आज की विदा का मरकर भी रहता इंतजार / जयप्रकाश चौकसे

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आज की विदा का मरकर भी रहता इंतजार
प्रकाशन तिथि :27 नवम्बर 2015


आजकल प्राय: अखबारों के दो मुखपृष्ठ होते हैं एक में विज्ञापन और दूसरा खबरों का पहला पृष्ठ होता हैं। कई पत्रिकाओं के भी दो कवर देखने में आते हैं। इसी तर्ज पर आज दो खबरों पर बात। पहली खबर, 'फिराक' महान फिल्म के सात वर्ष पश्चात नंदिता दास अपनी दूसरी फिल्म प्रसिद्ध लेखक सआदत हसन मंटो के जीवन से प्रेरित इरफान अभिनीत फिल्म बनाने जा रही हैं। मंटो की कहानियों पर अश्लीलता का मुकदमा उसी दौर में चला था, जब इस्मत चुगताई की कहानी 'लिहाफ' पर मुकदमा कायम हुआ था। इत्तफाक देखिए कि लिहाफ से प्रेरित 'फायर' में नंदिता दास ने अभिनय किया था। विगत दो सदियों में इस तरह के सभी मुकदमों में सृजन करने वाले निर्दोष पाए गए। राजा रवि वर्मा की पेंन्टिग्स पर हुकूमते बरतानियां ने मुकदमा कायम किया था पर अदालत को उनमें कुछ भी अश्लील नज़र नहीं आया। जेम्स जॉयस की 'यूलिसिस' पर 1933 में चले मुकदमे में जस्टिस वूल्ज़े के महान फैसले को एक महत्वपूर्ण दस्तावेज माना जाता है और उससे प्रेरित कुछ उपन्यास भी प्रकाशित हुए हैं, जिनमें इरविंग वैलेस का 'सेवन मिनिट्स' बहुत लोकप्रिय हुआ। जस्टिस वूल्जे के फैसले में दो महत्वपूर्ण बाते थीं। पहली तो यह कि किसी भी कृति के समग्र प्रभाव के आधार पर निर्णय किया जाएं, न कि उसके एक छोटे से हिस्से पर आपत्ति उठाई जाएं। दूसरी बात यह कि जज को अश्लीलता के आरोप वाली किताब दो बार पढ़नी चाहिए। पहली बार स्वयं को सामान्य नागरिक की दिमागी हालत में रखकर पढ़ें और महसूस करें। इसी तरह कैमरे पर आपत्ति वही व्यक्ति उठा सकता है, जिसने धन खर्च करके टिकिट खरीदा हो और उस नृत्य से वह आहत हुआ हो।

यह हमारी मौजूदा सामााजिक हालात पर भी लागू होता है कि किसके किस बयान से कौन आहत हुआ है और वह आम आदमी है या किसी राजनैतिक विचारधारा से जुड़ा है। उसने कोई 'टिकिट' खरीदा है? अब आमिर पर यह आरोप कि उन्हें भारत ने बहुत धन दिया है जबकि उन्होंने अपनी प्रतिभा और मेहनत से धन कमाया है। अधिकांश उद्योगपतियों के परिवार का कोई सदस्य आप्रवासी भारतीय होने की हैसियत हासिल करता है। उससे कभी प्रश्न नहीं पूछा जाता है कि वह भारत को प्यार करता है तो अन्य देश में बसने की हैसियत का प्रमाण-पत्र क्यों हासिल किया है? मंटो के पास एक्स-रे की क्षमता वाली दृष्टि थी, वह 'टाट के परदों' के परे देख सकता था और समाज के मवाद पर बंद खिड़कियों को 'खोल दे' सकता था। वह 'ठंडे गोश्त' में मजबूरी की घुटती आवाज भी सुन लेता था। हम नंदिता दास की 'फ़िराक' से ही उसकी निर्देशकीय योग्यता, कला बोध, सौंदर्य बोध की गहनता को जान गए है, अत: उनकी मंटो फिल्म से एक 'क्लासिक' की आशा रखते हैं और इरफान खान का जुड़ना तो सोने पर सुहागा है परंतु नंदिता दास को यह ध्यान रखना होगा कि मंटो के दौर की संकीर्णता से आज के दौर की संकीर्णता बहुत अधिक गुना बढ़ गई है और किस्म-किस्म के 'संसर' से वे फिल्म को कैसे बचा पाएंगी?

दूसरी घोषणा कमल हासन और श्रीदेवी अभिनीत 'सदमा' को दोबारा बनाने के प्रयास हैं। 'सदमा' में नायक से एक दिमागी खलल से पीड़ित कन्या टकरा जाती है। वह पूरे मनोयोग व निष्ठा से उसकी सेवा करता है। वे एक-दूसरे को प्रेम करने लगते हैं और प्रेम नामक करिश्माई दवा से नायक लड़की को उसके दिमाग के 'कैमिकल लोचे' से मुक्त कर लेता है परंतु अब कन्या नायक को भूल जाती है और उसके रिश्तेदार उसे लेने आ जाते हैं। क्लाइमैक्स का दृश्य रेल्वे स्टेशन पर है। ट्रेन धीमी गति से चल रही है और खिड़की के पास बैठी कन्या को नायक अजीबोगरीब हरकतों से बीते दिन याद कराने का प्रयास करता है। इस दृश्य में कमल हासन ने कमाल का अभिनय किया है। यह कैसी त्रासद बिदा है? इसके विपरीत बिमल रॉय की 'बंदिनी' के क्लाइमैक्स में नायिका एक सुखद जीवन को अस्वीकार कर अपने प्रथम प्रेम के पास जाती है जो अब उम्रदराज भी है और इतना बीमार है कि मृत्यु की सांसें अपनी गर्दन पर महसूस कर सकता है। वह एक युवा बलवान व्यक्ति के प्रेम निवेदन को ठुकरा मृत्यु के समीप खड़े प्रथम प्रेम के पास जाना पसंद करती है और इस दृश्य केपार्श्वगीत को स्वयं सचिन देव बर्मन ने गाया है और धन्य है शैलन्द्र जिन्होंने यह पंक्ति लिखी है 'मुझे आज की विदा का मरकर भी रहता इंतजार'।