आजाद-कथा / भाग 2 / खंड 68 / रतननाथ सरशार
आजाद अपनी फौज के साथ एक मैदान में पड़े हुए थे कि एक सवार ने फौज में आ कर कहा - अभी बिगुल दो। दुश्मन सिर पर आ पहुँचा। बिगुल की आवाज सुनते ही अफसर, प्यादे, सवार सब चौंक पड़े। सवार ऐंठते हुए चले, प्यादे अकड़ते हुए बढ़े। एक बोला - मार लिया है। दूसरे ने कहा - भगा दिया है। मगर अभी तक किसी को मालूम नहीं कि दुश्मन कहाँ है। मुखबिर दौड़ाए गए तो पता चला कि रूस की फौज दरिया के उस पार पैर जमाए खड़ी है। दरिया पर पुल बनाया जा रहा है और अनोखी बात यह थी कि रूसी फौज के साथ एक लेडी, शहसवारों की तरह रान-पटरी जमाए, कमर से तलवार लटकाए, चेहरे पर नकाब से छिपाए, अजब शोखी और बाँकपन के साथ लड़ाई में शरीक होने के लिए आई है। उसके साथ दस जवान औरतें घोड़ों पर सवार चली आ रही हैं। मुखबिर ने इन औरतें की कुछ ऐसी तारीफ की कि लोग सुन कर दंग रह गए। बोला - इस रईसजादी ने कसम खाई है कि उम्र भर क्वाँरी रहूँगी। इसका बाप एक मशहूर जनरल था, उसने अपनी प्यारी बेटी को शहसवारी का फन खूब सिखाया था। रूस में बस यही एक औरत है जो तुर्कों से मुकाबला करने के लिए मैदान में आई है। उसने कसम खाई है कि आजाद का सिर ले कर जार के कदमों पर रख दूँगी।
आजाद - भला, यह तो बतलाओ कि अगर वह रईस की लड़की है तो उसे मैदान से क्या सरोकार? फिर मेरा नाम उसको क्योंकर मालूम हुआ?
मुखबिर - अब यह तो हुजूर, वही जानें, उनका नाम किस क्लारिसा है। वह आपसे तलवार का मुकाबिला करना चाहती हैं। मैदान में अकेले आप से लड़ेंगी, जिस तरह पुराने जमाने में पहलवानों में लड़ाई का रिवाज था।
आजाद पाशा के चेहरे का रंग उड़ गया। अफसरों ने उनको बनाना शुरू किया। आजाद ने सोचा, अगर कबूल किए लेता हूँ तो नतीजा क्या! जीता, तो कोई बड़ी बात नहीं। लोग कहेंगे, लड़ना-भिड़ना औरतों का काम नहीं। अगर चोट खाई तो जग की हँसाई होगी। मिस मीडा ताने देंगी। अलारक्खी आड़े हाथों लेंगी कि एक छोकरी से चरका खा गए। सारी डींग खाक में मिल गई। और अगर इनकार करते हैं तो भी तालियाँ बजेंगी कि एक नाजुकबदन औरत के मुकाबिले से भागे। तब खुद कुछ फैसला न कर सके तो पूछा - दिल्लगी तो हो चुकी, अब बतलाइए कि मुझे क्या करना चाहिए?
जनरल - सलाह यही है कि अगर आपको बहादुरी का दावा है तो कबूल कर लीजिए, वरना चुपके ही रहिए।
आजाद - जनाब, खुदा ने चाहा तो एक चोट न खाऊँ और बेदाग लौट आऊँ। औरत लाख दिलेर हो, फिर भी औरत है!
जनरल - यहाँ मूँछों पर ताव दे लीजिए, मगर वहाँ कलई खुल जायगी।
अनवर पाशा - जिस वक्त वह हसीना हथियार कस कर सामने आएगी, होश उड़ जाएँगे। गश पर गश आएँगे। ऐसी हसीन औरत से लड़ना क्या कुछ हँसी है? हाथ न उठेगा। मुँह की खाओगे। उसकी एक निगाह तुम्हारा काम तमाम कर देगी।
आजाद - इसकी कुछ परवा नहीं! यहाँ तो दिली आरजू है कि किसी नाजनीन की निगाहों के शिकार हों।
यही बातें हो रही थी कि एक आदमी ने कहा - कोई साहब हजरत आजाद को ढूँढ़ते हुए आए हैं। अगर हुक्म हो, तो बुला लाऊँ। बड़े तीखे आदमी हें। मुझसे लड़ पड़े थे। आजाद ने कहा, उसे अंदर आने दो। सिपाही के जाते ही मियाँ खोजी अकड़ते हुए आ पहुँचे।
आजाद - मुद्दत के बाद मुलाकात हुई, कोई ताजा खबर कहिए।
खोजी - कमर तो खोलने दो, अफीम घोलूँ, चुस्की लगाऊँ तो होश आए। इस वक्त थका-माँदा, मरा-मिटा आ रहा हूँ। साँस तक नहीं समाती है।
आजाद - मिस मीडा का हाल तो कहो!
