आज का समाजवाद / वर्तमान सदी में मार्क्सवाद / गोपाल प्रधान

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हंगरी के मार्क्सवादी चिंतक इस्तवान मेजारोस फ़िलहाल सबसे महत्वपूर्ण माने जाते हैं। उनकी किताब 'बीयांड कैपिटल' की चर्चा हम पहले ही कर चुके हैं। किताब का पहला और दूसरा खंड इंग्लैंड में 1995 में मर्लिन प्रेस से छपा था। फिर अमेरिका में मंथली रिव्यू प्रेस से छपा। भारत में 2000 में के.पी. बागची ने उसे छापा। पहला खंड है 'द अनकंट्रोलेबिलिटी आफ कैपिटल एंड इट्स क्रिटीक' जिसमें वे पूँजी की अराजकता का विश्लेषण करते हैं। दूसरा खंड 'कनफ्रंटिंग द स्ट्रक्चरल क्राइसिस आफ द कैपिटल सिस्टम' है जिसमें वे पूँजी के वर्तमान संरचनात्मक संकट को व्याख्यायित करते हैं। मेजारोस के अर्थशास्त्र संबंधी लेखन को भी पढ़ते हुए ध्यान रखना पड़ता है कि उनका मूल क्षेत्र दर्शन है और इस क्षेत्र की ओर उनका आना वर्तमान समस्याओं को समझने समझाने के क्रम में हुआ है।

उनकी सबसे बड़ी विशेषता है कुछ नई धारणाओं का उपयोग जिनसे परिचय के बगैर उनके लेखन को समझना मुश्किल है। मसलन वे पूँजीवाद (कैपिटलिज्म) के बजाय पूँजी (कैपिटल) शब्द का प्रयोग बेहतर समझते हैं और दोनों के बीच फर्क बताने के लिए यह कहते हैं कि मार्क्स ने अपने ग्रंथ का नाम 'पूँजी' यूँ ही नहीं रखा था। 'बीयांड कैपिटल' की भूमिका में उन्होंने बुर्जुआ नेताओं, खासकर मार्गरेट थैचर द्वारा टिना (देयर इज नो अल्टरनेटिव) तथा उन्हीं नेताओं द्वारा राजनीति को 'आर्ट आफ पासिबल' बताने के बीच निहित अंतर्विरोध को रेखांकित किया है। इसी भूमिका में उन्होंने किताब के शीर्षक के तीन अर्थ बताए हैं -

1. मार्क्स ने खुद ही 'पूँजी' लिखते हुए इसका मतलब स्पष्ट किया था जिसका अर्थ है सिर्फ पूँजीवाद के परे नहीं बल्कि पूँजी के ही परे जाना।

2. मार्क्स द्वारा 'पूँजी' के पहले खंड और उनकी मृत्यु के बाद प्रकाशित शेष दो खंडों तथा 'ग्रुंड्रीस' और 'थियरीज आफ सरप्लस वैल्यू' के भी परे जाना क्योंकि ये सभी उनकी मूल परियोजना के शुरुआती दौर तक ही पहुँचे थे और उनके द्वारा सोचे गए काम को पूरी तरह प्रतिबिंबित नहीं करते।

3. मार्क्सीय परियोजना के भी परे जाना क्योंकि यह उन्नीसवीं सदी के माल उत्पादक समाज के वैश्विक उत्थान की परिस्थितियों को ही व्यक्त करती है और बीसवीं सदी में उसका जो रूप उभर कर सामने आया वह उनके सैद्धांतिक विश्लेषण से बाहर रहा।

