आजाद-कथा / भाग 2 / खंड 65 / रतननाथ सरशार
हमारे मियाँ आजाद और इस मिरजा आजाद में नाम के सिवा और कोई बात नहीं मिलती थी। वह जितने ही दिलेर, ईमानदार, सच्चे आदमी थे; उतने ही यह फरेबी, जालिए और बदनियत थे। बहुत मालदार तो थे नहीं; मगर सवा सौ रुपए वसीके के मिलते थे। अकेला दम, न कोई अजीज, न रिश्तेदार; पल्ले सिरे के बदमाश, चोरों के पीर, उठाईगीरों के लँगोटिए यार, डाकुओं के दोस्त, गिरहकटों के साथी। किसी की जान लेना इनके बाएँ हाथ का करतब था। जिससे दोस्ती की, उसी की गरदन काटी। अमीर से मिल-जुल कर रहना और उसकी घुड़की-झिड़की सहना, इनका खास पेशा था। लेकिन जिसके यहाँ दखल पाया, उसको या तो लँगोटी बँधवा दी या कुछ ले-दे के अलग हुए। शहर के महाजन और साहूकार इनसे थरथर काँपते रहते! जिस महाजन से जो माँगा, उसने हाजिर किया और जो इनकार किया तो दूसरे रोज चोरी हो गई। इनके मिजाज की अजब कैफियत थी। बच्चों में बच्चे, बूढ़ों में बूढ़े, जवानों में जवान। कोई बात ऐसी नहीं जिसका उन्हें तजर्बा न हो। एक साल तक फौज में भी नौकरी की थी। वहाँ आपने एक दिन यह दिल्लगी की कि रिसाले के बीस घोड़ों की अगाड़ी-पिछाड़ी खोल डाली। घोड़े हिनहिना कर लड़ने लगे । सब लोग पड़े सो रहे थे। घोड़े जो खुले, तो सब के सब चौंक पडे। एक बोला - लेना-लेना! चोर-चोर! पकड़ लेना, जाने न पाए। बड़ी मुश्किल से चंद घोड़े पकड़े गए। कुछ जख्मी हुए, कुछ भाग गए। अब तहकीकात शुरू हुई। मिरजा आजाद भी सबके साथ हमदर्दी करते थे और उस बदमाश पर बिगड़ रहे थे जिसने घोड़े छोड़े थे। अफसर से बोले - यह शैतान का काम है, खुदा की कसम।
अफसर - उसकी गोशमाली की जायगी।
आजाद - वह इसी लायक है। मिल जाय तो चचा ही बन कर छोड़ूँ!
खैर, एक बार एक दफ्तर में आप क्लर्क हो गए। एक दिन आपको दिल्लगी सूझी, अब अमलों के जूते उठा कर दरिया में फेंक दिए। सरिश्तेदार उठे, इधर-उधर जूता ढूँढ़ते हैं, कहीं पता ही नहीं। नाजिर उठे, जूता नदारद। पेशकार को साहब ने बुलाया, देखते हैं तो जूता गायब।
पेशकार - अरे भाई, कोई साहब जूता ही उड़ा ले गए।
चपरासी - हुजूर, मेरा जूता पहन लें।
पेशकार - वाह, अच्छा लाला विशुनदयाल, जरा अपना बूट तो उतार दो।
लाला विशुनदयाल पटवारी थे। इनका लक्कड़तोड़ जूता पहन कर पेशकार साहब बड़े साहब के इजलास पर गए।
साहब - वेल-वेल पेशकार, आज बड़ा अमीर हो गया। बहुत बड़ा कीमती बूट पहना है।
पेशकार - हुजूर, कोई साहब जूता उड़ा ले गए। दफ्तर में किसी का जूता नहीं बचा।
बड़े साहब तो मुस्करा कर चुप हो गए; मगर छोटे साहब बड़े दिल्लगीबाज आदमी थे। इजलास से उठ कर दफ्तर में गए तो देखते हैं कि कहकहे पर कहकहे पड़ रहे हैं। सब लोग अपने-अपने जूते तलाश रहे हैं। छोटे साहब ने कहा - हम उस आदमी को इनाम देना चाहते हैं जिसने यह काम किया। जिस दिन हमारा जूता गायब कर दे, हम उसको इनाम दें।
आजाद - और अगर हमारा जूता गायब कर दे तो हम पूरे महीने की तनख्वाह दे दें।
एक बार मिरजा आजाद एक हिंदू के यहाँ गए। वह इस वक्त रोटी पका रहे थे। आपने चुपके से जूता उतारा और रसोई में जा बैठे, ठाकुर ने डाँट कर कहा - ऐं, यह क्या शरारत!
