आज की कहानी के प्रेरणास्रोत / मोहन राकेश
आज की कहानी कल की कहानी से बदल गयी है, इसमें सन्देह नहीं। यह परिवर्तन कहानी लिखने के ढंग में उतना नहीं है, जितना कहानी की वस्तु में और कहानी के दृष्टि-बिन्दु में। कभी कहानीकार को अद्भुत और मनोरंजक की खोज रहती थी। परन्तु आज प्रश्न खोज का नहीं, पहचान का है-जीवन की ठोस वास्तविकताओं की पहचान का। आज का लेखक जीवन के वैयक्तिक और सामाजिक धरातल को परखकर अपनी कहानी में उसके प्रामाणिक चित्र प्रस्तुत करना चाहता है। यह कहानी के सम्बन्ध में नई दृष्टि है, जिसके कारण कहानी के प्रभाव की दिशा भी बदल गयी है और जिन स्रोतों से हम कहानी लिखने की प्रेरणा लेते हैं, उनका क्षेत्र भी काफ़ी विस्तृत हो गया है। हमारे चारों ओर बिखरे हुए जीवन का हर अणु किन्हीं प्रभावों से चालित हो रहा है। हम उन प्रभावों को पहचान सकें तो हर अणु की अपनी एक कहानी है। हर सजीव और निर्जीव वस्तु एक अच्छी कहानी का विषय हो सकती है। जिस राह पर से दो चरण गुज़र जाते हैं, उस राह के वक्ष पर उन पगचिह्नों से एक कहानी लिखी जाती है। जिस पौधे के दो अंकुर निकलकर हवा में काँपने लगते हैं, उस पौधे का अपना इतिहास बन जाता है और एक कहानी। हर जीवित इन्सान के चेहरे पर एक कहानी लिखी रहती है, जो उसके चेहरे की झुर्रियों में, उसकी आँखों के निमेषों में और उसके माथे की सलवटों में पढ़ी जा सकती है। जीवन में क्या है जिसकी कहानी नहीं है? मेरे घर के दरवाज़े पर जो चिक लगी है, वह उन हाथों की कहानी है, जो धूप में बैठकर उसे रँगते रहे। मेरे फ़र्श पर बिछी हुई दरी शायद एक प्रणय की कहानी हो जो धागों को आपस में उलझाते हुए किन्हीं हृदयों में अंकुरित हो उठी हो। एक व्यक्ति जो रद्दी ख़रीदने के लिए धूप में सडक़ों के चक्कर काटता है, उसके जीवन में सन्ध्या और रात भी आती है, जब वह कुछ निजी लोगों के छोटे-से दायरे में सीमित होकर खिलखिलाकर हँसता है, या माथे पर हाथ रखे हुए लम्बी साँसें लेता है। उसकी चारपाई पर बिछा हुआ मैला बिछावन, उसके लडक़े की फूली हुई आँख, उसकी पत्नी की कोमल मुस्कराहट, उसके रसोईघर की दीवारों पर चढ़ी हुई कालिख और उसकी आनेवाली सुबह और दोपहर शायद कहीं से आया हुआ उसकी बहन का पत्र कि उसके पति ने फिर उसे बुरी तरह पीटा है और कि वह घर छोडक़र उसके पास रहना चाहती है-उसके जीवन के इस अतिसाधारण घटना-विस्तार में एक व्यक्ति के ही नहीं, उसके समय की कहानी बोलती है,जिस कहानी में हर क़दम पर परिस्थिति उलझती है और एक क्लाइमेक्स खड़ा हो जाता है। वह व्यक्ति सडक़ पर चलता है तो एक कहानी बनती है और ख़रीदी हुई रद्दी का बंडल घर लाकर पटकता है तो दूसरी कहानी का आरम्भ हो जाता है।