उनके अनुसार पूँजीवाद, पूँजी की मौजूदगी का महज एक रूप है। पूँजीवाद के खात्मे के साथ ही पूँजी का अंत नहीं होता। इसे समाजवाद के लिए संघर्ष से जोड़ते हुए वे कहते हैं कि समाजवाद का काम पूँजी के प्रभुत्व का खात्मा है। इस प्रभुत्व को व्यक्त करने के लिए वे इसे सोशल मेटाबोलिक रिप्रोडक्शन की व्यवस्था कहते हैं जिसका मतलब ऐसी व्यवस्था है जो सामाजिक रूप से चयापचय की ऐसी प्रणाली बना लेती है जो अपने आप इसका पुनरुत्पादन करती रहे। इसे ही वे मार्क्स द्वारा प्रयुक्त पद आवयविक प्रणाली (आर्गेनिक सिस्टम) कहते हैं। पूँजी का यह प्रभुत्व मेजारोस के मुताबिक महज पिछली तीन सदियों के दौरान सामान्य माल उत्पादन की व्यवस्था के रूप में सामने आया है। इसने मनुष्य को 'अनिवार्य श्रम शक्ति' के बतौर महज 'उत्पादन की लागत' में बदल कर जिंदा श्रमिक को भी 'विक्रेय माल' बना देता है। मनुष्यों में आपस में अथवा प्रकृति के साथ उसकी उत्पादक अंत:क्रिया के पुराने रूप उपयोग के लिए उत्पादन की ओर लक्षित होते थे जिसमें कुछ हद तक आत्मनिर्भरता होती थी लेकिन पूँजी का आंतरिक तर्क किसी भी मात्रा में न समा सकनेवाली मानव आवश्यकताओं तक महदूद रह ही नहीं सकता था। अंत में पूँजीवाद ने आत्मनिर्भरता के इसी आधार का नाश कर के उपयोग को गणनीय और अनंत 'विनिमय मूल्य' की पूजापरक अपरिहार्यता के अधीन कर दिया। इसने अपने आपको ऐसी लौह प्रणाली के रूप में पेश किया जिससे पार पाना संभव नहीं दिखाई देता। लेकिन पूँजीवाद की जिंदगी ही अबाध विस्तार की जरूरतों को अनिवार्यतः पूरा करने पर निर्भर है जिसके कारण इसके सामने अनेक ऐतिहासिक सीमाबद्धताएँ प्रकट होती हैं। इन्हीं सीमाओं को ध्यान में रखते हुए बीसवीं सदी में इसकी अतृप्त लिप्सा पर रोक लगाने की असफल कोशिशें की गईं। इनसे बस एक तरह का मिश्रण ही हो सका, कोई संरचनागत समाधान नहीं निकला बल्कि पूँजी लगातार संकटों में ही फँसती गई और इन अवरोधों से उसके अनेक अंतर्विरोध भी सामने आए।

पूँजीवाद मूलत: विस्तारोन्मुखी और संचयवृत्तियुक्त होता है इसलिए मनुष्य की जरूरतों को संतुष्ट करना इसका ध्येय ही नहीं होता। इसमें पूँजी का विस्तार अपने आप में एक मकसद हो जाता है और इसलिए इस व्यवस्था का निरंतर पुनरुत्पादन इसकी मजबूरी बन जाती है। श्रम से इसकी शत्रुता जन्मजात होती है और निर्णय की प्रक्रिया में श्रमिक की कोई भागीदारी इसके लिए असह्य होती है। चूँकि यह शत्रुता संरचनागत है इसलिए इस व्यवस्था में सुधार या इस पर कोई नियंत्रण असंभव है। सामाजिक जनवाद के सुधारवाद का दिवाला यूँ ही नहीं निकला। सुधारवाद के अंत ने सीधे समाजवाद के लिए क्रांतिकारी आक्रामकता का रास्ता खोल दिया है। सुधारवाद की राजनीति प्रमुख रूप से बुर्जुआ संसदीय सीमाओं के भीतर चलती थी इसलिए इसका एक मतलब संसद के बाहर क्रांतिकारी सक्रियता को ब्ढ़ाना भी है।

पूँजी की व्यवस्था में तीन अंतर्विरोध मौजूद होते हैं-

(1) उत्पादन और उसके नियंत्रण के बीच, (2) उत्पादन और उपभोग के बीच, और (3) उत्पादन और उत्पादित वस्तुओं के वितरण के बीच।

इन अंतर्विरोधों के चलते विघटनकारी और केंद्रापसारी वृत्ति इसका गुण होती है। इसी वृत्ति को काबू में रखने के लिए राष्ट्र राज्य की संस्था खोजी गई लेकिन वह भी इसे नियंत्रित करने में असफल ही रही है। यह समाधान तात्कालिक था इसका पता इसी बात से चलता है कि आजकल हरेक समस्या का समाधान वैश्वीकरण नामक जादू की छड़ी में खोजा जा रहा है। सच तो यह है कि अपनी शुरुआत से ही यह व्यवस्था वैश्विक रही है। इसे पूरी तरह से खत्म करने के लक्ष्य का पहला चरण पूँजीवाद की पराजय है। उनका कहना है कि जिन्हें समाजवादी क्रांति कहा गया वे दरअसल इसी काम को पूरा कर सकी थीं। वे उत्तर पूँजीवादी समाज की ही रचना कर सकी थीं जिसे समाजवाद की ओर जाना था लेकिन इसे ही समाजवादी क्रांति मान लेने से समाजवादी कार्यभार शुरू ही नहीं हो सका।