आजाद - कुछ नहीं, हमने कहा, देखें, किस तदबीर से रोटी पकाते हो।
ठाकुर - रसोई जूठी कर दी!
आजाद - भई, बड़ा अफसोस हुआ। हम यह क्या जानते थे। अब यह खाना बेकार जायगा?
ठाकुर - नहीं जी, कोई मुसलमान खा लेगा।
आजाद - तो हमसे बढ़ कर और कौन है?
आजाद बिस्मिल्लाह कह कर थाली में हाथ डालने को थे कि ठाकुर ने ललकारा - हैं - हैं, रसोई तो जूठी कर चुके, अब क्या बरतनों पर भी दाँत है?
खैर, आजाद ने पत्तों में खाना खाया और दुआ दी कि खुदा करे, ऐसा एक उल्लू रोज फँस जाए।
डोम-धारी, तबलिए, गवैए, कलावंत, कथक, कोई ऐसा न था जिससे मिरजा आजाद से मुलाकात न हो। एक बार एक बीनकार को दो सौ रुपए इनाम दिए। तब से उस गिरोह में इनकी धाक बैठ गई थी। एक बार आप पुलिस के इंस्पेक्टर के साथ जाते थे। दोनों घोड़ों पर सवार थे। आजाद का घोड़ा टर्रा था और इनसे बिना मजाक के रहा न जाए। चुपके से उतर पड़े। घोड़ा हिन-हिनाता हुआ इंस्पेक्टर साहब के घोड़े की तरफ चला? उन्होंने लाख सँभाला, लेकिन गिर ही पड़े। पीठ में बड़ी चोट आई।
अब सुनिए, बुढ़िया और अब्बासी जब बेगम साहब के यहाँ पहुँचीं तो बेगम का कलेजा धड़कने लगा। फौरन कमरे के अंदर चली गईं। बुढ़िया ने आ कर पूछा - हुजूर, कहाँ तशरीफ रखती हैं?
बेगम - अब्बासी, कहो क्या खबरें हैं?
अब्बासी - हुजूर के अकबाल से सब मामला चौकस है।
बेगम - आते हैं या नहीं? बस, इतना बता दो।
अब्बासी - हुजूर, आज तो उनके यहाँ एक मेहमान आ गए। मगर कल जरूर आएँगे।
इतने में एक महरी ने आ कर कहा - दारोगा साहब आए हैं।
बेगम - आ गए! जीते आए, बड़ी बात!
दारोगा - हाँ हुजूर, आपकी दुआ से जीता आया। नहीं तो बचने की तो कोई सूरत ही न थी।
बेगम - खैर, यह बतलाओ, कहीं पता लगा?
दारोगा - हुजूर के नमक की कसम कि शहर का कोई मुकाम न छोड़ा।
बेगम - और कहीं पता न चला? है न!
दारोगा - कोई कूचा, कोई गली ऐसी नहीं जहाँ तलाश न की हो।
बेगम - अच्छा, नतीजा क्या हुआ? मिले या न मिले?
दारोगा - हुजूर, सुना कि रेल पर सवार हो कर कहीं बाहर जाते हैं। फौरन गाड़ी किराए की और स्टेशन पर जा पहुँचा, मियाँ आजाद से चार आँखें हुईं कि इतने में सीटी कूकी और रेल खड़खड़ाती हुई चली। मैं लपका कि दो-दो बातें कर लूँ, मगर अंगरेज ने हाथ पकड़ लिया।
बेगम - यह सब सच कहते हो न?
दारोगा - झूठ कोई और बोला करते होंगे।
बेगम - सुबह से तो कुछ खाया न होगा?
दारोगा - अगर एक घूँट पानी के सिवा कुछ और खाया हो तो कसम ले लीजिए।
अब्बासी - हुजूर, हम एक बात बताएँ तो इनकी शेखी अभी-अभी निकल जाए। कहारों को यहीं बुला कर पूछना शुरू कीजिए!
