आजाद-कथा / भाग 1 / खंड 31 / रतननाथ सरशार
एक दिन पिछले पहर से खटमलों ने मियाँ खोजी के नाक में दम कर दिया। दिन भर का खून जोंक की तरह पी गए। हजरत बहुत ही झल्लाए। चीख उठे, लाना करौली, अभी सबका खून चूस लूँ। यह हाँक हो औरों ने सुनी, तो नींद हराम हो गई। चोर का शक हुआ। लेना-देना, जाने न पाए। सराय भर में हुल्लड़ मच गया। कोई आँखें मलता हुआ अँधेरे में टटोलता है, कोई आँखें फाड़-फाड़ कर अपनी गठरी को देखता है, कोई मारे डर के आँखें बंद किए पड़ा है। मियाँ खोजी ने जो चोर-चोर की आवाज सुनी, तो खुद भी गुल मचाना शुरू किया - लाना मेरी करौली। ठहर! मैं भी आ पहुँचा। पिनक में सूझ गई कि चोर आगे भागा जाता है, दौड़ते-दौड़ते ठोकर खाते हैं तो अररर धों! गिरे भी तो कहाँ, जहाँ कुम्हार के हंडे रखे थे। गिरना था कि कई हंडे चकनाचूर हो गए। कुम्हार ने ललकारा कि चोर-चोर। यह उठने ही को थे कि उसने आकर दबोच लिया और पुकारने लगा - दौड़ो-दौड़ो, चोर पकड़ लिया। मुसाफिर और भठियारे सब के सब दौड़ पड़े। कोई डंडा लिए है, कोई लट्ठ बाँधे। किसी को क्या मालूम कि यह चोर है, या मियाँ खोजी। खूब बेभाव की पड़ी। यार लोगों ने ताक-ताक कर जन्नाटे के हाथ लगाए। खोजी की सिट्टी-पिट्टी भूल गई, न करौली याद रही, न तमंचा। जब खूब पिट पिटा चुके, तो एक मुसाफिर ने कहा - भई, यह तो खोजी मालूम होते हैं। जब चिराग जलाया गया, तो आप दबके हुए नजर आए। मियाँ आजाद से किसी ने जा कर कह दिया कि तुम्हारे साथ खोजी चोरी की इल्लत में फँसे हैं, किसी मुसाफिर की टोपी चुराई थी। दूसरे ने कहा - नहीं-नहीं, यह नहीं हुआ। हुआ यह कि एक कुम्हार की हाँडियाँ चुराने गए थे। मुल जाग हो गई।
मियाँ आजाद को यह बात कुछ जँची हीं। सोचे, खोजी बेचारे चोरी-चकारी क्या जानें। फिर चोरी भी करते तो हाँडियों की? दिल में ठान ली कि चलें और खोजी को बचा लाएँ। चारपाई से उतरे ही थे कि देखा, खोजी साहब झूमते चले आते हैं और बड़बड़ाते जाते हैं - हत तेरी गीदी की, बड़ा आजाद बना है। चारपाई पर पड़ा जर्र-खर्र किया और हमारी खबर ही नहीं।
आजाद - खैर, हमको तो पीछे गालियाँ देना, पहले यह बताओ कि हाथ-पाँव तो नहीं टूटे?
खोजी - हाथ-पाँव! अजी, आप उस वक्त होते तो देखते कि बंदे ने क्या-क्या जौहर दिखाए। पचास आदमी घेरे हुए थे, पूरे पचास, एक कम न एक ज्यादा, और मैं फुलझड़ी बना हुआ था। बस, यह कैफियत थी कि किसी को अंटी दी धम से जमीन पर, किसी को कूले पर लाद कर मारा। दो-चार मेरे रोब में आ कर थरथरा के गिर ही तो पड़े। दस-पाँच की हड्डी-पसली चकना-चूर कर दी। जो सामने आया, उसे नीचा दिखाया।
आजाद - सच?
