आजाद-कथा / भाग 2 / खंड 98 / रतननाथ सरशार

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शाहजादा हुमायूँ फर की मौत जिसने सुनी, कलेजा हाथों से थाम लिया। लोगों का खयाल था कि सिपहआरा यह सदमा बरदाश्त न कर सकेगी और सिसक-सिसक कर शाहजादे की याद में जान दे देगी। घर में किसी की हिम्मत नहीं पड़ती थी कि सिपहआरा को समझाए या तसकीन दे, अगर किसी ने डरते-डरते समझाया भी तो वह और रोने लगती और कहती - क्या अब तुम्हारी यह मर्जी है कि मैं रोऊँ भी न, दिल ही में घुट-घुट कर मरूँ। दो-तीन दिन तक वह कब्र पर जा कर फूल चुनती रही, कभी कब्र को चूमती, कभी खुदा से दुआ माँगती कि ऐ खुदा, शाहजादे बहादुर की सूरत दिखा दे, कभी आप ही आप मुसकिराती, कभी कब्र की चट-चट बलाएँ लेती। एक आँख से हँसती, एक आँख से रोती। चौथे दिन वह अपनी बहनों के साथ वहाँ गई। चमन में टहलते-टहलते उसे आजाद की याद आ गई। हुस्नआरा से बोली - बहन, अगर दूल्हा भाई आ जायँ तो हमारे दिल को तसकीन हो। खुदा ने चाहा तो वह दो-चार दिन में आना ही चाहते हैं।

हुस्नआरा - अखबारों से तो मालूम होता है कि लड़ाई खतम हो गई।

सिपहआरा - कल मैं अम्माँजान को भी लाऊँगी

एक उस्तानी जी भी उनके पास थीं। उस्तानी जी से किसी फकीर ने कहा था कि जुमेरात के दिन शाहजादा जी उठेगा। और किसी को तो इस बात का यकीन न आता था, मगर उस्तानी जी को इसका पूरा यकीन था। बोलीं - कल नहीं, परसों बेगम साहब को लाना।

सिपहआरा - उस्तानी जी, अगर मैं यहीं दस-पाँच दिन रहूँ तो कैसा हो?

उस्तानी - बेटा, तुम हो किस फिक्र में! जुमेरात के दिन देखो तो, अल्लाह क्या करता है, परसों ही तो जुमेरात है, दो दिन तो बात करते कटते हैं।

सिपहआरा - खुशी का तो एक महीना भी कुछ नहीं मालूम होता, मगर रंज की एक रात पहाड़ हो जाती है। खैर, दो दिन और सही, शायद आप ही का कहना सच निकले।

हुस्नआरा - उस्तानी जी जो कहेंगी, समझ-बूझ कर कहेंगी। शायद अल्लाह को इस गम के बाद खुशी दिखानी मंजूर हो।

सिपहआरा ने कब्र पर चढ़ाने के लिए फूल तोड़ते हुए कहा - फूल तो दो-एक दिन हँस भी लेते हैं, मगर कलियाँ बिन खिले मुरझा जाती हैं, उन पर हमें बड़ा तरस आता है।

उस्तानी - जो खिले वे भी मुरझा गए, जो नहीं खिले वे भी मुरझा गए। इनसान का भी यही हाल है, आदमी समझता है कि मौत कभी आएगी ही नहीं। मकान बनवाएगा तो सोचेगा कि हजार बरस तक इसी बुनियाद ऐसी ही रहे; लेकिन यह खबर ही नहीं कि 'सब ठाट पड़ा रह जावेगा जब लाद चलेगा बनजारा।' सबसे अच्छे वे लोग हैं जिनको न खुशी से खुशी होती है, न गम से गम।

हुस्नआरा - क्यों उस्तानी जी, आप को इस फकीर की बात का यकीन है?

उस्तानी - अब साफ-साफ कह दूँ, आज के दूसरे दिन हुमायूँ फर यहीं न बैठे हों तो सही।

हुस्नआरा - तुम्हारे मुँह में घी-शक्कर, कल भी कुछ दूर नहीं है, कल के बाद ही तो परसों आएगा।

सिपहआरा - बाजीजान, मुझे तो जरा यकीन नहीं आता। भला आज तक किसी ने यह भी सुना है कि मुर्दा कब्र से निकल आया?

