आजाद-कथा / भाग 1 / खंड 50 / रतननाथ सरशार
एक दिन मियाँ आजाद मिस्टर और मिसेज अपिल्टन के साथ खाना खा रहे थे कि एक हँसोड़ आ बैठे और लतीफे कहने लगे। बोले - अजी, एक दिन बड़ी दिल्लगी हुई। हम एक दोस्त के यहाँ ठहरे हुए थे। रात को उनके खिदमतगार की बीबी दस अंडे चट कर गई। जब दोस्त ने पूछा, तो खिदमतगार ने बिगड़ी बात बना कर कहा कि बिल्ली खा गई। मगर मैंने देख लिया था। जब बिल्ली आई तो वह औरत उसे मारने दौड़ी। मैंने कहा - बिल्ली को मार न डालना, नहीं तो फिर अंडे हजम न होंगे।
आजाद - बात तो यही है। खाय कोई, बिल्ली का नाम बद।
अपिल्टन - आप शादी क्यों नहीं करते?
हँसोड़ - शादी करना तो आसान है, मगर बीवी को सँभालना मुश्किल। हाँ, एक शर्त पर हम शादी करेंगे। बीवी दस बच्चों की माँ हो।
मेम - बच्चों की कैद क्यों की?
हँसोड़ - आप नहीं समझीं। अगर जवान, आई, तो उसके नखरे उठाते-उठाते नाक में दम आ जायगा; अधेड़ बीवी हुई तो नखरे न करेगी और बच्चे बड़े काम आएँगे।
आजाद - वह क्या?
हँसोड़ - कहत के दिनों में बेच लेंगे।
इतने में क्या देखते हैं कि मियाँ खोजी लुढ़कते हुए चले आते हैं। एक सूखा कतारा हाथ में हैं।
आजाद - आइए। बस, आप ही की कसर थी।
खोजी - मुझे बैठे-बैठे खयाल आया कि किसी से पूछूँ तो कि यह समुंदर है क्या चीज और किसकी दुआ से बना है?
हँसोड़ - मैं बताऊँ! अगले जमाने में एक मुल्क था घामड़-नगर।
खोजी - जरी ठहर जाइएगा। वहाँ अफीम भी बिकती थीं?
हँसोड़ - उस मुल्क के बाशिंदे बड़े दिलेर होते थे, मगर कद के छोटे। बिलकुल टेनी मुर्गे के बराबर।
खोजी - (मूँछों पर ताव दे कर) हाँ-हाँ, छोटे कद के आदमी तो दिलेर होते ही हैं।
हँसोड़ - और कोई बगैर करौली बाँधे घर से न निकलता था।
खोजी - (अकड़ कर) क्यों मियाँ आजाद, अब न कहोगे?
हँसोड़ - मगर उन लोगों में एक ऐब था, सब के सब अफीम पीते थे।
खोजी - (त्योरियाँ चढ़ा कर) ओ गीदी!
आजाद - हैं-हैं। शरीफ आदमियों से यह बदजबानी।
खोजी - हम तो सिर से पाँव तक फुँक गए, आप शरीफ लिए फिरते हैं।
हँसोड़ - वहाँ की औरतें बड़ी गरांडील होती थीं। जहाँ मियाँ जरा बिगड़े, और बीवी ने बगल में दबा कर बाजार में घसीटा।
खोजी - अहाहा, सुनते हो यार! वह बहुरूपिया वहीं का था। अब तो उस गीदी का मकान भी मिल गया। चचा बन कर छोड़ूँ, तो सही।
हँसोड़ - वे सब रिसालदारी करते थे।
खोजी - और वहाँ क्या-क्या होता था? उस मुल्क के आदमियों की तसवीरें भी आपके पास हैं?
हँसोड़ - थीं तो, मगर अब नहीं रहीं। बस, बिलकुल तुम्हारे ही से हाथ पाँव थे। करारे जवान। पौंडे बहुत खाते थे।
खोजी - ओहोहो! वे सब हमारे ही बाप-दादा थे। देखो भाई आजाद, अब यह बात अच्छी नहीं। वहाँ से तो लंबे-चौड़े वादे कर के लाए थे कि करौली जरूर ले देंगे, और यहाँ साफ मुकर गए। अब हमें करौली मँगा दो, तो खैरियत है, नहीं तो हम बिगड़ जायँगे। वल्लाह, कौन गीदी दम भर ठहरे यहाँ।
आजाद - और यहाँ से आप जायँगे कहाँ? जहन्नुम में?
वेनेशिया - कुछ रुपए भी हैं? जहाज का किराया कहाँ से दोगे?
आजाद - मैं इनका खजानची हूँ। यह घर जायँ, किराया मैं दे दूँगा।
हँसोड़ - इस खजानची की लफ्ज पर हमें एक लतीफा याद आया। शादी के पहले नौजवान लेडियाँ अपने आशिक को अपना खजाना कहती हैं। शादी होने के बाद उसे खजानची कहने लगती हैं। खजानची के खजानची और मियाँ के मियाँ।
वेनेशिया - अच्छा हुआ, तुम्हारी बीवी चल बसी; नहीं तो तुम्हारी किफायत उनकी जान ही ले लेती।
हँसोड़ - अजीब औरत थी, शादी के बाद ऐसी रोनी सूरत बनाए रहती थी कि मालूम होता था, आज बाप के मरने की खबर आई है। दो बरस के बाद हमसे छह महीने के लिए जुदाई हुई। अब जो देखता हूँ, तो और ही बात है। बात-बात पर मुसकिराना और हँसना। बात हुई और खिल गई। मैंने पूछा, क्या तुम वही हो जो नाक-भौं चढ़ाए रहती थीं? मुसकिरा कर कहा - हाँ, हूँ, तो वही। मैंने कहा - खैर, काया-पलट तो हुई। हँस के बोली - वाह इसमें ताज्जब काहे का। एक दिन मुझे खयाल आ गया, बस, तब से अब हर वक्त हँसती हूँ। तब तो मैंने अपना मुँह पीट लिया। रोनी सूरत बना कर बोला - हम तो खुश हुए थे कि अब हमसे तुमसे खूब बनेगी, मगर मालूम हो गया कि तुम्हारी हँसी और रोने, दोनों का एतबार नहीं। अगर तुम्हें इसी तरह बैठे-बैठे किसी दिन खयाल आ गया कि रोना अच्छा, तो फिर रोना ही शुरू कर दोगी।
आजाद - मुझे भी एक बात याद आ गई। हमारे मुहल्ले में एक ख्वाजा साहब रहते थे। उनके एक लड़की थी, इतनी हसीन कि चाँद भी शरमा जाय। बात करते वक्त बस यही मालूम होता था कि मुँह से फूल झड़ते हैं। उसकी शादी एक गँवार जाहिल से हुई, जो इतना बदसूरत था कि उससे बात करने का भी जी न चाहता था। आखिर लड़की इसी गम में कुढ़-कुढ़ कर मर गई।