खोजी - खुदाई भर में कोई ऐसा जीवटदार आदमी दिखा तो दीजिए।
आजाद - भई, खुदाई भर का हाल तो खुदा ही को खूब मालूम है। मगर इतनी गवाही हो हम भी देंगे कि आप-सा बेहया दुनिया भर में न होगा।
दोनों आदमी इस वक्त सो रहे, दूसरे दिन सवेरे नवाब साहब के यहाँ पहुँचे।
आजाद - जनाब, रुख्सत होने आया हूँ। जिंदगी है, तो फिर मिलूँगा।
नवाब - क्या कूच की तैयारी कर दी? भई, वापस आना, तो मुलाकात जरूर करना।
आजाद और खोजी रुख्सत हुए, तो खोजी पहुँचे जनानी ड्योढ़ी पर और दरबान से बोले - यार, जरा बुआ जाफरान को नहीं बुला देते। दरबान ने आवाज दी - बुआ जाफरान, तुम्हारे मियाँ आए हैं।
बुआ जाफरान के मियाँ खोजी से बिलकुल मिलते-जुलते थे, जरा फर्क नहीं। वही सवा बालिश्त का कद, वही दुबले-पतले हाथ-पाँव। जाफरान उनसे रोज कहा करती थी - तुम अफीम खाना छोड़ दो। वह कब छोड़नेवाले थे भला। इसी सबब से दोनों में दम भर नहीं बनती थी। जाफरान ने जो बाहर आ कर देखा, तो हजरत पिनक ले रहे हैं। जल-भुनकर खाक ही तो हो गई। जाते ही मियाँ खोजी के पट्टे पकड़ कर एक, दो, तीन, चार, पाँच चाँटे लगा ही तो दिए। खोजी का नशा हिरन हो गया। चौंक कर बोले - लाना तो करौली, खोपड़ी पिलपिली हो गई। हाथ छुड़ाकर भागना चाहा; मगर वह देवनी नवाब कामाल खा-खा कर हथनी बनी फिरती थी। इनको चुरमुर कर डाला। इधर गुल-गपाड़े की आवाज हुई, तो बेगम साहबा, मामा, लौंडियाँ, सब परदे के पास दौड़ीं।
बेगम - जाफरान, आखिर यह है क्या? रुई की तरह इस बेचारे को धुन के धर दिया।
मामा - हुजूर, जाफरान का कसूर नहीं, यह उस मरदुए का कसूर है जो जोरू के हाथ बिक गया है। (खोजी के कान पकड़ कर) जोरू के हाथ से जूतियाँ खाते हो, ओर जरा चूँ नहीं करते?
खोजी - हाय अफसोस! अजी, यह जोरू किस मरदूद की है। खुदा-खुदा करो! भला मैं इस हुड़दंगी, काली-कलूटी डाइन के साथ ब्याह करता! मार-मार के भुरकस निकाल लिया।
बुआ जाफरान ने जो ये बातें सुनीं, तो वह आवाज ही नही है। गौर करके देखती हैं, तो यह कोई और ही है। दाँतों के तले उँगली दबाकर खामोश हो रहीं।
लौंडी - ऐ वाह बुआ जाफरान! इतनी भी नहीं पहचानतीं। यह बेचारे तो नवाब साहब के यहाँ बने रहते थे। आखिर तुमको सूझी क्या।
बेगम साहब ने भी जाफरान को खूब आड़े हाथों लिया। इतने में किसी ने नवाब साहब से सारा किस्सा कह दिया! महफिल भर में कहकहा पड़ गया।
नवाब - जाफरान की सजा यही है कि खोजी को दे दी जायँ।
खोजी - बस, गुलाम के हाल पर रहम कीजिए। गजब खुदा का! मियाँ के धोखे-धोखे में तो इसने हमारे हाथ-पाँव ढीले कर दिए और जो कहीं सचमुच मियाँ ही होते, तो चटनी ही कर डालती। क्या कहें, कुछ बस नहीं चलता, नहीं नवाबी होती, तो इतनी करौलियाँ भोंकी होती कि उम्र भर याद करती। यहाँ कोई ऐसे-वैसे नहीं। घास नहीं खोदा किए हैं।
बड़ी देर तक अंदर-बाहर कहकहे पड़े, तब दोनों आदमी फिर से रुख्सत हो कर चले। रास्ते में मियाँ आजाद मारे हँसी के लोट-लोट गए।
खोजी - जनाब, आप हँसते क्या हैं? मैंने भी ऐसी-ऐसी चुटकियाँ ली हे कि जाफरान भी याद ही करती होगी।
आजाद - मियाँ, डूब मरो जाकर। एक औरत से हाथापाई में जीत न पाए!