यह बात होती ही थी कि कब्र के पास से हँसी की आवाज आई, सबको हैरत थी कि यह कहकहा किसने लगाया। किसी की समझ में यह बात न आई।

दस बजते-बजते सब की सब घर लौट आईं। यहाँ पहिले ही से एक शाह साहब बैठे हुए थे। चारों बहनों को देखते ही महरी ने आ कर कहा - हुजूर, यह बड़े पहुँचे हुए फकीर हैं, यह ऐसी बातें कहते हैं, जिनसे मालूम होता है कि शाहजादा साहब के बारे में लोगों को धोखा हुआ था। वह मरे नहीं हैं, बल्कि जिंदा हैं। उस्तानी जी ने शाह साहब को अंदर बुलाया और बोलीं - आपको इस वक्त बड़ी तकलीफ हुई, मगर हम ऐसी मुसीबत में गिरफ्तार हैं कि खुदा सातवें दुश्मन को भी न दिखाए।

शाह साहब - खुदा की कारसाजी में दखल देना छोटा मुँह बड़ी बात है। मगर मेरा दिल गवाही देता है कि शाहजादा हुमायूँ फर जिंदा हैं। यों तो यह बात मुहाल मालूम होती है; लेकिन इनसान क्या, और उसकी समझ क्या, इतना तो किसी को मालूम ही नहीं कि हम कौन हैं, फिर कोई खुदा की बातों को क्या समझेगा?

उस्तानी - आप अभी तो यहीं रहेंगे?

शाह साहब - मैं उस वक्त यहाँ से जाऊँगा, जब दूल्हा के हाथ में दुलहिन का हाथ होगा।

उस्तानी - मगर दुलहिन को तो इस बात का यकीन ही नहीं। आता आप कुछ कमाल दिखाएँ तो यकीन आए।

शाह साहब - अच्छा तो देखिए -

शाह साहब ने थोड़ी सी उरद मँगवाई और उस पर कुछ पढ़ कर जमीन पर फेंक दी। आध घंटा भी न गुजरा था कि वहाँ की जमीन फट गई।

बड़ी बेगम - अब इससे बढ़ कर क्या कमाल हो सकता है।

सिपहआरा - अम्माँजान, अब मेरा दिल गवाही देता है कि शायद शाह साहब ठीक कहते हों! ( हुस्नआरा से) बाजी, अब तो आप फकीरों के कमाल की कायल हुई।

उस्तानी - हाँ बेटा, इसमें शक क्या है। फकीरों का कोई आज तक मुकाबिला कर सका है? वह लोग बादशाही की क्या हकीकत समझते हैं!

शाह साहब - फकीरों पर शक उन्हीं लोगों को होता है जो कामिल फकीरों की हालत से वाकिफ नहीं, वरना फकीरों ने मुर्दों को जिंदा कर दिया है, मंजिलों से आपस में बातें की हैं, और आगे का हाल बता दिया है।

बेगम साहब ने अपने रिश्तेदारों को बुलाया और यह खबर सुनाई। इस पर लोग तरह-तरह के शुबहे करने लगे। उन्हें यकीन ही नहीं था कि मुर्दा कभी जिंदा हो सकता है।

दूसरे दिन बेगम साहब ने खूब तैयारियाँ कीं। घर भर में सिर्फ हुस्नआरा के चेहरे से रंज जाहिर होता था, बाकी सब खुश थे कि मुँह-माँगी मुराद पाई। हुस्नआरा को खौफ था, कहीं सिपहआरा की जान के लाले न पड़ जायँ।

तमाम शहर में यह खबर मशहूर हो गई और जुमेरात को चार घड़ी दिन रहे से मेला जमा होने लगा। वह भीड़ हो गई कि कंधे से कंधा छिलता था। लोगों मे ये बातें हो रही थीं -

एक - मुझे तो यकीन है कि शाहजादे आज जिंदा हो जायँगे।

दूसरा - भला फकीरों की बात कहीं गलत होती है?

तीसरा - और ऐसे कामिल फकीर की!

चौथा - विंध्याचल पहाड़ की चोटी पर बरसों नीम की पत्तियाँ उबाल कर नमक के साथ खाई हैं। कसम खुदा की, इसमें जरा झूठ नहीं।

पाँचवाँ - सुलतान अली की बहू तीन दिन तक खून थूका कीं, वैद्य भी आए, हकीम भी आए, पर किसी से कुछ न हुआ, तब मैं जाके इन्हीं शाह साहब को बुला लाया। जला कर एक नजर उसको देखा और बोले, क्या ऐसा हो सकता है कि सब लोग वहाँ से हट जायँ, सिर्फ मैं और यह लड़की रहे। लड़की के बाप को शाह साहब पर पूरा भरोसा था। सब आदमियों को हटाने लगा। यह देख कर शाह साहब हँसे और कहा, इस लड़की को खून नहीं आता! यह तो बिलकुल अच्छी है। यह कह कर शाह साहब ने लड़की के सिर पर हाथ रखा, तब से आज तक उसे खून नहीं आया। फकीरों ही से दुनिया कायम है।

