आज्ञा न मानने वाले / नरेन्द्र कोहली
वे अत्यंत धर्मभीरु और शांत स्वभाव के व्यक्ति हैं। कभी प्याज़ तो खाया नहीं, मांस मछली क्या खाएँगे। बातचीत में अत्यंत सभ्य और मिष्टभाषी हैं। प्राय: सामने वाले की बात सहज ही मान जाने वाले व्यक्ति हैं। कहते हैं, विरोध में क्या धरा है और झगड़ना तो चांडालों का काम है। शोर शराबे से दूर रहते हैं। घर में कोई उत्सव हो और ढोलकी बज रही हो तो वे किसी पड़ौसी के घर जा बैठते हैं। कौन औरतों की चायं-चायं में बैठे।
ऐसे में जब उन्होंने भोजन का निमंत्रण भिजवाया तो मैं कुछ चकित ही हुआ। रात का भोजन था और वह भी बैंक्वेट हाल में।
"आख़िर बात क्या है?" मैंने पूछ ही लिया।
"जी! हमारे विवाह की पच्चीसवीं वर्षगाँठ है।" वे किसी षोडषी के समान लजा कर बोले।
मन हुआ कि पूछ ही लें, "क्या! आपने कभी विवाह भी किया था?" पर पूछा नहीं। ऐसे निरामीष व्यक्ति से ऐसा नॉनवेजेटेरियन प्रश्न पूछता तो सभ्य समाज में इसे निकृष्ट कोटि की हिंसा ही कहा जाता। मैं उनके साथ ऐसा क्रूर मज़ाक करने का दुस्साहस नहीं कर सका।
"तो आपने अपनी इस निरीह पत्नी के साथ भी पच्चीस वर्ष काट ही दिए?" मैंने कहा।
"आप भी कोहली साहब!" वे पुन: लजा गए, "इसके साथ ही तो काटे हैं। दूसरी कोई है कहाँ कि उसके साथ काटता।"
मैंने उनके पीड़ा को पहचाना। घाव बहुत गहरा था। दूसरी कोई थी ही नहीं, तो उसके साथ पच्चीस वर्ष कहाँ से बिताते।
"सच पूछिए तो," वे पुन: बोले, "मैंने क्या बिताए, इसी ने मेरे साथ पच्चीस वर्ष बिता दिए।"
मुझे उनके वाक्यों में रुदन का करुण स्वर स्पष्ट सुनाई दे रहा था, "जिस से आशा नहीं थी, उसी ने पच्चीस वर्ष बिता दिए। वह किसी के साथ भाग जाती तो शायद मुक्ति की साँस लेते। पर उसने वैसी कृपा ही नहीं की। जोंक के समान चिपकी ही रही। छोड़ा ही नहीं तो बिताने तो थे ही-पच्चीस क्या और पचास क्या!"
"तो आप आएँगे न?"
"आना ही पड़ेगा भाई!" मैंने कहा, "आपके जीवन का इतना बड़ा उत्सव है। नहीं आएँगे तो आप हमें दिल्ली में रहने देंगे क्या?"
कहना तो वे चाहते थे कि दिल्ली क्या उनके बाप की है? पर बोले, "नहीं साहब! ऐसी क्या बात है।"
मैं ठीक समय से अर्थात साढ़े सात बजे बैंक्वेट हॉल में पहुँच गया। दिल्ली में रात्रि के भोजन के निमंत्रण का अधिकृत समय साढ़े सात बजे का ही होता है। जबकि साढ़े सात बजे घर वालों में से भी वहाँ कोई उपस्थित नहीं होता। मैं कई बार बड़ी गंभीरता से सोच चुका हूँ कि यदि कोई भोजन का समय नौ बजे रख ले तो क्या दिल्ली नगर निगम उसे दिल्ली से निकाल देगा? किंतु अभी तक मुझे अपने इस तात्विक प्रश्न का उत्तर मिला नहीं है।
यहाँ भी वही था। साढ़े सात बजे हॉल में चिड़िया का पूत भी नहीं था। अब मैं लौट कर घर तो जा नहीं सकता था। आया था तो आ ही गया था।
बैरे से पूछा, "गुप्ता जी की पार्टी है न?"
"पार्टी तो है। रोज़ ही होती है। पर मैं तो अनपढ़ हूँ साहब!" उसने कहा, "या तो मैनेजर साहब जानते होंगे, या फिर बाहर बोर्ड पर लिखा होगा कि किन की पार्टी है।"
साढ़े आठ बजे सारा हॉल अकस्मात ही गूँज उठा, जैसे सैकड़ों बम एक साथ फट पड़े हों। मैं डरा कि हॉल की छत न भी उड़ी तो मेरे कानों के पर्दे फट जाएँगे।
"क्यों भाई! यह क्या हो रहा है?"
"अंग्रेज़ी ढोल बज रहा है। इसे यहाँ डी. जे. कहते हैं।" बैरे ने बताया।
"पर क्यों बज रहा है?"
