आजाद-कथा / भाग 2 / खंड 109 / रतननाथ सरशार

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आजाद के आने के बाद ही बड़ी बेगम ने शादी की तैयारियाँ शुरू कर दी थीं। बड़ी बेगम चाहती थीं कि बरात खूब धूम-धाम से आए। आजाद धूम-धाम के खिलाफ थे। इस पर हुस्नआरा की बहनों में बातें होने लगीं -

बहार बेगम - यह सब दिखाने की बातें हैं। किसी से दो हाथी माँगे, किसी से दो-चार घोड़े; कहीं से सिपाही आए, कहीं से बरछी-बरदार! लो साहब, बरात आई है। माँगे-ताँगे की बरात से फायदा?

बड़ी बेगम - हमको तो यह तमन्ना महीं है कि बरात धूम ही से दरवाजे पर आए। मगर कम से कम इतना तो जरूर होना चाहिए कि जग-हँसाई न हो।

जानी बेगम - एक काम कीजिए, एक खत लिख भेजिए।

गेती - हमारे खानदान में कभी ऐसा हुआ ही नहीं। हमने तो आज तक नहीं सुना। धुनिये जुलाहों के यहाँ तक तो अंगरेजी बाजा बरात के साथ होता है।

बहार - हाँ साहब, बरात तो वही है, जिसमें 50 हाथी, बल्कि फीलखाने का फीलखाना हो, साँड़िनियों की कतार दो मुहल्ले तक जाय। शहर भर के घोड़े और हवादार और तामदान हों और कई रिसाले, बल्कि तोपखाना भी जरूर हो। कदम-कदम पर आतशबाजी छूटती हो और गोले दगते हों। मालूम हो कि बरात क्या, किला फतह किया जाता है।

नाजुक - यह बस बुरी बातें हैं, क्यों?

बहार - जी नहीं, इन्हें बुरी कौन कहेगा भला।

नाजुक - अच्छा, वह जानें, उनका काम जाने।

हुस्नआरा ने जब देखा कि आजाद की जिद से बड़ी बेगम नाराज हुई जाती हैं तो आजाद के नाम एक खत लिखा -

प्यारे आजाद,

माना कि तुम्हारे खयालात बहुत ऊँचे हैं, मगर राह-रस्म में दखल देने से क्या नतीजा निकलेगा। अम्माँजान जिद करती हैं, और तुम इन्कार, खुदा ही खैर करे। हमारी खातिर से मान लो, और जो वह कहें सो करो।

आजाद ने इसका जवाब लिखा - जैसी तुम्हारी मर्जी। मुझे कोई उज्र नहीं है।

हुस्नआरा ने यह खत पढ़ा तो तस्कीन हुई। नाजुकअदा से बोलीं - लो बहन, जवाब आ गया।

नाजुक - मान गए या नहीं?

हुस्नआरा - न कैसे मानते।

नाजुक - चलो, अब अम्माँजान को भी तस्कीन हो गई।

बहार - मिठाइयाँ बाँटो। अब इससे बढ़ कर खुशी की और क्या बात होगी?

नाजुक - आखिर फिर रुपया अल्लाह ने किस काम के लिए दिया है?

बहार - वाह री अक्ल! बस, रुपया इसीलिए है कि आतशबाजी में फूँके या सजावट में लुटाये। और कोई काम ही नहीं?

नाजुक - और आखिर क्या काम है? क्या परचून की दुकान करे? चने बेचे? कुछ मालूम तो हो कि रुपया किस काम में खर्च किया जाय? दिल का हौसला और कैसे निकाले!