बेगम साहब हो यह सलाह पसंद आई। एक कहार को बुला कर तहकीकात करने लगीं।
अब्बासी - बचा, झूठ बोले तो निकल दिए जाओगे।
कहार - हुजूर, हमें तो सिखाया है, वह कह देते हैं।
अब्बासी - क्या कुछ सिखाया भी है?
कहार - सुबह से अब तक सिखाया ही किए या कुछ और किया? यहाँ से अपनी ससुराल गए। वहाँ किसी ने खाने को भी न पूछा तो वहाँ से एक मजलिस में गए। हिस्से लिए और चख कर बोले - कहीं ऐसी जगह चलो जहाँ किसी की निगाह न पड़े। हम लोगों ने नाक से बाहर एक तकिए में मियाना उतारा। दारोगा जी ने वहाँ नानबाई की दुकान से सालन और रोटी मँगा कर खाई। हम लोगों को चबैने के लिए पैसे दिए। दिन भर सोया किए। शाम को हुक्म दिया, चलो।
अब्बासी - दारोगा साहब, सलाम! अजी, इधर देखिए दारोगा साहब!
बेगम - क्यों साहब, यह झूठ! रेल पर गए थे? बोलिए!
दारोगा - हुजूर, यह नमकराम है, क्या अर्ज करूँ!
दारोगा का बस चलता तो कहार को जीता चुनवा देते मगर बेबस थे। बेगम ने कहा - बस, जाओ। तुम किसी मसरफ के नहीं हो!
रात को अब्बासी बेगम साहब से मीठी-मीठी बातें कर रही थीं कि गाने की आवाज आई। बेगम ने पूछा - कौन गाता है?
अब्बासी - हुजूर, मुझे मालूम है। यह एक वकील हैं। सामने मकान है। वकील को तो नहीं जानती, मगर उनके यहाँ एक आदमी नौकर है, उसको खूब जानती हूँ। सलारबख्श नाम है। एक दिन वकील साहब इधर से जाते थे। मैं दरवाजे पर खड़ी थी। कहने लगे - महरी साहब, सलाम! कहो, तुम्हारी बेगम साहब का नाम क्या है? मैंने कहा, आप अपना मतलब कहिए, तो कहने लगे - कुछ नहीं, यों ही पूछता था।
बेगम - ऐसे आदमियों को मुँह न लगाया करो।
अब्बासी - मुखतार है हुजूर, महताबी से मकान दिखाई देता है।
बेगम - चलो देखें तो, मगर वह तो न देख लेंगे। जाने भी दो।
अब्बासी - नहीं हुजूर, उनको क्या मालूम होगा। चुपके से चल कर देख लीजिए। बेगम साहब महताबी पर गईं तो देखा कि वकील साहब पलंग पर फैले हुए हैं और सलारू हुक्का भर रहा है। नीचे आईं तो अब्बासी बोली - हुजूर, वह सलारबख्श कहता था कि किसी पर मरते हैं।
बेगम - वह कौन थी, जरा नाम तो पूछना।
अब्बासी - नाम तो बताया था, मगर मुझे याद नहीं है। देखिए, शायद जेहन में आ जाय। आप दस-पाँच नाम तो लें।
बेगम - नजीरबेगम, जाफरीबेगम, हुसेनीखानम, शिब्बोखानम!
अब्बासी - (उछल कर) जी हाँ, यही, यहीर शिब्बोखानम नहीं, शिब्बोजान बताया था।
सुरैया बेगम ने सोचा इस पगले का पड़ोस अच्छा नहीं, जुल देके चली आई हूँ, ऐसा न हो, ताक-झाँक करे। दरवाजे तक आ ही चुका, अब्बासी और सलारू में बातचीत भी हुई; अब फकत इतना मालूम होना बाकी है कि यही शिब्बोजान हैं। कहीं हमारे आदमियों पर यह भेद खुल जाय तो गजब ही हो जाय। किसी तरह मकान बदल देना चाहिए। रात को इसी खयाल में सो रहीं। सुबह को फिर वही धुन समाई कि आजाद आएँ और अपनी प्यारी-प्यारी सूरत दिखाएँ। वह अपना हाल कहें, हम अपनी बीती सुनाएँ। मगर आजाद अब की मेरा यह ठाट देखेंगे तो क्या खयाल करेंगे। कहीं यह न समझें कि दौलत पा कर मुझे भूल गई। अब्बासी को बुला कर पूछा - तो आज कब जाओगी?
