आजाद-कथा / भाग 1 / खंड 48 / रतननाथ सरशार
जिस जहाज पर मियाँ आजाद और खोजी सवार थे, उसी पर एक नौजवान अंगरेज अफसर और उसकी मेम भी थी। अंगरेज का नाम चार्ल्स अपिल्टन था और मेम का वेनेशिया। आजाद को उदास देख कर वेनेशिया ने अपने शौहर से पूछा - इस जेंटिलमैन से क्योंकर पूछें कि यह बार-बार लंबी साँसें क्यों ले रहा है?
साहब - तुम ऐसे-वैसे आदमियों को जेंटिलमैन क्यों कहती हो? यह तो निगर (काला आदमी) है।
मेम - निगर तो हम हब्शी को कहते हैं। यह तो गोरा-चिट्ठा, खूबसूरत आदमी है।
साहब - तो क्या खूबसूरत होने से ही कोई जेंटिलमैन हो जाता है? इंग्लैंड के सब सिपाही गोरे होते हैं, तो क्या इससे ये सब के सब जेंटिलमैन हो गए?
मेम - तुम तो अपनी दलील से आप कायल हो गए। जब गोरे चमड़े से कोई जेंटिलमैन नहीं होता, तो फिर तुम सब क्यों जेंटिलमैन कहलाओ? और इन लोगों को निगर क्यों कहो? वाह, अच्छा इंसाफ है!
इतने में जहाज के एक कोने से आवाज आई कि ओ गीदी न हुई करौली, नहीं तो लाश फड़कती होती।
मियाँ आजाद डरे कि ऐसा न हो, मियाँ खोजी किसी अंगरेज से लड़ पड़ें, अफीम की लहर में किसी से बेवजह झगड़ पड़ें। करीब जाकर पूछा - यह क्यों बिगड़े जी? किस पर गुल मचाया?
खोजी - अजी, जाओ भी, यहाँ शिकार हाथ से जाता रहा। वल्लाह, गिरफ्तार ही कर लिया था। गीदी को पाता, तो इतनी करौलियाँ लगाता कि छठी का दूध याद आ जाता। मगर मेरा पाँव फिसल गया और वह निकल गया!
आजाद - तुम्हें एक आँच की हमेशा कसर रह जाती है। यह था कौन?
खोजी - था कौन, वही बहुरूपिया! और किसको पड़ी थी भला!
आजाद - बहुरूपिया!
खोजी - जी हाँ, बहुरूपिया! बड़ा ताज्जुब हुआ आपको?
आजाद - भई हाँ, ताज्जुब कहीं लेने जाना है। क्या बहुरूपिया भी जहाज पर सवार हो लिया है? बड़ा लागू है भई?
खोजी - सवार नहीं हुआ, तो आया कहाँ से?
आजाद - क्या सोते हो खोजी, या पिनक में हो?
खोजी - खोजी की ऐसी-तैसी। फिर तुमने खोजी कहा हमको!
आजाद - माफ करना भई, कसूर हुआ।
खोजी - वाह, अच्छा कसूर हुआ! किसी के जूते लगाइए और कहिए, कसूर हुआ। जब देखो, खोजी-खोजी।
आजाद - अच्छा जनाब ख्वाजा साहब, अब तो राजी हुए! यह बहुरूपिया कहाँ से आ गया?
खोजी - अरे साहब, अब तो ख्वाब में भी आने लगा। अभी मैं सोता था, आप आ पहुँचे। मेरे हाथ में उस वक्त अफीम की डिबिया थी। फेंक के डिबिया और लेके कतारा जो पीछे झपटा, तो दो कोस निकल गया। मगर शामत यह आई कि एक जगह जरा सा पानी पड़ा था! मेरी तो जान ही निकल गई। फिसला, तो आरा रा रा धों!
आजाद - क्या गिर पड़े? जाओ भी!
खोजी - बस, कुछ न पूछिए। मेरा गिरना ऐसा मालूम हुआ, जैसे हाथी पहाड़ से गिरा। धड़ाम-धड़ाम!
आजाद - इसमें क्या शक है! आपके हाथ-पाँव ही ऐसे हैं। वह तो कहिए, बड़ी खैरियत गुजरी!