खोजी - जी, वह औरत सौ मर्द के बराबर है। चिमट पड़े, तो आपके भी हवास उड़ जायँ।
दोनों आदमी सराय पहुँच कर चलने की तैयारी करने लगे। खाना खा कर बोरिया-बकचा सँभाल स्टेशन को चले।
खोजी - हजरत, चलने को तो हम चलते हैं, मगर इतनी शर्ते आपको कबूल करनी होंगी -
(1) करौली हमको जरूर ले दीजिए।
(2) बरस भर के लिए अफीम ले लीजिए। मैं अपने लादे-लादे फिरूँगा। वर्ना जँभाइयों पर जँभाइयाँ आएगी और बेमौत मर जाऊँगा। आप तो औरतों की तरह नशे के आदी नहीं मगर मैं बगैर अफीम पिए एक कदम न चलूँगा। परदेस में अफीम मिले, या न मिले, कहाँ ढूँढ़ता फिरूँगा?
(3) इतना बता दीजिए कि वहाँ बुआ जाफरान की सी डंडपेल देवनियाँ तो नजर न आएँगी? वल्लाह, क्या कस-कस के लातें लगाई हैं, और क्या तान-तान के मुक्केबाजी की है कि पलेथन ही निकाल डाला।
(4) सराय में हम अब तमाम उम्र न उतरेंगे, और जो जहाज पर कुम्हार हुए तो हम डूब ही मरेंगे। हम ठहरे आदमी भारी-भरकम, कहीं पाँव फिसल गया और एक-आध हँडा टूट गया, तो कुम्हार से ठाँय-ठाँय हो जाएगी।
(5) जिस रईश की सोहबत में बजाज आते होंगे, वहाँ हम न जायँगे।
(6) जहाँ आप चलते हैं, वहाँ काँजीहौस तो नहीं है कि गधे के धोखे में कोई हमको कान पकड़ के काँजीहौस पहुँचा दे।
(7) टट्टू पर हम सवार न होंगे, चाहे इधर की दुनिया उधर हो जाय।
(8) मीठे पुलाव रोज पकें।
(9) हमको मियाँ खोजी न कहना। जनाब ख्वाजा साहब कहा कीजिए। यह खोजी के क्या माने?
(10) मोरचे पर हम न जायँगे। लूट-मार में जो कुछ हाथ आए, वह हमारे पास रखा जाय।
(11) गोली खाने के तीन घंटे पहले और मरने के दो घड़ी पहले हमें बतला देना।
(12) अगर हम मर जायँ, तो पता लगा कर हमारे वालिद के पास ही हमारी लाश दफन करना। अगर पता न लगे, तो किसी कबरिस्तान में जा कर सबसे अच्छी कबर के पास हमको दफन करना। और लिख देना कि यह इनके वालिद की कबर है।
(13) पिनक के वक्त हमको हरगिज न छेड़ना।
आजाद - तुम्हारी सब शर्तें मंजूर। अब तो चलिएगा।
खोजी - एक बात और बाकी रह गई।
आजाद - लगे हाथों वह भी कह डालिए।
खोजी - मैं अपनी दादीजन से तो पूछ लूँ।
आजाद - क्या वह अभी जिंदा हैं? खुदा झूठ न बुलाए, तो आप कोई पचास के पेटे में होंगे? और वह इस हिसाब से कम से कम क्या डेढ़ सौ बरस की भी न होंगी?