इस खंड के पहले ही अध्याय में वे कहते हैं कि हेगेल की आलोचनात्मक धार को फिर से अर्जित किया जाना चाहिए। अपने जीवन में ही हेगेल सत्ता के लिए असुविधाजनक हो गए थे, मरने के बाद तो उन्हें व्यावहारिक रूप से दफना ही दिया गया। इसके लिए वे कहते हैं कि हेगेल की महान उपलब्धियों को ग्रहण करते हुए भी पूँजी को अनादि अनंत की तरह पेश करने के उनके काम की क्रांतिकारी आलोचना करनी होगी। मार्क्स की धारणाओं को समझने के लिए हेगेल को पुनःप्राप्त करने की इस कोशिश की। वे तीन वजहें बताते हैं। पहली कि 1840 दशक में मार्क्स के बौद्धिक निर्माण के समय की राजनीतिक और दार्शनिक बहसों के चलते ऐसा करना अपरिहार्य है। असल में 1841 में बर्लिन विश्वविद्यालय में मार्क्स और किर्केगाद ने साथ साथ शेलिंग के हेगेल विरोधी व्याख्यान सुने लेकिन दोनों ने राह अलग अलग अपनाई। उस समय का माहौल ही ऐसा था कि आपको हेगेल के समर्थन या विरोध में खड़ा होना ही पड़ता। दूसरी वजह उनके अनुसार यह है कि जर्मन बुर्जुआ द्वारा हेगेल को पूरी तरह से खत्म कर देने की कोशिश के मद्दे नजर उनकी उपलब्धियों को विकसित करना जरूरी था। हेगेल का समर्थन करते हुए भी मार्क्स ने उनकी समस्याओं को समझा और उसका आलोचनात्मक सार सुरक्षित रखते हुए भी उसका क्रांतिकारी परिवर्तन के लिए सकारात्मक निषेध किया। मजेदार बात यह है कि हेगेल का विरोध न सिर्फ पूँजीवाद ने किया जिसने ही जरूरत पड़ने पर उन्हें स्थापित किया था और जरूरत खत्म हो जाने पर उन्हें दफना दिया बल्कि समाजवादी आंदोलन में भी उनके स्वीकार अस्वीकार से इसके उतार चढ़ाव का गहरा रिश्ता रहा है। बर्नस्टाइन के नेतृत्व में हेगेल के द्वंद्ववाद के मुकाबले कांट के विधेयवाद का उत्थान हुआ और दूसरे इंटरनेशनल के सामाजिक जनवाद की राजनीति के पतन तक इसका बोलबाला रहा। असल में हेगेल का दर्शन महत्तर सामाजिक टकरावों के बीच मूलत: विकसित हुआ था और बाद के दिनों में हेगेल द्वारा ही अनुदारवादी समायोजनों के बावजूद संक्रमण की गतिमयता के निशान कभी खत्म नहीं किए जा सके। यहाँ तक कि सोवियत संघ में नौकरशाही के उत्थान के साथ हेगेल के साथ एक तरह का नकारात्मक भाव जोड़ने की कोशिश हुई। तीसरी वजह यह है कि वास्तव में 1848 के क्रांतिकारी माहौल में हेगेल बुर्जुआ वर्ग के लिए लज्जा का विषय हो गए थे और मार्क्सवाद तथा उनके दर्शन के बीच के संपर्कों पर परदा डालना संभव नहीं रह गया था।

बाद के चिंतकों में वे लुकाच की इसीलिए प्रशंसा करते हैं क्योंकि उन्होंने हेगेल को अपनाने की कोशिश की थी। लुकाच की प्रासंगिकता मेजारोस के मुताबिक इसलिए भी बढ़ गई है क्योंकि सोवियत संघ के बीसवीं सदी में उभरे अंतर्विरोधों के चलते इसकी आलोचनाओं को दोबारा गंभरता से देखने की जरूरत पड़ी है। इस नाते उन्हें 'हिस्ट्री एंड क्लास कांशसनेस' ऐसा काम लगता है जो सोवियत संघ के जन्म के साथ जुड़ी ऐतिहासिक परिस्थितियों और बाद में हुए राजनीतिक बौद्धिक विकासों के मामले में उसकी समस्याओं की निशानदेही करता है। मेजारोस के अनुसार इस किताब की चर्चा के कारण निम्नांकित हैं-