खोजी - और क्या! मगर जाता कहाँ है गीदी। रगेद के मारूँ। यहाँ पलटन में सूबेदारी कर चुके हैं।
मेम और साहब, दोनों मियाँ आजाद और खोजी की बातें सुन रहे थे। साहब तो उर्दू खूब समझते थे, मगर मेम साहब कोरी थीं। साहब ने तर्जुमा करके बताया, तो वेनेशिया भी मारे हँसी के लोट गई! यह इंच भर का आदमी, एक-एक माशे के हाथ पाँव और आपके गिरने से इतनी बड़ी आवाज हुई कि जैसे हाथी गिरे!
साहब - सिड़ी है कोई। जाने क्या वाही-तबाही बकता है।
मेम - तुम चुप रहो। हम जेंटिलमैन से पूछते हैं, यह कौन पागल है।
साहब - अच्छा, मगर हिंदोस्तानी बदतमीज होते हैं। तुम इससे बातें न करो।
मेम - अच्छा, तुम्हीं पूछो।
इस पर साहब ने उँगली के इशारे से आजाद को बुलाया। आजाद भला कब सुननेवाले थे। बोले ही नहीं। साहब पलटनी आदमी, चेहरा मारे गुस्से के लाल हो गया। खयाल हुआ कि वेनेशिया तालियाँ बजाएगी कि एक निगर तक मुखातिब न हुआ, बात का जवाब तक न दिया। वेनेशिया ने जब यह हालत देखी तो इठलाती और मुस्कराती हुई मियाँ आजाद की तरफ गई। आजाद लेडियों से बोलने-चालने के आदी तो थे ही, एक खूबसूरत लेडी को आते देखा, तो टोपी उतार कर सलाम किया और पूछा - आप कहाँ तशरीफ ले जायँगी?
मेम - घर जा रही हूँ। यह ठिगना आदमी कौन है? खूब बातें करता है। हँसते-हँसते पेट में बल पड़-पड़ गए।
आजाद - जी हाँ, बड़ा मसखरा है।
मेम - चार्ली, यह तो कहते हैं कि वह कौन मसखरा है।
साहब - इसकी बातें बड़े मजे की होती हैं।
साहब का गुस्सा ठंडा हो गया। आजाद का डील-डौल देख कर डर गए। इधर-उधर की बातें होने लगीं। इतने में जहाज पर एक दिल्लगीबाज को सूझी कि आओ, खोजी को बनाएँ। दो-चार और शोहदे उससे मिल गए। जब देखा कि मियाँ खोजी पिनक में सो गए, तो एक आदमी ने दो लाल मिरचें उनकी नाक में डाल दीं। खोजी ने जो आँख खोली, तो मारे छींकों के बौखला गए। बावले कुत्ते की तरह इधर-उधर दौड़ने लगे। मेम और साहब तालियाँ बजा-बजा कर हँसने लगे।
आजाद - जनाब ख्वाजा साहब!
खोजी - बस, अलग रहिएगा, आक् छीं!
आजाद - आखिर यह हुआ क्या? कुछ बताओ तो!
खोजी - चलिए, आपको क्या; चाहे जो कुछ हुआ! आ...छीं!
आजाद - यार, यह उसी बहुरूपिए की शरारत है।
खोजी - देखिए, तो कितनी करौलियाँ भोंकी हों कि आ...छीं। यार ही तो करे-छीं।
आजाद - मगर तुम तो गिर-गिर पड़ते हो मियाँ! एक दफे जी कड़ा करके पकड़ क्यों नहीं लेते?
खोजी - नाक में मिरचें डाल दीं। गीदी ने।
आजाद - अबकी आप ताक में बैठे रहिए। बस, आते ही पकड़ लीजिए। मगर है बड़ा शरीर, सचमुच नाक में दम कर दिया।
खोजी - कुछ ठिकाना है! नाक में मिरचें झोंकने की कौन सी दिल्लगी है?
आजाद - और क्या साहब, यह बेजा बात है।
खोजी - बेजा-वेजा के भरोसे न रहिएगा, मैं किसी दिन हाथ-पाँव ढीले कर दूँगा। कहाँ के बड़े कड़ेखाँ हैं आप! मैंने भी सूबेदारी की है।
आजाद - तो आप मेरे हाथ-पाँव क्यों ढीले करते हैं? मैंने तो आपका कुछ बिगाड़ा नहीं।
खोजी - (आँखें खोल कर) अरे! यह आप थे! भई, माफ करना। बस, देखते जाओ, अब गिरफ्तार ही किया चाहता हूँ गीदी को।
आजाद - लेकिन, जरा होशियार रहिएगा? बहुरूपिया गया जहन्नुम में, ऐसा न हो, कोई हजरत रुपए-पैसे गायब कर दें, बेवकूफ कहीं का! अबे गधे, यहाँ बहुरूपिया कहाँ?