अब्बासी - हुजूर, बस कोई दो घड़ी दिन रहे जाऊँगी और बात की बात में साथ ले कर आ जाऊँगी।
उधर मिरजा आजाद बन-ठन कर जाने ही को थे कि एक शाह साहब खट-पट करते हुए कोठे पर आ पहुँचे। आजाद ने झुक कर सलाम किया और बोले - आप खूब आए। बतलाइए, हम जिस काम को जाना चाहते हैं। वह पूरा होगा या नहीं।
शाह - लगन चाहिए। धुन हो तो ऐसा कोई काम नही हो पूरा न हो।
आजाद - गुस्ताखी माफ कीजिए तो एक बात पूछूँ, मगर बुरा न मानिएगा।
शाह - गुस्ताखी कैसी, जो कुछ कहना हो शौक से कहो।
आजाद - उस पगली औरत से आपको क्यों मुहब्बत है?
शाह - उसे पगली न कहो, मैं उसकी सूरत पर नहीं, उसकी सीरत पर मरता हूँ। मैंने बहुत से औलिया देखे, पर ऐसी औरत मेरी नजर से आज तक नहीं गुजरी। अलारक्खी सचमुच जन्नत की परी है। उसकी याद कभी न भूलेगी। उसका एक आशिक आप ही के नाम का था।
इन्हीं बातों में शाम हो गई, आसमान पर काली घटाएँ छा गईं और जोर से मेंह बरसने लगा। आजाद ने जाना मुल्तवी कर दिया। सुबह को आप एक दोस्त की मुलाकात को गए। वहाँ देखा कि कई आदमी मिल कर एक आदमी को बना रहे हैं और तालियाँ बजा रहे हैं। वह दुबला-पतला, मरा-पिटा आदमी था। इनको करीने से मालूम हो गया कि वह चंडूबाज है। बोले - क्यों भाई चंडूबाज, कभी नौकरी भी की है?
चंडूबाज - अजी हजरत, उम्र भर डंड पेले और जोड़ियाँ हिलाईं। शाही में अब्बाजान की बदौलत हाथी-नशीन थे। अभी पारसाल तक हम भी घोड़े पर सवार हो कर निकलते थे। मगर जुए की लत थी, टके-टके को मुहताज हो गए। आखिर, सराय में एक भठियारी अलारक्खी के यहाँ नौकरी कर ली।
आजाद - किसके यहाँ?
चंडूबाज - अलारक्खी नाम था। ऐसी खूबसूरत कि मैं क्या अर्ज करूँ।
आजाद - हाँ, रात को भी एक आदमी ने तारीफ की थी।
चंडूबाज - तारीफ कैसी! तसवीर ही न दिखा दूँ?
यह कह कर चंडूबाज ने अलारक्खी की तसवीर निकाली।
आजाद - ओ-हो-हो!
अजब है खींची मुसव्विर ने किस तरह तसवीर;
कि शोखियों से वह एक रंग पर रहें क्योंकर!
चंडूबाज - क्यों, है परी या नहीं?
आजाद - परी, परी असली परी!
चंडूबाज- उसी सराय में मियाँ आजाद नाम के एक शरीफ टिके थे। उन पर आशिक हो गईं। बस, कुछ आप ही की सी सूरत थी।
आजाद - अब यह बताओ कि वह आजकल कहाँ है?
चंडूबाज - यह तो नहीं जानते, मगर यहीं कहीं हैं। सराय से तो भाग गई थीं।
आजाद ने ताड़ लिया कि अलारक्खी और सुरैया बेगम में कुछ न कुछ भेद जरूर है। चंडूबाज को अपने घर लाए और खूब चंडू पिलाया। जब दो-तीन छींटे पी चुके तो आजाद ने कहा - अब अलारक्खी का मुफस्सल हाल बताओ।
चंडूबाज - अलारक्खी की सूरत तो आप देख ही चुके, अब उनकी सीरत का हाल सुनिए। शोख, चुलबुली, चंचल, आगभभूका, तीखी चितवन, मगर हँसमुख। मियाँ आजाद पर रीझ गईं। अब आजाद ने वादा किया कि निकाह पढ़वाएँगे, मगर कौल हार कर निकल गए। इन्होंने नालिश कर दी, पकड़ आए, मगर फिर भाग गए। इसके बाद एक बेगम हुस्नआरा थीं, उस पर रीझे। उन्होंने कहा - रूम की लड़ाई में नाम पैदा करके आओ तो हम निकाह पर राजी हों। बस, रूम की राह ली। चलते वक्त उनकी अलारक्खी से मुलाकात हुई तो उनसे कहा - हुस्नआरा तुम्हें मुबारक हो, मगर हमको न भूल जाना। आजाद ने कहा- हरगिज नहीं।
आजाद - हुस्नआरा कहाँ रहती हैं?
