आजाद-कथा / भाग 1 / खंड 37 / रतननाथ सरशार
जरा ख्वाजा साहब की भंगिमा देखिएगा। वल्लाह, इस वक्त फोटो उतारने के काबिल है। न हुआ फोटो। सुबह का वक्त है। आप खारुए की एक लुंगी बाँधे पीपल के दरख्त के साये में खटिया बिछाए ऊँघ रहे हैं, मगर गुड़गुड़ी भी एक हाथ में थामे हैं। चाहे पिएँ न, मगर चिलम पर कोयले दहकते रहें? इत्तिफाक से एक चील ने दरख्त पर से बीट कर दी। तब आप चौंके और चौंकते ही आ ही गए। बहुत उछले-कूदे और इतना गुल मचाया कि मुहल्ला भर सिर पर उठा लिया। हत तेरे गीदी की, हमें भी कोई वह समझ लिया है। आज चील बन कर आया है। करौली तो वहाँ तक पहुँचेगी नहीं; तोड़ेदार बंदूक होती, तो वह ताक के निशाना लगाता कि याद ही करता।
आजाद - यह किस पर गर्म हो रहे हो ख्वाजा साहब?
खोजी - और ऊपर से पूछते हो, किस पर गर्म हो रहे हो? गर्म किस पर होंगे! वही बहुरूपिया है, जो मौलवी बन कर आया था।
मिरजा - तो फिर अब उसे कुछ सजा दीजिए।
खोजी - सजा क्या खाक दूँ! मैं जमीन पर, वह आसमान पर। कहता तो हूँ कि तोड़ेदार बंदूक मँगवा दीजिए, तो फिर देखिए, कैसा निशाना लगाता हूँ। मगर आपको क्या पड़ी है। जाएगा तो गरीब ख्वाजा के माथे ही।
मिरजा - हम बताएँ, एक जीना मँगवा दें और आप पेड़ पर चढ़ जायँ; भाग कर जायगा कहाँ?
खोजी - (उछल कर) लाना हाथ।
मिरजा साहब ने आदमी से कहा कि बड़ा जना अंदर से ले आओ; मगर जल्द लाना। ऐसा न हो कि बैठ रहो।
खोजी - हाँ मियाँ, इसी साल आना। मेरे यार, देखो, ऐसा न हो कि गीदी भाग निकले।
आदमी जब अंदर सीढ़ी लेने गया, बेगम ने पूछा - सीढ़ी क्या होगी?
आदमी - हुजूर, वही जो सिड़ी हैं खफकान, उन पर कहीं चील ने बीट कर दी; तो अब सीढ़ी लगा कर पेड़ पर चढ़ेंगे।
हँसोड़ औरत, खूब ही खिलखिलाईं और फौरन, छत पर जा पहुँची। आबी दुपट्टा खिसका जाता है, जूड़ा खुला पड़ता है और जैनब को ललकार रही हैं कि उससे कहो, जल्द सीढ़ी ले जाय। मियाँ खोजी ने सीढ़ी देखी, तो कमर कसी और काँपते हुए जीने पर चढ़ने लगे। जब आखिरी जीने पर पहुँच कर दरख्त की टहनी पर बैठे, तो चील की तरफ मुँह करके बोले - गाँस लिया, गाँस लिया; फाँस लिया, फाँस लिया, हत तेरे गीदी की, अब जाता कहाँ है? ले, अब मैं भी कल्ले पर आ पहुँचा। बचा, आज ही तो फँसे हो। रोज झाँसे देकर उड़छू हो जाया करते थे। अब सोचो तो, जाओगे किधर से? ले, आइए बस; अब चोट के सामने। मैंने भी करौली तेज कर रखी है।
इतने में पीछे फिर कर जो देखते हैं, तो जीना गायब। लगे सिर पीटने। इधर चील भी फुर से उड़ गई। इधर के रहे न उधर के। बेगम साहबा ने जो यह कैफियत देखी, तो तालियाँ बजा कर हँसने लगीं।
खोजी - यह मिरजा साहब कहाँ गए। जारी चार आँखें तो कीजिए हमसे। आखिर हमको आसमान पर चढ़ा कर गायब कहाँ हो गए? अरे यारो, कोई साँस डकार ही नहीं लेता। अरे मियाँ आजाद! मिरजा साहब! कोई है, या सब मर गए? आखिर हम कब तक यहाँ टँगे रहें?
