमिलाने लगे यहाँ तक कि जान निकल गई।
आजाद - अफसोस, बेचारे की जान मुफ्त में गई। इन अक्ल के दुश्मनों से कोई इतना तो पूछे कि हर ऐरे गैरे की राय पर क्यों इलाज कर बैठते हो? नतीजा यह होता है, या तो मरज बढ़ जाता है, या जान निकल जाती है।