1. पहली बड़ी समाजवादी क्रांति 'जंजीर की सबसे कमजोर कड़ी' में हुई। इससे अनेक सैद्धांतिक सवाल जुड़े हुए हैं। आधिकारिक सोवियत साहित्य में इसे सकारात्मक अर्थ में पेश किया जाता है जबकि लुकाच ने इस शब्दावली का प्रयोग रूस के सामाजार्थिक ढाँचे के अत्यधिक पिछड़ेपन पर जोर देने के लिए किया। ध्यातव्य है कि सोवियत समाज की बाद में सामने आने वाली ज्यादातर समस्याओं की जड़ें रूस के इन हालात में हैं। यहाँ हमें क्रांति के बाद उपजे समाज के अंतर्विरोधों और उसके बारे में दार्शनिक सूत्रीकरण के बीच जीवंत संबंध की पहचान मिलती है।

2. चूँकि लुकाच पश्चिम की असफल क्रांतियों में से एक के भागीदार रहे थे इसलिए इस किताब में अत्यंत प्रतिकूल परिस्थितियों में भी क्रांति की गारंटी करनेवाले तत्वों की तलाश मिलती है।

3. हंगरी की क्रांति असफलता से उन्होंने कुछेक निष्कर्ष निकाले थे जिनमें पार्टी का नौकरशाहीकरण एक मुद्दा है। हालाँकि उन्होंने इसे सिर्फ नेतृत्व की मसीहाई भाषा में चिह्नित किया लेकिन बाद में रूस में आई विकृतियों के प्रसंग में इसका महत्व स्पष्ट हुआ।

4. उन्होंने रूसी क्रांति के प्रभाव से बुर्जुआ बुद्धिजीवियों के कम्युनिस्ट आंदोलन में आगमन से पैदा होनेवाली समस्याओं को भी उठाया। ये लोग अपने साथ अपना एजेंडा और मकसद ले कर आए थे। हालाँकि बाद में इस बिंदु पर अतिरिक्त जोर दे कर पश्चिमी मार्क्सवाद की कोटि भी निर्मित की गई लेकिन उसका उद्देश्य लुकाच जैसे बुद्धिजीवियों को मार्क्सवाद से बाहर साबित कर के उनके प्रयासों का फातिहा पढ़ना था।

मेजारोस ने नव सामाजिक आंदोलनों का परिप्रेक्ष्य भी मार्क्सवाद के संदर्भ में उठाया है। पर्यावरण आंदोलन के संदर्भ से वे बताते हैं कि पूँजीवादी विकास के शुरुआती दिनों में उसके अनेक नकारात्मक पहलुओं और प्रवृत्तियों को थोड़ा अनदेखा किया जा सकता था। लेकिन आज उनकी अनदेखी धरती के विनाश की कीमत पर ही संभव है। इसी पृष्ठभूमि में तमाम तरह के पर्यावरणवादी आंदोलन उभरे। पूँजीवादी देशों में सुधारोन्मुख ग्रीन पार्टियों के रूप में ये आंदोलन राजनीति में भी जगह बनाने की कोशिश करते हैं। वे पर्यावरण के विनाश से चिंतित व्यक्तियों को आकर्षित करते हैं लेकिन इसके समाजार्थिक कारणों को अपरिभाषित छोड़ देते हैं। ऐसा उन्होंने शायद व्यापक चुनावी आधार बनाने के लिए किया लेकिन आरंभिक सफलता के बाद जिस तेजी से वे हाशिए पर पहुँच गईं उससे साबित होता है कि पर्यावरण के विनाश के उनके नेताओं द्वारा सोचे गए कारणों से अधिक गहरे कारण हैं। असल में आज न केवल विकास के साथ जुड़े हुए खतरे अभूतपूर्व रूप से बढ़ गए हैं बल्कि विश्व पूँजी की व्यवस्था के अंतर्विरोध ही पूरी तरह से परिपक्व हो गए हैं और ये खतरे इस तरह समूची धरती को अपनी जद में ले चुके हैं कि उनका कोई आंशिक समाधान सोचना संभव नहीं रह गया है।

