आजाद-कथा / भाग 2 / खंड 80 / रतननाथ सरशार
उधर आजाद जब फौज से गायब हुए तो चारों तरफ उनकी तलाश होने लगी। दो सिपाही घूमते-घामते शाहजादी के महल की तरफ आ निकले। इत्तिफाक से खोजी भी अफीम की तलाश में घूम रहे थे। उन दोनों सिपाहियों ने खोजी को आजाद के साथ पहले देखा था। खोजी को देखते ही पकड़ लिया और आजाद का पता पूछने लगे।
खोजी - मैं क्या जानूँ कि आजाद पाशा कौन है। हाँ, नाम अलबत्ता सुना है।
एक सिपाही - तुम आजाद के साथ हिंदोस्तान से आए हो और तुमको खूब मालूम है कि आजाद पाशा कहाँ हैं।
खोजी - कौन आजाद के साथ आया है? मैं पठान हूँ, पेशावर से आया हूँ, मुझसे आजाद से वास्ता?
मगर वह दोनों सिपाही भी छँटे हुए थे, खोजी के झाँसे में न आए। खोजी ने जब देखा कि इन जालिमों से बचना मुश्किल है तो सोचे कि सिड़ी बन जाओ। कुछ का कुछ जवाब दो। मरना है तो दूसरे को ले कर मरो। मरना न होता तो अपना वतन छोड़ कर इतनी दूर आते ही क्यों। खास मजे में नवाब के यहाँ दनदनाते थे। उल्लू बना-बना कर मजे उड़ाते थे। चीनी की प्यालियों में मालवे की अफीम घुलती थी, चंडू के छींटे उड़ते थे, चरस के दम लगते थे। वह सब मजे छोड़-छाड़ कर उल्लू बने, मगर फँसे सो फँसे!
सिपाही - तुम्हारा नाम क्या है? सच-सच बता दो।
खोजी - कल तक दरिया चढ़ा था, आज चिड़िया दाना चुगेगी।
सिपाही - तुम्हारे बाप का क्या नाम था?
खोजी - हमको अपना नाम तो याद ही नहीं। बाप के नाम को कौन कहे?
सिपाही - तुम यहाँ किसके साथ आए?
खोजी - शैतान के साथ?
सिपाहियों ने जब देखा कि यह ऊल-जलूल बक रहा है तो उन्हें एक मोटे से दरख्त में बाँधा और बोले - ठीक-ठीक बतलाते हो तो बतला दो वरना हम तुम्हें फाँसी दे देंगे।
खोजी की आँखों से आँसू निकल पड़े। खुदा से दुआ माँगने लगे कि ऐ खुदा, मैं तो अब दुनिया से जा रहा हूँ, मगर मरते वक्त दुआ माँगता हूँ कि आजाद का बाल भी बाँका न हो।
आखिर सिपाहियों को खोजी के सिड़ी होने का यकीन आ ही गया। छोड़ दिया। खोजी के सिर से यह बला टली तो चहकने लगे। तुम लोग जिंदगी के मजे क्या जानो, हमने वह-वह मजे उड़ाए हैं कि सुनो तो फड़क जाओ। नवाब साहब की बदौलत बादशाह बने फिरते थे, सुबह से दस बजे तक चंडू के छींटे उड़े, फिर खाना खाया, सोए तो चार बजे की खबर लाए, चार बजे से अफीम घूमने लगी, पौंडे छोले और गँड़ेरियाँ चूसीं, इतने में नवाब साहब निकल आए। वैसे रईस यहाँ कहाँ? वहाँ के एक अदना कहार ने बीस लाख की शराब अपनी बिरादरी वालों को एक रात में पिला दी। एक कहार ने सोने-चाँदी की कुज्जियों में शराब पिलाई। इस पर एक बूढ़े खुर्राट ने कहा - न भाई पंचो, आपन मरजाद न छोड़ब। हमरे बाप यही कुज्जी माँ पिहिन। हमरे दादा पिहिन, अब हम कहाँ के बड़े रईस होइ गयन! महरा ने सोने-चाँदी की प्यालियाँ मँगवाईं और फकीरों को बाँट दीं। दस हजार प्यालियाँ चाँदी की थीं और दस हजार सोने की। जब बादशाह को यह खबर मिली तो हुक्म दिया कि जितने कहार आए हों, सबको एक-एक लहँगा दिलवा दिया जाय। अब इस गई-गुजरी हालत पर भी जो बात वहाँ है वह कहीं नहीं है।
सिपाही - आपके मुल्क में सिपाही तो अच्छे-अच्छे होंगे?