चंडूबाज - यह हमें नहीं मालूम।
आजाद - अलारक्खी को देखो तो पहचान लो या न पहचानो?
चंडूबाज - फौरन पहचान लें। न पहचानना कैसा?
मियाँ चंडूबाज तो पिनक लेने लगे। इधर अब्बासी मिरजा आजाद के पास आई और कहा - अगर चलना है तो चले चलिए, वरना फिर आने जाने का जिक्र न कीजिएगा। आपके टालमटोल से वह बहुत चिढ़ गई हैं। कहती हैं, आना हो तो आएँ और न आना हो तो न आएँ। यह टालमटोल क्यों करते हैं?
आजाद ने कहा - मैं तैयार बैठा हूँ। चलिए।
यह कह कर आजाद ने गाड़ी मँगवाई और अब्बासी के साथ अंदर बैठे। चंडूबाज कोचबक्स पर बैठे। गाड़ी रवाना हुई। सुरैया बेगम के महल पर गाड़ी पहुँची तो अब्बासी ने अंदर जा कर कहा - मुबारक, हुजूर आ गए।
बेगम - शुक्र है!
अब्बासी - अब हुजूर चिक की आड़ बैठ जायँ।
बेगम - अच्छा, बुलाओ।
आजाद बरामदे में चिक के पास बैठे। अब्बासी ने कमरे के बाहर आ कर कहा - बेगम साहब फरमाती हैं कि हमारे सिर में दर्द है, आप तशरीफ ले जाइए।
आजाद - बेगम साहब से कह दीजिए कि मेरे पास सिर के दर्द का एक नायाब नुस्खा है।
अब्बासी - वह फरमाती हैं कि ऐसे-ऐसे मदारी हमने बहुत चंगे किए हैं।
आजाद - और अपने सिर के दर्द का इलाज नहीं कर सकतीं?
बेगम - आपकी बातों से सिर का दर्द और बढ़ता है। खुदा के लिए आप मुझे इस वक्त आराम करने दीजिए।
आजाद - हम ऐसे हो गए अल्लाह अकबर ऐ तेरी कुदरत;
हमारा नाम सुन कर हाथ वह कानों पर धरते हैं।
या तो वह मजे-मजे की बातें थीं; और अब यह बेवफाई!
बेगम - तो यह कहिए कि आप हमारे पुराने जाननेवालों में हैं। कहिए, मिजाज तो अच्छे हैं?
आजाद - दूर से मिजाजपुर्सी भली मालूम नहीं होती।
बेगम - आप तो पहेलियाँ बुझवाते है। ऐ अब्बासी, यह किस अजनबी को सामने ला कर बिठा दिया? वाह-वाह!
अब्बासी - (मुस्करा कर) हुजूर जबरदस्ती धँस पड़े।
बेगम - मुहल्लेवालों को इत्तिला दो।
आजाद - थाने पर रपट लिखवा दो और मुश्कें बँधवा दो।
यह कह कर आजाद ने अलारक्खी की तसवीर अब्बासी को दी और कहा - इसे हमारी तरफ से पेश कर दो। अब्बासी ने जा कर बेगम साहब को वह तसवीर दी। बेगम साहब तसवीर देखते ही दंग हो गईं। ऐं, इन्हें यह तसवीर कहाँ मिली? शायद यह तसवीर छिपा कर ले गए थे। पूछा - इस तसवीर की क्या कीमत है?
आजाद - यह बिकाऊ नहीं है।
बेगम - तो फिर दिखाई क्यों?
आजाद - इसकी कीमत देने वाला कोई नजर नहीं आता।
बेगम - कुछ कहिए तो, किस दाम की तस्वीर है!
आजाद - हुजूर मिला लें। एक शाहजादे इस तसवीर के दो लाख रुपए देते थे।
बेगम - यह तसवीर आपको मिली कहाँ?