बेगम - अल्लाह करे, पिनक आए।
खोजी - यह कौन बोला? (बेगम को देख कर) वाह हुजूर, आपको तो ऐसी दुआ न देनी चाहिए।
मियाँ आजाद सोचे कि खोजी अफीमी आदमी, ऐसा न हो, ऐसा न हो, पाँव डगमगा जायँ, तो मुफ्त का खून हमारी गर्दन पर हो। आदमी से कहा - जीना लगा दो। बेगम ने जो सुना, तो हजारों कसमें दीं - खबरदार, सीढ़ी न लगाना। बारे सीढ़ी लगा दी गई और खोजी नीचे उतरे। अब सबसे नाराज हैं। सबको आँखें दिखा रहे हैं - आप लोगों ने क्या मुझे मसखरा समझ लिया है। आप लोगों जैसे मेरे लड़के होंगे।
इतने में एक आदमी ने आ कर मिरजा साहब को सलाम किया।
मिरजा - बंदगी। कहाँ रहे सलारी, आज तो बहुत दिन के बाद दिखाई दिए।
सलारी - कुछ न पूछिए खुदावंद, बड़ी मुसीबत में फँसा हूँ।
मिरजा - क्या है क्या? कुछ बताओ?
सलारी - क्या बताऊँ, कहते शर्म आती है। परसों मेरा दामाद मेरी लड़की को लिए गाँव जा रहा था। जब थाने के करीब पहुँचा, तो थानेदार साहब घोड़े पर सवार हो कर कहीं जा रहे थे। इनको देखते ही बाग रोक ली और मेरे दामाद से पूछा - तुम कौन हो? उसने अपना नाम बताया। अब थानेदार साहब इस फिक्र मे हुए कि मेरी लड़की को बहला कर रख लें और दामाद को धता बता दें। बोले - बदमाश, यह तेरी बीवी नहीं हो सकती। सच बता, यह कौन है? और तू इसे कहाँ से भगा लाया है?
दामाद - यह मेरी जोरू है।
थानेदार - सूअर, हम तेरा चालान कर देंगे। तेरी ऐसी किस्मत कहाँ कि यह हसीना तुझको मिले! अगर तू हमारी नौकरी कर ले तो अच्छा; नहीं तो हम चालान करते हैं। (औरत से) तुम कौन हो, बोलो?
दामाद - दरोगा जी, आप मुझसे बातें कीजिए।
मेरी लड़की मारे शर्म के गड़ी जाती थी। गर्दन झुका कर थर-थर काँपती थी अपने दिल में सोचती थी कि अगर जमीन में गढ़ा हो जाता, तो मैं धँस जाती। सिपाही अलग ललकार रहा है और थानेदार अलग कल्ले पर सवार।
दामाद - मेरे साथ किसी सिपाही को भेज दीजिए। मालूम हो जाय कि यह मेरी ब्याहता बीवी है या नहीं।
थानेदार - चुप बदमाश, मैं बदमाशों की आँख पहचान जाता हूँ। तुम कहाँ के ऐसे खुशनसीब हो कि ऐसी परी तुम्हारे हाथ आई। यह सब बनावट की बातें हैं।
सिपाही - हाँ, दारोगा जी, यही बात है।
आखिर थानेदार साहब मेरी लड़की को एक दरख्त की आड़ में ले गए ओर सिपाही ने मेरे दामाद को दूसरी तरफ ले जाके खड़ा किया। थानेदार बोला - बीवी, जरा गर्दन तो उठाओ। भला तुम इस परकटे के काबिल हो! खुदा ने चेहरा तो नूर सा दिया है, लेकिन शौहर लंगूर सा।
लड़की - मुझे वह लंगूर ही पसंद है।
इधर तो थानेदार साहब यह इजहार ले रहे थे, उधर सिपाही मेरे दामाद को और ही पट्टी पढ़ा रहे थे। भाई, सुनो, सूबेदार साहब के सामने तो मैं उनकी सी कह रहा था। न कहूँ, तो जाऊँ कहाँ? मगर इनकी नीयत बहुत खराब है। छटा हुआ गुरगा है।
दामाद - और कुछ नहीं, बस, मैं समझ गया कि फाँसी जरूर पाऊँगा। अब तो मुझे चाहे जाने दे या न जाने दे मैं इसे बेमारे न रहूँगा। अब बेइज्जती में बाकी क्या रह गया।
थानेदार - सिपाही, सिपाही, यह कहती हैं कि यह आदमी इन्हें भगा लाया है।
लड़की - जिसने यह कहा हो, उस पर आसमान फट पड़े।
दामाद - अब आपकी मरजी क्या है? जो हो, साफ-साफ कहिए।
खैर, थानेदार साहब एक कुर्सी पर डट गए और मेरी लड़की से कहा कि तुम इस सामनेवाली कुर्सी पर बैठो। अब खयाल कीजिए कि गृहस्थ औरत बिना घूँघट निकाले कुएँ तक पानी भरने भी नहीं जाती, वह इतने आदमियों के सामने कुर्सी पर कैसे बैठती। सिपाही झुक-झुक कर देख रहे थे और वह बेचारी गर्दन झुकाए बुत की तरह खड़ी थी। तब थानेदार ने धमक कर कहा - तुम दस बरस के लिए भेजे जाओगे। पूरे दस बरस के लिए!