खोजी - हमारे मुल्क में एक से एक सिपाही मौजूद हैं। जो हैं अपने वक्त का रुस्तम।
सिपाही - आप भी तो वहाँ के पहलवान ही मालूम होते हैं।
खोजी - इस वक्त तो सर्दी ने मार डाला है, अब बुढ़ापा आया। जवानी में अलबत्ता मैं भी हाथी की दुम पकड़ लेता था तो हुमस नहीं सकता था। अब न वह शौक, न वह दिल, अब तो फकीरी अख्तियार की।
सिपाही - आपकी शादी भी हुई है?
खोजी - आपने भी वही बात पूछी! फकीर आदमी, शादी हुई न हुई, बराबर के लड़के हैं।
सिपाही - आप कुछ पढ़े-लिखे भी हैं?
खोजी - ऊह, पूछते हैं, पढ़े-लिखे हैं। यहाँ बिला पड़े ही आलिमफाजिल हैं; पढ़ने का मरज नहीं पालते, यह आरजा तो यहीं देखा, अपने यहाँ तो चंडू, चरस; मदक के चरचे रहते हैं। हाँ, अगले जमाने में पढ़ने-लिखने का भी रिवाज था।
सिपाही - तो आपका मुल्क जाहिलों ही से भरा हुआ है?
खोजी - तुम खुद गँवार हो। हमारे यहाँ एक-एक पहलवान ऐसे पड़े हैं जो तीन-तीन हजार हाथ जोड़ी के हिलाते हैं। दंडों पर झुक गए तो चार पाँच हजार दंड पेल डाले। गुलचले ऐसे कि अँधेरी रात में सिर्फ आवाज पर तीर लगाया और निशाना खाली न गया।
ये बातें करके, खोजी ने अफीम घोली और रूसियों से पीने के लिए कहा। और सबों ने तो इनकार किया, मगर एक मुसाफिर की शामत जो आई तो उसने एक चुस्की लगाई। जरा देर में नशे ने रंग जमाया तो झूमने लगा। साथियों ने कहकहा लगाया।
खोजी - एक दिन का जिक्र है कि नवाब साहब के यहाँ हम बैठे गप्पें उड़ा रहे थे। एक मौलवी साहब आए। यहाँ उस वक्त सरूर डटा हुआ था, हमने अर्ज की, मौलवी साहब, अगर हुक्म हो तो एक प्याली हाजिर करूँ। मौलवी ने आँखें नीली-पीली कीं और कहा - कोई मसखरा है बे तू! मैंने कहा - यार, ईमान से कह दो कि तुमने कभी अफीम पी है या नहीं? मौलवी साहब इतने जामे से बाहर हुए कि मुझे हजारों गालियाँ सुनाईं। आज बड़ी सर्दी है, हम ठिठुरे जाते हैं।
सिपाही - यह वक्त हवा खाने का है।
खोजी - खुदा की मार इस अक्ल पर। यह वक्त हवा खाने का है? यह वक्त आग तापने का है। हमारे मुल्क के रईस इस वक्त खिड़कियाँ बंद करके बैठे होंगे। हवा खाने की अच्छी कही, यहाँ तो रूह तक काँप रही है और आपको हवा खाने की सूझती है।
सिपाही - एक मुसाफिर ने हमसे कहा था कि हिंदोस्तान में लोग पुरानी रस्मों के बहुत पाबंद हैं। अब तक पुरानी लकीरें पीटते जाते हैं।
खोजी - तो क्या हमारे बाप-दादे बेवकूफ थे? उनकी रस्मों को जो न माने वह कपूत, जो रस्म जिस तरह पर चली आती है उसी तरह रहेगी।
सिपाही - अगर कोई रस्म खराब हो तो क्या उसमें तरमीम की जरूरत नहीं?
खोजी - लाख जरूरत हो तो क्या, पुरानी रस्मों में कभी तरमीम न करनी चाहिए। क्या वे लोग अहमक थे? एक आप ही बड़े अक्लमंद पैदा हुए!
रूसियों को खोजी की बातों में बड़ा मजा आया। उन्हें यकीन हो गया कि यह कोई दूसरा आदमी है। आजाद का दोस्त नहीं। खोजी को छोड़ दिया और कई दिन के बाद यह कुस्तुनतुनिया पहुँच गए।