आजाद - जिसकी यह तसवीर है उससे दिल मिल गया है।
बेगम - जरी मुँह धो आइए।
इस फिकरे पर अब्बासी कुछ चौंकी, बेगम साहब से कहा - जरा हुजूर मुझे तो दें। मगर बेगम ने संदूकचा खोल कर तसवीर रख दी।
आजाद - इस शहर की अच्छी रस्म है। देखने को चीज ली और हजम! बी अब्बासी, हमारी तसवीर ला दो।
बेगम - लाखों कुदूरतें हैं, हजारों शिकायतें।
आजाद - किससे?
कुदूरत उनको है मुझसे नहीं है सामना जब तक;
इधर आँखें मिलीं उनसे उधर दिल मिल गया दिल से।
बेगम - अजी, होश की दया करो।
आजाद - हम तो इस जब्त के कायल हैं।
बेगम - (हँस कर) बजा।
आजाद - अब तो खिलखिला कर हँस दीं। खुदा के लिए, अब इस चिक के बाहर आओ या मुझी को अंदर बुलाओ। नकाब और घूँघट का तिलस्म तोड़ो। दिल बेकाबू है।
बेगम - अब्बासी, इनसे कहो कि अब हमें सोने दें। कल किसी की राह देखते-देखते रात आँखों में कट गई।
आजाद - दिन का मौका न था, रात को मेंह बरसने लगा।
बेगम - बस बैठे रहो।
यह अबस कहते हो, मौका न था और घात न थी;
मेहँदी पाँवों में न थी आपके, बरसात न थी।
कजअदाई के सिवा और कोई बात न थी;
दिन को आ सकते न थे आप तो क्या रात न थी?
बस, यही कहिए कि मंजूर मुलाकात न थी।
आजाद - माशूकपन नहीं अगर इतनी कजी न हो।
अब्बासी दंग थी कि या खुदा, यह क्या माजरा है। बेगम साहब तो जामे से बाहर ही हुई जातीं हैं। महरियाँ दाँतों अँगुलियाँ दबा रही थीं। इनको हुआ क्या है। दारोगा साहब कटे जाते थे, मगर चुप।
बेगम - कोई भी दुनिया में किसी का हुआ है? सबको देख लिया। तड़पा तड़पा कर मार डाला! खैर, हमारा भी खुदा है।
आजाद - पिछली बातों को अब भूल जाइए।
बेगम - बेमुरौवतों को किसी के दर्द का हाल क्या मालूम? नहीं तो क्या वादा करके मुकर जाते!
आजाद - नालिश भी तो दाग ही आपने!
बेगम - इंतजार करते-करते नाक में दम आ गया।
राह उनकी तकते-तकते यह मुद्दत गुजर गई;
आँखों को हौसला न रहा इंतजार का।
आजाद, बस दिल ही जानता है। ठान ली थी कि जिस तरह मुझे जलाया है, उसी तरह तरसाऊँगी। इस वक्त कलेजा बाँसों उछल रहा है। मगर बेचैनी और भी बढ़ती जाती है! अब उधर का हाल तो कहो, गए थे!
आजाद - वहाँ का हाल न पूछो, दिल पाश-पाश हुआ जाता है।
सुरैया बेगम ने समझा कि अब पाला हमारे हाथ रहा। कहा - आखिर, कुछ तो कहो। माजरा क्या है?
आजाद - अजी, औरत की बात का एतबार क्या?
बेगम - वाह, सबको शामिल न करो। पाँचों अँगुलियाँ बराबर नहीं होतीं। अब यह बतलाइए कि हमसे जो वादे किए थे, वे याद हैं या भूल गए ?
इकरार जो किए थे कभी हमसे आपने;
कहिए, वे याद हैं कि फरामोश हो गए?
आजाद - याद हैं। न याद होना क्या माने?
बेगम - आपके वास्ते हुक्का भर लाओ।
आजाद - हुक्म हो तो अपने खिदमतगार से हुक्का मँगवा लूँ। अब्बासी, जरा उनसे कहो, हुक्का भर लाएँ।
अब्बासी ने जा कर चंडूबाज से हुक्का भरने को कहा। चंडूबाज हुक्का ले कर ऊपर गए तो अलारक्खी को देखते ही बोले - कहिए, अलारक्खी साहब, मिजाज तो अच्छे हैं?