दामाद - जब कोई जुर्म साबित हो जाय।
थानेदार - हाँ, आप कानून भी जानते हैं? तो हम अब जाब्ते की कार्रवाई करें।
दामाद - यह कुल कार्रवाई जाब्ते ही की तो है। खैर, इस वक्त तो आपके बस में हूँ, जो चाहे कीजिए। मगर मेरा खुदा सब देख रहा है।
थानेदार - तुम हमारा कहा क्यों नहीं मान लेते? हम बस, इतना चाहते हैं कि तुम नौकरी कर लो और अपनी जोरू को ले कर यहीं रहा करो।
दामाद - आपसे मैं अब भी मिन्नत से कहता हूँ कि इस बात को दिल से निकाल डालिए। नहीं तो बात बढ़ जायगी।
इतने में किसी ने पीछे से आ कर मेरे दामाद की मुश्कें कस लीं और ले चले; और एक सिपाही मेरी लड़की को थानेदार साहब के घर की तरफ ले चला। अब रात का वक्त है। एक कमरे में थानेदार लड़की के पैरों पर गिर पड़ा। उसने एक ठोकर दी और झपट कर इस तेजी से भागी कि थानेदार के होश उड़ गए। अब गौर कीजिए कि कमसिन औरत, परदेस का वास्ता, अँधेरी रात, रास्ता गुम, मियाँ नदारद। सोची, या खुदा कहाँ जाऊँ और क्या करूँ? कभी मियाँ की मुसीबत पर रोती, कभी अपनी हालत पर। इस तरह गिरती पडती चली जाती थी कि एक तिलंगे से भेंट हो गई। बोला - कौन जाता है? कौन जाता है छिपा हुआ? लड़की थर-थर काँपने लगी। डरते-डरते बोली - गरीब औरत हूँ। रास्ता भूल कर इधर निकल आई। आखिर बड़ी मुश्किल से कानों का करन-फूल दे कर अपना गला छुड़ाया। आगे बढ़ी, तो उसका शौहर मिल गया। सिपाहियों ने उसे एक मकान में बंद कर दिया था, मगर वह दीवार फाँद कर निकल भागा आ रहा था। दोनों ने खुदा का शुक्र किया और एक सराय में रात काटी। सुबह को मेरे दामाद ने थानेदार को घोड़े पर से खींच कर इतनी लकड़ियाँ मारीं कि बेदम हो गया। गाँववाले तो थानेदार के दुश्मन थे ही, एक ने भी न बचाया; बल्कि जब देखा कि अधमरा हो गया, तो दो-चार ने लातें भी जमाईं। अब मेरा दामाद मेरे घर में छिपा बैठा है। बतलाइए, क्या करूँ?
खोजी - मुझे तो मालूम होता है कि यह भी उसी बहुरूपिए की शरारत थी।
सलारी - कौन बहुरूपिया?
मिरजा - तुम्हारी समझ में न आएगा। यह किस्सा-तलब बात है।
सलारी - तो फिर मुझसे क्या हुक्म होता है? हम तो गरीब टके के आदमी हैं। मगर आबरूदार हैं।
आजाद - बस, जा कर चैन करो। जब शोर-गुल मचे, तो आना। सलाह की जायगी।
सलारी ने सलाम किया और चला गया।