आज की रात नींद नहीं आएगी / जयप्रकाश चौकसे

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आज की रात नींद नहीं आएगी /
प्रकाशन तिथि : 09 अप्रैल 2014


आज की रात नींद नहीं आएगी, सुना है तेरी महफिल में रतजगा है'- ये गीत गुरुदत्त की 'साहब बीबी गुलाम' में पतनोन्मुख जमींदार के जलसाघर में मीनू मुमताज और सखियों पर फिल्माया गया है। शूटिंग के समय डांसर यूनियन से भेजी गई सारी सखियां अत्यंत कुरूप चेहरे वाली थी परंतु निरंतर नृत्य के कारण कमर में लोच और पैरों में चपलता थी। गुरुदत्त कुरूप शक्लों के कारण शूटिंग नहीं करना चाहते थे परंतु उनके कैमरामैन वीके मूर्थि ने कहा कि वे इस ढंग का प्रकाश-छाया संयोजन करेंगे कि मीनू मुमताज रोशनी में होंगी परंतु 'सखियों' की सिर्फ कमर पर प्रकाश होगा और चेहरा अंधेरा का हिस्सा बन जाएगा। फिल्म प्रदर्शन पर एक समीक्षक ने लिखा कि सामंतवादी समाज में औरतों के चेहरे नहीं के समान होते हैं गोयाकि उनके अपने व्यक्तित्व का कोई महत्व नहीं होता। यह वीके मूर्थि का कमाल है इस तरह का अर्थ किसी समीक्षक को दिखा जबकि फिल्मकार की तो मजबूरी थी। दरअसल साहित्य और सिनेमा समीक्षकों के इंटरप्रेटेशन से समृद्ध होते हैं। उसी महान कैमरामैन की 90 वर्ष की आयु में सोमवार रात बंगलुरू में मृत्यु हो गई। आज की रात सिने प्रेमियों को नींद नहीं आएगी।

फिल्म इतिहास के प्रथम पचास वर्षों में भारत में कोई शिक्षा संस्थान फिल्म विधा के लिए नहीं था और लोगों ने गलतियां करके, अपने को सुधारकर इस विधा को साधा था। उस जमाने में सहायक कैमरामैन वर्षों सहायक रहते और उनकी लगन तथा योग्यता देखकर उन्हें अवसर मिलता था। इसी गुरू शिष्य परम्परा ने हमें तकनीशियन दिए और वीके मूर्थि भी जाल मिस्त्री के सहायक रहे और बाद में देवआनंद के कैमरामैन वी रात्रा के सहायक रहे जहां उनकी मुलाकात गुरुदत्त से हुई। गुरु शिष्य परम्परा के उस दौर में, बिना किसी संस्थान में गए अनेक प्रतिभाशाली कैमरामैन हमें मिले। उस दौर के राधू करमरकर, फरदून ईरानी इत्यादि इसी परम्परा से आए है। पूना संस्थान से हमें गोविंदा निहलानी मिले परंतु भारतीय सिनेमा के फोटोग्राफी के इतिहास में सारे महान कैमरामैन इसी गुरु शिष्य परम्परा से आए थे। इसका यह अर्थ नहीं है कि विधिवत सिखाने वाले संस्थान नहीं होने चाहिए। आज तो टेक्नोलॉजी ने इस क्षेत्र में कमाल कर दिया है परंतु श्याम-श्वेत फिल्मों के उस दौर में विलक्षण कैमरामैन हुए हैं। जब के आसिफ के कांच महल की शूटिंग विदेशी कैमरामैन नहीं कर पाए तब आरडी माथुर ने चादरों द्वारा प्रकाश को रिफ्लेक्ट करके वह काम कर दिखाया।

अपनी एक क्राइम आधारित फिल्म में लाइटिंग में समय लगा रहे मूर्थि को गुरुदत्त ने वचन दिया कि एक दिन वे ऐसी फिल्म बनाएंगे जिसका श्रेय कैमरामैन को दिया जाएगा और कुछ वर्षों पश्चात उन्होंने 'कागज के फूल' बनाई जो भारत की पहली सिनेमास्कोप फिल्म है और इसी फिल्म के मध्यांतर में शम्मीकपूर ने वीके मूर्थि को फिल्म का 'नायक' कहा।

आज की रात वहीदा रहमान को भी नींद नहीं आएगी। उन्हें 'प्यासा' में वीके मूर्थि ने इतने कलात्मक ढंग से फोटोग्राफ किया कि पूरा देश मंत्रमुग्ध हो गया। 'प्यासा' के क्लाइमैक्स में सभाग्रह के द्वार पर नायक खड़ा है और पीछे से प्रकाश आ रहा है। क्राइस्ट के सूली पर चढ़ाए जाने का प्रभाव गुरुदत्त और मूर्थि के सहयोग से संभव हो पाया। दरअसल फोटोग्राफर को तकनीकी ज्ञान के साथ साहित्य-बोध होना आवश्यक है, उसे पात्रों की मन: स्थिति की पूरी समझ होना चाहिए और संवेदना का संप्रेषण कैसे प्रभावोत्पादक ढंग से होना चाहिए इसका शिद्दत से अहसास होना चाहिए। मात्र कैमरा संचालन कोई भी कर सकता है परंतु फ्रेम की सार्थकता कैमरामैन और निर्देशक की आपसी समझदारी पर निर्भर करता है। यही कारण है कि जब वीके मूर्थि ने गुरुदत्त की असमय हुई मृत्यु के बाद कुछ फिल्में की तो उनमें वह पहले वाली बात नहीं थी। उपकरण सभी वही थे परंतु वह दृष्टा साथ में नहीं था। इसी तरह राधू करमरकर ने आरके के बाहर 'संन्यासी' इत्यादि अनेक फिल्में शूट कीं परंतु राजकपूर के साथ उनका काम अंतरराष्ट्रीय स्तर का था।

फिल्म समीक्षक हेमचंद्र पहारे की राय है कि कलर फिल्म देखने से आंख को सकून और दिल को खुशी नहीं मिलती परंतु श्याम-श्वेत फिल्में देखने से आंख अपेक्षाकृत कम दुखती है। दरअसल श्याम-श्वेत फिल्मों में रात के दृश्य करना आसान नहीं था और 'फील्ड में गहराई' लाना और भी अधिक कठिन था। वीके मूर्थि तो एक चित्रकार थे और प्रकाश तथा छाया उनके ब्रश थे और कैमरा उनका सृजनशील दिमाग में था। अब आज की रात भला कसे नींद आएगी, वह चितेरा ही चला गया। मनुष्य के अवचेतन के भाव उसके ही शरीर के किसी भाग में एक छोटी खिड़की देख लेते हैं जिसमें उनकी झलक दिखाई देती है, एक अच्छा कैमरामैन इस खिड़की की ही तलाश करता है।