आजाद-कथा / भाग 2 / खंड 74 / रतननाथ सरशार
खोजी आजाद के बाप बन गए तो उनकी इज्जत होने लगी। तुर्की कैदी हरदम उनकी खिदमत करने को मुस्तैद रहते थे। एक दिन एक रूसी फौजी अफसर ने उनकी अनोखी सूरत और माशे-माशे भर के हाथ-पाँव देखे तो जी चाहा कि इनसे बातें करें। एक फारसीदाँ तुर्क को मुतरज्जिम बना कर ख्वाजा साहब से बातें करने लगा।
अफसर - आप आजाद पाशा के बाप हैं?
खोजी - बाप तो क्या हूँ, मगर खैर, बाप ही समझिए। अब तो तुम्हारे पंजू में पड़ कर छक्के छूट गए।
अफसर - आप भी किसी लड़ाई में शरीक हुए थे?
खोजी - वाह, और जिंदगी-भर करता क रहा? तुम जैसा गौखा अफसर आज ही देखा। हमारा कैंडा ही गवाही देता है कि हम फौज के जवान हैं। कैंडे से नहीं पहचानते? इसमें पूछने की क्या जरूरत है! दगलेवाली पलटन के रिसालदार थे। आप हमसे पूछते हैं, कोई लड़ाई देखी है! जनाब, यहाँ वह-वह लड़ाइयाँ देखी हैं कि आदमी की भूख-प्यास बंद हो जाय।
अफसर - आप गोली चला सकते हैं?
खोजी - अजी हजरत, अब फस्द खुलवाइए। पूछते हैं गोली चलाई है! जरा सामने आ जाइए तो बताऊँ। एक बार एक कुत्ते से और हमसे लाग-डाट हो गई। खुदा की कसम, हमसे कुत्ता ग्यारह-बारह कदम पर पड़ा था। धरके दागता हूँ तो पों-पों करता हुआ भाग खड़ा हुआ।
अफसर - ओ हो! आप खूब गोली चलाता है।
खोजी - अजी, तुम हमको जवानी में देखते!
अफसर ने इनकी बेतुकी बातें सुन कर हुक्म दिया कि दोनाली बंदूक लाओ। तब तो मियाँ खोजी चकराए। सोचे कि हमारी सात पीढ़ियों तक तो किसी ने बंदूक चलाई नहीं और न हमको याद आता है कि बंदूक कभी उम्र भर छुईं भी हो, मगर इस वक्त तो आबरू रखनी चाहिए। बोले इस बंदूक में गज तो नहीं होता?
अफसर - उड़ती चिड़िया पर निशाना लगा सकते हो?
खोजी - उड़ती चिड़िया कैसी! आसमान तक के जानवरों को भून डालूँ।
अफसर - अच्छा तो बंदूक लो।
खोजी - ताक कर निशाना लगाऊँ तो दरख्त की पत्तियाँ गिरा दूँ?
यह कह कर आप टहलने लगे।
अफसर - आप निशाना क्यों नहीं लगाता? उठाइए बंदूक।
खोजी ने जमीन में खूब जोर से ठोकर मारी और एक गजल गाने लगे। अफसर दिल में खूब समझ रहा था कि यह आदमी महज डींगे मारना जातना है। बोला - अब बंदूक लेते हो या इसी बंदूक से तुमको निशाना बनाऊँ?
खैर, बड़ी देर तक दिल्लगी रही। अफसर खोजी से इतना खुश हुआ कि पहरेवालों को हुक्म दे दिया कि इनपर बहुत सख्ती न रखना। रात को खोजी ने साचा कि अब भागने की तदबीर सोचनी चाहिए वरना लड़ाई खत्म हो जायगी और हम न इधर के रहेंगे, न उधर के। आधी रात को उठे और खुदा से दुआ माँगने लगे कि ऐ खुदा! आज रात को तू मुझे इस कैद से नजात दे। तुर्कों का लश्कर नजर आए और मैं गुल मचा कर कहूँ कि हम आ पहुँचे; आ पहुँचे। आजाद से भी मुलाकात हो और खुश-खुश वतन चलें।
यह दुआ माँग कर खोजी रोने लगे। हाय, अब वह दिन कहाँ नसीब होंगे कि नवाबों के दरबार में गप उड़ रहे हों। वह दिल्लगी, वह चुहल अब नसीब हो चुकी। किस मजे ने कटी जाती थी और किस लुत्फ से गड़ेरियाँ चूसते थे! कोई खुटियाँ खरीदता है, कोई कतारे चुकाता है। शोर गुल की यह कैफियत है कि कान पड़ी आवाज नहीं सुनाई देती, मक्खियों की भिन्न भिन्न एक तरफ, छिलकों का ढेर दूसरी तरफ, कोई औरत चंडूखाने में आ गई तो और भी चुहल होने लगी।
दो बजे खोजी बाहर निकले तो उनकी नजर उक छोटे से टट्टू पर पड़ी। पहरेवाले सो रहे थे। खोजी टट्टू के पास गए और उसकी गरदन पर हाथ फेर कर कहा - बेटा, कहीं दगा न देना। माना कि तुम छोटे-मोटे टट्टू हो और ख्वाजा साहब का बोझ तुमसे न उठ सकेगा, मगर कुछ परवा नहीं, हिम्मते मरदाँ मददे खुदा। टट्टू को खोला और उस पर सवार होकर आहिस्ता-आहिस्ता कैंप से बाहर की तरफ चले। बदन काँप रहा था, मगर जब कोई सौ कदम के फासिले पर निकल गए तो एक सवार ने पुकारा - कौन जाता है? खड़ा रह!
