आजाद-कथा / भाग 1 / खंड 39 / रतननाथ सरशार
शाम के वक्त मिरजा साहब की बेगम ने परदे के पास आ कर कहा - आज इस वक्त कुछ चहल-पहल नहीं है; क्या खोजी इस दुनिया से सिधार गए?
मिरजा - देखो खोजी, बेगम साहबा क्या कह रही हैं।
खोजी - कोई अफीम तो पिलवाता नहीं, चहल-पहल कहाँ से हो? लतीफे सुनाऊँ, तो अफीम पिलवाइएगा?
बेगम - हाँ, हाँ, कहो तो। मरो भी, तो पोस्ते ही के खेत में दफनाए जाओ। काफूर की जगह अफीम हो, तो सही।
खोजी - एक खुशनसीब थे। उनके कलम से ऐसे हरूफ निकलते थे, जैसे साँचे के ढले हुए। मगर इन हजरत में एक सख्त ऐब यह था कि गलत न लिखते थे।
आजाद - कुछ जाँगलू हो क्या?
खोजी - खुदा इन लोगों से बचाए। भई, मेरे तो नाकों दम हो गया। बात पूरी सुनी नहीं और एतराज करने को मौजूद। बात काटने पर उधार खाए हुए हो। मेरा मतलब यह था कि वह गलत न लिखते थे; मगर ऐब यह था कि अपनी तरफ से कुछ मिला देते थे। एक दफे एक आदमी को कुरान लिखाने की जरूरत हुई। सोचे कि इनसे बढ़ कर कोई खुशनसीब नहीं, अरग दस-पाँच रुपए ज्यादा भी खर्च हों, तो बला से, लिखवाएँगे इन्हीं से।
बेगम - ऐ वाह री अकल! कोई आप ही के से जाँगलू होंगे। गली-गली तो छापेखाने हें। कोई छपा हुआ कुरान क्यों न मोल ले लिया?
खोजी - हुजूर, वह सीधे-सादे मुसलमान थे। मंतिक (न्याय) नहीं पढ़े थे। खैर, साहब खुशनवीस के पास पहुँचे और कहा - हजरत, जो उजरत माँगिए, दूँगा; मगर अर्ज यह है, कहिए, कहूँ, कहिए, न कहूँ। खुशनवीस ने कहा - जरूर कहिए। खुदा की कसम, ऐसा लिखें कि जो देखे, फड़क जाय। वह बोले - हजरत, यह तो सही है, लेकिन अपनी तरफ से कुछ न बढ़ा दीजिएगा। खुशनवीस ने कहा - क्या मजाल; आप इतमीनान रखिए, ऐसा न होने पावेगा। खैर, वह हजरत तो घर गए, इधर मियाँ खुशनवीस लिखने बैठे। जब खतम कर चुके, तो किताब ले कर चले। लीजिए हुजूर कुरान मौजूद है। उन्होंने पूछा - एक बात साफ फरमा दीजिए। कहीं अपनी तरफ से तो कुछ नहीं मिला दिया? खुशनवीस ने कहा -जनाब, बदलते या बढ़ाते हुए हाथ काँपते थे। मगर इसमें जगह-जगह शैतान का नाम था। मैंने सोचा, खुदा के कलाम में शैतान का क्या जिक्र? इसलिए कहीं आपके बाप का नाम लिख दिया, कहीं अपने बाप का।
बेगम - बस, यही लतीफा है? यह तो सुन चुकी हूँ।
खोजी - इस धाँधली की सनद नहीं। जब अफीम पिलाने का वक्त आया तो धाँधली करने लगीं!
मिरजा साहब बोले - अजी, यह पिलवावें या न पिलवावें, मैं पिलवाए देता हूँ। यह कह कर उन्होंने एक थाली में थोड़ा सा कत्था घोल कर खोजी को पिला दिया। खोजी को दिन को तो ऊँट सूझता न था; रात को कत्थे और अफीम के रंग में क्या तमीज करते। पूरा प्याला चढ़ा लिया और अफीम पीने के खयाल से पिनक लेने लगे। मगर जब रात ज्यादा गई तो आपको अँगड़ाइयाँ आने लगी; जम्हाइयों की डाक बैठ गई, आँखों से पानी जारी हो गया। डिबिया जेब से निकाली कि शायद कुछ खुरचन-उरचन पड़ी-पड़ाई हो, तो इस दम जी जायँ। मगर देखा, तो सफाचट! बस, सन से जान निकल गई। आधी रात का वक्त, अब अफीम आए तो कहाँ से? सोचे, भई, चाहे इधर की दुनिया उधर हो जाय, अफीम कहीं न कहीं से ढूँढ़ ही लावेंगे। दन से चल ही तो खड़े हुए। गली में सिपाही से मुठभेड़ हुई।
सिपाही - कौन?
