आज की हिन्दी कविता: कुछ प्रभाव / प्रताप सहगल
कविता कि अविरल धारा को दशकों में बाँटकर देखना मुमकिन नहीं है। फिर भी हम सुविधा के लिए ऐसा करते हैं। यह भी सही है कि कविता के सरोकारों में बल का बदल होता रहता है, पर अंततः कविता-कर्म का धर्म आदमी को आनंद देते हुए संस्कारित करना ही है। वह परेशान भी करती है तो भी किसी बदलाव के लिए हमें तैयार करती है। यह बदलाव प्रेय से श्रेय की ओर न हो, मम से जन की ओर न हो तो कविता कि भूमिका अधूरी रह जाती है। यह मानते हुए भी कि कविता अपनी चित्ति में ही कहीं आत्मनिष्ठ होती है, वस्तुनिष्ठता को आमूल ख़ारिज़ नहीं कर सकती। संभवतः यही वह संतुलन बिंदु है जिसे साधने के लिए हर कवि काव्य-कर्म में रत रहता है।
हिंदी में पचास के बाद कविता में जो तेज़ी से बदलाव आए हैं, वही हमें कविता के पीछे त्वरित रूप से बदलने वाली वैचारिकता को समझने के लिए प्रेरित करते हैं। राष्ट्रसंघ द्वारा घोषित मानव-मूल्यों से जुड़ाव एवं पश्चिमी काव्यांदोलनों के प्रभाव से हिन्दी कविता चालीस के बाद ही तेज़ी से बदलने लगी थी। फिर नेहरू-युग में समाजवादी चिंतन को कविता ने आत्मसात किया। समाजवादी चिंतन के साथ मार्क्सवादी चिंतन के प्रभाव में हिन्दी कविता को सामाजिक क्रांति का एक हथियार बनाकर पेश करने की कोशिशें भी हुईं। यहीं पर सबसे बड़ी भूल हुई। कवियों की पहली चिंता कविता न रहकर वैचारिकता या दार्शनिकता हो गई। इसी के साथ दूसरे काव्यांदोलन भी पनपे। वे या को आवेगजन्य कविता को तरजीह देते रहे या फिर विचारजन्य कविता को। आवेग तो आवेश में और विचार को विचारवाद या विचारधारा में बदलते देर नहीं लगी। जहाँ भी अनुभव-जन्य आवेग या विचार, कविता में रम सके, कविता बची रही। पर आवेग, विचार एवं दर्शन के अतिरिक्त आग्रह ने कविता को एक जकड़ में ले लिया, जिससे अहित कविता का ही हुआ।
कविता क्रांति नहीं कर सकती। इस बात का एहसास प्रगतिशील कवियों को बहुत देर बाद हुआ। पर जो भी हो, यह तो मानना ही पड़ेगा कि कविता क्रांति भले ही न कर पाती हो, उसकी एक प्रतिरोधी भूमिका ज़रूर होती है। व्यक्ति को संस्कारित करते हुए कविता कि प्रतिरोधी भूमिका बहुत मूल्यवान वस्तु है। तरह-तरह की जकड़नों से हिन्दी कविता यों तो 70 के बाद से ही मुक्त होनी शुरू हो गई थी, पर कविता कि निरर्थकता का एहसास अधिकांश कवियों को सन् 74 में हो गया था। आपातकाल के दौर में अन्य कलाओं की तरह से कविता में भी एक सन्नाटा था। हाँ इस सन्नाटे को भी एक भाषा या एक लंबी कविता मान लिया जाए तो बात दूसरी है।
बहरहाल कविता के खुलने का दौर रुका नहीं। पिछले पंद्रह-बीस सालों और ख़ास-तौर पर नवें दशक में हिन्दी कविता ने स्वयं को तरह-तरह की जकड़बंदियों से मुक्त किया है। इस दौर के कवियों ने किसी राजनीतिक दल का भोंपू बनने से इंकार किया तो दूसरी ओर कविता के लिए ऐसी भाषा का आविष्कार किया, जिसमें वैचारिक संतुलन तो हो, पर आवेग-जन्य शैथिल्य न हो। ऐसी भाषा जो आम आदमी के इर्द-गिर्द घूमती हो। बोलचाल की भाषा। बाज़ार की भाषा। किताबों और अख़बारी भाषा से कविता ने परहेज़ किया। यह काम आसान नहीं था। पर ऐसा हुआ। बहुत सामान्य-सी लगने वाली भाषा में नए प्रतीकों की खेाज हुई। उनका इस्तेमाल भी हुआ। बिंब रचने की प्रक्रिया भी बदली। छायावादी सघन बिंबों या बाद की कविता के उलझे एवं अस्पष्ट बिंबों की जगह सहज और बिखरे हुए बिंब कविता में आने लगे। यह कविता के बदलने की एक दिशा थी।
