आजाद-कथा / भाग 2 / खंड 96 / रतननाथ सरशार

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आजाद, मीडा, क्लारिसा और खोजी जहाज पर सवार हैं। आजाद लेडियों का दिल बहलाने के लिए लतीफें और चुटकुले कह रहे हैं। खोजी भी बीच-बीच में अपना जिक्र छेड़ देते हैं।

खोजी - एक दिन का जिक्र है, मैं होली के दिन बाजार निकला। लोगों ने मना किया कि आज बहार न निकलिए, वरना रंग पड़ जायगा। मैं उन दिनों बिलकुल गैंडा बना हुआ था। हाथी की दुम पकड़ ली तो हुमस न सका। चें से बोल कर चाहा कि भागे, मगर क्या मजाल! जिसने देखा, दातों उँगली दबाई कि वाह पट्ठे।

आजाद - ऐं, तब तक आप पट्ठे ही थे?

खोजी - मैं आपसे नहीं बोलता। सुनो मिस मीडा, हम बाजार में आए तो देखा, हरबोंग मचा हुआ है। कोई सौ आदमी के करीब जमा थे और रंग उछल रहा था। मेरे पास पेशकब्ज और तमंचा, बस क्या कहूँ।

आजाद - मगर करौली न थी?

खोजी - भई, मैंने कह दिया, मेरी बात न काटो। ललकार कर बोला, यारो, देख-भाल के, मरदों पर रंग डालना दिल्लगी नहीं है। एक पठान ने आगे बढ़के कहा - खाँ साहब, आप सिपाही आदमी हैं, इतना गुस्सा न कीजिए, होली के दिन रंग खेलना माफ है। मैंने कहा, सुनो भाई, तुम मुसलमान होके ऐसी बात कहते हो? पठान बोला, हजरत, हमारा इन लोगों से चोली-दामन का साथ है।

इतने में दो लौंडों ने पिचकारी तानी और रंग डाल दिया, ऊपर से उसी पठान ने पीछे से तान के एक जूता दिया तो खोपड़ी पिलपिली हो गई। फिरके जो देखता हूँ, तो डबल जूता, समझावन-बुझावन। मुसकिरा कर आगे बढ़ा।

आजाद - ऐं, जूता खाके आगे बढ़े!

मीडा - और उस जमाने में सिपाही भी थे, जिस पर जूता खाके चुप रहे?

आजाद - चुप रहते तो खैरियत थी, मुसकिराए भी। और बात भी दिल्लगी की थी, मुसकिराते न तो क्या रोते?

खोजी - मैं तो सिपाही हूँ, तलवार से बात करता हूँ, जूते से काम नहीं लेता। कहाँ तलवार, कहाँ जूती पैजार!

क्लारिसा - एक हाकिम ने गवाह से पूछा कि मुद्दई की माँ तुम्हारे सामने रोती थी या नहीं? गवाह ने कहा, जी हाँ, बाईं आँख से रोती थी।

खोजी - यह तो कोई लतीफा नहीं, मुझे रह-रहके खयाल आता है जिस आदमी ने होली में बेअदबी की थी, उसे पा जाऊँ तो खूब मरम्मत करूँ।

आजाद - अच्छा, अब घर पहुँच कर सबसे पहले उसकी मरम्मत कीजिएगा। यह लीजिए, स्वेज की नहर!

मिस मीडा ने कहा - हम जरा यहाँ की सैर करेंगे। आजाद को भी यह बात पसंद आई। इस्कंदरिया के उसी होटल में ठहरे जहाँ पहले टिके थे। खोजी अकड़ते हुए उनके पास आए और कहा, अब यहाँ जरा हमारे ठाट देखिएगा। पहले तो लोगों से दरियाफ्त कर लो कि हमने कुश्ती निकाली थी या नहीं? मारा चारों शाने चित, और किसको? उस पहलवान को जो सारे मिस्र में एक था। जिसका नाम ले कर मिस्र के पहलवानों के उस्ताद कान पकड़ते थे। उसको देखो तो आँखें खुल जायँ। किसी का बदन चोर होता है। उसका कद चोर है। पहले तो मुझे रेलता हुआ अखाड़े के बाहर ले गया और मैं भी चुपचाप चला गया, बस भाई, फिर तो मैंने कदम जमाके जो रेला दिया तो बोल गया। अब पेंचें होने लगीं, मगर वह उस्ताद, तो मैं जगत-उस्ताद! उसने पेंच किया, मैंने तोड़ किया। उसने दस्ती खींची, मैं बगली हुआ। उसने डंडा लगाया, मैंने उचक के काट खाया।

आजाद - सुभान-अल्लाह, यह पेंच सबसे बढ़ कर है। आपने इतनी तकलीफ क्यों की, बैठके कोसना क्यों न शुरू कर दिया?