जिस नई धारणा की चर्चा फास्टर ने पूँजी की चरम सीमाओं की सक्रियता के नाम से किया है उससे संबंधित अध्याय में वे पूँजी के वर्तमान संकट के प्रसंग में चार मुद्दों पर बात करना जरूरी समझते हैं जिन्हें वे एक दूसरे से अलग नहीं मानते बल्कि कहते हैं कि उनमें से हरेक बड़े अंतर्विरोधों का केंद्रबिंदु है लेकिन ये सभी मिल कर ही एक दूसरे की मारकता को भीषण बना देते हैं। भूमंडलीय पूँजी और राष्ट्र राज्य की सीमाओं के बीच का विरोध कम से कम तीन बुनियादी अंतर्विरोधों से जुड़ा हुआ है - इजारेदारी और प्रतियोगिता के बीच, श्रम की प्रक्रिया के अधिकाधिक समाजीकरण और उसके उत्पाद के भेदभावपरक अधिग्रहण के बीच तथा अबाध रूप से बढ़ते वैश्विक श्रम विभाजन और असमान रूप से विकासशील पूँजी की वैश्विक व्यवस्था के निरंतर बदलते शक्ति केंद्रों द्वारा प्रभुता स्थापित करने की कोशिशों के बीच। इन सब से मिल कर पैदा हुई बेरोजगारी की समस्या ने विश्व पूँजी व्यवस्था के अंतर्विरोधों और शत्रुताओं को सर्वाधिक विस्फोटक रूप दे दिया है।

पहले खंड के तेरहवें अध्याय में वे राज्य को उखाड़ फेंकने के समाजवादी कार्यभार के प्रसंग में राज्य के बारे में मार्क्स के राजनीतिक सिद्धांत के मुख्य तत्वों को बिंदुवार बताते हैं। यह वर्णन बहुत कुछ पूर्व समाजवादी शासनों के कटु अनुभवों से प्रभावित है इसलिए एक तरह का आदर्शवाद भी इसमें मौजूद है।

1. समूचे समाज के क्रांतिकारी रूपांतरण के जरिए राज्य का अतिक्रमण करना होगा न कि किसी सरकारी आदेश या तमाम राजनीतिक/प्रशासनिक उपायों के जरिए इसे उखाड़ा जाएगा।

2. आगामी क्रांति को अगर सामाजार्थिक शोषण की सीमाओं में ही कैद हो कर नहीं रह जाना है तो उसे केवल राजनीतिक होने के बजाय सामाजिक क्रांति होना होगा।

3. अतीत की राजनीतिक क्रांतियों ने आंशिकता और सार्विकता के बीच जिस अंतर्विरोध को पैदा किया था तथा 'नागरिक समाज' के प्रभावी तबकों के पक्ष में सामाजिक सार्विकता को राजनीतिक आंशिकता के अधीन कर दिया था सामाजिक क्रांति उस अंतर्विरोध को ही खत्म कर देती है।

4. मुक्ति का सामाजिक अभिकर्ता सर्वहारा इसीलिए होता है क्योंकि पूँजीवादी समाज के शत्रुतापूर्ण अंतर्विरोधों की परिपक्वता के चलते वह सामाजिक व्यवस्था को उखाड़ फेंकने के किए बाध्य होता है और वह अपने आप को समाज पर नई शासक आंशिकता के रूप में थोपने में अक्षम होता है।

5. राजनीतिक और सामाजिक/आर्थिक संघर्ष द्वंद्वात्मक रूप से एक्ताबद्ध होते हैं और इसीलिए सामाजिक/ आर्थिक पहलू की उपेक्षा राजनीतिक पहलू को उसके यथार्थ से वंचित कर देती है।

6. समाजवादी कदमों के लिए वस्तुगत परिस्थितियों की गैरमौजूदगी में राजनीतिक सत्ता पर अपरिपक्व अवस्था में कब्जा हो जाने पर आप विरोधी की ही नीतियों को लागू करने लगते हैं।

7. कोई भी सफल सामाजिक क्रांति स्थानीय या राष्ट्रीय ही नहीं होगी। राजनीतिक क्रांति ही अपनी आंशिकता के चलते इन सीमाओं तक महदूद रह सकती है। इसके विपरीत उसे वैश्विक होना होगा यानी राज्य का अतिक्रमण भी वैश्विक स्तर पर करना होगा।