खोजी - रोज कुम्मैत घोड़े पर सवार दरिया किनारे जाती हैं। रोज अखबार पढ़ती हैं। जहाँ तुम्हारा नाम आया, बस, रोने लगीं।
आजाद - अरे, यह अँगुली में क्या हुआ है जी! जल गई थी क्या?
खोजी - जल नहीं गई थी जी, यह अपनी सूरत गले का हार हुई।
आजाद - ऐ, यह माजरा क्या है? एक कान कौन कतर ले गया है?
खोजी - न हम इतने हसीन होते, न परियाँ जान देतीं!
आजाद - नाक भी कुछ चिपटी मालूम होती है।
खोजी - सूरत, सूरत! यही सूरत बला-ए-जान हो गई। इसी के हाथों यह दिन देखना पड़ा।
आजाद - सूरत-मूरत नहीं, आप कहीं से पिट कर आए हैं। कमजोर, मार खाने की निशानी; किसी से भिड़ पड़े होंगे। उसने ठोंक डाला होगा! यही बात हुई है न?
खोजी - अजी, एक परी ने फूलों की छड़ियों से सजा दी थी।
आजाद - अच्छा, कोई खत-वत लाए हो? या चले आए यों ही हाथ झुलाते?
खोजी - दो-दो खत हैं। एक मिस मीडा का, दूसरा हुरमुज जी का।
आजाद और खोजी नहर के किनारे बैठे बातें कर रहे थे। अब जो आता है, खोजी को देख कर हँसता है। आखिर खोजी बिगड़ कर बोले - क्या भीड़ लगाई है? चलो, अपना काम करो।
आजाद - तुमको किसी से क्या वास्ता, खड़े रहने दो।
खोजी - अजी नहीं, आप समझते नहीं हैं। ये लोग नजर लगा देंगे।
आजाद - हाँ, आपका कल्ला-ठल्ला देख कर नजर लग जाय तो ताज्जुब भी नहीं।
खोजी - अजी, वह एक सूरत ही क्या कम है! और कसम ले लो कि किसी मर्दक को अब तक मालूम हुआ हो कि हम इतने हसीन हैं! और हमें इसका कुछ गरूर भी नहीं - मुतलक नहीं गरूर जमालोकमाल पर।
आजाद - जी हाँ, बाकमाल लोग कभी गरूर नहीं करते, सीधे-सादे होते ही हैं। अच्छा, आप अफीम घोलिए, साथ है या नहीं?
खोजी - जी नहीं, और क्या! आपके भरोसे आते हैं? अच्छा, लाओ, निकलवाओ। मगर जरा उम्दा हो। कमसरियट के साथ तो होती होगी?
आजाद - अब तुम मरे। भला यहाँ अफीम कहाँ? और कमसरियट में? क्या खूब!
खोजी - तब तो बे-मौत मरे। भई, किसी से माँग लो।
आजाद - यहाँ अफीम का किसी को शौक ही नहीं।
खोजी - इतने शरीफजादे हैं और अफीमची एक भी नहीं? वाह!
आजाद- जी हाँ, सब गँवार हैं। मगर आज दिल्लगी होगी, जब अफीम न मिलेगी और तुम तड़पोगे, बिलबिलाओगे।
खोजी - यह तो अभी से जम्हाइयाँ आने लगीं। कुछ तो फिक्र करो यार!
आजाद - अब यहाँ अफीम न मिलेगी। हाँ, करौलियाँ जितनी चाहो, मँगा दूँ।
खोजी - (अफीम की डिबिया दिखा कर) यह भरी है अफीम! क्या उल्लू समझे थे! आने के पहले ही मैंने हुरमुज जी से कहा कि हुजूर, अफीम मँगवा दें। अच्छा, यह लीजिए हुरमुज जी का खत।
आजाद ने खत खोला तो यह लिखा था -
'माई डियर आजाद,
जरा खोजी से खैर व आफियत तो पूछिए, इतना पिटे कि दो दाँत टूट गए, कान कट गए और घूँसे और मुक्के खाए। आप इनसे इतना पूछिए कि लालारुख कौन है?
तुम्हारा
हुरमुज।'
आजाद - क्यों साहब, यह लालारुख कौन है?
खोजी - ओफ ओह, हम पर चकमा चल गया। वाहरे हुरमुज जी, वल्लाह! अगर नमक न खाए होता तो जा कर करौली भोंक देता।
आजाद - नहीं, तुम्हें वल्लाह, बताओ तो, यह लालारुख कौन है?
खोजी - अच्छा हुरमुज जी समझेंगे?