कई बार हम अख़बारों में पढ़ते हैं कि अमुक प्रसिद्ध लेखक अपने लिए एक नए कथानक की खोज में अमरीका से हवाई द्वीप या सिंगापुर जा रहा है तो बहुत विचित्र-सा लगता है। अपने निजी वातावरण को छोडक़र जिसके साथ उसका घनिष्ठ सम्बन्ध है, वह बाहर के अपरिचित जीवन से कथानक क्यों खोजना चाहता है? जिन लोगों के हर शब्द और हर संकेत से वह परिचित है, उनका जीवन क्या उसे बिल्कुल कथानकहीन प्रतीत होता है? वास्तव में एक लेखक की यह प्रवृत्ति इसी बात का प्रमाण है कि एक ओर तो उसमें अपने जीवन के वातावरण को चित्रित करने का साहस नहीं है और दूसरी ओर वह शायद यह सोचता है कि दूर के लोगों के जीवन का जैसा-कैसा चित्रण कर और अपने पाठकों के सामने कुछ विचित्र और अद्भुत प्रस्तुत करके वह एक 'बेस्ट सेलर' का लेखक होने का श्रेय प्राप्त कर सकता है। परन्तु यह नि:संकोच कहा जा सकता है कि ऐसे प्रयत्न 'क़िस्सा तोता-मैना' लिखने के प्रयत्न का रूपान्तर मात्र हैं। ऐसी रचनाओं में वह ग्राहिता और शक्ति नहीं आ पाती जो यथार्थ की निरायास प्रेरणा से या किसी प्रभावशाली विचार के आग्रह से एक रचना को प्राप्त हो जाती है।
हिन्दी कहानी में यथार्थ की अवतारणा का श्रेय प्रेमचन्द को दिया जाता है। वैसे अपने उदयकाल में ही हिन्दी कहानी को प्रेमचन्द, प्रसाद और गुलेरी जैसे कथाकारों ने ठीक दिशा दे दी, यह बहुत बड़ी बात थी। प्रेमचन्द अपने काल के यथार्थ का बहुत विस्तृत क्षेत्र लेकर चले हैं। उस क्षेत्र के सभी पक्षों से उनका सहज और घनिष्ठ परिचय कई जगह आश्चर्य में डाल देता है। प्रेमचन्द की रचनाओं के गौण चरित्र, जिन पर प्रेमचन्द के आदर्शवाद का आरोप नहीं हुआ,अपनी स्वाभाविकता और प्रामाणिकता की गहरी छाप हृदय पर छोड़ते हैं। उनके द्वन्द्व और संवेद पाठक को अपने ही जीवन का अंग प्रतीत होते हैं। परन्तु प्रेमचन्द ने जिस जीवन-दर्शन को अपने आदर्श के रूप में अपनाया उसका खोखलापन बाद में स्वयं उन पर भी प्रकट हो गया, और उस आदर्श से परिचालित पात्रों में वह विश्वसनीयता नहीं आ पायी जो कील की तरह अन्तर की परतों को चीरती चली जाए। प्रेमचन्द की कहानियों में बहुत से ऐसे स्थल मिलते हैं जहाँ पात्र नहीं परिस्थितियाँ बोलती हैं। 'कफ़न' इसी श्रेणी की कहानी है। परन्तु वहाँ परिस्थिति की अपेक्षा पात्र अधिक मुखर हो जाते हैं, जो जीवन से ध्वनित होना चाहिए, वह किसी की ज़बान से सुनने को मिलता है, वहाँ लेखक और पाठक के बीच एक कोष्ठ रिक्त रह जाता है जिससे यथार्थ की शक्ति क्षीण हो जाती है और रचना का प्रभाव कम हो जाता है।
प्रेमचन्द ने कहानी को एक दिशा दी थी और उनके बाद आने वाले लेखक उस दिशा में और भी बहुत आगे तक जा सकते थे। परन्तु प्रेमचन्द के तुरन्त बाद आनेवाली लेखकों की पीढ़ी ने अपनी दिशा बहुत बदल ली।
यह पीढ़ी नई-नई पाश्चात्य साहित्य के सम्पर्क में आयी थी। उस साहित्य की तब तक की उपलब्धियाँ इस पीढ़ी के लिए आदर्श बन गयीं। कुछ लेखकों ने प्रेमचन्द के शिल्प में त्रुटियाँ देखीं और शिल्प को ही सब कुछ मानकर उस क्षेत्र में विकास को ही सफलता की कसौटी मान लिया। जो अन्यत्र लिखा जा चुका था और बहुत सुन्दर था, उसके स्तर तक पहुँचने का प्रयत्न किन्हीं लेखकों के लिए सबसे बड़ा आकर्षण बन गया। जिस लेखक को आसपास के जीवन की अपेक्षा अपने शेल्फ में रखी हुई पुस्तकें अधिक प्रेरित और अनुप्राणित करती थीं, वह भला प्रेमचन्द के मार्ग पर क्योंकर बढ़ता? परिणामत: इस काल में कहानी की भाषा के परिमार्जन और उसके रूपविधान की ओर अधिक ध्यान दिया गया। इस दिशा में जैनेन्द्र और अज्ञेय की देन का विशेष रूप से उल्लेख किया जा सकता है। परवर्ती कहानीकारों ने जब इन लोगों की लकीर को छोड़ा तो वे भाषा और शिल्प के क्षेत्र में इनके प्रभाव को आत्मसात् किये हुए ही आगे बढ़े।