किताब का दूसरा खंड ज्यादा मजेदार है जिसमें वे पूँजीवाद के मिथकों को एक एक कर ध्वस्त करते हैं। इसमें कुछ ऐसे लेख भी संकलित कर दिए गए हैं जो हालिया प्रश्नों को ले कर लिखे गए हैं। इसका पहला अध्याय संपदा के उत्पादन तथा उत्पादन की समृद्धि का विवेचन करता है। इसमें वे वास्तविक जरूरतों की अनदेखी कर के उत्पादन में बढ़ोत्तरी करने की पूँजीवादी रवायत के मुकाबले उन जरूरतों की दृष्टि से मनुष्य की उत्पादक क्षमताओं के विकास का वैकल्पिक नजरिया अपनाने की सलाह देते हैं क्योंकि जरूरत और संपदा-उत्पादन में संबंध विच्छेद विकसित और सुविधा-संपन्न पूँजीवादी देशों में भी नहीं चल पा रहा - व्यापक मानवता की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने की तो बात ही छोड़िए। उत्पादन का वर्तमान उद्देश्य जैसा है वैसा ही सदा से नहीं रहा इस बात के समर्थन में वे मार्क्स को उद्धृत करते हैं जिनके मुताबिक प्राचीन काल में उत्पादन का लक्ष्य संपदा बटोरना नहीं था, बल्कि मानव जीवन उत्पादन का लक्ष्य था। वह स्थिति आज के विपरीत थी जब मानव जीवन का उद्देश्य उत्पादन हो गया है और उत्पादन का लक्ष्य संपदा हो गई है। इस बदलाव के लिए उपयोग मूल्य को विनिमय मूल्य से अलगाना और उसके अधीन लाना जरूरी था। मेजारोस संपदा के उत्पादन के बरक्स उत्पादन की समृद्धि पर जोर देते हैं। इसके बाद वे बताते हैं कि पूँजीवाद असल में बरबादी को बढ़ावा देता है। इसका उदाहरण 'यूज एंड थ्रो' की संस्कृति है। अब टिकाऊ चीजों को बनाना उसका लक्ष्य नहीं रह गया है। यहाँ तक कि गुणवत्तावाली चीजें बनाने के मुकाबले उसका जोर उत्पादन की मात्रा पर होता है। मेजारोस के अनुसार पूँजीवाद उपयोग में निरंतर गिरावट को जन्म देता है। उपयोग की घटती हुई दर पूँजीवादी उत्पादन और उपभोग के सभी बुनियादी पहलुओं, वस्तुओं और सेवाओं, कारखाना और मशीनरी तथा श्रम शक्ति पर नकारात्मक प्रभाव डालती है। इसका ज्वलंत उदाहरण सैन्य-औद्योगिक परिक्षेत्र है।

मार्क्स ने कहा था कि पूँजी जीवंत अंतर्विरोध है इसलिए हमें इसके साथ जुड़ी किसी भी प्रवृत्ति पर सोचते समय उसकी विपरीत प्रवृत्ति को भी ध्यान में रखना चाहिए। मसलन पूँजी की एकाधिकारी प्रवृत्ति का विरोध प्रतियोगिता से होता है, केंद्रीकरण का विरोध बिखराव से, अंतर्राष्ट्रीकरण का राष्ट्रवाद और क्षेत्रीय विशिष्टता से तथा संतुलन का विरोध संतुलन-भंग से होता है। यह भी दिमाग में रखना होगा कि पूँजी की व्यवस्था का विकास असमान होता है इसलिए ये सभी प्रवृत्तियाँ और प्रति-प्रवृत्तियाँ एक साथ सभी देशों में नहीं भी प्रकट हो सकती हैं।

पूँजीवाद ने एक समय मुक्त प्रतियोगिता से जन्म लिया था लेकिन प्रतियोगिता के विध्वंसक होने पर उसे 'संगठित पूँजीवाद' की शक्ल दी गई। इसका अर्थ संकट का खत्मा नहीं था लेकिन कुछ मार्क्सवादी विचारकों में भ्रम फैलाने में यह बदलाव कामयाब रहा। फ्रैंकफुर्त स्कूल के विचारकों ने इसे ही एक नई संरचना मान लिया और मजदूरों को समाहित कर लेने की व्यवस्था की क्षमता को बढ़ा-चढ़ा कर आँकने लगे।

मार्क्स के पूँजी संबंधी समूची परियोजना की एक झलक देने के लिए मेजारोस ग्रुंड्रीस से एल लंबा उद्धरण देते हैं जिसके मुताबिक 'बुर्जुआ समाज उत्पादन का सबसे विकसित और सबसे जटिल ऐतिहासिक संगठन है। जिन कोटियों के जरिए इसके रिश्तों को व्यक्त किया जाता है, इसकी संरचना को समझा जाता है वे उन सभी लुप्तप्राय समाजों की संरचनाओं और उत्पादन संबंधों को समझने की अंतर्दृष्टि प्रदान करती हैं जिनके ध्वंसावशेषों और तत्वों से यह निर्मित हुआ है, जिनके कुछेक अविजित अवशेष अब भी इसके साथ लगे लिपटे हुए हैं, जिनके छिपे मानी इसमें पूरी तरह प्रकट हुए हैं।' इसके आधार पर वे नतीजा निकालते हैं कि मार्क्स का इरादा सिर्फ 'पूँजीवादी उत्पादन' की कमियों की गणना करना नहीं था। वे मानव समाज को उन परिस्थितियों से बाहर निकालना चाहते थे जिनमें मनुष्य की जरूरतों की संतुष्टि को 'पूँजी के उत्पादन' के अधीन कर दिया गया था।