दोनों लेडियाँ हँसने लगीं तो खोजी भी मुसकिराए, समझे कि मेरी बहादुरी पर दोनों खुश हो रही हैं। बोले - बस, जनाब, दो घंटे तक बराबर की लड़ाई रही, वह कड़ियल जवान, मोटा-ताजा, पँचहत्था। उसका कद क्या बताऊँ, बस जैसे हुसैनाबाद का सतखंडा। उसमें कूबत और यहाँ उस्तादी करतब, मैंने उसे हँफा-हँफा के मारा, जब उसका दम टूट गया तो चुर्र-मुर्र कर डाला। बस जनाब, किला जग के पेंच पर मारा तो चारों शाने चित। कोई पचास हजार आदमी देख रहे थे। तमाम शहर में मशहूर था कि हिंद का पहलवान आया।

आजाद - भाई जान, सुनो, अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनने की सनद नहीं। जब जानें कि हमारे सामने पटकनी दो और पहले उस पहलवान को भी देख लें कि कैसा है, तुम्हारी-उसकी जोड़ है या नहीं।

खोजी - कुछ अजीब आदमी हैं आप, कहता जाता हूँ कि ग्रांडील पँचहत्था जवान है, आपको यकीन नहीं आता, हम इसको क्या करें।

इतने में होटल के दो-एक आदमी खोजी को देख कर जमा हो गए, खोजी ने पूछा - क्यों भाई, हमने यहाँ एक कुश्ती निकाली थी या नहीं?

एक आदमी - वाह, हमारे होटल के बौने ने तो उठा के दे पटका था, चले वहाँ से कुश्ती निकालने!

खोजी - ओ गीदी, झूठ बोलना ओर सुअर खाना बराबर है।

दूसरा आदमी - हाथ-पाँव तोड़के धर देगा। आप और कुश्ती!

खोजी - जी हाँ, हम और कुश्ती! कोई आए तब न! (ताल ठोक कर) बुलवाओ उस पहलवान को।

इतने में बौना सामने आ खड़ा हुआ और आते ही खोजी को चिढ़ाने लगा। ख्वाजा साहब ने कहा - यही पहलवान है जिसको हमने पटका था। आजाद बहुत हँसे, बस! टाँय-टाँय फिस। बौने से कुश्ती निकाली तो क्या। किसी बराबरवाले से कुश्ती निकालते तो जानते। इसी पर घमंड था।

खोजी - साहब, कहने और करने में बड़ा फर्क है, अगर उससे हाथ मिलाएँ तो जाहिर हो जाय।

बौना ताल ठोंक के सामने आ खड़ा हुआ और खोजी भी पैंतरे बदल कर पहुँचे। आजाद, मीडा और होटल के बहुत से आदमी उन दोनों के गिर्द टट लगाके खड़े हो गए।

खोजी - आओ, आओ बच्चा। आज भी गुद्दा दूँगा।

बौना - आज तुम्हारी खोपड़ी है और मेरा जूता।

खोजी - ऐसा गुद्दा दूँ कि उम्र भर याद रहे।

बौना - इनाम तो मिलेगा ही, फिर हमारा क्या हर्ज है?

अब सुनिए कि दोनों पहलवान गुँथ गए। खोजी ने घूँसा ताना, बौने ने मुँह चिढ़ाया। खोजी ने चपत जमाई, बौने ने धौल लगाई। दोनों की चाँद घुटी-घुटाई, चिकनी थी। इस जोर की आवाज आती थी कि सुननेवालों और देखनेवालों का जी खुश हो जाता था।

मीडा - खूब आवाज आई, तड़ाक। एक और।

क्लारिसा - ओफ, मारे हँसी के पेट में बल पड़ गए।

खोजी - हँसी क्यों न आएगी! जिसकी खोपड़ी पर पड़ती है उसी का दिल जानता है।

आजाद - अरे यार, जरा जोर से चपतबाजी हो।

खोजी - देखिए तो, दम के दम में बेदम किए देता हूँ कि नहीं।

आजाद - मगर यार; यह तो बिलकुल बौना है।

खोजी - हाय अफसोस, तुम अभी बिलकुल लौंडे हो। अरे कंबख्त, इसका कद चोर है, यों देखने में कुछ नहीं मालूम होता, मगर अखाड़े में चिट और लँगोट बाँध कर खड़ा हुआ, बस फिर देखिए, बदन की क्या कैफियत होती है। बिलकुल गैंडा मालूम होता है। कोई कहता है, दुम-कटा भैंसा है, कोई कहता है, हाथी का पाठा है, कोई नागौरी बैल बताता है, कोई कहता है जमुनापारी बकरा है, मगर मुझे इसका गम नहीं। जानता हूँ कि कोई बोला और मैंने उठाके दे मारा।