सुरैया बेगम धक से रह गईं। वह तो कहिए, खैर गुजरी कि अब्बासी वहाँ पर न थी। वरना बड़ी किरकिरी होती। चुपके से चंडूबाज को बुला कर कहा - यहाँ हमारा नाम सुरैया बेगम हैं। खुदा के वास्ते हमें अलारक्खी न कहना। यह तो बताओ, तुम इनके साथ कैसे हो लिए। तुमसे इनसे तो दुश्मनी थी? चलते वक्त कोड़ा मारा था।
चंडूबाज - इसके बारे में फिर अर्ज करूँगा।
आजाद - क्या खुदा की शान है कि खिदमतगार को अंदर बुलाया जाय और मालिक तरसे!
बेगम - क्यों घबराते हो? जरा बातें तो कर लेने दो? उस मुए मसखरे को कहाँ छोड़ा?
आजाद - वह लड़ाई पर मारा गया।
बेगम - ऐ है, मार डाला गया! बड़ा हँसोड़ था बेचारा!
सुरैया बेगम ने अपने हाथों से गिलौरियाँ बनाईं और अपने ही हाथ से मिरजा आजाद को खिलाईं। आजाद दिल में सोच रहे थे कि या खुदा, हमने कौन सा ऐसा सवाब का काम किया, जिसके बदले में तू हम पर इतना मिहरबान हो गया है! हालाँकि न कभी की जान, न पहचान। यकीन हो गया कि जरूर हमने कोई नेक काम किया होगा। चंडूबाज को भी हैरत हो रही थी कि अलारक्खी ने इतनी दौलत कहाँ पाई। इधर-उधर भौचक्के हो-हो कर देखते थे, मगर सबके सामने कुछ पूछना अदब के खिलाफ समझते थे। इतने में आजाद बोले - जमाना भी कितने रंग बदलता है।
सुरैया बेगम - हाँ, यह तो पुराना दस्तूर है। लोग इकरार कुछ करते हैं और करते कुछ हैं।
आजाद - यों नहीं कहतीं कि लोग चाहते कुछ हैं और होता कुछ और है।
सुरैया बेगम - दो-चार दिन और सब्र करो। जहाँ इतने दिनों खामोश रहे, अब चंद रोज तक और चुपके रहो।
चंडूबाज - खुदावंद, ये बातें तो हुआ ही करेंगी, अब चलिए, कल फिर आइएगा। मगर पहले बी अला..।
सुरैया बेगम - जरा समझ-बूझ कर!
चंडूबाज - कुसूर हुआ।
आजाद - हम समझे ही नहीं, क्या कुसुर हुआ?
सुरैया बेगम - एक बात है। यह खूब जानते हैं।
आजाद - फिर अब चलूँ! मगर ऐसा न हो कि यह सारा जोश दो-चार दिन में ठंडा पड़ जाय। अगर ऐसा हुआ तो मैं जान दे दूँगा।
सुरैया बेगम - मैं तो खुद ही कहने को थी। तुम मेरी जबान से बात छीन ले गए।
आजाद - हमारी मुहब्बत का हाल खुदा ही जानता है।
सुरैया बेगम - खुदा तो सब जानता है, मगर आपकी मुहब्बत का हाल हमसे ज्यादा और कोई नहीं जानता। या (चंडूबाज की तरफ इशारा करके) यह जानते हैं। याद है न? अगर अब की भी वैसा ही इकरार है तो खुदा ही मालिक है।
आजाद - अब उन बातों का जिक्र ही न करो।
सुरैया बेगम - हमें इस हालत में देख कर तुम्हें ताज्जुब तो जरूर हुआ होगा कि इस दरजे पर यह कैसी पहुँच गई। वह बूढ़ा याद है जिसकी तरफ से आपने खत लिखा था?
आजाद मिरजा कुछ जानते होते तो समझते, हाँ-हाँ कहते जाते थे।
आखिर इतना कहा - तुम भी तो वकील के पास गई थीं? और हमको पकड़वा बुलाया था? मगर सच कहना, हम भी किस चालाकी से निकल भागे थे?