खोजी - हम हैं ख्वाजा साहब।
सिपाही - किस दफ्तर में काम करते हो?
खोजी - पुलिस के दफ्तर में। मानिकजी-भाईजी की जगह पर आज से काम करते हैं। यार, इस वक्त कहीं से जरा सी अफीम लाओ, तो बड़ा एहसान हो। आखिर उस्ताद, पाला हमीं से पड़गा। तुम्हारे ही दफ्तर में हैं।
सिपाही - हाँ, हाँ, लीजिए, इसी दम। मैं तो खुद अफीम खाता हूँ। अफीम तो लो यह है, मगर इस वक्त धोलिएगा काहे में?
खोजी - वाह! सिपाहियों कि बातें? घर की हुकूमत है! सरकारी सिपाही सभी मानते हैं।
सिपाही - अच्छा, चलो, पिला दें।
खोजी - वाह सूबेदार साहब! बड़े बुरे वक्त काम आए। हम, आप जानिए, अफीमची आदमी, शाम को अफीम खाना भूल गए, आधी रात को याद आया। डिबिया खोली, तो सन्नाटा। ले, कहीं से पानी और प्याली दिलवाओ, तो जी उठें।
खैर, सिपाही ने खोजी को खूब अफीम पिलवाई। यहाँ तक कि घर को लौटे, तो रास्ता भूल गए। एक भलेमानस के दरवाजे पर पहुँचे, तो पिनक में सूझी कि यही मिरजा साहब का मकान है। लगे जंजीर खड़खड़ाने - खोलो, खोलो। भई, अब तो खड़ा नहीं रहा जाता। दरवाजा खोल देना।
ख्वाजा साहब तो बाहर खड़े गला फाड़-फाड़ कर चिल्लाते हैं, और अंदर उस मकान में मियाँ का दम निकला जाता है। कोई एक ऊपर दस बरस का सिन, खेल-कूद के दिन, खोजी के भी चचा, दुबले-पतले हाथ-पाँव, कद तीन कम सवा दो इंच का। सिवा हड्डी मुसंडी, बड़े डील-डौल की औरत, उठती, जवानी मगर एक आँख की कानी। एक घूँसा तान के लगावे, तो शीदी लंधौर का भुरकस निकल जाय। कोई दो-तीन कम बीस बरस की उम्र। दोनों मीठी नींद सो रहे थे कि खोजी ने धमधमाना शुरू किया।
मियाँ - या खुदा बचाइयो। इस अँधेरी रात में कौन आया? मारे डर के रूह काँपती है; मगर जो बीवी को जगाऊँ और मर्दाने कपड़े पहना कर ले जाऊँ, तो यह हजरत भी काँपने लगें।
खोजी - खोलो, मीठी नींद सोने वालो, खोलो। यहाँ जाते देर नहीं हुई, और किवाड़े झप से बंद कर लिए? खटिया-वटिया सब गायब कर दी?
मियाँ - बेगम,बेगम, क्या सो गईं?
वहाँ सुनता कौन है, जवानी की नींद है कि दिल्लगी। कोई चारपाई भी उलट दे, तो कानों-कान खबर न हो। सिर पर चक्की चले। तो भी आँख न खुले। मियाँ आँखों को मारे डर के एक हाथ से बंद किए बीवी के सिरहाने खड़े हैं; मगर थर-थर काँप रहे हैं। आखिर एक बार किचकिचा के खूब जोर से कंधा हिलाया और बोले - ओ बेगम, सुनती हो कि नहीं? जगी हैं, मगर दम साधे पड़ी हैं।
बेगम - (हाथ झटक कर) ऐ हटो, लेके कंधा उखाड़ डाला। अल्लाह करे, ये हाथ टूटे। हमारी मीठी मीठी नींद खराब कर दी। खुदा जानता है, मैं तो समझी, हालाडोला आ गया। खुदा-खुदा करके जरा आँख लगी, तो यह आफत आई। अब की जगाया, तो तुम जानोगे। फिर अपने दाँव को तो बैठ कर रोते हैं। बेहया, चल दूर हो।
मियाँ - अरे, क्या फिर सो गई? जैसे नींद के हाथों बिक गई हो। बेगम, सुनती हो कि नहीं?