इतने में खबर हुई कि दुलहिन घर से रवाना हो गई हैं। तमाशा देखने वालों की भीड़ और भी ज्यादा हो गई, उधर सिपहआरा बेगम ने घर से बाहर पाँव निकाला तो बड़ी बेगम ने कहा - खुदा ने चाहा तो आज फतह है, अब हमें जरा भी शक नहीं रहा।

सिपहआरा - अम्माँजान, बस अब इधर या उधर, या तो शाहजादे को लेके आऊँगी, या वहीं मेरी भी कब्र बनेगी।

बेगम - बेटी, इस वक्त बदसगुनी की बातें न करो।

सिपहआरा - अम्माँजान, दूध तो बख्श दो; यह आखिरी दीदार है। बहन, कहा-सुना माफ करना, खुदा के लिए मेरा मातम न करना। मेरी तसवीर आबनूस के संदूक में है, जब तुम हँसो-बोलेा तो मेरी तसवीर भी सामने रख लिया करना। ऐ अम्माँजान, तुम रोती क्यों हो?

बहारबेगम - कैसी बातें करती हो सिपहआरा, वाह!

रूहअफजा - बहन, जो ऐसा ही है तो न जाओ।

बड़ी बेगम - हुस्नआरा, बहन को समझाओ।

हुस्नआरा की रोते-रोते हिचकी बंध गई। मुश्किल से बोली - क्या समझाऊँ।

सिपहआरा - अम्माँजान, आपसे एक अर्ज है, मेरी कब्र भी शाहजादे की कब्र के पास ही बनवाना। जब तक तुम अपने मुँह से न कहोगी, मैं कदम बाहर न रखूँगी।

बड़ी बेगम - भला बेटी, मेरे मुँह से यह बात निकलेगी! लोगो, इसको समझाओ, इसे क्या हो गया है।

उस्तानी - आप अच्छा कह दें, बस।

सिपहआरा - मैं अच्छा-अच्छा नहीं जानती, जो मैं कहूँ वह कहिए।

उस्तानी - फिर दिल को मजबूत करके कह दो साहब।

बड़ी बेगम - ना, हमसे न कहा जायगा।

हुस्नआरा - बहन, जो तुम कहती हो वही होगा। अल्लाह वह घड़ी न दिखाए, अब अब हठ न करो।

सिपहआरा - मेरी कब्र पर कभी-कभी आँसू बहा लिया करना बाजीजान। मैं सोचती हूँ कि तुम्हारा दिल कैसे बहलेगा।

यह कह कर सिपहआरा बहनों से गले मिली और बस की बस रवाना हुई। जब सवारियाँ किले के फाटक पर पहुँचीं तो शाह साहब ने हुक्म दिया, कि दुलहिन घोड़े पर सवार हो कर अंदर दाखिल हो। बेगम साहब ने हुक्म दिया, घोड़ा लाया जाय। सिपहआरा घोड़े पर सवार हुई और घोड़े को उड़ाती हुई कब्र के पास पहुँच कर बोली - अब क्या हुक्म होता है? खुदा आओगे या हमको भी यहीं सुलाओगे। हम हर तरह राजी हैं।

सिपहआरा का इतना कहना था कि सामने रोशनी नजर आई। ऐसी तेज रोशनी थी कि सबकी नजर झपक गई और एक लहमे में शाहजादा हुमायूँ फर घोड़े पर सवार आते हुए दिखाई दिए। उन्हें देखते ही लोगों ने इतना गुल मचाया कि सारा किला गूँज उठा। सबको हैरत थी कि यह क्या माजरा है। वह मुर्दा जिसकी कब्र बन गई हो और जिसको मरे हुए हफ्तों गुजर गए हों, वह क्यों कर जी उठा!

हुस्नआरा और शाहजादे की बहन खुरशेद में बातें होने लगीं -

हुस्नआरा - क्या कहूँ, कुछ समझ में नहीं आता!

खुरशेद - हमारी अक्ल भी कुछ काम नहीं करती।

हुस्नआरा - तुम अच्छी तरह कह सकती हो कि हुमायूँ फर यही हैं?

खुरशेद - हाँ साहब, यही हें। यही मेरा भाई है।

और लोगों की भी यही हैरत हो रही थी। अकसर आदमियों को यकीन ही नहीं आता था कि यह शहजादा हैं?

एक आदमी - भाई, खुदा की जात से कोई बात बईद नहीं। मगर यह सारी करामात शाह साहब की है।

तीसरा - जभी तो दुआ में इतनी ताकत है।