बहार - अपनी-अपनी समझ है।

नाजुक - खुदा न करे कि किसी की ऐसी उलटी समझ हो। लो साहब, अब बरात भी गुनाह है। हाथी, घोड़े, बाजा सब ऐब में दाखिल। जो बरात निकालते हैं, सब गधे हैं। एक तुम और दूसरे मियाँ आजाद दो आदमियों पर अक्ल खतम हो गई। जरा आने तो दो मियाँ को, सारी शेखी निकल जायगी।

दूसरे दिन बड़ी धूम-धाम से माँझे की तैयारी हुई। आजाद की तरफ खोजी मुहतमिम थे। आपने पुराने ढंग की जामदानी की अचकन पहनी जिसमें कीमती बेल टँकी हुई थी। सिर पर एक बहुत बड़ा शमला। कंधे पर कश्मीर का हरा दुशाला। इस ठाट से आप बाहर आए तो लोगों ने तालियाँ बजाईं। इस पर आप बहुत ही खफा हो कर बोले - यह तालियाँ हम पर नहीं बजाते हो। यह अपने बाप-दादों पर तालियाँ बजाते हो। यह खास उनका लिबास है। कई लौंडों ने उनके मुँह पर हँसना शुरू किया, मगर इंतजाम के धुन में खोजी को और कुछ न सूझता था। कड़क कर बोले - हाथियों को उसी तरफ रहने दो। बस, उसी लाइन में ला-ला कर हाथी लगाओ।

एक फीलवान - यहाँ कहीं जगह भी है? सबका भुरता बनाएँगे आप?

खोजी - चुप रह, बदमाश!

मिरजा साहब भी खड़े तमाशा देख रहे थे। बोले - भई, इस फन में तो तुम उस्ताद हो।

खोजी - (मुसकिरा कर) आपकी कद्रदानी है।

मिरजा - आपका रोब सब मानते हैं।

खोजी - हम किस लायक हैं भाईजान! दोस्तों का इकबाल है।

गरज इस धूम-धाम से माँझा दुलहिन के मकान पर पहुँचा कि सारे शहर में शोर मच गया। सवारियाँ उतरीं। मीरासिनों ने समधिनों को गालियाँ दीं। मियाँ आजाद बाहर से बुलवाये गए और उनसे कहा गया कि मढ़े के नीचे बैठिए। आजाद बहुत इनकार करते रहे; मगर औरतों ने एक न सुनी। नाजुक बेगम ने कहा - आप तो कभी से बिचकने लगे। अभी तो माँझे का जोड़ा पहनना पड़ेगा।

आजाद - यह मुझसे नहीं होने का।

जान बेगम - क्या फजूल रस्म है!

जानी - ले, अब पहनते हो कि तकरार करते हो? हमसे जनरैली न चलेगी।

बेगम - भला, यह भी कोई बात है कि माँझे का जोड़ा न पहनेंगे?

आजाद - अगर आपकी खातिर इसी में है तो लाइए, टोपी दे लूँ।

नाजुक बेगम - जब तक माँझे का पूरा जोड़ा न पहनोगे, यहाँ से उठने न पाओगे।

आजाद ने बहुत हाथ जोड़े, गिड़गिड़ा कर कहा कि खुदा के लिए मुझे इस पीले जोड़े से बचाओ। मगर कुछ बस न चला। सालियों ने अँगरखा पहनाया, कंगन बाँधा। सारी बातें रस्म के मुताबिक पूरी हुई।

जब आजाद बाहर गए तो सब बेगमें मिल कर बाग की सैर करने चलीं। गेतीआरा ने एक फूल तोड़ कर जानी बेगम की तरफ फेंका। उसने वह फूल रोक कर उन पर ताक के मारा तो आँचल से लगता हुआ चमन में गिरा। फिर क्या था, बाग में चारों तरफ फूलों की मार होने लगी। इसके बाद नाजुकअदा ने यह गजल गाई -

वाकिफ नहीं है कासिद मेरे गमे-निहाँ से, वह काश हाल मेरा सुनते मेरी जबाँ से। क्यों त्योरियों पर बल है, माथे पर शिकन है? क्यों इस कदर हो बरहम, कुछ तो कहो जबाँ से। कोई तो आशियाना सैयाद ने जलाया, काली घटाएँ रो कर पलटी हैं बोस्ताँ से। जाने को जाओ लेकिन, यह तो बताते जाओ, किसर तरह बारे फुरकत उठेगा नातवाँ से।