खोजी ने कई बार झल्ला-झल्ला कर चपतें लगाईं। एक बार इत्तिफाक से उसके हाथ में इनकी गरदन आ गई, ख्वाजा साहब ने बहुत हाथ-पैर मारे, बहुत कुछ जोर लगाए, मगर उसने दोनों हाथों से गरदन पकड़ लीं और लटक गया। खोजी कुछ झुके, उनका झुकना था कि उसने जोर से मुक्का दिया और दो-तीन लप्पड़ लगा के भागा। खोजी उसके पीछे दौड़े, उसने कमरे में जा कर अंदर से दरवाजा बंद कर लिया। खोजी ने चपतें खाईं तो लोग हँसे और मिस क्लारिसा ने तालियाँ बजाईं। तब तो आप बहुत ही झल्लाए, आसमान सिर पर उठा लिया, ओ गीदी, अगर शरीफ का बच्चा है तो बाहर आ जा। गिरा तो भाग खड़ा हुआ?

आजाद - अरे मियाँ, यह हुआ क्या? कौन गिरा, कौन जीता? हम तो उस तरफ देख रहे थे! मालूम नहीं हुआ, किसने दे मारा।

खोजी - ऐसी बात काहे को देखने लगे थे? अंजर-पंजर ढीले कर दिए गीदी के। वल्लाह, कुश्ती देखने के काबिल थी। मैंने एक नया पेंच किया था। उसके गिरने के वक्त ऐसी आवाज आई कि यह मालूम होता था, जैसे पहाड़ फट पड़ा, आपने सुना ही होगा!

आजाद - वह है कहाँ? क्या खोदके जमीन में गाड़ दिया आपने?

खोजी - नहीं भाई, हारे हुए पर हाथ नहीं उठाता, और कसम है, पूरा जोर नहीं किया, वरना मेरे मुकाबिले में क्या ठहरता। हाथ पाँव तोड़के चुर्र-मुर्र कर डालता। नानी ही तो मर गई कंबख्त की, बस रोता हुआ भागा।

आजाद - मगर ख्वाजा साहब, गिरा तो वह और यह आपकी पीठ पर इतनी गर्द क्यों लगी है?

खोजी - भई, यहाँ पर हम भी कायल हो गए।

क्लारिसा - इसी तरह उस दफा भी तुमने कुश्ती निकाली थी?

मीडा - बड़े शरम की बात हे कि जरा सा बौना तुमसे न गिराया गया।

खोजी - जी चाहता है, दोनों हाथों से अपना सिर पीटूँ। कहता जाता हूँ कि उस गीदी का कद चोर है। आखिर मेरा बदन चोर है या नहीं, इस वक्त मेरे बदन पर अँगरखा नहीं है। खासा देव बना हुआ हूँ। अभी कपड़े पहन लूँ तो पिद्दी मालूम होने लगूँ। बस यही फर्क समझो। अव्वल तो मैं गिरा नहीं, अपनी ही जोर में आप आ गया। दूसरे उसका कद चोर है, फिर आप कैसे कहते हैं कि जरा सा बौना था?

दूसरे दिन आजाद दोनों लेडियों को ले कर बाजार की एक कोठी से बाहर आते थे, तो क्या देखते हैं कि खोजी अफीम की पिनक में ऊँघते हुए चले आ रहे हैं। सामने से साठ-सत्तर दुंबे जाते थे। दुंबेवाले ने पुकारा - हटो-हटो, बचो-बचो, वह अपे में हों तो बचें। नतीजा यह हुआ कि एक दुंबे से धक्का लगा तो धम से सड़क पर आ रहे और गिरते ही चौंक के गुल मचाया - कोई है? लाना करौली। आज अपनी जान और इसकी जान एक करूँगा। खुदा जाने, इसको मेरे साथ क्या अदावत पड़ गई। अरे वाह बे बहुरूपिए, आज हमारे मुकाबिले के लिए साँड़नियाँ लाया है। अबे, यहाँ हर वक्त चौकन्ने रहते हैं। उस दफा बजाज की दुकान पर आए तो मिठाई खाने में आई, आज यह हाथ-पाँव तोड़ डालने से क्या मिला। घुटने लहूलुहान हो गए। अच्छा बचा, अब तो मैं होशियार हो गया हूँ, अबकी समझूँगा।