"क्योंकि साहब लोग अपने अतिथियों के कान फाड़ने के लिए पैसे देते हैं।"
मैं उजबक-सा उसकी ओर देखता रह गया।
"इस बाजे पर लड़के लड़कियाँ नाचेंगे न!" उसने बताया, "लोग लुगाइयाँ भी पीछे नहीं रहेंगी।"
"पर वे नाचने वाले मजनूँ हैं कहाँ?" मैंने पूछा।
"तहखाने में हैं। नाचने के लिए तैयारी कर रहे हैं।"
"मेकअप कर रहे हैं-सफ़ाई पोताई?" मैंने पूछा, "कपड़े बदल रहे हैं?"
"नहीं! कपड़े तो घर से बदल कर आए हैं।" वह बोला, "नाचने का साहस इकठ्ठा कर रहे हैं नहीं! पेट्रोल पानी भर रहे हैं।"
मैंने उससे और कुछ नहीं पूछा। जाने वह क्या बक रहा था। नाचने के लिए क्या साहस? नाचना कला है, उसके लिए गुरु की आवश्यकता है, अभ्यास चाहिए, साहस का क्या काम? और फिर यह पेट्रोल पानी मूर्ख कहीं का।
लोग आ गए और मुझे पता भी नहीं चला-मैंने धिक्कारा और तहखाने की सीढ़ियाँ उतर गया।
वहाँ भट्टी तो नहीं थी, पर मदिरालय खुला हुआ था। लड़के लड़कियाँ ही नहीं, गुप्ता जी भी छक कर पी रहे थे। उन्होंने मुझे देखा तो मेरी बाँह पकड़ कर झूल गए, "आइए कोहली साहब! बच्चे नहीं आए?" वे अत्यंत निराश थे। बच्चों से उनका तात्पर्य शायद मेरी पत्नी से था। मैं समझ गया, वे मेरी पत्नी को मदिरापान कराने का स्वप्न देख रहे थे।
"नहीं आए, यही अच्छा हुआ।" मैंने सोचा।
मैं लौट पड़ा।
"अरे कहाँ जा रहे हैं?" गुप्ता जी मुझ से लिपट नहीं गए, मेरे साथ लटक गए, कोई चमगादड़ भी क्या लटकता होगा।
"पिएँगे नहीं?" उन्होंने पूछा।
"नहीं!"
"पिएँगे नहीं, तो नाचेंगे कैसे?"
"पी कर कोई कैसे नाच सकता है?" मैंने कहा।
उनकी टाँगें कुछ लटपटा गईं। झूम कर बोले, "नाच न जाने आँगन टेढ़ा।"
मैं ऊपर हॉल में आ गया। बैठा अपने कानों पर अत्याचार करवाता रहा। कानों के पर्दे फट रहे थे और सिर दुख रहा था। बैंक्वेट हॉल की छत कुल आठ फुट ऊँची थी और बैंड था कि तोपों के समान गरज रहा था। मन में कई बार आया कि उठ कर चल दूँ। पर यह भी जानता था कि अब घर पहुँच कर खाना भी नहीं मिलेगा। पत्नी कहेगी, "शगुन भी दे आए और खाना भी नहीं खाया।"
भोजन के लिए रुकना तो मेरी नियति था किंतु कानों पर ये ढेरों मूसल खाते रहना मेरे बस का नहीं था।
ढूँढ़ कर गुप्ता जी से कहा, "ज़रा इस शोर को हल्का करवा दीजिए, यहाँ तो बैठना भी कठिन हो रहा है।"
वे हँसे, "तो बाहर चले जाइए।"
"क्या कहना चाहते हैं आप?"
"अरे शोर ही न हुआ, तो नाच कैसा?"
"क्या मतलब?" मैंने पूछा।
"आप स्वयं समझदार हैं।" वे बोले, "ज़रा सोचिए तो कि कानफाडू शोर नहीं होगा, तो दिमाग़ ख़राब कैसे होगा?"
"तो दिमाग़ ख़राब करने की आवश्यकता ही क्या है?" मैंने पूछा।
"दिमाग़ ख़राब नहीं होगा, लोगों की अंतड़ियों में दर्द नहीं होगा, तो वे चीखेंगे कैसे?"
"पर आप क्यों चाहते हैं कि लोग चीखें?" मैंने पूछा।
"चीखेंगे नहीं तो उछलेंगे कैसे?"
"उछलना क्यों आवश्यक है?" मैं चकित था-गुप्ता जी ने लोगों को भोजन के लिए बुलाया था या उछलने के लिए?