खोजी - बस, चोंच सँभालिए, बंदा चलता है। दोस्ती हो चुकी। कुछ आपके गुलाम नहीं हैं। और सुनिए, हम गधे हैं। क्या जाने कितने गधे हमने बना डाले।
आजाद - खैर, यही सही। लेकिन जाइएगा कहाँ? यहाँ भी कुछ खुश्की है?
खोजी - अरे ओ जहाज के कप्तान! जहाज रोक ले - अभी रोक ले।
साहब - वह यों न सुनेगा। दो-चार हाथ करौली के लगाइए, तो फिर सुने।
इतने में हाजरी खाने का वक्त आया। आजाद ने बेतकल्लुफी के साथ उन दोनों के साथ खाना खाया। फिर तीनों टहलने लगे। आजाद को वेनेशिया की एक-एक छवि भाती थी और वह हसीना कभी शोखी इठलाती थी, कभी नाज के साथ मुसकिराती थी। इतने में खोजी ने यह शेर पढ़ा -
गर तुम नहीं तो और बुते महजबीं सही,
हमको तो दिल्लगी से गरज है, कहीं सही।
आजाद ने जो यह शेर सुना, तो खोजी के पास आ कर बोले - यह क्या गजब करते हो जी? इसका शौहर शेर खूब समझ लेता है।
खोजी - वह गीदी इन इशारों को क्या जाने।
आजाद - तुम बड़े शरीर हो।
खोजी - क्यों उस्ताद, हमी से यह उडनघाइयाँ बताते हो, क्यों? सच कहना, हुस्नआरा के लगभग है कि नहीं। बंबईवाली बेगम भी ऐसी ही शोख थी।
वेनेशिया ने खोजी को मुसकिराते देखा, तो उँगली के इशारे से बुलाया। खोजी तो रेशाखतमी हो गए। बहुत ऐंठते और अकड़ते हुए चले। गोया लंघोर पहलवान के भी चचा हैं। वाह, क्यों न हो। इस वक्त जरा पाँव फिसले, तो दिल्लगी हो। मेमसाहब के पास पहुँचे।
आजाद - टोपी उतार कर सलाम करो खोजी।
खोजी का लफ्ज सुनना था कि ख्वाजा साहब का गुस्सा एक सौ बीस दरजे पर जा पहुँचा। बस, पलट पड़े और पलटते ही उलटे पाँव भागने लगे।
आजाद - ओ गीदी, जो पलट गया, तो इतनी करौलियाँ भोंकी होगी कि छठी का दूध याद आ गया होगा।
मेम - क्यों खोजी, क्या मुझसे खफा हो गए?
आजाद - क्यों भई, क्या शैतान ने फिर उँगली दिखा दी? मियाँ खोजी?
खोजी - खोजी पर खुदा की मार! खोजी पर शैतान की फटकार! एक दफा खोजी कहा, मैं खून पी कर रह गया, अब फिर दोहराया। खुदा जाने, कब का दिया इस गाढ़े वक्त काम आया। नहीं तो मारे करौलियों के भुट्टा सा सिर उड़ा देता। लाख गया-गुजरा हूँ, तो क्या हुआ, उम्र भर रिसालदारी की है, घास नहीं खोदी।
मेम - अच्छा, यह खोजी के नाम पर बिगड़े! हम समझे, हमसे रूठ गए।
खोजी - नहीं मेम साहब, कैसी बात आप फरमाती हैं!
आजाद - जरा इनसे इनकी बीवी जान का हाल पूछिए। उसका नाम बुआ जाफरान है। देवनी है देवनी।
खोजी ने बुआ जाफरान का नाम सुना, तो रंग फक हो गया और सहम कर आँखें बंद कर लीं। आजाद ने जब वेनेशिया से सारा किस्सा कहा, तो मारे हँसी के लोट-लोट गई।