खोजी - हम हैं जी ग्रासकट, सरकारी घोड़ों की घास छीलते हैं।
सवार - अच्छा तो चला जा।
खोजी जब जरा दूर निकल आए तो दो-चार बार खूब गुल मचाया - मार लिया, मार लिया! ख्वाजा साहब दो करोड़ रूसियों में से बेदाग निकले आते हैं। लो भई तुर्कों, ख्वाजा साहब आ पहुँचे।
अपनी फतह का डंका बजा कर खोजी घोड़े से उतरे और चादर बिछा कर सोए तो ऐसी मीठी नींद आई कि उम्र भर न आई थी। घड़ी भर रात बाकी थी कि उनकी नींद खुली। फिर घोड़े पर सवार हुए और आगे चले। दिन निकलते-निकलते उन्हें एक पहाड़ के नजदीक एक फौज मिली। आपने समझा कि तुर्कों की फौज है। चिल्ला कर बोले - आ पहुँचे; आ पहुँचे! अरे यारो दौड़ो। ख्वाजा साहब के कदम धो-धो कर पीओ, आज ख्वाजा साहब ने वह काम किया कि रुस्तम के दादा से भी न हो सकता। दो करोड़ रूसी पहरा दे रहे थे और मैं पैंतरे बदलता हुआ दन से गायब, लकड़ी टेकी और उड़ा। दो करोड़ रूसी दौड़े, मगर मुझे पकड़ पाना दिल्लगी नहीं। कह दिया, लो हम लंबे होते हैं, चोरी से नहीं चले, डंके की चोट कह कर चले।
अभी वह यह हाँक लगा ही रहे थे कि पीछे से किसी ने दोनों हाथ पकड़ लिए और घोड़े से उतार लिया।
खोजी - ऐं, कौन है भई? मैं समझ गया मियाँ आजाद हैं।
मगर आजाद वहाँ कहाँ, यह रूसियों की फौज थी। उसे देखते ही खोजी का नशा हिरन हो गया। रूसियों ने उन्हें देख कर खूब तालियाँ बजाईं। खोजी दिल ही दिल में कटे जाते थे, मगर बचने की कोई तदबीर न सूझती थी। सिपाहियों ने खोजी को चपतें जमानी शुरू कीं। उधर देखा, इधर पड़ी। खोजी बिगड़ कर बोले - अच्छा गीदी, इस वक्त तो बेबस हूँ, अबकी फँसाओ तो कहूँ। कसम है अपने कदमों की, आज तक कभी किसी को नहीं सताया। और सब कुछ किया, पतंग उड़ाए, चंडू पिया, अफीम खाया, चरस के दम लगाए, मदक के छींटे उड़ाए, मगर किस मरदूद ने किसी गरीब को सताया हो!
यह सोच कर खोजी की आँखों से आँसू निकल आए।
एक सिपाही ने कहा - बस, अब उसको दिक न करो। पहले पूछ लो कि यह है कौन आदमी। एक बोला - यह तुर्की है, कपड़े कुछ बदल डाले हैं। दूसरे ने कहा - यह गोइंदा है, हमारी टोह में आया है।
औरों को भी यही शुबहा हुआ। कई आदमियों ने खोजी की तलाशी ली।
अब खोजी और सब असबाब तो दिखाते हैं, मगर अफीम की डिबिया नहीं खोलते।
एक रूसी - इसमें कौन चीज है? क्यों तुम इसको खोलने नहीं देते? हम जरूर देखेंगे।
खोजी - ओ गीदी, मारूँगा बंदूक, धुआँ उस पार हो जायगा। खबरदार जो डिबिया हाथ से छुई! अगर तुम्हारा दुश्मन हूँ तो मैं हूँ। मुझे चाहे मारो, चाहे कैद करो, पर मेरी डिबिया में हाथ न लगाना।
रूसियों को यकीन हो गया कि डिबिया में जरूर कोई कीमती चीज है। खोजी से डिबिया छीन ली। मगर अब उनमें आपस में लड़ाई होने लगी। एक कहता था, डिबिया में जो कुछ निकले वह सब आदमियों में बराबर-बराबर बाँट दी जाय। गरज डिबिया खोली गई तो अफीम निकली। सब के सब शर्मिंदा हुए। एक सिपाही ने कहा - इस डिबिया को दरिया में फेंक दो। इसी के लिए हममें तलवार चलते-चलते बची।
दूसरा बोला - इसे आग में जला दो।
खोजी - हम कहे देते हैं, डिबिया हमें वापस कर दो, नहीं हम बिगड़ जायँगे तो क्यामत आ जायगी। अभी तुम हमें नहीं जानते!
सिपाहियों ने समझ लिया कि यह कोई दीवाना है, पागलखाने से भाग आया है। उन्होंने खोजी को एक बड़े पिंजरे में बंद कर दिया। अब मियाँ खोजी की सिट्टी-पिट्टी भूल गई। चिल्ला कर बोले - हाय आजाद! अब तुम्हारी सूरत न देखेंगे। खैर, खोजी ने नमक का हक अदा कर दिया। अब वह भी कैद की मुसीबतें झेल रहा है और सिर्फ तुम्हारे लिए। एक बार जालिमों के पंजे से किसी तरह मार-कूट कर निकल भागे थे, मगर तकदीर ने फिर कैद में ला फँसाया। जवाँमरदों पर हमेशा मुसीबत आती है, इसका तो गम नहीं; गम इसी का है कि शायद अब तुमसे मुलाकात न होगी। खुदा तुम्हें खुश रखे, मेरी याद करते रहना -
शायद वह आएँ मेरे जनाजे प' दोस्तो,
आँखें खुली रहें मेरी दीदार के लिए।