किताब के तकरीबन अंत में मेजारोस ने लिखा है कि वर्तमान दौर समाजवाद के लिए रक्षात्मक के बजाय आक्रामक रणनीति का है। इस दौर की शुरुआत की बात करते हुए इसे वे पूँजी के संरचनागत संकट से जोड़ते हैं और इस संकट के लक्षण गिनाते हुए बताते हैं कि (1) यह सार्वभौमिक है, उत्पादन की किसी विशेष शाखा तक महदूद नहीं है, (2) इसका प्रभाव क्षेत्र सचमुच भूमंडलीय है, किसी देश विशेष तक सीमित नहीं है, (3) यह दीर्घकालीन, निरंतर, स्थायी है, पहले के संकटों की तरह चक्रीय नहीं है, और (4) इसका प्रकटीकरण रेंगने की गति से हो रहा है, नाटकीय विस्फोट या भहराव की तरह नहीं। वे इसकी शुरुआत 1960 दशक के अंत से मानते हुए तीन घटनाओं का उल्लेख करते हैं जिनमें यह संकट फूट पड़ा था - (1) वियतनाम युद्ध में पराजय के साथ अमेरिकी प्रत्यक्ष आक्रामक दखलंदाजी का खात्मा। (2) मई 1968 में फ्रांस और अन्य 'विकसित' पूँजीवादी केंद्रों में लोगों का 'व्यवस्था' के प्रति विक्षोभ का प्रकट होना। (3) चेकोस्लोवाकिया और पोलैंड जैसे उत्तर औद्योगिक मुल्कों में सुधार की कोशिशों का दमन जिनके जरिए पूँजी के संरचनागत संकट की संपूर्णता का अंदाजा लगा। मेजारोस का कहना है कि इन घटनाओं के जरिए उन परिघटनाओं का पता चलता है जो तब से आज तक की तमाम घटनाओं के पीछे कार्यरत रही हैं और वे हैं - (1) 'महानगरीय' या विकसित पूँजीवादी देशों के अल्पविकसित देशों के साथ शोषण के संबंध एकतरफा तौर पर निर्धारित होने के बजाय परस्पर निर्भरता से संचालित होने लगे। (2) पश्चिमी पूँजीवादी देशों के अंदरूनी और आपसी अंतर्विरोध और समस्याओं का उभार तेज हो गया। (3) 'वस्तुत: मौजूद समाजवाद' के उत्तर औद्योगिक देशों और समाजों के संकट आपसी विवादों के जरिए प्रकट होने लगे।

समाजवादी आक्रामकता के दौर की राजनीतिक कार्यवाही के लिहाज से वे कहते हैं कि 'अर्थतंत्र की पुनर्संरचना' तक अपने आप को सीमित रखने की रणनीति पर दोबारा सोचना चाहिए और उसकी जगह वर्तमान संदर्भ में 'राजनीति के क्रांतिकारी पुनर्गठन' के कार्यभार पर बल देना चाहिए। इस लिहाज से गैर-संसदीय कार्यवाही का अपार महत्व है। सच्ची समाजवादी 'आर्थिक पुनर्संरचना' की अनिवार्य पूर्वशर्त 'राजनीति का जनोन्मुखी पुनर्गठन' है।

मेजारोस का कहना है कि मार्क्स ने पूँजी के दो मूल्य बताए थे - उपयोग मूल्य और विनिमय मूल्य। पूँजीवाद असल में विनिमय मूल्य की प्रभुता से जुड़ा हुआ है, जबकि मनुष्य की जरूरतें उपयोग मूल्य से जुड़ी हुई हैं। इसलिए लेन देन के क्षेत्र में उपयोग मूल्य के विस्तार से पूँजीवाद कमजोर होता है। इसी तत्व को लेबोविट्ज लैटिन अमेरिकी देशों के समाजवादी प्रयोगों में फलीभूत होता हुआ पाते हैं और इसी को वे 21वीं सदी के समाजवाद की संज्ञा देते हैं जो बीसवीं सदी के प्रयोगों से भिन्न है। यही तर्क बहुत कुछ जिजैक का भी है जो 'अकुपाई वाल स्ट्रीट' आंदोलन के बाद खासे चर्चित हुए हैं। वे पूँजी के वर्तमान संकट का कारण विनियम मूल्य की बेलगाम बढ़ोत्तरी में देखते हैं।