बहार - जी चाहता है, तुम्हारी आवाज को चूम लूँ।

नाजुक - और मेरा जी चाहता है कि तुम्हारी तारीफ चूम लूँ।

बहार - हम तुम्हारी आवाज के आशिक हैं।

नाजुक - आपकी मेहरबानी। मगर कोई खूबसूरत मर्द आशिक हो तो बात है। तुम हम पर रीझीं तो क्या? कुछ बात नहीं।

बहार - बस, इन्हीं बातों से लोग उँगलियाँ उठाते हैं। और तुम नहीं छोड़तीं।

जानी - सच्ची आवाज भी कितनी प्यारी होती है!

नाजुक - क्या कहना है! अब दो ही चीजों में तो असर है, एक गाना, दूसरे हुस्न। अगर हमको अल्लाह ने ऐसा हुस्न न दिया होता, तो हमारे मियाँ हम पर क्यों रीझते?

बहार - तुम्हारा हुस्न तुम्हारे मियाँ को मुबारक हो! हम तो तुम्हारी आवाज पर मिटे हुए हैं।

नाजुक - और मैं तुम्हारे हुस्न पर जान देती हूँ। अब मैं भी बनाव-चुनाव करना तुमसे सीखूँगी।

नाजुक - बहन, अब तुम झेंपती हो। जब कभी तुम मिलीं, तुम्हें बनते-ठनते देखा। मुझसे दो-तीन साल बड़ी हो, मगर बारह बरस की बनी रहती हो। हैं तुम्हारे मियाँ किस्मत के धनी।

बहार - सुनो बहन, हमारी राय यह है कि अगर औरत समझदार हो, तो मर्द की ताकत नहीं कि उसे बाहर का चस्का पड़े।

साचिक के दिन जब चाँदी का पिटारा बाहर आया, तो खोजी बार-बार पिटारे का ढकना उठा कर देखने लगे कि कहीं शीशियाँ न गिरने लगें। मोतिये का इत्र खुदा जाने, किन दिक्कतों से लाया हूँ। यह वह इत्र है, जो आसफुद्दौला के यहाँ से बादशाह की बेगम के लिए गया था।

एक आदमी ने हँस कर कहा - इतना पुराना इत्र हुजूर को कहाँ से मिल गया?

खोजी - हूँ! कहाँ से मिल गया! मिल कहाँ से जाता? महीनों दौड़ा हूँ, तब जाके यह चीज हाथ लगी है।

आदमी - क्यों साहब यह बरसों का इत्र चिटक न गया होगा?

खोजी - वाह! अक्ल बड़ी कि भैंस? बादशाही कोठों के इत्र कहीं चिटका करते हैं? यह भी उन गंधियों का तेल हुआ, जो फेरी लगाते फिरते हैं!

आदमी - और क्यों साहब, केवड़ा कहाँ का है?

खोजी - केवड़िस्तान एक मुकाम है, कजलीवन के पास। वहाँ के केवड़ों से खींचा गया है।

आदमी - केवड़िस्तान! यह नाम तो आज ही सुना।

खोजी - अभी तुमने सुना ही क्या है? केवड़िस्तान का नाम ही सुन कर घबड़ा गए।

आदमी - क्यों हुजूर, यह कजलीवन कौन सा है, वही न, जहाँ घोड़े बहुत होते हैं?

खोजी - (हँस कर) अब बनाते हैं आप। कजलीवन में घोड़े नहीं, खास हाथियों का जंगल है।

आदमी - क्यों जनाब, केवड़िस्तान से तो केवड़ा आया, और गुलाब कहाँ का है? शायद गुलाबिस्तान का होगा?

खोजी - शाबाश! यह हमारी सोहबत का असर है कि अपने परों आप उड़ने लगे। गुलाबिस्तान कामरू-कमच्छा के पास है, जहाँ का जादू मशहूर है।

रात को जब साचिक का जुलूस निकला तो खोजी ने एक पनशाखेवाली का हाथ पकड़ा और कहा - जल्दी-जल्दी कदम बढ़ा।

वह बिगड़ कर बोली - दुर मुए! दाढ़ी झुलस दूँगी, हाँ। आया वहाँ से बरात का दारोगा बनके, सिवा मुरहेपन के दूसरी बात नहीं।

खोजी - निकाल दो इस हरामजादी को यहाँ से।

औरत - निकाल दो इस मूड़ी को।

खोजी - अब मैं छूरी भोंक दूँगा, बस!