इस पीढ़ी के प्रमुख लेखकों में यशपाल दूसरों से काफ़ी अलग रहे। उन्होंने मध्यवर्ग के जीवन की विसंगतियों को लेकर उन पर आक्षेप करते हुए कई ज़ोरदार कहानियाँ लिखीं। परन्तु यशपाल का यथार्थ एकांगी यथार्थ था, जिसमें मनुष्य के सौन्दर्य और उसकी उदात्त वृत्तियों को आँख से ओझल रखा गया। यशपाल को नग्नता के चित्रण का बहुत आग्रह रहा, जो कई जगह एक फोबिया-सा प्रतीत होता है। क्या केवल कुत्सित मात्र ही यथार्थ है? क्या उस मध्यवर्ग के जीवन में जो जल्दी-जल्दी अपनी कुंठाओं की केंचुलियाँ तोड़ रहा है, कोई भी उजली रेखा नज़र नहीं आती? जिस मनुष्य से उसकी मनुष्यता का विश्वास ही छीन लिया जाएगा, उसे हम बदल क्योंकर सकेंगे? मध्यवर्ग के जीवन में केवल खोखलापन और आडम्बर ही नहीं है, उसमें भी बहुत कुछ है जो सजीव है और विकाररहित है, और जिसकी रक्षा की जा सकती है। मध्यवर्ग में 'प्रतिष्ठा का बोझ' की सास-बहुएँ ही नहीं हैं, जिनकी एक मात्र समस्या उनकी शारीरिक भूख है, बल्कि वे स्त्रियाँ भी हैं जो धागे बीन-बीनकर अन्धी हो जाती हैं, केवल इसलिए कि अपने बच्चे को दस जमातें पढ़ा सकें। यशपाल के तीखे व्यंग्यों में यदि साथ ही उतनी सहानुभूति मिली रहती तो उनकी रचनाओं का महत्त्व अब से कहीं अधिक हो सकता था।
पिछले दस वर्ष में कहानी-लेखकों की जो नई पीढ़ी आगे आयी है, उसमें जीवन के प्रति ईमानदारी का अधिक प्रबल आग्रह है। इस पीढ़ी के लेखकों ने प्रेमचन्द के सूत्र को पकडक़र उनके मार्ग पर बढऩे का प्रयत्न भी किया है और कई नई पगडंडियाँ भी खोज निकाली हैं। पिछले दस वर्ष में हम सांस्कृतिक और राजनीतिक जीवन के जिस संक्रान्तिकाल में से गुज़रे हैं, उसकी नाना स्थितियाँ इस पीढ़ी की कला के विकास में सहायक भी हुई हैं और बाधक भी। सहायक इसलिए कि निरन्तर बदलते हुए जीवन ने इस पीढ़ी के लेखक की चेतना पर बार-बार चोट की है और उसको अपने वातावरण के प्रति प्रतिक्रियाशील बना दिया है। और बाधक इसलिए कि हिन्दी को प्राप्त हुई मान्यता के कारण रचना की माँग बढ़ जाने से कुछ लेखकों में व्यवसाय-बुद्धि ज़ोर पकड़ गयी और रचना के आन्तरिक मूल्य की अपेक्षा उसकी द्रव्यार्जन-शक्ति अधिक महत्त्वपूर्ण हो उठी। सम्पादकीय दृष्टि भी कुछ जगह द्रव्य-वितरण संस्थाओं के संचालकों की-सी दृष्टि हो उठी। परिणाम यह हुआ कि जहाँ इस पीढ़ी के लेखकों के एक वर्ग ने बहुत ईमानदारी से साहित्यिक मूल्यों के विकास का प्रयत्न किया, वहाँ दूसरा ऐसा भी वर्ग उसके बराबर आ खड़ा हुआ, जिसने केवल लिखने के लिए लिखा और सामान्य पाठक के लिए यह विवेक करना लगभग असम्भव कर दिया कि इन दोनों वर्गों की विभाजक रेखा कहाँ से आरम्भ होती है। इस पीढ़ी के उन लेखकों में जिन्होंने कहानी के स्वरूप का वास्तव में परिमार्जन और परिष्कार किया है और उसे जीवन की भूमि के अधिक निकट ला दिया है, हम चन्द्रकिरण सौनरिक्सा, भीष्म साहनी, धर्मवीर भारती, राजेन्द्र यादव, मोहन चोपड़ा, कमल