आजाद-कथा / भाग 1 / खंड 52 / रतननाथ सरशार
माल्टा में आर्मीनिया, अरब, यूनान, स्पेन, फ्रांस सभी देशों के लोग हैं। मगर दो दिन से इस जजीरे में एक बड़े गरांडील जवान को गुजर हुआ है। कद कोई आध गज का हाथ-पाँव दो-दो माशे के; हवा जरा तेज चले, तो उड़ जायँ। मगर बात-बात पर तीखे हुए जाते हैं। किसी ने जरा तिर्छी नजर से देखा, और आपने करौली सीधी की। न दीन की फिक्र थी, न दुनिया की, बस, अफीम हो, और चाहे कुछ हो या न हो।
आजाद ने कहा - भई, तुम्हारा यह फिकरा उम्र भर न भूलेगा कि देखें हमारी अफीम की डिबिया किस खुशनसीब के हाथ लगती है।
खोजी - फिर, उसमें हँसी की क्या बात है? हमारी तो जान पर बन आई और आपको दिल्लगी सूझती है। जहाज में डूबने का किस मर्दक को रंज हो। मगर अफीम के डूबने का अलबत्ता रंज है। दो दिन से जम्हाइयों पर जम्हाइयाँ आती हैं। पैसे लाओ, तो देखूँ, शायद कहीं मिल जाय।
मियाँ आजाद ने दो पैसे दिए और आप एक दुकान पर पहुँच कर बोले - अफीम लाना जी?
दुकानदार ने हाथ से कहा कि हमने समझा नहीं।
खोजी - अजब जाँगलू है! अबे, हम अफीम माँगते हैं।
दुकानदार हँसने लगा।
खोजी - क्या फटी जूती की तरह दाँत निकालता है! लाता है अफीम कि निकालूँ करौली!
इतने में मियाँ आजाद पहुँचे और पूछा - यहाँ क्या खरीदारी होती है?
खोजी - अजी, यहाँ तो सभी जाँगलू ही जाँगलू रहते हैं। घंटे भर से अफीम माँग रहा हूँ, सुनता ही नहीं।
आजाद - फिर कहने से तो आप बुरा मानते हें। भला यह बारूद बेचता है या अफीम? बिलकुल गौखे ही रहे!
खोजी - अगर अफीम का यही हाल रहा, तो तुर्की तक पहुँचना मुहाल है।
आजाद - भई, हमारा कहा मानो। हमें टर्की जाने दो और तुम घर जाओ।
खोजी - वाहवा, अब मैं साथ छोड़ने वाला नहीं। और मैं चला जाऊँगा, तो तुम लड़ोगे किसके बिरते पर?
आजाद - बेशक, आप ही के बिरते पर तो मैं लड़ने जाता हूँ न?
खोजी - कौन? कसम खाके कहता हूँ, जब सुनिएगा; यही सुनिएगा कि ख्वाजा साहब ने तोप में कील लगा दी।
आजाद - जी, इसमें क्या शक है।
खोजी - शक-वक के भरोसे न रहिएगा! अकेली लकड़ी चूल्हे में भी नहीं जलती। जिस वक्त ख्वाजा साहब अरबी घोड़े पर सवार होंगे और अकड़ कर बैठेंगे, उस वक्त अच्छे-अच्छे जंडैल-कंडैल झुक-झुक कर सलाम करेंगे।
इतने में एक हब्शी सामने से आ निकला। करारा जवान, मछलियाँ भरी हुई, सीना चौड़ा। खोजी ने जो देखा कि एक आदमी अकड़ता हुआ सामने से आ रहा है, तो आप भी ऐंठने लगे। हब्शी ने करीब आ कर कंधे से जरा धक्का दिया, तो मियाँ खोजी ने बीस लुढ़कनियाँ खाईं। मगर बेहया तो थे ही, झाड़पोंछ कर उठ खड़े हुए, और हब्शी को ललकार कर कहा - अबे ओ गीदी, न हुई करौली इस वक्त। जरा मेरा पैर फिसल गया, नहीं तो वह पटकनी देता कि अंजर-पंजर ढीले हो जाते!
आजाद - तुम क्या, तुम्हारा गाँव भर तो इसका मुकाबला कर ले!
खोजी - अच्छा, लड़ा कर देख लो न! छाती पर न चढ़ बैठूँ, तो ख्वाजा नाम नहीं। कहो, ललकारूँ जा कर।
आजाद - बस, जाने दीजिए। क्यों हाथ-पाँव के दुश्मन हुए हो!