इससे भी महत्तवपूर्ण बात जो पिछले दशक की कविता में हुई, वह यह कि कविता के लिए कच्चा माल जुटाने के पीछे की दृष्टि बदली है। ऐसा नहीं कि ऐसे विषयों को 'वस्तु' के रूप में पहले कभी हिन्दी कविता ने इस्तेमाल ही नहीं किया था। ज़रूर किया था, पर इधर की कविता में यह केंद्र में आ गए। माँ, बच्चा, लड़की, औरत, पिता आदि सम्बंधों को केंद्र में रखकर हिन्दी में इससे पहले इतना काव्य-सृजन कभी नहीं हुआ, जितना कि पिछले दशक में। इसके साथ जुड़ा हुआ जो ख़तरा था, वह भी सामने आया। फूल, चिड़िया, पत्ती जब कविता में बहुत आने लगे तो यह प्रतीक विशिष्ट प्रतीक न बनकर सामान्य प्रतीक बन गए और मज़ाक के केंद्र भी। ऐसा अक्सर होता है कि किन्हीं दो-चार कविताओं की अतिरिक्त चर्चा, सम्मान पुरस्कार आदि उसी तरह की अनेक कविताओं को जन्म देती हैं। यह कविताएँ कवि के अपने संवेदन से कम, बाहरी दबाव के कारण अधिक लिखी जाती हैं। संवेदन के अभाव में शब्दों का एक पिरामिड तो हमारे सामने आ जाता है, पर कविता नहीं। इसी दौर में आँख खोल रही पीढ़ी जल्दी ही इन शब्दों को एक क्लिशे के रूप में स्वीकार कर लेती है और वैसी ही कविताएँ लिखने लगती है। ऐसा ही इधर के कुछ युवा कवियों में नज़र आ रहा है। इसी तरह से पिछले 10-15 वर्षों की कविता में धर्म पर और धर्म के बहाने सांप्रदायिकता पर गहरी चोटें हुई हैं। यह कविता राम, कृष्ण आदि को धार्मिक प्रतीकों के रूप में भी ख़ारिज़ करती लगती है और उन्हें सामान्य मनुष्य के स्तर पर ही प्रतिष्ठित करना चाहती है। दलित, पिछड़े लोगों, बंधुआ, जाति-गत भेद-भाव आदि भी कविता का विषय बने हैं। मज़दूर भी विषय है, पर उसके प्रति कवि का दृष्टिकोण बदला है। वह मज़दूर को केवल शोषित के रूप में ही न देखकर उसके अंदर भी शोषण करने वाले मन को पकड़ता है। यानी कविता में दया कि गुंजाइश ख़त्म हुई है। भक्ति के स्थान पर करुणा रखकर कुछ कविताओं की व्याख्या करने की पेशकश भी इधर हुई है। पर भक्ति और करुणा दोनों ही शब्द इतने रूढ़ हैं कि इन औज़ारों से आज की कविता को समझ लेने की कोशिश सही नहीं लगती।
इधर की कवयित्रियों ने नारी को नए सिरे से समझने की कोशिश की है। इस समझ की अनुगूँज इस दौर की कविताओं से मिलने लगी है। अपने बेटे को लेकर, अपने पति को लेकर, पुरुष समाज को लेकर या पिता को लेकर अनेक अच्छी-अच्छी कविताएँ हिन्दी में लिखी गई हैं। लिखी जा रही हैं। यहाँ परिवर्तन अनुभव-जन्य है और मूल्य-गत भी। सारी की सारी सोच को उलटकर भी देखा जा सकता है, ऐसा एहसास दिलाती हैं यह कविताएँ।
जैसा कि पहले कहा इस दौर की कविता को मुक्ति-दौर की कविता कहा जाना चाहिए। इसमें कहीं संभ्रम की स्थिति भी हो तो यह स्थिति जकड़न की स्थिति से बेहतर है। जबकि ऐसी स्थिति है नहीं। आज की कविता अपेक्षाकृत अधिक मैच्योर है। फिर भी आज की कविताओं में भी अपनी तमाम विविधता के बावजूद हर दौर की तरह से आई एकरसता से भी बिल्कुल इंकार नहीं किया जा सकता। न केवल वस्तुगत एप्रोच के स्तर पर अपितु अभिव्यक्ति के तरीकों के स्तर पर हिन्दी कविता पिछले दशक में बहुत बदली है। कुछ नई विधाएँ भी आई हैं, जिन पर विचार करना ज़रूरी लगता है।