"मेरा तात्पर्य है कि नाचेंगे कैसे? आप पिछड़े हुए दकियानूसी आदमी हैं, कोहली साहब! इतनी-सी बात भी नहीं समझते हैं कि अब उछलने कूदने को, बंदरों के समान लोट लगाने को, जानवरों के समान चीखने चिल्लाने को, अपने सिर के बाल नोचने को और अपने कपड़े फाड़ने को ही नाच कहते हैं। यही आधुनिक कला है। पॉप डांस इज़ मॉडर्न डांस।"
मैं चकित था कि आधुनिक कला का यह पारखी आज तक मेरी दृष्टि से छिपा कैसे रहा।
"और जिन लोगों को आपने आग्रहपूर्वक, हाथ जोड़ कर भोजन के लिए निमंत्रित किया है, उनका क्या होगा?"
"उन्हें नाचने वालों के सामने परौस दिया जाएगा।" वे बोले, "जो हमारा नाच नहीं देखेगा, उसे हम अपना खाना क्यों खिलाएँगे?"
"ये ऐसे गिर पड़ क्यों रहे हैं?"
"आँगन टेढ़ा है न।" गुप्ता जी मस्ती से झूमते हुए आगे बढ़ गए।
मेरा ध्यान नाचने वालों की ओर चला गया। गुप्ता जी की जिस बहू को घर में साड़ी के स्थान पर, सलवार कमीज़ पहनने की भी मनाही थी, वह आज हाथ में गिलास लिए झूमते हुए अपने सास ससुर के विवाह की पच्चीसवीं वर्षगाँठ मना रही थी। उसे पता नहीं था कि उसके कपड़े कहाँ जा रहे थे। उसका शरीर किससे टकरा रहा था, किस से लिपट रहा था, किससे रगड़ खा रहा था।
श्रीमती गुप्ता भी एक ओर दाँत दिखाती हुई, प्रसन्नचित्ता खड़ी थीं। उनके हाथ में गिलास नहीं था किंतु वे प्रसन्नता की मदिरा छक कर पी चुकी थीं।
"नमस्ते। आपको बधाई हो।" मैंने कहा।
उन्होंने अपने कान पर हाथ रख उत्सुकता से मेरी ओर देखा, "शोर के कारण कुछ सुनाई नहीं पड़ रहा है।"
"तो इस शोर को कुछ कम करवाइए।" मैंने कहा, "वह शोर भी किस काम का, जिस में आप किसी की बधाई भी स्वीकार न कर सकें।"
"नहीं मानते।" वे साक्षात हर्षिता थीं, "कुछ कहती हूँ तो मुझे भी हाथ पक़ड़ कर नाचने के लिए घसीट लेते हैं।"
मैं देख रहा था कि वे उनकी शिकायत कर रही थीं किंतु उस शिकायत में उतना ही माधुर्य था, जितना उन गोपियों की वाणी में हुआ करता था, जो यशोदा के पास, कृष्ण द्वारा अपनी मटकी फोड़े जाने की शिकायत करने जाती थीं।
दस बजे खाना खुला तो उस लूटपाट में जो कुछ उपलब्ध हो सका, उसे तत्काल पेट में फेंका और भागने की की। विदा होते हुए अपने आतिथेय का धन्यवाद करना नहीं भूला, "सब कुछ बहुत अच्छा था गुप्ता जी! पर यह शोर शराबा मुझसे सहन नहीं होता।"
"क्या करें, बच्चे नहीं मानते।" वे पी कर भी काफ़ी शालीन थे, "अब न तो उन्हें अपने घर से निकाल सकते हैं और न स्वयं घर छोड़ कर हरिद्वार जा सकते हैं। तालाब में रह कर मगरमच्छ से बैर कैसे करें। उनकी बात माननी ही पड़ती है।"
मैं जानता था, कई लोग पी कर ही शालीन हो सकते हैं।
"जी! आजकल के बच्चे। यह नई पीढ़ी-इनका तो सारा कुछ टेढ़ा मेढ़ा हो गया है।" मैं चल पड़ा।
उनका बेटा सामने पड़ गया। वह अपने चार पांच मित्रो के साथ हाथ में गिलास लिए खड़ा था।
"तुम्हारे पिताजी कह रहे थे कि तुम उनका कहना नहीं मानते।" मैंने कहा, "यह सारा ढोल धमाका। यह पीना पिलाना।"
"क्यों मानूँ।" उसने बड़े अशिष्टि ढंग से कहा, "आर्डर वे करें और बिल मैं दूँ। नहीं देता बिल। अपने शौक पूरे करने के लिए वे अपनी जेब से बिल नहीं चुका सकते। हाँ! नहीं मानता मैं उनका कहना। श्रवणकुमार नहीं हूँ मैं कि बाप को दारू भी अपने पैसों से पिलाऊँ।"
मेरा सिर घूम गया। आधार भूमि ही कुछ ऐसी टेढ़ी-मेढ़ी और ऊबड़-खाबड़ हो गई थी कि मेरी समझ में नहीं आया कि मैं चल पड़ा और वे खड़े रह गए या मैं खड़ा रहा और वे चले गए।