सुरैया बेगम - और उसका आप को फख्र है। शरमाओ न शरमाने दो।
आजाद - अजी, वह मौका ही और था।
सुरैया बेगम ने अपना सारा हाल कह सुनाया। अपना जोगिन बनना, शहसवार का आना, थानेदार के घर से भागना, फिर वकील साहब के यहाँ फँसना, गरज कर सारी बातें कह सुनाईं।
आजाद - ओफ्-ओह, बहुत मुसीबतें उठाईं!
सुरैया बेगम - अब तो जी चाहता है कि शुभ घड़ी निकाह हो तो सारा गम भूल जाय।
चंडूबाज - हम बेगम साहब की तरफ होंगे। आप ही ने तो कोड़ा जमाया था!
आजाद - कोड़ा अभी तक नहीं भूले! हम तो बहुत सी बातें भूल गए।
सुरैया बेगम - अब तो रात बहुत ज्यादा गई, क्यों न नीचे जा कर दारोगा साहब के कमरे में सो रहो।
आजाद उठने ही को थे कि अजान की आवाज कान में आई। बातों में तड़का हो गया। आजाद यहाँ से चले तो रास्ते में सुरैया बेगम का हाल पूछने लगे। क्यों जी, बेगम साहब हमको वही आजाद समझती हैं? क्या हमारी उनकी सूरत बिलकुल मिलती है?
चंडूबाज - जनाब, आप उनसे बीस हैं, उन्नीस नहीं।
आजाद - तुमने कहीं कह तो नहीं दिया कि और आदम है?
चंडूबाज - वाह-वाह, मैं कह देता तो आप वहाँ धँसने भी पाते? अब कहिए तो जा कर जड़ दूँ। बस, ऐसी ही बातों से तो आग लग जाती है?
ये बातें करते हुए आजाद घर पहुँचे और गाड़ी से उतरने ही को थे कि कई कान्स्टेबलों ने उनको घेर लिया, आजाद ने पैंतरा बदल कर कहा - ऐं, तुम लोग कौन हो?
जमादार ने आगे बढ़ कर वारंट दिखाया और कहा - आप मेरी हिरासत में हैं।
चंडूबाज दबके-दबके गाड़ी में बैठे थे। एक सिपाही ने उनको भी निकाला। आजाद ने गुस्से में आ कर दो कान्स्टेबलों को थप्पड़ मारे, तो उन सबों ने मिल कर उनकी मुश्कें कस लीं और थाने की तरफ ले चले। थानेदार ने आजाद को देखा तो बोले - आइए मिरजा साहब, बहुत दिनों के बाद आप नजर आए। आज आप कहाँ भूल पड़े?
आजाद - क्या मरे हुए से दिल्लगी करते हो। हवालात से बाहर निकाल दो तो मजा दिखाऊँ। इस वक्त जो चाहो, कह लो, मगर इज्जलास पर सारी कलई खोल दूँगा। जिस जिस आदमी से तुमने रिश्वत ली है, उनको पेश करूँगा, भाग कर जाओगे कहाँ?
थानेदार - रस्सी जल गई, मगर रस्सी का बल न गया।
आजाद तो डींगें मार रहे थे और चंडूबाज को चंडू की धुन सवार थी। बोले - अरे यारो, जरी चंडू पिलवा दो भई! आखिर इतने आदमियों में कोई चंडूबाज भी है, या सब के सब रूखे ही हैं?
थानेदार - अगर आज चंडू न मिले तो क्या हो?
चंडूबाज - मर जायँ और क्या हो?
थानेदार - अच्छा देखें, कैसे मरते हो? कोई शर्त बदता है? हम कहते हैं कि अगर इसको चंडू न मिले तो यह मर जाय।
इन्स्पेक्टर - और हम कहते हैं कि यह कभी न मरेगा।
चंडूबाज - वाह री तकदीर, समझे थे, अलारक्खी के यहाँ अब चैन करेंगे, चैन तो रहा दूर, किस्मत यहाँ ले आई।
थानेदार - अलारक्खी कौन? यह बता दो, तो चंडू मँगा दूँ।
चंडूबाज - साहब, एक औरत है जो सराय में रहती थी।
अब सुनिए, शाम के वक्त सुरैया बेगम बन-ठन कर बैठी आजाद का इंतजार कर रही थी। मगर आजाद तो हवालात में थे। वहाँ आता कौन? अब्बासी को आजाद के गिरफ्तार होने की खबर तो मिल गई, मगर उसने सुरैया बेगम से कहा नहीं।