औरत - अपने पनशाखे से मुँह झुलस दूँगी। मुआ दीवाना, औरतों को रास्ते में छेड़ता चलता है।

खोजी - अरे मियाँ कांस्टेबिल, निकाल दो इस औरत को।

औरत - तू खुद निकाल दे, पहले।

जुलूस के साथ कई बिगड़े दिल भी थे। उन्होंने खोजी को चकमा दिया- जनाब, अगर इसने सजा न पाई तो आपकी बड़ी किरकिरी होगी। बदरोबी हो जायगी। आखिर, यह फैसला हुआ, आप कमर कस कर बड़े जोश के साथ पनशाखेवाली की तरफ झपटे। झपटते ही उसने पनशाखा सीधा किया और कहा - अल्लाह की कसम! न झुलस दूँ तो अपने बाप की नहीं।

लोगों ने खोजी पर फबतियाँ कसनी शुरू कीं।

एक - क्यों मेजर साहब, अब तो हारी मानी?

दूसरा - ऐं! करौली और छुरी क्या हुई!

तीसरा - एक पनशाखेवाली से नहीं जीत पाते, बड़े सिपाही की दुम बने हैं!

औरत - क्या दिल्लगी है! जरा जगह से बढ़ा, और मैंने दाढ़ी और मूँछ दोनों झुलस दिया।

खोजी - देखो, सब के सब देख रहे हैं कि औरत समझ कर इसको छोड़ दिया। वरना कोई देव भी होता तो हम बे कत्ल किए न छोड़ते इस वक्त।

जब साचिक दुलहिन के घर पहुँचा, तो दुलहिन की बहनों ने चंदन से समधिन की माँग भरी। हुस्नआरा का निखार आज देखने के काबिल था। जिसने देखा, फड़क गई। दुलहिन को फूलों का गहना पहनाया गया। इसके बाद छड़ियों की मार होने लगी। नाजुकअदा और जानी बेगम के हाथ में फूलों की छड़ियाँ थीं। समधिनों पर इतनी छड़ियाँ पड़ीं की बेचारी घबड़ा गईं।

जब माँझे और साचिक की रस्म अदा हो चुकी तो मेहँदी का जुलूस निकला। दुलहिन के यहाँ महफिल सजी हुई थी। डोमिनियाँ गा रही थीं। कमरे की दीवारें इस तरह रँगी हुई थीं कि नजर नहीं ठहरती थी। छतगीर की जगह सुर्ख मखमल का था। झाड़ और कँवल, मृदंग और हाँड़ियाँ सब सुर्ख। कमरा शीशमहल हो गया था। बेगमें भारी-भारी जोड़े पहने चहकती फिरती थीं। इतने में एक सुखपाल ले कर महरियाँ सहन में आईं। उस पर से एक बेगम साहब उतरीं, जिनका नाम परीबानू था।

सिपहआरा बोलीं - हाँ, अब नाजुकअदा बहन की जवाब देनेवाली आ गईं। बराबर की जोड़ है! यह कम न वह कम।

रूहअफजा - नाम बड़ा प्यारा है।

नाजुक - प्यारा क्यों न हो। इनके मियाँ ने यह नाम रखा है।

परीबानू - और तुम्हारे मियाँ ने तुम्हारा नाम क्या रखा है। चरबाँक महल?

