आजाद-कथा / भाग 1 / खंड 34 / रतननाथ सरशार

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इधर तो ये बातें हो रही थीं, उधर आजाद से एक आदमी ने आकर कहा - जनाब, आज मेला देखने न चलिएगा? वह-वह सूरतें देखने में आती हैं कि देखता ही रह जाय।

नाज से पायँचे उठाए हुए, शर्म से जिस्म को चुराए हुए!

नशए-बादए शबाब से चूर, चाल मस्ताना, हुस्न पर मगरूर।

सैकड़ों बल कमर को देती हुई, जाने ताऊस कब्क लेती हुई।

चलिए और मियाँ खोजी को साथ लीजिए। आजाद रँगीले थे ही, चट तैयार हो गए। सज-धज कर अकड़ते हुए चले। कोई पचास कदम चले लोंगे कि एक झरोखे से आवाज आई -

खुदा जाने यह आराइश करेगी कत्ल किस-किसको;

तलब होता है शानः आईने को याद करते हैं।

मियाँ आजाद ने जो ऊपर नजर की, तो झरोखे का दरवाजा खोजी की आँख की तरह बंद हो गया। आजाद हैरान कि खुदा, यह माजरा क्या है? यह जादू था, छलावा था, आखिर था क्या? आजाद के साथी ने यह रंग देखा, तो आहिस्ते से कहा - हजरत, इस फेर में न पड़िएगा।

इतने में देखा कि वह नाजनीन फिर नकाब उठाए झरोखे पर आ खड़ी हुई और अपनी महरी से बोली - फीनस तैयार कराओ, हम मेले जायँगे।

आजाद कुछ कहनेवाले ही थे कि ऊपर से एक कागज नीचे आया। आजाद ने दौड़ कर उठाया, तो मोटे कलम से लिखा था -

'दिल्लगी करती हैं परियाँ मेरे दीबाने से'।

आजाद पढ़ते ही उछल पड़े। यह शेर पढ़ा -

'हम ऐसे हो गए अल्लाहो-अकबर! ऐ तेरी कुदरत;

हमारे नाम से अब हाथ वह कानों पै धतरे हैं।'

इतने में एक महरी अंदर से आई और मुसकिरा कर मियाँ आजाद को इशारे से बुलाया। आजाद खुश-खुश महताबी पर पहुँचे, तो दिल बाग बाग हो गया। देखा, एक हसीना बड़े ठाट-बाट से एक कुर्सी पर बैठी है। मियाँ आजाद को कुर्सी पर बैठने का इशारा किया और बोली - मालूम होता है, आप चोट खाए हैं; किसी के जुल्फ में दिल फँसा है -

खुलते हैं कुछ इश्तियाक के तौर; रुख मेरी तरफ, नजर कहीं और।

आजाद ने देखा तो इस नाजनीन की शक्ल व सूरत हुस्नआरा से मिलती थी। वही सूरत, वही गुलाब सा चेहरा! वही नशीली आँखें! बाल बराबर भी फर्क नहीं। बोले - बरसों इस कूचे की सैर की; मगर अब दिल फँसा चुके।

हसीना - तो बिसमिल्लाह, जाइए।

आजाद - जैसी हुजूर की मरजी।

हसीना - वाह री बददिमागी! कहिए, तो आपका कच्चा चिट्ठा कह चलूँ? मियाँ आजाद आप ही का नाम है न? हुस्नआरा से आप ही की शादी होनेवाली है न?

आजाद - ये बातें आपको कैसे मालूम हुई?

हसीना - क्यों, क्या पते की कहीं! अब बता ही दूँ? हुस्नआरा मेरी छोटी चचाजाद बहन है। कभी-कभी खत आ जाता है। उसने आपकी तसवीर भेजी और लिखा है कि उन्हें बंबई में रोक लेना। अब आप हमारे यहाँ ठहरें। मैं आपको आजमाती थी कि देखूँ, कितने पानी में हैं। अब मुझे यकीन आ गया कि हुस्नआरा से आपको सच्ची मुहब्बत है।

आजाद - तो फिर मैं यहीं उठ आऊँ?

हसीना - जरूर।

आजाद - शायद आपके घर में किसी को नागवार गुजरे?

हसीना - वाह, आप खूब जानते हैं कि कोई शरीफजादी किसी अजनबी आदमी को इस रह बेधड़क अपने यहाँ न बुलाएगी। क्या मैं नहीं जानती कि तुम्हारे भाई साहब किसी गैर आदमी को बैठे देखेंगे, तो उनकी आँखों से खून टपकने लगेगा? मगर वह तो खुद इस वक्त तुम्हारी तलाश में निकले हैं। बहुत देर से गए हुए हैं, आते ही होंगे। अब आप मेरे आदमी को भेज दीजिए। आपका असबाब ले आए।

आजाद ने खोजी के नाम रुक्का लिखा -

ख्वाजा साहब,

असबाब ले कर इस आदमी के साथ चले आइए। यहाँ इत्तिफाक से हुस्नआरा की बहन मिल गईं। यार, हम-तुम दोनों हैं किस्मत के धनी। यहाँ अफीम की दुकान भी करीब ही है।

तुम्हारा

आजाद।