खोजी - अजी, मैं दिल्लगी करता था। उनकी तो हड्डियों तक का पता न होगा।
स्टेशन पर पहुँचे। गुल-गपाड़ा मचा हुआ था। दोनों आदमी भीड़ काट कर अंदर दाखिल हुए, तो देखा, एक आदमी गेरुए कपड़े पहने खड़ा है। फकीरों की सी दाढ़ी, बाल कमत तक, मूँछें मुड़ी हुई, कोई पचास के पेटे में। मगर चेहरा सुर्ख, जैसे लाल अंगारा; आँखें आगभभूका।
आजाद - (एक सिपाही से) क्यों भई, क्या यह कोई फकीर हैं?
सिपाही - फकीर नहीं, चंडाल है। कोई चार महीने हुए, यहाँ आया और एक आदमी को सब्जबाग दिखा कर अपना चेला बनाया। रफ्ता-रफ्ता और लोग भी शागिर्द हुए। फिर तो हजरत पुजने लगे। अब कोई तो कहता है कि बाबा जी ने दस सेर मिठाई दरिया में डाल दी और दूसरे दिन जा कर कहा - गंगा जी, मारी अमानत हमको वापस कर दो। दरिया लहरें मारता हुआ बाबा जी के पास आया और दस सेर गरमागरम मिठाई किसी ने आप ही आप उनके दामन में बाँध दी। कोई कसमें खा-खा कर कहता है कि कई मुर्दे इन्होंने जिंदा कर दिए। एक साहब ने यहाँ तक बढ़ाया कि एक दिन मूसलाधार मेंह बरस रहा था और इन पर बूँद ने असर न किया। कोई फरिश्ता इन पर छतरी लगाए रहा।
आजाद - चिकने घड़े बन गए।
सिपाही - कुछ पूछिए नहीं। उन लोगों ने कहना शुरू कर दिया था कि यह कैदखाने से निकल जायँगे; मगर तीन दिन से हवालात में हैं, और अब सिट्टी-पिट्टी भूली हुई है। मैं जो उधर से आऊँ-जाऊँ, तो रोज देखूँ कि भीड़ लगी हुई हैं; मगर औरतें ज्यादा और मर्द कम। जो आता है, वह सिजदा करता है आपकी देखा-देखी मैं गया,मेरी देखा-देखी आप गए। बाबा जी के यहाँ रोज दरबार लगने लगा।
एक दिन का जिक्र है कि बाबा जी ने अपनी कोठरी में टाट के नीचे दस-पाँच रुपए रख दिए और चुपके से बाहर निकल आए। जब दरबार जम गया, तो एक आदमी ने कहा - बाबा जी, हमको कुछ दिखाइए। बिना कुछ देखे हम एक न मानेंगे। बाबा जी ने आँखें नीली-पीली कीं और शेर की तरह गरजे - लोगों के होश उड़ गए। दो-चार डरपोक आदमियों ने तो मारे डर के आँखें बंद कर लीं। एक आदमी ने कहा - बाबा, अनजान है। इस पर रहम कीजिए। दूसरा बोला - नादान है, जाने दीजिए।
फकीर - नहीं, इससे पूछो, क्या देखेगा?'