इस पर बड़ी हँसी उड़ी। बारह बजे रात को मेहंदी रवाना हुई। जब जुलूस सज गया तो ख्वाजा साहब आ पहुँचे और आते ही गुल मचाना शुरू किया - सब चींजें करीने के साथ लगाओ और मेरे हुक्म के बगैर कोई कदम भी आगे न रखे। वरना बुरा होगा।

सजावट के तख्त बड़े-बड़े कारीगरों से बनवाए गए थे। जिसने देखा, दंग हो गया।

एक - यों तो सभी चीजें अच्छी हैं, मगर तख्त सबसे बढ़-चढ़ कर हैं।

दूसरा - बड़ा रुपया इन्होंने सर्फ किया है साहब।

तीसरा - ऐसा मालूम होता है कि सचमुच के फूल खिले हैं।

चौथा - जरा चंडूबाजों के तख्त को देखिए। ओहो-हो! सब के सब औंधे पड़े हुए हैं। आँखों से नशा टपका पड़ता है। कमाल इसे कहते हैं। मालूम होता है, सचमुच चंडूखाना ही है। वह देखिए, एक बैठा हुआ किस मजे से पौंडा छील रहा है।

इसके बाद तुर्क सवारों का तख्त आया। जवान लाल बानात की कुर्तियाँ पहने, सिर पर बाँकी टोपियाँ दिए, बूट चढ़ाए, हाथ में नंगी तलवारें लिए, बस यही मालूम होता था कि रिसाले ने अब धावा किया।

जब जुलूस दूल्हा के यहाँ पहुँचा तो बेगमें पालकियों से उतरीं। दूल्हा की बहनें और भावजें दरवाजे तक उन्हें लाने आईं। सब समधिनें बैठीं तो डोमिनियों ने मुबारकबाद गाई। फिर गालियों की बौछार होने लगी। आजाद को जब यह खबर हुई तो बहुत ही बिगड़े; मगर किसी ने एक न सुनी। अब आजाद के हाथों में मेहँदी लगाने की बारी आई। उनका इरादा था कि एक ही उँगली में मेहँदी लगाएँ, मगर जब एक तरफ सिपहआरा और दूसरी तरफ रूहअफजा बेगम ने दोनों हाथों में मेहँदी लगानी शुरू की तो उनकी हिम्मत न पड़ी कि हाथ खींच लें।

हँसी-हँसी में उन्होंने कहा - हिंदुओं के देखा-देखी हम लोगों ने यह रस्म सीखी है। नहीं तो अरब में कौन मेहँदी लगाता है।

सिपहआरा - जिन हाथों से तलवार चलाई, उन हाथों को कोई हँस नहीं सकता। सिपाही को कौन हँसेगा भला?

रूहअफजा - क्या बात कही है! जवाब दो तो जानें।

दो बजे रात को रूहअफजा बेगम को शरारत जो सूझी तो गेरू घोल कर सोते में महरियों को रँग दिया और लगे हाथ कई बेगमों के मुँह भी रँग दिए। सुबह को जानी बेगम उठीं तो उनको देख कर सब की सब हँसने लगीं। चकराईं कि आज माजरा क्या है। पूछा - हमें देख कर हँस रही हो क्या!

रूहअफजा - घबराओ नहीं, अभी मालूम हो जायगा।

नाजुक - कुछ अपने चेहरे की भी खबर है?

जानी - तुम अपने चेहरे की तो खबर लो।

दोनों आईने के पास जाके देखती हैं, तो मुँह रँगा हुआ। बहुत शर्मिंदा हुई।

रूहअफजा - क्यों बहन, क्या यह भी कोई सिंगार है?

जानी - अच्छा, क्या मुजायका है; मगर अच्छे घर बयाना दिया। आज रात होने दो। ऐसा बदला लूँ कि याद ही करो।

रूहअफजा - हम दरवाजे बंद करके सो रहेंगे। फिर कोई क्या करेगा!

जानी - चाहे दरवाजा बंद कर लो, चाहे दस मन का ताला डाल दो, हम उस स्याही से मुँह रँगेंगी, जिससे जूते साफ किए जाते हैं।

रूहअफजा - बहन, अब तो माफ करो। और यों हम हाजिर हैं। जूतों का हार गले में डाल दो।

इस तरह चहल-पहल के साथ मेहँदी की रस्म अदा हुई।