ऊपर के विवरण से स्पष्ट है कि रणधीर सिंह द्वारा अपनी किताब मेजारोस को समर्पित करने के बावजूद मेजारोस से उनके सैद्धांतिक विरोध सतही नहीं बल्कि बहुत कुछ बुनियादी हैं। इसकी जड़ दोनों के अनुभव की दुनिया अलग होने में निहित है। रणधीर सिंह तीसरी दुनिया के एक देश में समाजवादी आंदोलन के विकास से जुड़े हुए हैं और यह चीज उनकी सैद्धांतिकी को ठोस जमीन देती है जबकि मेजारोस के लेखन में अमेरिका में उनकी रिहायश और 1956 में हंगरी पर सोवियत हमले की अनुगूँजें सुनी जा सकती हैं।

मेजारोस की दूसरी महत्वपूर्ण किताब 'द चैलेंज एंड बर्डेन आफ हिस्टारिकल टाइम' मंथली रिव्यू प्रेस से 2008 में छपी और भारत में इसका प्रकाशन 2009 में अकार बुक्स ने किया। इस किताब का उपशीर्षक 'सोशलिज्म इन ट्वेंटी फर्स्ट सेंचुरी' है। भूमिका जान बेलामी फास्टर ने लिखी है जिसमें वे बताते हैं कि मेजारोस की सैद्धांतिक अंतर्दृष्टि आज लैटिन अमेरिकी देशों में जारी परिवर्तन के नायकों की वजह से एक भौतिक शक्ति में बदल चुकी है। वेनेजुएला के राष्ट्रपति ह्यूगो शावेज द्वारा उनकी खुलेआम प्रशंसा को अनेक अखबारों और पत्रिकाओं ने प्रमुखता से प्रकाशित किया। मेजारोस प्रसिद्ध मार्क्सवादी चिंतक जार्ज लुकाच के शिष्य रहे। 1956 में रूसी आक्रमण के बाद उन्होंने हंगरी छोड़ दिया और अमेरिका में दर्शन के प्रोफेसर बने और मार्क्स, लुकाच और सार्त्र पर किताबें लिखीं। 1971 के इर्द गिर्द उन्होंने पूँजी के वैश्विक संकट का सवाल उठाया तथा दर्शन संबंधी काम को किनारे कर के इस विषय पर लिखना शुरू किया। फास्टर ने उनके सैद्धांतिक अवदान की चर्चा करते हुए उनके द्वारा प्रयुक्त पदों की नवीनता का जिक्र किया है। उनमें से कुछेक का जिक्र हम पहले कर चुके हैं। एक अन्य धारणा 'पूँजी की चरम सीमाओं की सक्रियता' है जो वर्तमान संकट का बड़ा कारण है। वे मेजारोस द्वारा सोवियत संघ को उत्तर पूँजीवादी समाज मानने को भी उनका योगदान मानते हैं जो पूँजी की संपूर्ण व्यवस्था को खत्म न कर सका। ध्यातव्य है कि मेजारोस ऐसा किसी जिम्मेदारी से पीछा छुड़ाने के लिए नहीं बल्कि बेहतर समाजवाद के निर्माण का कार्यभार स्पष्ट करने के लिए करते हैं। वे उनका यह योगदान भी स्वीकार करते हैं कि मेजारोस पूँजी के पूरी तरह से खात्मे की ऐतिहासिक स्थितियों का विवरण देते हैं और सामाजिक अवयव के नियंत्रण की वैकल्पिक व्यवस्था प्रस्तावित करते हैं जिसकी जड़ें 'सारवान समानता' में होंगी। भूमिका में मेजारोस की किताब 'बीयांड कैपिटल' को मार्क्सीय आलोचना का फलक चौड़ा करनेवाला कहा गया है क्योंकि इसमें मानव मुक्ति की मजबूत स्त्रीवादी और पर्यावरणिक धारणाओं को पूँजी की सत्ता के निषेध का अविभाज्य घटक बनाया गया है।