बेगम - क्या है क्या? कुछ मुँह से बोलोगे भी? बेगम-बेगम की अच्छी रट लगाई है। डर लगता हो तो मुँह ढाँप कर सो रहो। एक तो आप न सोएँ, दूसरे हमारी नींद भी हराम करें।
खोजी - अरे, भई खोलो! मर गया पुकारते-पुकारते।
मियाँ - बेगम खुदा करे, बहरी हो जायँ। देखो तो यहाँ किवाड़ कौन तोड़े डालता है? बंदा तो इस अंधियारी में हुमसने वाला नहीं। जरी तुम्हीं दरवाजे तक जा कर देख लो।
बेगम - जी! मेरी पैजार उठती है। तुम्हारी तो वही मसल हुई कि 'रोटी खाय दस-बारह, दूध पिए मटका सारा, काम करने को नन्हा बेचारा।' पहले तो मैं औरत जात डर गई तो फिर कैसी हो? चोर-चाकर से बीवी को भिड़वाते हैं। मर्द बने हैं, जोरुआ से कहते हैं कि बाहर जा कर चोर से लड़ो।
खोजी - अजी, बेगम साहब, खुदा की कसम, अफीम लाने गया था। जरी दरवाजा खुलवा दीजिए। यह मिरजा साहब, और मौलाना आजाद तो मेरी जान के दुश्मन हैं।
बेगम ने जो अफीम का नाम सुना, तो आग-भभूका हो गईं। उठ कर मियाँ के एक लात लगाई और ऊपर से कोसने लगीं। इस अफीम को आग लगे, पीनेवाले का सत्यानाश हो जाय। एक तो मेरे माँ बाप ने इस निखट्टू के खूँटे में बाँधा, दूसरे इसके माँ-बाप ने अफीम इसी घुट्टी में डाल दी। क्यों जी, तुमने तो कसम खाई थी कि आज से अफीम न पिऊँगा? न तुम्हारी कसम का एतबार, न जबान का। कसम भी क्या मूली-गाजर हैं कि कर-कर करके चबा गए!
मियाँ -(गर्द झाड़-पोंछ कर) क्यों जी, और जो मैं भी एक लात कसके जमाने के लायक होता तो फिर कैसी ठहरती?
बीवी - मैं तो पहले बातों से समझाती हूँ और कोई न समझे तो फिर लातों से खबर लेती हूँ। मैं तो इस फिक्र में हूँ कि तुमको खिला-पिला कर हट्टा-कट्टा बना दूँ, पड़ोसी ताने न दें। और तुम पियो अफीम तो जी जले या न जले?
मियाँ साहब दिल ही दिल में अपने माँ-बाप को गालियाँ दे रहे थे। यहाँ धान पान आदमी, बीबी लाके बिठा दी देवनी। वे तो ब्याह करके छुट्टी पा गए, लाते हमें खानी पड़ती हैं। में तो समझा कि अपना काम ही तमाम हो गया; मगर बेहया ज्यों का त्यों मौजूद। बोले - तुम्हारी जान की कसम, कौन मरदूद चंडू के करीब भी गया हो। आज या कभी अफीम की सूरत भी देखी हो। और यों खामख्वाह बदगुमानी का कौन सा इलाज है। जरी चलके देखो तो! आखिर है कौन? आव देखा न ताव, कस कर एक लात जमा दी, बस। और जो कहीं कमर टूट जाती?
खोजी पिनक में जंजीर पकड़े थे। इधर मियाँ-बीवी चले, तो इस तरह कि बीवी आगे-आगे चिमटा हाथ में लिए हुए और मियाँ पीछे-पीछे मारे डर के आँखें बंद किए हुए। दरवाजा खुला, तो खोजी धम से गिरे सिर के बल और मियाँ मारे खौफ के खोजी पर अर-र-र करके आ रहे। बीवी ने ऊपर से दोनों को दबोचा। खोजी का नशा हिरन हो गया। निकल कर भागे तो नाक की सीध पर चलते हुए मिरजा साहब के मकान पर दाखिल। वहाँ देखा, खिदमतगार पड़ा खर्राटे ले रहा है। चुपके से अपनी खटिया पर दराज हुए; मगर मारे हँसी के बुरा हाल था। सोचे, हम तो थे ही, यह मियाँ हमारे भी चचा निकले।