सौदा करेंगे दिल का किसी दिलरुबा के साथ इस बावफा को बेचेंगे एक बेवफा के हाथ। हाय लालारुख, जान जाती है, मगर मौत भी नहीं आती।
आजाद - पिटे हुए हो, कुछ हाल तो बतलाओ। हसीन है?
खोजी - (झल्ला कर) जी नहीं, हसीन नहीं है। काली-कलूटी हैं। आप भी वल्लाह, निरे चोंच ही रहे! भला, किसी ऐसी-वैसी की जुर्रत कैसे होती कि हमारे साथ बात करती! याद रखो, हसीन पर जब नजर पड़ेगी, हसीन ही की पड़ेगी। दूसरे की मजाल नहीं।
'गालिब' इन सीमी तनों के वास्ते, चाहनेवाला भी अच्छा चाहिए।
आजाद - अच्छा, अब लालारुख का तो हाल बताओ।
खोजी - अजी, अपना काम करो, इस वक्त दिल काबू में नहीं है। वह हुस्न है कि आपके बाबाजान ने भी न देखा होगा। मगर हाथों में चुल है। घंटे भर में पाँच सात बार जरूर चपतियाती थीं। खोपड़ी पिलपिली कर दी। बस, हमको इसी बात से नफरत थी। वरन, नखशिख से दुरुस्त! और चेहरा चमकता हुआ, जैसे आबनूस! एक दिन दिल्लगी-दिल्लगी में उठ कर एक पचास जूते लगा दिए, तड़-तड़-तड़! हैं, हैं, यह क्या हिमाकत है, हमें यह दिल्लगी पसंद नहीं, मगर वह सुनती किसकी हैं! अब फरमाइए, जिस पर पचास जूते पड़ें, उसकी क्या गति होगी। एक रोज हँसी-हँसी में कान काट लिया। एक दिन दुकान पर खड़ा हुआ सौदा खरीद रहा था। पीछे से आ कर दस जूते लगा दिए। एक मरतबे एक हौज में हमको ढकेल दिया। नाक टूट गई। मगर हैं लाखों में लाजवाब।
तर्जे-निगाह ने छीन लिए जाहिदों के दिल, आँखें जो उनकी उठ गईं दस्ते दुआ के साथ।
आजाद - तो यह कहिए, हँसी-हँसी में खूब जूतियाँ खाईं आपने!
खोजी - फिर यह तो है ही, और इश्क कहते किसे हैं? एक दफा मैं सो रहा था, आने के साथ ही इस जोर से चाबुक जमाई कि मैं तड़प कर चीख उठा। बस, आग हो गईं कि हम पीटें, तो तुम रोओ क्यों? जाओ, बस; अब हम न बोलेंगी। लाख मनाया, मगर बात तक न की। आखिर यह सलाह ठहरी कि सरे बाजार वह हमें चपतियाएँ और हम सिर झुकाए खड़े रहें।
लब ने जो जिलाया तो तेरी आँख ने मारा; कातिल भी रहा साथ मसीहा के हमेशा। परदा न उठाया कभी चेहरा न दिखाया; मुश्ताक रहे हम रुखे जेबा के हमेशा।
आजाद - किसी दिन हँसी-हँसी में आपको जहर न खिला दे?
खोजी- क्यों साहब खिला दें क्यों नहीं कहते? कोई कंडेवाली मुकर्रर की है। वह भी रईसजादी हैं! आपकी मिस मीडा पर गिर पड़ें तो यह कुचल जायँ। अच्छा हमारी दास्तान तो सुन चुके, अपनी बीती कहो।
आजाद - एक नाजनीन हमसे तलवार लड़ना चाहती है। क्या राय है? पैगाम भेजा है कि किसी दिन आजाद पाशा से और हमसे अकेले तलवार चले।
खोजी - मगर तुमने पूछा तो होता कि सिन क्या है? शक्ल-सूरत कैसी है?
आजाद - सब पूछ चुके हैं। रूस में उसका सानी नहीं है। मिस मीडा यहाँ होतीं तो खूब दिल्लगी रहती। हाँ, तुमने तो उनका खत दिया ही नहीं। तुम्हारी बातों में ऐसा उलझा कि उसकी याद ही न रही।
खोजी ने मीडा का खत निकाल कर दिया। यह मजमून था -
'प्यारे आजाद,
आजकल अखबारों ही में मेरी जान बसती है। मगर कभी-कभी खत भी तो भेजा करो। यहाँ जान पर बन आई है, और तुमने वह चुप्पी साधी है कि खुदा की पनाह। तुमसे इस बेवफाई की उम्मेद न थी।
यों तो मुँह-देखे की होती है मुहब्बत सबको,
जब मैं जानूँ कि मेरे बाद मेरा ध्यान रहे।