छंदबद्ध, गीत, नवगीत आदि से हिन्दी कविता गुजरी है। नवगीत अपनी जगह पर पहुँचकर स्थिर हो गया। नवगीत कम लिखे जा रहे हैं, पर इधर हिन्दी में जिस विधा ने सबसे ज़्यादा ज़ोर पकड़ा है, वह है ग़ज़ल। हिन्दी में एक नई विधा है, उर्दू के अनेक विद्वान जब ग़ज़ल को ख़ारिज़ कर रहे थे, तब हिन्दी में ग़ज़ल का प्रवेश हो रहा था। दुष्यंत कुमार से शुरू होकर ग़ज़ल ने एक लंबा रास्ता तय किया है और अब हिन्दी की ग़ज़ल ने न केवल अपना मुहावरा अर्जित किया, बल्कि दूसरी भाषाओं में भी कवियों को ग़ज़ल कहने को प्रेरित किया है। हिन्दी ग़ज़ल के विषय का चुनाव उर्दू ग़जल की तरह से सागर, मीना, साकी, शमा और परवाने तक नहीं रहा, बल्कि मज़लूम और पिछड़े, हारे और टूटे हुए लोग भी हिन्दी ग़ज़ल का विषय बने हैं। राजनीति, धर्म, सामाजिक आडंबर के हर कमज़ोर बिंदु पर तेज़ चोट की हैं। अब तो यह भी कहा जाने लगा है कि हिन्दी ग़ज़ल उर्दू ग़ज़ल को प्रभावित कर रही है कि वहाँ भी इसी तरह के विषय ग़ज़ल में आने लगे हैं।
एक और काव्य-विधा जो इस दौर में तेज़ी से विकसित हुई, वह है लंबी कविता। लंबी कविता पर हुई बहसों से यह नतीजा निकालना मुश्किल है कि लंबी कविता प्रबंधकाव्य के विकल्प के रूप में आई या इसका विकास अपने परिवेश के दबावों के कारण हुआ है। वस्तुतः कोई विधा किसी का विकल्प हो नहीं सकती। भले ही मन के किसी गह्वर में ऐसे कारण हों, जो हमारी पकड़ में पूरी तरह से न आ सकें, पर परिवेशगत सच्चाइयों को नकारा नहीं जा सकता।
अनेक कवियों के पास कहने को कुछ था, जो वे अपनी दूसरी कविताओं में संभवतः बाँध नहीं पा रहे थे, तो लंबी कविता एक सशक्त विधा के रूप में उभरकर सामने आई। यहाँ भी देखादेखी अनेक कवियों ने लंबी कविताएँ लिखीं पर वह सिर्फ़ रस्म अदायगी ही लगती है। वस्तुतः एक न टाल सकने वाली ज़रूरत के रूप में जिन कवियों ने लंबी कविता को एक विधा के रूप में विकसित किया है, वहाँ कविताएँ महत्तवपूर्ण बन पड़ी हैं।
यों छोटी कविता, लघु कविता या क्षणिका नाम से भी काव्य-लेखन हुआ, इनमें से भी अनेक छोटी कविताएँ बहुत मारक और असरदार हैं, पर इन कविताओं के सहारे कोई कवि-व्यक्तित्व अभी तक खड़ा नहीं हुआ। कुछ पुराने छंदों का नया प्रयोग करने की इच्छा भी जगी है। दोहे लिखे जा रहे हैं या ब्रजभाषा में कविता लिखी जा रही है, पर यह प्रयास इतने छितरे-छितरे हैं कि कोई समग्र चेहरा सामने नहीं आता।
हिंदी कविता का चेहरा आज खुला चेहरा है। मीडिया के दबावों के तमाम शोर के बावजूद हिन्दी कवियों की जमात कोई कम नहीं हुई। कविता में यह विश्वास और आस्था ही इस बात का सबूत है कि कविता कभी मरने वाली नहीं और आने वाले समय में कविता मीडिया पर भी हावी होगी।
यह आलेख लिखते हुए प्रमुख रूप से जो कवि मेरे ज़हन में रहे वे हैं-अज्ञेय, मुक्तिबोध, नागार्जुन, रघुवीर सहाय, श्रीकांत वर्मा, रामदरश मिश्र, जगदीश चतुर्वेदी, ललित शुक्ल, नरेंद्र मोहन, मंगलेश डबराल, गगन गिल, शशि सहगल, कुमार विकल, इंदु जैन, मनोज सोनकर, सुखबीर सिंह, दुष्यंत कुमार, अदम गोंडवी, ज्ञान प्रकाश विवेक आदि।