दूसरे दिन जहाज वहाँ से रवाना हुआ। आजाद को बार-बार हुस्नआरा की याद आती थी। सोचते थे, कहीं लड़ाई में मारा गया, तो उससे मुलाकात भी न होगी। खोजी से बोले - क्यों जी, हम अगर मर गए, तो तुम हुस्नआरा को हमारे मरने की खबर दोगे, या नहीं?
खोजी - मरना क्या हँसी-ठट्ठा है? मरते हैं हम जैसे दुबले-पतले बूढ़े अफीमची कि तुम ऐसे हट्टे-कट्टे जवान?
आजाद - शायद हमीं तुमसे पहले मर जायँ?
खोजी - हम तुमको अपने पहले मरने ही न देंगे। उधर तुम बीमार हुए, और हमने इधर जहर खाया।
आजाद - अच्छा, जो हम डूब गए?
खोजी - सुनो मियाँ, डूबनेवाले दूसरे ही होते हैं। वह समुंदर में डूबने नहीं आया करते, उनके लिए एक चुल्लू काफी होता है।
आजाद - जरा देर के लिए मान लो कि हम मर गए तो इत्तिला दोगे न?
खोजी - पहले तो हम तुमसे पहले ही डूब जायँगे, और अगर बदनसीबी से बच गए, तो जा कर कहेंगे - आजाद ने शादी कर ली, और गुलछर्रें उड़ा रहे हैं।
आजाद - तब तो आप दोस्ती का हक खूब अदा करेंगे!
खोजी - इसमें हिकमत है।
आजाद - क्या है, हम भी सुनें?
खोजी - इतना भी नहीं समझते! अरे मियाँ, तुम्हारे मरने की खबर पा कर हुस्नआरा की जान पर बन आएगी, वह सिर पटक-पटक कर दम तोड़ देगी; और जो यह सुनेगी कि आजाद ने दूसरी शादी कर ली, तो उसे तुम्हारे नाम से नफरत हो जायगी, और रंज तो पास फटकने भी न पाएगा। क्यों, है न अच्छी तरकीब?
आजाद - हाँ, है तो अच्छी!
खोजी - देखा, बूढ़े आदमी डिबिया में बंद कर रखने के काबिल होते हैं। तुम लाख पढ़ जाओ, फिर लौंडे ही हो हमारे सामने। मगर तुम्हारी आजकल यह क्या हालत है? कोई किताब पढ़ कर दिल क्यों नहीं बहलाते?
आजाद - जी उचाट हो रहा है। किसी काम में जी नहीं लगता।
खोजी - तो खूब सैर करो। यार, पहले तो हमें उम्मेद ही नहीं कि हिंदोस्तान पहुँचे, लेकिन जिंदा बचे, और हिंदोस्तान की सूरत देखी, तो जमीन पर कदम न रखेंगे। लोगों से कहेंगे, तुम लोग क्या जानो, माल्टा कहाँ है? खूब गप्पे उड़ाएँगे।
यों बातें करते हुए दोनों आदमी एक कोठे में गए। वहाँ कहवे की दुकान थी। आजाद ने एक आदमी के हाथ अफीम मँगाई। खोजी ने अफीम देखी तो खिल गए। वहीं घोली और चुस्की लगाई। वाह आजाद, क्यों न हो, यह एहसान उम्र-भर न भूलूँगा। इस वक्त हम भी अपने वक्त के बादशाह हैं -
फिक्र दुनिया की नहीं रहती मैख्वारों में;
गम गलत हो गया जब बैठ गए यारों में।
उस दुकान में बहुत से अखबार मेज पर पड़े थे। आजाद एक किताब देखने लगे। मालिक-दुकान ने देखा, तो पूछा - कहाँ का सफर है?
आजाद - टर्की जाने का इरादा है।
मालिक - वहाँ हमारी भी एक कोठी है। आप वहीं ठहरिएगा।
आजाद - आप एक खत लिख दें, तो अच्छा हो।
मालिक - खुशी से। मगर आजकल तो वहाँ जंग छिड़ी है!
आजाद - अच्छा, छिड़ गई?
मालिक - हाँ, छिड़ गई। लड़ाई सख्त होगी। लोहे से लोहा लड़ेगा।
जब आजाद यहाँ से चलने लगे, तो मालिक ने अपने लड़के के नाम खत लिख कर आजाद को दिया। दोनों आदमी वहाँ से आ कर जहाज पर बैठे।