जोशी, कमलेश्वर, मार्कण्डेय और अमरकान्त आदि का उल्लेख कर सकते हैं। इनके अतिरिक्त और भी कई नाम लिये जा सकते हैं, परन्तु नाम-परिगणना हमारा उद्देश्य नहीं है। कहानी लेखकों की यह पीढ़ी कहानी के लिए निरन्तर नए-नए धरातल खोज रही है और इस नाते निरन्तर प्रयोगशील भी है, यद्यपि कविता की तरह यह प्रयोगशीलता शिल्पगत प्रयोगशीलता ही नहीं है। इस पीढ़ी के लेखक अपने को छोटे-मोटे व्यावसायिक आकर्षणों से बचाए रख सकें तो नि:सन्देह वे अभी बहुत कुछ कर सकते हैं।
आज नई पीढ़ी का लेखक जीवन के यथार्थ से या किन्हीं निश्चित विचारों से प्रेरणा लेकर ही चल रहा है। आज के प्रयोगों का क्षेत्र वह ग्रामीण जीवन भी है, जो धीरे-धीरे कुछ नए प्रभावों को आत्मसात् कर रहा है और जहाँ की परिस्थितियाँ और समस्याएँ प्रेमचन्द के समय से काफ़ी बदल गयी हैं, और वह नागरिक जीवन भी जो स्वयं अपनी ही खड़ी की हुई उलझनों से परेशान है और जिसमें द्वन्द्वों और प्रतिद्वन्द्वों की अनेकानेक धाराएँ फूटती रहती हैं। यदि सतह से देखा जाए तो भले ही वह जीवन शिथिल और गतिहीन प्रतीत हो, परन्तु बारीक निगाह से देखने पर शायद उसमें इतनी हलचल देखी जा सकती है, जितनी पहले कभी नहीं रही। इसका कारण है राजनीतिक और आर्थिक परिस्थितियाँ और उनके साथ सम्बद्ध मूल्यों का जल्दी-जल्दी बदलना। जिस काल में परिस्थितियाँ हर तीन-चार वर्ष में जीवन को एक झटका दे जाती हों और एक साधारण सामाजिक व्यक्ति किसी निश्चित सूत्र को पकडक़र अपना सन्तुलन बनाये रखने में असमर्थ हो गया हो, जबकि व्यक्ति की योग्यता और जीवन में उसकी उपलब्धि का सम्बन्ध टूट गया हो, जबकि हर एक की भविष्य की खोज अन्धी गली में हाथ मारने की तरह हो, उस समय को छोडक़र एक लेखक के अध्ययन और चित्रण के लिए उपयुक्त और कौन समय हो सकता है? वास्तव में जीवन की संकुलता आज के कहानीकार के लिए एक चुनौती है। वह उस चुनौती को स्वीकार करे और इस पंकिल जीवन की गहराई में डुबकी लगाने का साहस करे तो वह रोम्या रोलाँ के 'मार्केट प्लेस' जैसी रचना प्रस्तुत कर सकता है, या उससे भी कहीं अधिक बारीक रेखाएँ उघाडक़र रख सकता है, क्योंकि बीते हुए कल की साहित्यिक उपलब्धियाँ आज के लेखक के लिए आदर्श नहीं बल्कि आरम्भ का संकेत होती हैं। यह वह स्थान है जहाँ से उसकी दौड़ का श्रीगणेश होता है।
हमें यह खेद के साथ स्वीकार करना होगा कि जीवन के यथार्थ से प्रेरणा ग्रहण करते हुए भी हमारी आज की पीढ़ी उस यथार्थ के साथ पूरा न्याय नहीं कर सकी। बंगाल के अकाल से लेकर आज तक जीवन में इतने महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं कि उनकी प्रेरणा कितनी ही अमूल्य कृतियों को जन्म दे सकती थी। परन्तु हमारी इस पीढ़ी ने यथार्थ के अपेक्षाकृत ठहरे हुए अर्थात् पारिवारिक रूप को अपनी रचनाओं में अधिक स्थान दिया है और निरन्तर कुलबुलाते और संघर्ष करते हुए उसके सामाजिक पाश्र्व की ओर कम ध्यान दिया है। यदि हम इस पीढ़ी के सामूहिक कृतित्व को सामने रख लें, तो यह स्पष्ट प्रतीत होगा कि हमारे समय का एक बहुत व्यापक भाग अछूता रहा जा रहा है जिसकी पहचान और पकड़ हमारे लेखकीय दायित्व का अंग है।