आदमी - बाबा, मैं तो रुपए का भूखा हूँ।'
फकीर - बच्चा, फकीरों को दौलत से क्या काम? मगर तेरी खातिर करना भी जरूरी है। चल, चल, चल। बरसो, बरस, बरसो। खन, खन, खन। अच्छा बच्चा, कुटी में देख; टाट का कोना उठा। खुदा ने तेरे लिए कुछ भेजा ही होगा। मगर दाहना सुर चलता हो, तभी जाना; नहीं तो धोखा खायगा। वहाँ कोई डरावनी सूरत दिखाई दे, तो डर मत जाना; नहीं तो मर जायगा।
बाबा जी ने कुटी के एक कोने में परदा डाल दिया था और उस परदे में एक आदमी का मुँह काला करके बिठा दिया था। अब तो आदमी डरा कि न जाने कैसी भयानक सूरत नजर आएगी। कहीं डर जाऊँ, तो जान ही जाती रहे। बाबा जी एक-एक से कहते हैं, मगर किसी की हिम्मत नहीं पड़ती। तब एक नौजवान ने उठ कर कहा - लीजिए, मैं जाता हूँ।
फकीर - बच्चा, जाता तो है, मगर जरा सँभल कर जाना।
नौजवान बेधड़क कोठरी में घुस गया। टाट के नीचे से रुपए निकाल कर जेब में रख लिए और चलने ही को था कि परदे में से वह काला आदमी निकल पड़ा और जवान की तरफ मुँह खोल कर झपटा। जवान ने आव देखा न ताव, लकड़ी उसकी हलक में डाल दी और इतनी चोटें लगाईं कि बौखला दिया। जब वह रुपए लिए अकड़ता हुआ बाहर निकला, तो हवाली मवाली सब दंग कि यह तो खुश-खुश आते हैं और हम समझते थे कि अब इनकी लाश देखेंगे।
नौजवान - (फकीर से) कहिए हजरत, और कोई करामात दिखाइएगा?
फकीर - बच्चा, तुम्हारी जवानी पर हमें तरस आ गया।
नौजवान - पहले जा कर अंदर देखिए तो आपके देव साहब की क्या हालत है? जरा मरहम-पट्टी कीजिए।
अगर वहाँ समझदार लोग होते, तो समझ जाते कि बाबा जी पूरे ठग हैं, मगर वहाँ तो सभी जाहिल थे। वे समझे, बेशक बाबा जी ने नौजवान पर रहम किया। खैर बाबा जी ने खूब हाथ-पाँव फैलाए। एक दिन किसी महाजन के यहाँ गए। वहाँ महल्ले भर के मर्द और औरतें जमा हो गईं। रात को जब सब लोग चले गए, तो इन्होंने महाजन के लड़के से कहा - हम तुमसे बहुत खुश हैं। जो चाहे माँग ले। लड़का इनके कदमों पर गिर पड़ा। आपने फरमाया कि एक कोरी हाँडी लाओ, चूल्हा गरम करो; मगर लकड़ी न हो, कंडे हों। कुम्हार ने सब सामान चुटकियों में लैस कर दिया। तब आपने लोहे का एक पत्तर मँगवाया। उसे हाँडी में पानी भर कर डाल दिया। पानी को ले कर कुछ पढ़ा। थोड़ी देर के बाद एक पुड़िया दी और कहा - वह सफेद दवा उसमें डाल दे। थोड़ी देर के बाद जब महाजन का लड़का अंदर गया, तो बाबा जी ने लोहे का पत्तर निकाल दिया और अपने पास से सोने का पत्तर हाँड़ी में डाल दिया, और चल दिए। महाजन का लड़का बाहर आया, तो बाबा जी का पता नहीं। हाँड़ी को जो देखो, तो लोहे का पत्तर गायब, सोने का थक्का मौजूद। महल्ले भर में शोर मच गया। लोग बाबा जी को ढूँढ़ने लगे। आखिर यहाँ तक नौबत पहुँची कि एक मालदार की बीवी ने चकमें में आ कर अपना पाँच-छः हजार का जेवर उतार दिया। बाबा जी जेवर ले कर उड़ गए। साल भर तक कहीं पता न चला। परसों पकड़े गए हैं।'
थोड़ी देर के बाद गाड़ी आई। दोनों आदमी जा बैठे।